Sunday, September 8, 2024
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संपादकीय – रेडियोएक्टिव चपातियां

एक तरफ़ बातें हैं और दूसरी तरफ़ है ठोस सच्चाई। और सच्चाई यही है कि सच को आज भी कहीं छिपाया जा रहा है… दबाया जा रहा है। कोई भी न तो अपनी ज़िम्मेदारी मानने को तैयार है और न ही उस रिसर्च के नतीजे बताने को तैयार है। भारतीय मूल की औरतें आज भी भारतीय भोजन खा रही हैं। सिरदर्द आज भी होता है… घुटनों में दर्द आज भी होता है और एनीमिया से लोग आज भी परेशान हैं; मगर रेडियो एक्टिव चपातियों का राज़ कहीं गहरे में दफ़न है। लगता नहीं कि कभी भी वो भेद खुल पाएगा।

भारतीय मूल के लोगों का विदेशों में बसना एक लंबे अरसे से जारी है। ब्रिटेन, यूरोप, अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, पूर्वी और दक्षिण अफ़्रीका, हाँगकाँग आदि देशों में भारतवंशियों को देखा जा सकता है। गिरमिटिया देशों में तो भारतवंशियों को ज़बरदस्ती समुद्री रास्ते से खेतों में काम करने के लिये मॉरीशस, फ़िजी, सुरीनाम और त्रिनिदाद जैसे देशों में ले जाकर बसाया गया। 
ब्रिटेन में पचास और साठ के दशक में भारत के पंजाब और गुजरात राज्यों से बहुत से युवा बसने के लिये आए। वे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे और उनका इस्तेमाल केवल छोटे कामों जैसे कि सफ़ाई या घरेलू कामों के लिये किया जाता था। अभी भारतीय रंगभेद नीति का शिकार रहते थे। बराबरी का अहसास पैद होना शुरू नहीं हुआ था।
वहां से वर्तमान की यात्रा लगभग हैरान कर देने वाली है। उन दिनों यदि किसी भारतीय के पास कार होती थी तो सोचा जाता था कि या तो वह भारतीय हाई कमीशन में काम करता है या फिर कोई राजे-रजवाड़े का सदस्य है। आज यदि किसी भारतीय के घर में एक ही कार हो तो समझा जाता है कि बेचारा लोअर मिडल क्लास का है। 
यह सब पुरवाई के पाठकों को बताना आवश्यक है क्योंकि हम जिस ज़माने के ब्रिटेन की बात करने जा रहे हैं वो 1960 का दशक ही था। हम बात करेंगे पश्चिमी मिडलैण्ड के शहर कॉवेन्टरी की। पिछले वर्ष कॉवेन्टरी का नाम कुछ नकारात्मक कारणों से सुर्खियों में आ गया। वहां की विपक्षी लेबर पार्टी की सांसद ताईवो ओवाटेमी ने 1960 के दशक में हुई एक मेडिकल रिसर्च में जांच की मांग की है। इसके तहत भारतीय मूल की 21 महिलाओं को रेडियोएक्टिव रोटियां खिलाई गई थीं। द गार्जियन समाचारपत्र  की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं की रोटियों में आयरन-59 के आइसोटोप्स मिलाए गए।
रेडियो-एक्टिव रोटी खिलाने के बाद महिलाओं को ऑक्सफोर्डशायर में एटॉमिक एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ले जाया गया था। जहां उनके रेडिएशन लेवल की जांच की गई और ये पता लगाया गया कि उनका शरीर कितना आयरन जज़्ब कर पाया ।
सांसद ओवाटेमी ने कहा है कि वे पार्लियामेंट इस मामले में डिबेट की मांग रखेंगी। वे चाहती हैं कि मामले की जांच में ये पता लगाया जाना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ। एक दूसरी सांसद ज़ारा सुल्ताना ने भी मामले की जांच की मांग में ओवाटेमी का साथ देने की बात कही है।

