Tuesday, September 17, 2024
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संपादकीय – आख़िर नारी इतनी विवश क्यों है?

पिछले तीन सप्ताह से कोलकाता में एक युवा ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार एवं हत्या ने पूरे भारत को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है। हर टीवी चैनल, राजनीतिज्ञ, विशेषज्ञ इसी विषय पर बोल रहे हैं, सोच रहे हैं। ममता बनर्जी सभी के निशाने पर हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट स्थिति पर ध्यान रखे हुए हैं। ऐसे में एक ऐसी ख़बर ठीक वैसे ही दबी, कुचली सी महसूस कर रही है जैसे कि भारत में नारी महसूस करती है। 
मलयालम फ़िल्म इंडस्ट्री काफ़ी अरसे से महिला कलाकारों एवं कर्मियों की स्थिति को लेकर विवाद के घेरे में घिरी हुई है। वहां इस समय उथल-पुथल का सा माहौल है। जस्टिस हेमा के नेतृत्व में गठित आयोग की रिपोर्ट जारी होने के बाद एक हंगामा सा बरपा पड़ा है। मी-2 का जो सिलसिला कभी मुंबई की हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़ी हस्तियों को शर्मिंदा कर रहा था, वही आज मलयालम सिनेमा उद्योग को आईना दिखा रहा है।
पुरवाई पत्रिका बॉलीवुड, टॉलीवुड या मॉलीवुड जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करती है। हमारा मानना है कि न तो हम हॉलीवुड की नकल हैं और न ही ऐसा महसूस करना चाहते हैं। हम अपने देश में हिन्दी, मलयाली, कन्नड़, बांग्ला फ़िल्म उद्योग का सम्मानजनक ढंग से ही नाम लेना पसंद करते हैं। 
वैसे तो हर ग्लैमर इंडस्ट्री में नारी-शोषण को जैसे स्वीकार कर ही लिया गया है। मान लिया जाता है कि वहां तो ऐसा होता ही है। कास्टिंग काउच जैसी प्रक्रिया के बारे में सब लोग इस तरह आराम से बात कर लेते हैं जैसे इससे किसी महिला के सम्मान को ठेस पहुंचने जैसी कोई बात ही नहीं। 
मलयालम फ़िल्म इंडस्ट्री में वैसे तो यह दशकों से होता आ रहा होगा मगर वर्ष 2017 में जो घटना घटित हुई उसने जैसे सब को नींद से जगाने का काम किया। घटना कुछ यूं हुई कि एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री कार से कोची जा रही थी, जब उसकी कार को पीछे से एक टैंकर ने टक्कर मारी। अचानक पांच छः लोग उसकी कार को खोल कर भीतर आ गये। अभिनेत्री ने उनमें से एक को पहचान लिया और पूछा कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो। उसने बताया कि उन्हें क्वोटेशन दी गई है ताकि वे उसके साथ सेक्स का वीडियो बना कर देने वाले को पहुंचा सकें। कार में चार लोगों ने अभिनेत्री का यौन शोषण किया और उसका वीडियो बनाया गया।  
यहां पुरवाई के पाठकों के लिये यह जान लेना आवश्यक है कि केरल में सुपारी देने को क्वोटेशन देना कहा जाता है। इस अभिनेत्री ने अपने पहचान वाले से पूछा भी कि यह क्वोटेशन दी किस ने है। मगर सामने वाले ने जवाब दिया कि वह इस राज़ पर से पर्दा नहीं हटा सकता। 
मगर इस अभिनेत्री ने हिम्मत से काम लिया और जाकर पुलिस स्टेशन में दुर्घटना की एफ़. आई. आर. लिखवा दी। इल्ज़ाम सीधे-सीधे बड़े सितारे दिलीप पर लगाया गया। मगर कुछ समय बाद कार में हमला करने वाले और स्टार दिलीप की ज़मानत हो गई।  
एक यूट्यूब चैनल को दिए इंटरव्यू में अभिनेत्री ने कहा था, ”मैं अपना सम्मान वापस पाने के लिए लड़ूंगी। मैं अब तक खुद को जिम्मेदार ठहरा रही थी। मैं जब भी उस घटना और इसके बाद जो कुछ हुआ, उसके बारे में सोचती हूं तो मेरा दम घुटता है। मुझे ऐसा महसूस करवाया जाता है कि मेरे साथ जो हुआ, जैसे वह मेरी ही गलती थी। मैं पूरी तरह टूट गई थी। लेकिन मैंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया है। साल 2020 में मैं 15 बार कोर्ट रूम में गई। सुबह से शाम तक वकीलों ने कई सवाल किए… हर बार खुद को बेकसूर साबित करना पड़ा.”
इस वारदात के बाद मलयालम सिनेमा में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर ख़ासा आक्रोश फैल गया। आंदोलन काफ़ी तेज़ होने लगे। इसे देखते हुए मुख्यमंत्री ने अवकाश प्राप्त जस्टिस हेमा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया।
जानी-मानी अभिनेत्रियों से लेकर जूनियर कलाकारों तक, कम से कम 80 महिलाओं की गुमनाम गवाही दर्ज करने के बाद हेमा आयोग ने रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। रिपोर्ट में कहा गया है कि महिला कलाकारों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिसमें फिल्म उद्योग में नशे में धुत व्यक्तियों द्वारा उनके कमरों के दरवाजे खटखटाने की घटनाएं भी शामिल हैं। इसमें कहा गया है कि यौन उत्पीड़न की शिकार कई महिलाएं डर के कारण पुलिस में शिकायत करने से कतराती हैं। 
रिपोर्ट के अनुसार, जो महिला कलाकार समझौता करने के लिए तैयार होती हैं, उन्हें कोड नाम दे दिए जाते हैं और जो समझौता करने के लिए तैयार नहीं होतीं, उन्हें काम नहीं दिया जाता है। सिनेमा में अभिनय या कोई अन्य काम करने का प्रस्ताव महिलाओं को यौन संबंधों की मांग के साथ दिया जाता है। महिलाओं से समझौता करने के लिए कहा जाता है, जिसके तहत उनसे यौन संबंध बनाने की मांग की जाती है। पिनाराई विजयन की सरकार ने आरोपों की जांच के लिए वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का सात सदस्यीय पैनल बनाया।  
रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद मलयालम फ़िल्म जगत में मची हलचल के कारण स्थानीय सिनेमा के बड़े स्टार मोहनलाल ने एसोसिएशन ऑफ़ मलयालम मूवी आर्टिस्ट के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद संस्था के सारे पदाधिकारियों ने भी त्यागपत्र दे दिया। इन त्यागपत्रों के बाद एसोसिएशन को ही भंग कर दिया गया।
मी-टू के आरोप-प्रत्यारोप के बीच बंगाली अभिनेत्री श्रीलेखा मित्रा ने मलयाली सिनेमा के एक जाने-माने निर्देशक रंजीत पर आरोप लगाए हैं। उनका आरोप है कि साल 2009 में उनके साथ उन्होंने यौन दुर्व्यवहार किया था। रंजीत ने इन आरोपों को ख़ारिज किया है।
वैसे इस बीच रंजीत केरल चलचित्र अकादमी के चेयरमैन पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। श्रीलेखा ने 26 अगस्त को कोच्चि के पुलिस कमिश्नर से औपचारिक तौर पर शिकायत की थी। ये शिकायत ग़ैर-ज़मानती अपराध के तहत दर्ज की गई थी।
अभिनेत्री माला पार्वती ने बीबीसी हिंदी से बात करते हुए कहा, ”जो लोग सामने आए हैं, वो बस गिनती के हैं… कुछ और गंभीर मुद्दे हैं, जो सामने आ सकते हैं। जो लोग सार्वजनिक तौर पर सामने आए हैं, ये वो लोग नहीं हैं जो हेमा कमिटी के सामने पेश हुए थे।”
दो दिन पहले अभिनेत्री एवं एवं राजनेता ख़ुशबू सुंदर ने अपने ऑफिशियल एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर लंबा नोट साझा करते हुए लिखा है, “हमारी इंडस्ट्री में मी टू का यह क्षण आपको तोड़कर रख देता है। उन महिलाओं को बधाई जो अपनी जमीन पर डटी रहीं और विजयी हुईं। दुर्व्यवहार को रोकने के लिए हेमा कमेटी की बहुत जरूरत थी… लेकिन क्या ऐसा होगा?”
ख़ुशबू ने आगे लिखा है, “दुर्व्यवहार, सेक्सुअल फेवर मांगना और महिलाओं से पैर जमाने या अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए समझौता करने की अपेक्षा करना हर क्षेत्र में मौजूद है। केवल एक महिला को ही क्यों इन सब से गुजरना पड़ता है? हालांकि पुरुषों को भी इसका सामना करना पड़ता है, लेकिन इसका खामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।”
जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां जैसे कोलकाता कांड पर चुप्पी साधे हैं, ठीक वैसे ही मलयालम फ़िल्म उद्योग पर भी कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगा। इसलिये यह सवाल भी उठता है कि क्या ये लोग महिलाओं के लिये आवाज़ उठाते समय क्या केवल अपने राजनीतिक दल का फ़ायदा अपने ध्यान में रखती हैं। 
मुंबई के हिन्दी फ़िल्म जगत में भी जब मी-टू के आरोपों के कारण विवाद खड़े हुए थे, शोर-शराबा तो बहुत हुआ था मगर कोई नतीजा नहीं निकला था। कुछ दिनों तक हलचल रही… कुछ चेहरे बेनकाब हुए मगर बेशरमी कायम रही और कारवां चलता रहा। आज तो यह आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि महिला कास्टिंग डायरेक्टर पुरुष कलाकारों के साथ कास्टिंग काउच की तरकीब इस्तेमाल कर रही हैं। हर राज्य की सरकार एवं केन्द्र सरकार को इस बारे में सख़्त कदम उठाने होंगे, वरना इस समस्या का हल कभी नहीं मिल पाएगा। 
19 अगस्त 2024 को लंदन के समाचारपत्रों में हेडलाइन न्यूज़ थी कि ब्रिटेन की सरकार नारियों के विरुद्ध हुए अपराधों को आतंकवाद के समकक्ष मानेगी और उसी के अनुसार अपराधी को सज़ा दी जाएगी। लोग महिलाओं के बारे में कोई भी राय रख सकते हैं, लेकिन महिलाओं के प्रति ऑनलाइन नफ़रत से होने वाले बड़े ख़तरे को नज़र-अंदाज़ करना अब ठीक नहीं है।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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61 टिप्पणी