यह देख कर अच्छा लग रहा है कि एक महिला ब्रिटिश सांसद 55 साल बाद भारतीय मूल की महिलाओं के साथ हुई ज़्यादती के बारे में ब्रिटेन की संसद में यह मुद्दा उठाने को कटिबद्ध है। मेरे लिये निजी तौर पर यह संतुष्टी की बात है क्योंकि मैं स्वयं पिछले 20 वर्षों से लेबर पार्टी का कार्डधारी मेंबर हूं। 
कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने इस मेडिकल रिसर्च को अंजाम दिया था। इस रिसर्च का मूल मकसद महिलाओं के शरीर में आयरन की कमी को दूर करना बताया गया था। जिन भारतीय मूल की महिलाओं को रेडियोएक्टिव रोटियां खिलाई गईं, उनमें ये जांचने का प्रयास किया गया था कि आयरन की कमी दूर हो पाई या नहीं… इस रिसर्च पर से पर्दा 1995 में पहली बार उठा था। जिसके बाद रिसर्च के लिए फ़ंडिंग करने वाली मेडिकल रिसर्च काउंसिल ने कहा था कि टेस्ट में रिस्क काफ़ी कम था।
आमतौर पर इन्सानी शरीर कई तरह की रेडिएशन का सामना करता है… एक्स-रे मशीन से लेकर सूरज की किरणों और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स तक में रेडिएशन होता है… हालांकि रेडिएशन की मात्रा अधिक होने पर ये काफ़ी ख़तरनाक हो सकता है। यदि कोई इन्सान प्रतिदिन रेडिओएक्टिव तत्वों के संपर्क में आता रहता है तो उसे कैंसर होने का ख़तरा हो सकता है। एक आम इन्सान 500 रेम तक के रेडिएशन को झेल सकता है, इसके बाद उसकी मौत भी हो सकती है।
रेडियोएक्टिव तत्वों की भयावहता जानने के बावजूद गर्भवती महिलाओं तक पर प्रयोग किया गया। ये ऐसी प्रवासी महिलाएं थीं, जो उन्हीं दिनों पंजाब और गुजरात से ब्रिटेन पहुंची थीं, और कम पढ़ी लिखी थीं। ऐसे में ज़ाहिर है कि वे नहीं जानती रही होंगी कि उनके साथ क्या हो रहा है। बाद में फॉलोअप भी नहीं हुआ कि महिलाएं ज़िन्दा रहीं या नहीं। या फिर क्या वे रेडियोधर्मी तत्वों के सीधे संपर्क में आने के बाद कैंसर या किसी गंभीर बीमारी का शिकार तो नहीं हो गईं… या फिर उनकी संतानें किसी प्रकार के शारीरिक विकार के साथ तो पैदा नहीं हुईं। 
भारतीय मूल की ये मासूम औरतें अपने-अपने जी.पी. (पारिवारिक डॉक्टर) के पास छोटी-मोटी बीमारियों के सिलसिले में गईं थीं। किसी को माइग्रेन था तो किसी को आरथराइटस; किसी को कमज़ोरी की शिकायत थी को किसी को लगातार ज़ुकाम की। दरअसल उन दिनों डॉक्टरों में ये सोच पैली हुई थी कि एशियाई मूल के लोगों के भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी रहती है जिस कारण उनमें ख़ून की कमी यानी कि एनीमिया हो जाता है। 

यह चिन्ता का विषय बन गया कि जिन औरतों को बलि का बकरा बनाया गया और रेडियो एक्टिव रोटियां खिलाई गयीं उन्हें अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान नहीं था। वे न तो अंग्रेज़ी समझ पाती थीं और न ही बोल पाती थीं। और उन्हें यह बताया ही नहीं गया कि उन पर कोई प्रयोग किया जा रहा है। यह एक प्रकार का मेडिकल धोखा भी कहा जा सकता है। 
एक इतिहासकार ने एक्स थ्रेड पर एक पोस्ट लिख कर इस मुद्दे में लोगों की दिलचस्पी फिर से जगा दी। (एक्स थ्रेड को पहले ट्विटर कहा जाता था) उनके एक्स थ्रेड को 66 लाख से अधिक बार देखा गया। उन्होंने कहा कि जिन महिलाओं पर प्रयोग किया गया था, उनकी किसी ने परवाह नहीं की और यह देखने के लिए संपर्क नहीं किया कि क्या वे इस प्रयोग के बाद बीमार हुईं या उनकी सेहत पर ख़राब असर पड़ा। 
सांसद ताईवो ओवाटेमी ने अपने एक्स थ्रेड में लिखा कि उनकी चिन्ता के केन्द्र में वो महिलाएं और उनके परिवार के अन्य सदस्य हैं जिनको इस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। मैं इस बारे में जो कुछ बी पढ़ा और सुना है उससे एक बात तो साफ़ है कि उन्हें न तो बलि का बकरा बनाए जाने की सूचना दी गयी और न ही उनकी सहमति प्राप्त की गई। 
1998 में इस मामले को लेकर हंगामा हो गया। हंगामे के बाद एक जांच कमेटी बनाई गई। इस लीपापोती कमेटी ने दावा किया कि स्टडी में शामिल महिलाओं से कुछ भी छिपाया नहीं गया था। उन्हें सब कुछ अच्छी तरह से समझाया गया था। 
हैरानी की बात यह है कि कमेटी ने यह भी माना कि शायद बहुत समझाने के बाद भी उन महिलाओं को समझ न आया हो कि उनके शरीर पर क्या प्रयोग किया जा रहा है? वहीं कमेटी के काम काज पर सवाल उठाते हुए ब्रिटिश सांसद ने कहा कि अगर सब कुछ पारदर्शी था तो महिलाओं की आगे जांच क्यों नहीं हुई। प्रयोग के नतीजे क्यों सार्वजनिक नहीं किए गए? यहां तक कि प्रयोग में शामिल किसी भी महिला का कुछ अता-पता क्यों नहीं लगने दिया गया।
चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Medical Research Council) और कहा जाए तो संपूर्ण चिकित्सा अनुसंधान समुदाय (Medical Research Council) के काम के लिए जनता और रोगी की भागीदारी, नैतिक कार्यप्रणाली और आपसी विश्वास महत्वपूर्ण है। इस तरह हमारे अनुसंधान में जनता और रोगी दोनों की भागीदारी शामिल है, लेकिन हमारे हर काम में पारदर्शिता, जवाबदेही और सार्वजनिक चुनौती भी शामिल रहने चाहिएं। हमें निष्पक्ष एवं ईमानदार होना भी चाहिये और दिखना भी चाहिये।   
प्रीतम कौर अपने डॉक्टर के पास सिरदर्द के बारे में बात करने गई थी और उनकी पड़ोसन घुटनों के दर्द से परेशान थी। दोनों को बिना बताए बलि का बकरा बना लिया गया और कुछ बताया भी नहीं गया। जब दोनों पर यह राज़ खुला तो वे पूरी तरह से हैरान थीं। दोनों की एक ही प्रतिक्रिया थी कि यदे हमें पहले से बताया गया होता तो हम कभी भी ऐसी ख़तरनाक रोटियां नहीं खाते। 
एक तरफ़ बातें हैं और दूसरी तरफ़ है ठोस सच्चाई। और सच्चाई यही है कि सच को आज भी कहीं छिपाया जा रहा है… दबाया जा रहा है। कोई भी न तो अपनी ज़िम्मेदारी मानने को तैयार है और न ही उस रिसर्च के नतीजे बताने को तैयार है। भारतीय मूल की औरतें आज भी भारतीय भोजन खा रही हैं। सिरदर्द आज भी होता है… घुटनों में दर्द आज भी होता है और एनीमिया से लोग आज भी परेशान हैं; मगर रेडियो एक्टिव चपातियों का राज़ कहीं गहरे में दफ़न है। लगता नहीं कि कभी भी वो भेद खुल पाएगा।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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60 टिप्पणी