  1. समाज को आईना दिखाता सम्पादकीय, तेजेन्द्र शर्मा सर

    जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां जैसे कोलकाता कांड पर चुप्पी साधे हैं, ठीक वैसे ही मलयालम फ़िल्म उद्योग पर भी कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगा। इसलिये यह सवाल भी उठता है ?
    सवाल तो बहुत से उठते हैं।
    महिलाएं सुरक्षित नहीं पुरूष रूपी भेड़िए नोचने के लिए तैयार बैठे हैं।
    अभिनंदन

  2. समसामयिक विषय पर शोधपूर्ण संपादकीय के लिए हार्दिक आभार और साधुवाद।
    आज तक के दीर्घ जीवनानुभव, इतिहास और वेद से लेकर लौकिक संस्कृत साहित्य को पढ़ने के बाद, ऐसे विषय पर बहुत तटस्थता और उदासीनता आ गई है। मैंने भी कोलकाता केस के विरोध में अपनी DP बदली। समय के साथ चलने का स्वांग करना पड़ता है।
    जी सही पढ़ा ‘स्वांग’, अन्यथा ना तो व्यवस्था पर आस्था है ना समाज पर ना मानव स्वभाव पर और न्यायालय पर तो शून्य प्रतिशत विश्वास है।
    कुछ दिन शोर होगा-online off line, कैंडल मार्च होंगे और फिर सबकुछ पूर्ववत। कुछ होना होता तो निर्भया कांड के बाद ही हो जाता। ना शोषण आज का है ना उसका विरोध कल की बात, जब अभी तक कुछ नहीं हुआ तो आगे क्या ही होगा!
    ये सृष्टि पुरुष की, ईश्वर पुरुष, सभी प्रमुख पदों पर पुरुष। स्त्री बस प्रजनन की मशीन है सो जी रही है अन्यथा उसके बिना दुनिया बहुत सुन्दर ढंग से चलेगी।
    जरूरत है मनुष्य के बिना गर्भ की आवश्यकता के क्लोनिग की, काश वो दिन आए, धरा स्त्री विहीन हो जाए, पुरुष के जीवन का क्लेश मिट जाए।
    ना मानव बदला है ना बदलेगा। सब ऐसे ही चलेगा।
    रोज़ हमारे पैरों से कुचल के कितने कीड़े मकोड़े मरते हैं… कौन फिक्र करता है? ऐसे ही महिलाएं भी हैं। जो शोषित होना स्वीकार कर लेती हैं वो जी लेती हैं, मर्लिन मुनरो की तरह प्रसिद्ध हो जाती हैं अन्यथा निर्भया और कोलकाता की डॉक्टर की तरह मरती हैं।
    समाज को अपनी सदभावना दिखाकर अपराधबोध से मुक्ति मिलती है, महिलाओं को सबक मिलता है कि घर में रहें, आत्मनिर्भरता भूल जाएं (वैसे घर भी सुरक्षा की गारंटी नहीं), डरकर अपनी परिधि में रहें या शोषण स्वीकार कर आगे बढ़ें…
    अन्यथा, ये कुछ दिन का तमाशा है/बस ऐसे ही जी जाना है।
    नकारात्मक विचारों के प्राकट्य के लिए क्षमा।
    सधन्यवाद, शैली