  1. बेहद संवेदनशील और मानवता प्रियता की बानगी प्रस्तुत करता संपादकीय। रंग भेद कमजोरों का फायदा उठाता उस वक्त का मेडिकल संसार कितना अमानवीय रहा कि अज्ञानी मासूम लोगों को बलि का बकरा बना अपना उल्लू सीधा करता सभ्य अंग्रेज़ समाज!?! दुनिया भर में ढिंढोरा पीटता ब्रिटेन और विकसित दुनिया का शैतानी चेहरा कल भी और आज भी?
    पुरवाई पत्रिका परिवार और संपादक एवं संपादकीय टीम की खोजी बोल्ड , निडर संवेदनशील संपादकीय प्रस्तुति।
    सलाम सैल्यूट जियो और जीने के अधिकार की वकालत करते रहिए।

  2. संवेदनशील मुद्दे उठाने का अत्यन्त मानवीय प्रयास किया है माननीय सम्पादक जी। मनुष्यता के लिए आपकी प्रतिबद्धता प्रशंसनीय है। तथ्यों की जानकारी ने चौंकाया और पीड़ित भी किया। लेकिन यही सत्य है, बहुत पहले हमारे मनीषी कह गए हैं कि,
    “अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च।
    अजापुत्रं बलिं दद्यात् देवोऽपि दुर्बल घातकः”

    यानी घोड़े,, हाथी और बाघ की बलि नहीं दी जाती है, बेचारे बकरे की बलि ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दी जाती है। ईश्वर भी दुर्बलों का घातक है। यही दुनिया है।

  3. ये तो बहुत बङा धोखा है । शोध के नाम पर किसी के जीवन के साथ कोई कैसे खेल सकता है । बेहद गंभीर मसला है । जिन लोगों ने ये सब किया उनको जरूर पता होगा उन महिलाओं के बारे में। बस छुपाया जा रहा है परिणाम अच्छे नहीं रहे होंगे बेचारी न जाने किस विश्वास के चलते इस धोखे का शिकार हुईं

  4. बहुत चेताया हुआ सम्पादकीय है तेजेन्द्र शर्मा जी। ग़रीब और असहाय और हक़ीक़त से अनजान लोगों को गिनी पिग
    की तरह प्रयोग किया जाता है। केवल विदेशों में ही नहीं
    बल्कि अपने देश में भी। और उसके प्रभाव और परिणाम भी गोपनीय रखे जाते हैं।
    Jyotsna Singh

  5. शरीर में आयरन की कमी होती ही रहती है स्त्रियों में ।खासकर चालीस से पचास वर्ष की आयु में ।रक्त में लाल रक्तकण बढ़ाने के लिए आयरन सिरप या गोलियां खाना पड़ता है ।मगर यहां के डाक्टर छुटते ही रोटी खाने को मना करते हैं । मैंने पूछा ब्रेड या केक आदि से भी तो यही तत्व हमारे शरीर में जाते हैं । फिर उनसे भी परहेज़ क्यों नहीं ?
    कोई मकबूल जवाब नहीं मिला ।यह भी मुझे युरोपियन बाज़ार वाद का मुद्दा समझ आया ।

    • कादम्बरी जी आपकी टिप्पणी का स्वागत है मगर यह किसी भी तरह संपादकीय पर कोई प्रकाश नहीं डालती।

  6. रंग भेद की नीति के आधार पर १९६० के दशक में ब्रिटिश मेडिकल अनुसंधान द्वारा भारतीय मूल की महिलाओं पर किए गये अमानवीय कृत्यों पर प्रकाश डालता एक शोधपरक, अत्यंत संवेदनशील संपादकीय । इतने वर्षों बाद इस मुद्दे को उठाया जा रहा है । अभी अमानवीय कार्यकलापों के ना जाने कितने भेद खुलने। बाक़ी हैं …

  7. भारतीय मूल की महिलाओं पर किए गए अमन अभी एक कृतियों पर प्रकाश डालता एक शोध परक अत्यंत संवेदनशील संपादकीय के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद अभी इस अमानवीय कार्यकलापों के भेद खुलने बाकी है… आपको बहुत-बहुत बधाई इस संवेदनशील लेख के लिए।

  8. प्रश्न चिन्ह लगाता ऐसा संपादकीय जिस पर चर्चा होनी चाहिए। इस अमानवीय कार्य के परिणाम व उसके बाद की स्थिति पर भी जानकारी का इंतज़ार रहेगा।

    • यही हमारी भी मंशा है अनीता जी। जैसे ही अधिक जानकारी उपलब्ध होगी, पुरवाई के पाठकों तक पहुंचाई जाएगी।

  9. सम्पादकीय में रंगभेद के तहत किये गये असंवेदन अमानवीय कार्यों का खुलासा कर आपने एक शोधपरक विषय को उठाया है इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद…
    सोचने की बात यह है कि अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए… तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती है, अभी इस अमानवीय कृत्य के भेद खुलने बाकी हैं..जिनका इंतजार रहेगा..