    • शैली जी, आपने संपादकीय से आगे बढ़ कर मुद्दे की जड़ को समझा है। शुभकामनाएं और आभार।

    • आपने भारतीय स्त्रियों के उपर हो रहे अत्याचार को बिल्कुल सही समझा है। हमारे महान भारत को सचमुच पता नहीं है कि वास्तव में वह कमजोर वर्ग एवं स्त्रियों के प्रति कितना निर्दयी है।

  3. आदरणीय तेजेन्द्र जी!
    संपादकीय पढ़कर बहुत तकलीफ हुई आपके इस शीर्षक प्रश्न का उत्तर तो समझ में ही नहीं आता।
    बहुत पुराना महमूद का एक गाना याद आ रहा है पता नहीं किस फिल्म का था,-
    ना बीवी ना बच्चा
    ना बाप बड़ा ना भैया
    दी व्होल थिंग इज़ दैट कि भैया
    सबसे बड़ा रुपैया।
    लालसा, जरूरत, मजबूरी!शायद यह तीन चीजें ऐसी हैं जो आपके हैडिंग प्रश्न का उत्तर हैं
    हमें कास्टिंग समझ आया पर काउच नहीं।
    हम पहली बार एक उपन्यास लिखने का प्रयास कर रहे हैं ।नीचे लिखा नायिका का कथन हमारे उपन्यास की मुख्य नायिका के कथ्य से अलग नहीं।
    “उस घटना और इसके बाद जो कुछ हुआ, उसके बारे में सोचती हूं तो मेरा दम घुटता है। मुझे ऐसा महसूस करवाया जाता है कि मेरे साथ जो हुआ, जैसे वह मेरी ही गलती थी। मैं पूरी तरह टूट गई थी। लेकिन मैंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया है।”
    ऐसे दृढ़ लोग कम होते हैं। मगर सबसे बड़ी तकलीफ है तो वह इस बात से हैं कि जो स्त्री अपने प्रति होने वाले अन्याय से लड़ना चाहती हैं तो समाज भी उसी को गलत ठहराता है। उसी को दोष देता है।
    पितृसत्तात्मकता की ताकत आज भी उतनी ही मजबूत है जितनी वह अतीत में थी।
    2017 की घटना ने भी हिला दिया।
    न्याय व्यवस्था भी सामुद्रिक न्याय की तरह है और शासन व्यवस्था जंगल राज की तरह।
    क्या हम स्त्री के लिए इसी तरह की स्वतंत्रता की अपेक्षा करते हैं?
    आज सुंदरकांड का पाठ करते हुए अचानक ही एक बात हमारे दिमाग में आई थी। हम सोच रहे थे कि जिस स्तर पर हमारी संस्कृति नष्ट हो रही है और वर्तमान जीवन दर्शन सामने दिखाई दे रहा है उसके पीछे का मूल कारण क्या होगा? और हमें एक ही चीज समझ में आई- अमीरी और गरीबी का बढ़ता हुआ फासला और बेरोजगारी। फिल्म इंडस्ट्री में पैसा है इसलिए उसका आकर्षण है। स्थिति ऐसी है कि कोई व्यक्ति भूखा है, उसे भोजन दिखाया जा रहा है, लुभाया जा रहा है, लेकिन दिया नहीं जा रहा तो उसकी भूख उसे छीनने की कोशिश में जी जान लगा देती है। परिणाम की चिंता के बगैर।
    ऐसा लगता है जैसे हम जानवर बनते जा रहे हैं। सच में बहुत दुख होता है।
    एक बार एक समूह में एक एडमिन ने भी महिलाओं के लिए बहुत ही अभद्र शब्दों का उपयोग किया था वह भी पटल पर।यह एक ऐतिहासिक उपन्यास के संदर्भ में था जो समूह में नियमित चल रहा था। उस समय हम अकेले थे महिलाओं में जो उस पर रोज लिख रहे थे। इसलिए उसे हमने व्यक्तिगत लिया। और विरोध किया। जबकि गलती लेखक की कहीं से कहीं तक नहीं थी।
    सारा समूह हमारे साथ था उस समय, यहाँ तक कि एडमिन की पत्नी भी। हम तो फिर ऐसे मामलों में छोड़ते ही नहीं। किसी और के लिये भी नहीं सुन सकते तो हमारे अपने लिए तो प्रश्न ही नहीं उठता। हमने कभी किसी के साथ अभद्रता नहीं की। कम से कम साहित्यकार को शब्दों की मर्यादा समझना जरूरी है।
    पर उस समय जिस तरह हमारा खून खौला था आज भी बिल्कुल वही स्थिति बनी आपके संपादकीय को पढ़कर।
    आपने जिन महिलाओं के नामों का उल्लेख उनकी चुप्पी के लिए किया है, अपने पद की गरिमा ,महत्व, जरूरत और उत्तरदायित्व से शायद वे लोग अंजान हैं।
    ये उन लोगों में से हैं जिन्हें तभी समझ में आता है जब उनके खुद के घर में आग लगती है।
    एक ज्वलंत संपादकीय के लिए आपका शुक्रिया।
    पुरवाई का आभार।

    • नीलिमा जी, आपने अपने निजी अनुभवों को जोड़ कर संपादकीय पर सार्थक और गंभीर टिप्पणी की है। हार्दिक आभार।

  4. आदरणीय, समाजिक चेतना के लिए विवश करता आपका संपादकीय हम नारियों को यह सोचने पर मजबूर कर देता है की हम कब और कैसे इतनी बेचारी या कमजोर बन गईं की हमने अपना अस्तित्व ही खो दिया। भारत जहाँ पौराणिक काल से स्त्रियों का समाज में वर्चस्व रहा है । मनु स्मृति में लिखा है “पुत्रेण दुहिता समा” अथार्थ पुत्र पुत्री दोनों समान है । जहाँ संतान को उनकी माता के नाम से बुलाया जाता था “ गौरी पुत्र गणेश, देवकी नन्दन, कौन्तेय व गंगा पुत्र आदि अनेक उदाहरण मिलते हैं । सोचने की बात यह है कि आज निर्भया और कोलकाता कांड क्यों हो रहे है। तथाकथित राजनेत्रियां चुप क्यों हैं? इसका एक बड़ा कारण हमारी अपनी मानसिकता भी है। “दूसरे की लड़की है जाने दो न हमें क्या करना “ यही सोच हमें पीछे धकेलती है।कहीं न कहीं भारतीय सिनेमा का 90 के बाद बनने वाली फ़िल्मों का भी भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने हिंसा, उत्तेजित दृश्य, बदले की भावना व अन्धाधुन्ध बिना सोचे समझे पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करना भी है।
    भारतीय राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में केवल धार्मिक, प्रादेशिक भेदभाव के अतिरिक्त कोई दूसरा मुद्दा चर्चा में नहीं रह गया है। शिक्षा , रोज़गार, सुरक्षा, महिला उत्थान केवल एजेंडा में दिखाई देते हैं क्रियान्वयन बहुत कम होता है। भारतीय न्याय व्यवस्था बहुत ही लचर या यूँ कहूँ की सड़ी दुर्गंध मारती हुई है । ऐसे में ईनाम को अपने हक़ों के लिए स्वयं लड़ना होगा। ऐसे अपराधियो को मोमबत्ती जला कर नहीं तलवार उठा कर मारना होगा। आपका संपादकीय बहुत से सवाल पीछे छोड़ जाता है जो हम प्रवासियों को कभी कभी यह सोचने पर मजबूर कर देता है की अच्छा हुआ जो हमने झूठा भारत छोड़ दिया ।

    • प्रिय ऋतु, आप ने मनु स्मृति का हवाला देते हुए बहुत से सार्थक प्रश्न उठाए हैं। हार्दिक आभार।

  5. आपके इस संपादकीय में नारी-गरिमा के गिरते स्तर की जो चिंता है, वह हर भारतीय के लिए चिंतनीय है। आज विशेषकर फिल्मों में नायिका आदि की भूमिका निभाने वाली प्रायः हर स्त्री के लिए यह धारणा‌ बना ली जाती है कि वह चारित्रिक रूप से दुर्बल है। कई बार वे ऐसे अभिनय और वस्त्र धारण कर लेती हैं, ऐसे – ऐसे विवाद सामने आते हैं कि आमजन यही सोच लेता है कि इसका आचरण ही दुर्बल है। वे उनकी अभिनय-क्षमता, कार्य-कुशलता, घर-परिवार से दूर रहकर अपने‌ कार्य‌ के प्रति उनकी लगनता आदि को भूल जाते हैं। फ़िल्मों को इसलिए भी दोष दिया जाता है कि वे समाज में यौन-हिंसा और अपराध‌ को बढ़ावा देते हैं।
    वहीं यह स्थिति कितनी दु:खद है कि समाज में नारी-स्वातंत्र्य की बात करनेवाली फिल्मी जगत् में ही महिलाएंँ यौन-शोषण का शिकार होती आ रही हैं। प्रायः महिलाएंँ तो ऐसे कृत्य को जीवन का एक अंग मानकर सबकुछ बर्दाश्त करती रहती हैं। कुछ इसी बल पर अति सुख-सुविधा के जीवन में मस्त-व्यस्त हो जाती हैं। कई बार हमें यह भी सुनने को मिलता है कि वे आपसी होड़ में अपना काम निकालने के लिए स्वयं ही पुरुषों के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती हैं। कई किस्से यह भी पढ़ने को मिल‌ जाते हैं कि स्त्रियांँ स्वयं ही अपनी वर्चस्विता के लिए अपने शारीरिक हाव-भाव का प्रयोग करती हैं, जो किसी दिन उनके लिए हानिकारक हो जाता है।

    पश्चिम बंगाल में वर्षों से पहले कम्युनिस्ट और फिर एक स्त्री के मुख्यमंत्री होने के पश्चात् भी रेड लाइट एरिया कायम है, यह क्या‌ कम चिंता की बात है? सरकारें दूसरे रोजगारों से उन महिलाओं को जोड़कर ऐसे स्थलों को समाप्त क्यों नहीं कर पा रही हैं? समाज, सरकार‌ और नारी समाज को गहन विमर्श करना होगा कि हम कहांँ दृढ़ता से कार्य करें।

    कोलकाता जैसी घटना समाज के लिए कलंक है। जिसकी जिंदगी दूसरों की जिंदगी बचाने के लिए बनी थी, उसी की जिंदगी महज‌ इसलिए ले ली जाती है कि उसने हत्यारे की बलात् यौन इच्छा की पूर्ति नहीं की! यह सारा कुछ पारिवारिक संस्कार और सामाजिक परिवेश पर भी प्रश्न उठाता है! इसमें कानून के प्रति भय न होना, दंड प्रक्रिया में विलंब आदि भी कारक बनते हैं।

    • अशोक जी आपने वाम सरकार एवं ममता सरकार पर सवाल उठा कर संपादकीय को अतिरिक्त आयाम प्रदान किये हैं। हार्दिक आभार।

  6. आज का संपादकीय

    आदरणीय शिव खेड़ा की मोटिवेशनल किताब एसियर नब्बे के दशक में बहुत सारा ही गई थी उसे पुस्तक के एक quote है यदि आपके पड़ोसी का घर जल रहा है और आप चुपचाप बैठे हैं तो अगला नंबर आप ही का है?!
    लगभग यही स्थिति हमें आज के संपादकीय जो की महिलाओं की विवशता, उसके शोषण,उसकीअस्मिता के साथ खिलवाड़ के साथ शामिल है। कोलकोता की हृदय विदारक वीभत्स शैतानी हरकत हो या फिर मलयालम फिल्म जगत की घिनौनी ताल ठोंठती सच्चाई?और यहां पर महिला हित और सियासी स्तर की पुरोधाएं आदरणीया जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां मरघट से सन्नाटे में कहीं राजनीति के दंगल में फिर किसी शकुनी के पांसे फेंके जाने और सियासी नृत्य मुद्रा की यक्षिणियां बनने और अट्टहास करने को सद्य और किसी इशारे पर अर्जुन दृष्टि रखे मौन समाधि में लीन हैं।
    कैसा देश है कैसी महिला सांसद और बस आशा की किरण नज़र आई तो देश के प्रथम नागरिक यानी माननीया राष्ट्रपति महोदया से।
    यह सम्पादकीय जितना अधिक प्रसारित होगा उतना ही महिला विवशता पर प्रहार होगा। बीबीसी को तो संज्ञान ले कुछ करना ही चाहिए।

    • भाई सूर्यकांत जी, शिव खेड़ा की पुस्तक का हवाला देकर आपने राजनेत्रियों पर भी प्रश्न उठाए हैं। आपका लगातार समर्थन पुरवाई के लिये महत्वपूर्ण है।

  7. हां हमारा समाज पुरुष प्रधान हैं। परिवार मे ही लड़कियों का पालन इस प्रकार से किया जाता हैं कि वह पलट कर विरोध करना जानती नहीं। यह समस्या पढ़ी लिखी अपने पैर पर खड़ी स्त्री में भी दिखाई देता है। समाज भी हर बलात्कार पर स्त्री को ही दोष देता दिखाई देता है।
    कपड़े ऐसे क्यों पहने थे, रात में क्यों गई आदि।
    जहा यह कहा जाता है कि वह पुरुष है तुम्हे अपनी इज्ज़त का ख्याल होना चाहिए। वहा स्त्री ऐसे ही विवश रहेगी।