  10. जब एन्टी डिफ्थीरिया वैक्सीन का ईजाद हुआ तब उसका ट्रायल घोड़ों पर हुआ था तब पशु पर अत्याचार का नारा लगा था यहां तो सीधा इंसानों पर जरूर उनकी नजरों में भारत की महिलाएं पशुवत होंगी।
    सदा की तरह एक खोजी पत्रकारिता बिल्कुल नया विषय जिस के बारे में अन्य कोई सोच भी नहीं सकता उस पर हमारे तेजेन्द्र भाई की नजर पड़ जाती है।

  11. एक गहरे दफन कर दिये गये बेहद जरुरी मुद्दे की जानकारी आपने दी है। लाचार बेबस, तीसरी दुनिया के लोगों को मेडिकल रिसर्च के नाम पर गुयएना पिग बना देना असहनीय है, घोर अनैतिक भी।

  12. एक नई हिला देने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद , निश्चित ही आज भी बिना जानकारी दिए ऐसे प्रयोग किये जा रहे होंगे और हम आप कुछ नहीं कर सकेंगे ।

  13. तेजेन्द्र जी
    नमस्कार
    बहुत ही संवेदनशील संपादकीय! इस प्रकार के प्रयोग पहले पशुओं पर किए जाते रहे हैं।इंसान को पशु से बद्दतर समझे जाने का कितना सशक्त प्रमाण है!
    वे स्वयं कह रहे हैं कि महिलाओं को समझाया गया था परंतु उन्हें समझ नहीं आया। यह तो केवल खाना पूरी है न? जब वे बेचारी समझ ही नहीं पाईं तो क्या फ़र्क हुआ समझाने, न समझाने में? मूर्ख बनाने की बातें हैं।
    आप अपनी खोजी दृष्टि से इतने संवेदनशील विषयों पर चर्चा करते हैं, इसके लिए अभिनंदन

  14. Your Editorial of today speaks of the inhuman n cruel experiment conducted on Indian women by the Britishers as a matter of research to learn more about the nature of radioactive .

    As if they were rats or rabits.
    The usual objects of medical experimentation n research.
    So very right on your part to condemn this.
    Very shocking indeed it has been .
    Warm regards
    Deepak Sharma

  15. पूरी पुरवाई टीम को बधाई इस निडर,संवेदनशील विषय को
    सामने लाने के लिए ।दिल दहल गया।

  16. बेहद तर्कपूर्ण, ज़रूरी और सच्चाई के साथ खड़ा संपादकीय! आश्चर्य है, लोगों के अधिकारों की जबर्दस्त पैरोकारी करने वाले देश में ऐसा अनैतिक कार्य किया गया। बाद में ऐसी शिकार महिलाओं की खोज-खबर न लेना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को दर्शाता है।

  17. अत्यंत संवेदनशील…संपादकीय…। ऐसी अमानवता का प्रयोग करके क्या प्राप्त हुआ? सर आपके तथ्य सत्य को न केवल प्रमाणित किया अपितु पाठक मन को व्यथित भी किया। यह प्रसंग संपादकीय के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाने हेतु धन्यवाद..।

    • आपको संपादकीय ने व्यथित किया, यह संपादकीय की उपलब्धि है। आभार अनिमा जी।

  18. रेडियोएक्टिव चपातियाँ पढ़कर हैरानी हुई। तेजेंद्र जी सही लिख रहे हैं कि सच को
    कहीं छिपाया, दबाया जा रहा है। संपादकीय अनूठी जानकारी देता है जिसमें विज्ञान, इतिहास, प्रवास, रंगभेद, आदि का समावेश है। तेजेंद्र जी के संपादकीय रोचक और ज्ञानप्रद होते हैं।