  8. बेहद ही डरावना चित्र है महिलाओं के लिए फिर वो चाहे हिंदी सिनेमा हो या दक्षिण का, मैने करीब 15 साल माया नगरी में गुजारे हैँ सच्चाई इससे कहीं ज़्यादा खतरनाक है। me too महज एक बहाना है । ये भी निश्चित है कि राजनितिक लोग रेप या ऐसी ही अन्य घटनाओं पर केवल अपने फायदे या पार्टी हित के हिसाब से बोलते हैं,इनकी सच्चाई इतनी ही बेशर्म है ।अच्छी बात ये कि कोलकाता की घटना पर देश जाग उठा है।

    • आप क्योंकि सिने जगत से जुड़े रहे हैं आलोक, ज़ाहिर है आप भीतरी बातों से परिचित होंगे। हार्दिक आभार।

  9. अत्यंत संवेदनशील अवस्था है… किंतु.. जब स्त्री को बनाते हुए ईश्वर ने भी यही सोच रखा कि चलो प्रकृति को अन्य सौंदर्य के साथ और एक सुंदरता दे दी .. पुरुष मन और बल सार्थक हो जाए… तो वही हो रहा…। वास्तवता तो अब यही है कि धरा स्त्री शून्य हो जाना चाहिए.. क्योंकि पुरुषों के लिए इनका कोई महत्व तो है नहीं। हमारी गायत्री संस्थान में यज्ञ के पश्चात् हम सभी भाई बहने यह संकल्प लेते हैं कि ‘देश की उन्नति वहाँ है, नारी का उत्थान जहाँ है ‘। हो रही उन्नति.. देश भी आगे बढ़ गया.. संस्कृति में भी परिवर्तन आ गया। स्यात्, वह समय आ जाए… पृथ्वी स्त्री शून्य हो जाए…। सरकार, राजनीति.. कानून… किसीको भी दोष न देते हुए एक प्रार्थना करती हूँ कि पुरुष को केवल पुस्तकी शिक्षा न देकर व्यवहारिक शिक्षा दी जाए एवं लड़कियों को भी आधुनिकता के छल से बचाया जाए।

    आप अपने संपादकीय में सत्य का सदैव उजागर किया है… स्वयं चलचित्र जगत में होते हुए भी..सत्य का साथ दिया… साधुवाद
    धन्यवाद सर

    • अनिमा जी, आपने बहुत अहम सलाह दी है। संपादकीय को पसन्द करने के लिये हार्दिक आभार।

  10. स्त्रियों की दुर्दशा पर आपका ध्यान गया, ये बात विशेष इसलिए भी है कि शायद चेतना का पसारा ऐसे ही बढ़ चले और स्त्री मनुष्यों में गिन ली जाए। दुनिया दुख में रहती है। सुख छलावा है। सिनेमा उद्योग से लेकर ऊंचे बैद्धिक पदों पर काम करने वाली स्त्री हो या फैक्ट्रियों में काम करने वाली मजदूर औरत, पुरुष की कुदृष्टि की शिकार होती रही हैं। जिस तरह धरती का उपयोग किया जाता है, स्त्री का शोषण भी कुछ उसी ढंग से किया जाता रहा है। इस यौन शोषण असाध्य बीमारी है। मनोरोगियों के लिए दवा कब बनेगी। इंतजार में न जाने स्त्रियों की कितनी पीढियां सिसकते हुए कालिवलित हो गईं। ॐ शांति

  11. Your Editorial of today deals with the burning topic of these days.
    It is all so very complicated as well as undesirable.
    The ‘me too’ movement ( starting from Hollywood) specifying exploitation of the female artists by famous actors n directors is a product of the utterly disgraceful and you have rightly pointed our that it should be stopped.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  12. सदियां बीत गईं और बीतती भी जाएंगी पर स्त्री आज भी वहीं की वहीं खड़ी है। मतलब पुरुष के लिए स्त्री पहले भी खिलौना थी, वस्तु थी और आज भी वही है। हमारी मानसिकता स्त्री को अपने अधीन करने की ही रही है। हाई-फाई सोसायटी में जिसे बहुत ही पढ़ा लिखा एवं ज़हीन समाज कहा जाता है वह भी स्त्री के प्रति क्रूर है।
    स्त्री को बचाने के लिए कोई नहीं आएगा। उसे खुद अपना बचाव करना होगा। इस क्रूरता के खिलाफ अपने खुद के हथियार ईजाद करने होंगे। ये जो महिलाएं सामने आई हैं ये बहुत बहादुर महिलाएं हैं। इनको सलाम।
    और हां, महिलाएं किसी क्षेत्र में पीछे नहीं है तो इस क्षेत्र में भी उन्हें आकर दूसरी महिलाओं की सहायता करनी चाहिए न कि पद पैसा एवं प्रतिष्ठा के लालच में पुरुष का पक्ष लेकर उन्हें बचाना चाहिए।

    • भाई लखनलाल पाल जी आपका आक्रोश आपके शब्दों में साफ़ दिखाई देता है। समाज में बदलाव ज़रूरी है।

  13. चाहे राजनीति हो, सिनेमा हो या कोई अन्य क्षेत्र हो… मानसिक गन्दगी की भरमार है… राजनीति में घुसी महिलाएं, पीड़ित महिलाओं के समर्थन में आगे नहीं आ रहीं.. बहुत दुर्भाग्य है…आँखें खोलने वाला लेख

  14. प्रश्नवाचक वाक्य से सम्पादकीय का आरंभ किया है ।
    उत्तर खोजना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है बस ये ही कहा जा सकता है कि घरती पर रहने वाले इंसान प्रकृति के विरुद्ध सोचने लगे हैं जैसे कि समय क़ुदरत के ख़िलाफ़ साज़िश का होता जा रहा अतः सहायता कौन करे ?
    Dr Prabha mishra

  15. तेजेंद्र जी
    सादर नमस्कार।
    आपने एक सामयिक मुद्दे को बहुत संतुलित ढंग से अपने संपादकीय लेख में प्रस्तुत किया है। शुभकामनायें।–दरअसल मुझे लगता है ज़ब तक पुरुष प्रधान समाज की स्त्रियों, बेटियों, महिलाओं को लेकर पुरुषों कि सोच नहीं बदलेगी तब तक समाज से रेप, महिलाओं का शोषण कभी खत्म नहीं हो सकता।—महिलाओं का ये शोषण सिर्फ फ़िल्म इंडस्त्री में ही नहीं है।–यदि समाज के व्यवसायों कि परतों को कुरैदा जाय–तो हर व्यवसाय चाहे वो सरकारी नौकरी हो, प्राइवेट नौकरी, कला से जुडी कोई फील्ड —लेखन, प्रकाशन, प्रसारण,—विश्वविद्यालयों में रिसर्च से लेकर नियुक्तियों, प्रमोशन में, अख़बारों में आर्टिकील छपवाने, रेडियो टी वी में कार्यक्रमों में भाग लेने —-कितनी फील्ड गिनाऊँ —हर जगह और हर स्तर पर महिलाओं को इस संत्राश से गुजरना पड़ रहा।–जो महिलाइन थोड़ा निडर और साहसी हैं वो चीजों को सामने ला देती हैं।—बाकी समझौते कि रह पकड़ती हैं। और ये आज नई बात नहीं —1979 में ज़ब मैंने इलाहबाद यूनिवर्सिटी में रिसर्च ज्वाइन किया था —उस समय से यूनिवार्सिटी के कितने ही स्वानामधन्य मठाधीश प्रोफेसर लोगों को ऐसे ही आपकी छात्राओं के शोषण में लिप्त देखा था।—आकाशवाणी के कई प्रस्तोटा (अब स्वर्गीय हो chuke)इस कृत्य के लिए पूरे शहर में कुख्यात थे।—और कमोबेश वही या उससे बढ़ी हुयी परिस्थितियाँ हर जगह आज भी मौजूद हैं। सवाल यही है कि इन स्थितियों का जिम्मेदार कौन?? कब बदलेंगी ये परिस्थितियाँ?? कब खुली हवा में सांस लेकर स्त्री खुद इन परिस्थितियों से लड़ने के लिए तैयार होंगी?? कब पुरुषों कि मानसिकता बदलेगी??

  16. हर ओर अराजकता फैली है, ऐसे में हम सिवाय लिखने के और कुछ कर भी नहीं सकते। आप अपना धर्म बिना लाग लपेट के निभा रहे हैं इसके लिए साधुवाद

  17. भाई तेजेंद्र जी,
    आपके संपादकीय ने अंदर तक हिला दिया। मैं निरंतर आपको पढ़ता आया हूं। मानवीय संवेदना से जुड़े ऐसे विषयों पर जिस तरह आहत मन से, ललकारते हुए शब्दों में अपनी बात कहते हैं, उसका कोई सानी नहीं।

    जिन विषयों पर लोग कहने से डरते हैं और दस बार दाएं-बाएं देखते हैं, उन पर भी आप बेहिचक निर्भ्रांत शब्दों में अपनी बात कह जाते हैं।‌ अविचलित दृढ़ता के साथ। इसीलिए पढ़ने के बाद मन देर तक आपके साथ बहता रहता है।

    ऐसे प्रखर और चुनौती भरे संपादकीय के लिए मेरा साधुवाद!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

  18. बहुत हीं समसामयिक और महत्वपूर्ण विषय। महिलाओं पर अत्याचार भारत कब रोक पाएगा?
    भारतीय संस्कृति में नारी पर अत्याचार का यदि इतिहास देखें तो सर शर्म से झुक जाता है। जुबान लड़खड़ा जाती है और आँखें मुँह छुपाने की जगह तलाशने लगती है। त्रेतायुगीन अहिल्या से लेकर द्वापर की अम्बा अम्बे अंबालिका द्रौपदी और मध्यकाल में अनगिनत क्षात्राणियों का जौहर व सतीदाह तो इतिहास के पन्नों में दर्ज है। जिसे कई बार गाया, सुनाया व चलचित्र नाटक इत्यादि के माध्यम से दिखाया जाता है।
    परंतु करोड़ो आम जन महिलाओं पर जो अलिखित जुर्म हुए वे विस्मृतियों की हवा में विलीन हो गये। उनका कोई साक्ष्य या स्मृति हीं नहीं रहा । अभी पिछले दो तीन दशकों में कितनी महिलाओं की आबरु लूटी गई। किसी को तंदूर में जला दिया गया किसी को फ्रीज में किसी को घर के कमरे में दफन कर दिया गया तो किसी के टुकड़े जंगल झाड़ियों में फेंक दिये गये। 2012 का निर्भया हत्या कांड हुआ तो दुनिया के हाथ में सोशल मिडिया का संचार साधन आ गया था। तब से शायद कोई साल ऐसा नहीं गया जब देश में कहीं न कहीं कुछ घटनाएँ न घटती रहती हों। और दुनिया में हमारी थू थू न होती हो। जो जनता देश में हीं रहती है उन्हें तो फिर भी इनमें किसी न किसी पार्टी की कमी नजर आती है। वे किंग मेकर लोग हैं, उन्हें लगता है फलानी पार्टी फलाना नेता ठीक नहीं है। अगली बार उसे वोट देने से पहले सोचेंगे। लेकिन जो भारतीय देश से बाहर रहते हैं उन्हें सिर्फ और सिर्फ शर्मसार होना पड़ता है। देश से बाहर वे विदेशी लोगों को किस पार्टी और किस नेता की कमी समझाएंगे। और यदि समझाना चाहे भी तो उसकी बात कोई क्या समझेगा? नेपाली मधेशियों के सिवा अन्य विदेशियों को क्या पता हमारा कौन नेता कितना योग्य है और कौन कितना अयोग्य। कौन फन्ने खाँव है और कौन गन्ने खाव? दुनिया तो सिर्फ यह देखती है कि भारत कितना आगे अथवा कितना पीछे जा रहा है। संपादकीय का शीर्षक है कि नारी इतना विवश क्यों है? प्रश्न बिल्कुल सही है। यह प्रश्न यही नहीं ठहरता इसके आगे भी अभी और प्रश्न पर प्रश्न पैदा करता है। भारत अपना कानून व्यवस्था कब मजबूत करेगा? नारियों की सुरक्षा व आत्मसम्मान कब सुनिश्चित करेगा? करेगा भी या नहीं करेगा? यदि करेगा तो कब? और यदि नहीं करेगा तो क्यों?
    आखिर भारत इतना असक्षम विवश व लाचार क्यों है??

    • भाई राजनन्दन जी आपने संपादकीय को गहराई से समझा है और सार्थक टिप्पणी की है। हार्दिक आभार।

  19. This is utterly sad and disturbing. My thoughts and prayers are with the families and friends of the victims. There is an urgent need to strengthen legal frameworks, promote social change, and empower women through education. Above all, raising boys to be kind and respectful is crucial. We must teach them to express their feelings, respect others, and treat everyone equally. These simple lessons can help them grow into men who truly value the importance of treating women with respect and fairness.
    Thankyou for sharing this article Sir , Regards

  20. भारत की संस्कृति में सदा नारी को उच्च स्थान दिया गया है। कहा भी जाता है…यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः…उस भारत में नारी का शोषण, मन को उद्देलित कर देता है। बार-बार मन में प्रश्न कोंधता है कि आज की नारी इतनी विवश क्यों है?
    मुझे लगता है कि हम नारियां ही नारियों के शोषण की जिम्मेदार हैं। हम अपनी पुत्रियों को ऊंच- नीच सिखाती हैं, उन्हें सैकड़ों बंदिशों में बांधती हैँ, जबकि अपने पुत्रों को मर्यादा में रहने की शिक्षा नहीं देतीं वरना एक राज्य का मुख्यमंत्री न कहते…लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है।

    जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक इस स्थिति में सुधार नहीं हो पायेगा।

    इसके साथ ही लड़कों को वारिस समझकर उन्हें महत्व देना बंद करना होगा। लड़की भ्रूण हत्या को रोकना होगा। इसके लिए नारी को ही पहल करनी होगी।

    मलयालम अभिनेत्री के साथ घटी घटना की तरह कई अन्य जगहों (कॉलेज हॉस्टल के बाथरूम में कैमरे द्वारा विडिओ बनाना) कि खबरें मिडिया में भी आई हैं जिन्हें रसूखदारों द्वारा दबा दिया जाता है। बड़े -बड़े वकील खड़े कर दिए जाते हैं। पीड़िता करें भी तो क्या करे? कड़े कानूनों के साथ न्यायालयों को भी अपना ढुलमुल रवैया त्याग कर त्वरित निर्णय लेना होगा।

    अब तो बलात्कार का विरोध भी राजनीति के चश्मे से, उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, दलित देखकर होने लगा है। बड़ी ही विचित्र स्थिति है।

    आपका कहना उचित ही है कि जब जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां जैसे कोलकाता कांड पर चुप्पी साधे हैं, ठीक वैसे ही मलयालम फ़िल्म उद्योग पर भी कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगा। इसलिये यह सवाल भी उठता है कि क्या ये लोग महिलाओं के लिये आवाज़ उठाते समय क्या केवल अपने राजनीतिक दल का फ़ायदा अपने ध्यान में रखती हैं।

    जब स्त्री ही स्त्री के दर्द को नहीं समझेगी, उसके बचाव में नहीं उतरेगी, तब तक इस समस्या का समाधान कुछ नहीं है।

    • आदरणीय सुधा जी आपकी विस्तृत टिप्पणी संपादकीय के समझने में बेहतरीन भूमिका निभाती है। आभार।

  21. सुंदर संपादकीय सर लेकिन जिस तरह का समाज अभी है और जिस तरह का हो जाने की आशाएं हमारे शास्त्रों ने बहुत पहले बता दी थी उस हिसाब से तो अभी कुछ नहीं हुआ। अभी बहुत कुछ होगा तब तक हम रहेंगे नहीं। सवाल ये है कि कड़े कानून भले ही बना लिए गए हों लेकिन उनकी पालना जब तक नहीं होगी यह दिनों दिन और बढ़ेगा ही।
    इस खबर पर बहुत कम लोगों ने खबरे चलाई हैं। जहां तक मेरी जानकारी है।

    • तुम्हारी टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है तेजस कि यह युवा पीढ़ी की सोच दर्शाती है।

  22. आ.तेजेन्द्र जी
    यह विषय इतना चिंता पूर्ण है कि इसका कहाँ कोई हल दिखाई देता है? जैसे चारों ओर एक आग सी लगी है।
    घर, बाहर सब स्थानों पर एक सी ही स्थिति। एक अंधेरा ख़त्म होता नहीं कि दूसरी काली बदली तैयार है।
    कुछ नहीं हो सकता जब तक व्यक्तिगत रूप से डंडा न उठा लिया जाए।इतना तो सशक्त होना ही होगा लड़की को कि चाहे घर में पीड़ित हो या बाहर अपने लिए स्वयं युद्ध करना होगा वर्ना यह न कभी बंद हुआ, न होगा।
    लड़कों से गलती हो जाती है, लड़की के माथे पर सीधा चरित्रहीनता का टैग चिपक जाता है।
    जब तक परिवार की जड़ ही पुख़्ता नहीं होगी तब तक सारी बातें खोखली हैं। सच कहें तो अब ऐसी बातों से दिमाग़ कुंद हो चुका है।

  23. अत्यंत वीभत्स दृश्य है वर्तमान समाज का,जहाँ प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृति के रथभार का वहन करने में महिलाओं का भी यथोचित स्थान हुआ करता था,वहीं आज भले ही नारी सशक्तिकरण का नारा क्यों ना बुलंद होता हो, किंतु वास्तविक स्थिति सर्वविदित है। ‘व्यक्ति की गरिमा’, ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समानता’ जैसे वाक्यांशों का प्रयोग भारतीय संविधान में अवश्य दिया गया है, किंतु जब तक शोषण,दुराचार जैसे गंभीर विषयों में तत्परता से निर्णय और कठोरतम दंड के प्रावधान नहीं किए जाएंगे, देश का कोई भी स्थान,क्षेत्र कुकृत्यकारियों से सुरक्षित नहीं रह पाएगा। मात्र विरोध व्यक्त करने से ही इस घृणित दशा में कोई सुधार नहीं आने वाला, मात्र कानून के दंड विधान के प्रावधान में शीघ्रातिशीघ्र त्वरित परिवर्तन को लाना ही कुंठित समाज की,स्त्रियों के प्रति इस दूषित मानसिकता में बदलाव ला सकता है।
    मेरे विचार से स्त्री ही नहीं अपितु बच्चों की भी सुरक्षा पर कड़े कानून का लागू करना अब पंच तत्वों की भाँति ही अनिवार्य हो गया है, इस पर अब विलंब होना उचित नहीं, क्योंकि इस विलंब के ही कारण ही असंख्य स्त्रियाँ व अबोध बच्चे अमानुषिकता का शिकार बन चुके हैं और ऐसे अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं। किसी भी राष्ट्र का विकास उस राष्ट्र की स्त्रियों व बच्चों की उत्तम स्थिति पर ही निर्भर करता है, अतः राजनीतिक पैंतरों को परे रखकर ‘स्त्रियों का सम्मान और कर्णधारों का उत्थान’ ही प्रत्येक राजनीतिक दल तथा राष्ट्र की व्यवस्था का सर्वोपरि सिद्धांत होना ही श्रेयस्कर है।
    सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अति चिंतनीय प्रकरण को भारतीय सिनेमा के विभिन्न पक्षों और संदर्भों के माध्यम से प्रस्तुत कर आपने समसामयिक परिवेश में भारतवर्ष में घटित हो रही स्त्रियों की विसंगतिपूर्ण स्थिति पर न्यायसंगत प्रश्न किया है। आदरणीय,समाज की सुषुप्त भावनाओं को प्रभावित कर अनुचित मान्यताओं के प्रति आवाज उठाने हेतु जागृत करने में आपके संपादकीय अत्यंत महती भूमिका निभाते हैं।

    • ऋतु आपने संपादकीय के तमाम पहलुओं को समझते हुए एक सार्थक और अर्थपूर्ण टिप्पणी लिखी है। हार्दिक आभार।

  24. आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी ने लंदन में बैठकर दक्षिण भारत के केरल राज्य में हुए मी टू पार्ट टू की विशद चर्चा की है। जिस समाचार को केरल से आगे जाकर पूरे भारत में चर्चा का विषय बनना चाहिए था, उसके प्रति चौबीस घंटे चीखने वाले भारतीय खबरिया चैनलों की उदासीनता दुखद है। ऐसा लगता है कि जब तक कोई हत्या न हो जाए, तब तक इनके लिए रेप का कोई समाचारीय मूल्य नहीं है। यह संवेदनहीनता समाज की शिराओं में बैठे ठंडे रक्त की भी निशानी है। यदि केरल के वायनाड की बाढ़ और प्रियंका गांधी का तथाकथित वायनाड सीट से चुनाव लड़ना खबर है तो मलयालम फिल्म जगत की स्याह सच्चाई को खबर बनाना भी खबर का अंग होना चाहिए था लेकिन शायद न्यूज़ के भेड़ियों को केरल के रेप की उत्तर भारत और केरल के अलावा दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में टीआरपी नहीं दिखी, इसलिए रिया, तैमूर, अनंत अंबानी की शादी और प्रधानमन्त्री के परिधान पर गैर ज़रूरी चर्चा इन्हें ज़्यादा महत्वपूर्ण दिखती है। आपने हाथरस की घटना पर चीखकर कोहराम मचा देने वाली महिला सांसदों की चुप्पी पर भी उचित सवाल उठाए हैं, जिन्हें यह घटना न तो वोट दिलाऊ लगती है और न ही वे महिला सम्मान के लिए इस घटना को अहमियत देती हैं। यह संवेदनहीनता शर्मनाक है। आपके संपादकीय से ज्ञात हुआ कि इंग्लैंड में रेप के आरोपियों को आतंकवादी की तरह मानकर दण्डित किया जाएगा। काश, ऐसी ही सोच भारत में भी होती तो हमारी बेटियां कुछ अधिक सुरक्षित महसूस कर पातीं। विचारोत्तेजक तथा प्रासंगिक संपादकीय लिखने के लिए आपका आभार।

    • पुनीत भाई, संपादकीय पर टिप्पणी करते हुए आपने मीडिया और राजनेताओं की भी अच्छी ख़बर ली है। बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट बात!

  25. बहुत ही सटीक व सार्थक संपादकीय..
    आज की नारी की दयनीय स्थिति पर वह कब से इतनी दुर्बल हो गई वैसे हम भी क्या करते हैं.. गांधी जी के तीन बंदरों का अंधानुकरण न हमे कुछ बुरा दिखाई देता है ना कुछ बुरा सुनाई देता है और बुरा कहने की तो क्षमता ही कहां है..?
    बस.. हम अपनी आँखों पर पट्टीयाँ बांध, व कानों में बत्तियां डाल इंतजार ही करते रहते हैं जब तक दूसरी घटना न घटे, तब तक बिल्कुल भी सजग नहीं,थोड़े से दिनों घटना मुख्य पृष्ठ पर, अखबारों की सुर्खियों बटोरती टी.आर.पी. भी बढ़ाती हुई कुछ समय पश्चात धीरे धीरे अंतिम पृष्ठ फिर वह घटना धूमिल होकर ऐसे गायब हो जाती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं.. I आजकल ऐसी ही घटनाएं आम है ‘मी टू’ हो या रेप केसेस.. थोड़े से दिन शोर-शराबा फिर हमेशा के लिए चुप्पी..!
    बहुत ही विचारोत्तेजक सम्पादीकय हार्दिक बधाई व शुभकामनायें..
    डॉ सुनीता शर्मा न्यूजीलैंड

  26. तेजेन्द्र भाई, आप ने महिलाओं के बारे में जो मुद्दा उठाया है वो अपनी जगह बहुत सही है। अब सब से बड़ा सवाल तो यह है कि इसका हल क्या है? आपने जिन किस्सों का ज़िक्र लिया है वो तो केवल “टिप औफ़ दी आइसबर्ग” हैं। असलियत में तो अभी भी पर्दे के पीछे बहुत कुछ हो रहा है और होता रहेगा। इस बहुत ताज़ा कोलकत्ता के ही केस जैसे केस पहले भी हुये थे। इन बातों को लेकर बहुत दिन शोर शराबा रहता है। जलूस निकाले जाते हैं। नारेबाज़ी होती है, लेकिन आखिर में होता कुछ नहीं और वही “ढाक के तीन पात”। पानी के बुलबुले की तरह कुछ दिनों बाद सब कुछ शान्त हो जाता है। लेकिन, इस सब का ख़मियाज़ा कौन भुगतता है? वो नारी जिसके साथ बलात्कार से भी ज्‍यादा शर्मनाक हर्कतें हुई हैं।
    आपने जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां का बहुत अच्छा उदाहरण दिया है। शीशमहल में रहने वाली इन हस्तियों को क्या ज़रूरत है सहानुभति के दो शव्द भी कहने के। यह तो वहीं अपना मुँह खोलेंगी जहाँ पर इनको अपना या फिर अपने राजनीतिक दल का फ़ायदा नज़र आयेगा।
    देश का कानून बदलने का समय आगया है। जब तक ऐसे दरिन्दों को बीच चौराहे फाँसी की सज़ा नहीं दी जायेगी और लोगों के दिल में सज़ा का डर नहीं होगा, इस बीमारी का कोई इलाज नहीं। बहुत बहुत दाधुवाद इस मुद्दे को उठाने का तेजेन्द्र भाई।

    • विजय भाई, आपका आक्रोश आपके शब्दों में साफ़ महसूस किया जा सकता है। हार्दिक आभार आपकी सार्थक टिप्पणी के लिये।

  27. जब नारी और उसमें भी वूमेन आफ सबस्टैंस ही नारी शोषण पर चुप रहेंगी तो फिर विरोध का स्वर कैसे बुलंद होगा। आपने भी इशारा किया है – “जया बच्चन, प्रियंका वाडरा, महुआ मोइत्रा, सागरिका घोष, महुआ माझी, प्रियंका चतुर्वेदी, डिंपल यादव जैसी राजनेत्रियां जैसे कोलकाता कांड पर चुप्पी साधे हैं, ठीक वैसे ही मलयालम फ़िल्म उद्योग पर भी कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगा”

    एक और ज्वलंत मुद्दे पर आपकी धारदार लेखनी!

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