    • अर्चना आपका समर्थन बहुत उत्साह दे रहा है। हमारे प्रयास निरंतर जारी रहेंगे।

  19. ऐसा न जाने कितने वर्षों से हो रहा है, अनुसंधान के नाम पर चाहे ,बता कर या बिना बताए ।मैं इसकी गवाह हूं क्योंकि मैं एक कैंसर सरवाइवर हूं। जब मेरा सामान्य मान्यता -प्राप्त इलाज पूरा हो गया तब मुझे एक नए तरह का हार्मोन दिया जाने लगा ,मैंने उस पर प्रश्न चिन्ह लगाया और यह जानना चाहा कि अब तक कितनी महिलाओं का रिकॉर्ड है जिन्हें इस इलाज से लाभ हुआ हो? परंतु डॉक्टर ने कुछ भी
    बताने से साफ इनकार कर दिया और यह भी बताया कि उनके पास आंकड़े उपलब्ध नहीं है लेकिन फिर भी मुझे वह हार्मोन दो वर्ष तक खाना पड़ा ,जिससे मेरी क्या हालत हुई वह मैं ही जानती हूं ।फिर तो यह चोरी छुपे हमें गिनी पिग बनाकर अनुसंधान के नाम पर कुछ भी करने की प्रथा कोई नई नहीं है।
    हां ,इस पर जांच होनी चाहिए ,अवश्य होनी चाहिए ।आवाज उठानी चाहिए ,परंतु जिनके साथ अन्याय हुआ वह तो उसके परिणाम से कभी मुक्त ना हो पाएंगे न न्याय पाओ सकेंगी।

    • सरोजिनी जी आपने अपने निजी अनुभव साझा करके संपादकीय को बल दिया है। हार्दिक आभार। हम आपके साथ हैं।

  20. नमस्कार
    सम्पादकीय को पढ़ते ही पीगू का कल्याणवाद याद आ गया । उसी ज़मीन पर अर्थशास्त्री पीगू ने कहा है कि “जब तक कुछ लोगों का अहित नहीं होगा ,तब तक अधिक लोगों का हित सम्भव नहीं है”। कल्याण की यही परिभाषा वैज्ञानिकों के दिमाग में रहती है सम्भवतः ।इसलिए वे मनुष्य और प्रकृति दोनों का शोषण करते हैं ।
    Dr Prabha mishra

  21. आदरणीय तेजेंद्र जी!
    आपके पिछली बार के संपादकीय ने हमें राहत दी थी लेकिन इस बार पुनः यह चौंकाने वाली रही।आपका तो हेडिंग ही चौंकाने वाला था उसी को पढ़ कर हमें लगा कि इसका क्या मतलब है? अब रोटी में क्या हुआ? रोटी मध्य भारत का ही नहीं कई प्रांतों का प्रमुख भोजन है।
    जैसे-जैसे आगे पढ़ते गए तो हैरानी बढ़ती गई दिमाग कुंद होता चला गया।अंग्रेजों के प्रति जो पुरानी सोच थी वह ऐसी जाग्रत हुई कि बिल्कुल भी आश्चर्य‌ नहीं हुआ ।बल्कि उस समय उनके लिए यह करना कोई बड़ी बात नहीं थी।भारतीयों की जान की कोई कीमत उनके लिए ना पहले थी ना तब रही होगी ।हो सकता है कि अब ऐसा ना हो क्योंकि उस समय देश को आजाद हुए बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ था।
    कौन किस रंग में जन्म लेगा यह अगर इंसान के बस में होता तो सभी इंसान गोरे और सुंदर होते ।यह बात कोई समझना ही नहीं चाहता। पता नहीं लोग रंगभेद का भाव क्यों रखते हैं।
    वैसे पढ़ते हुए जब हम आगे बढ़े और हमको सच्चाई पता चली तो हमें आश्चर्य नहीं हुआ। वह समय ही ऐसा था। अंग्रेजों के लिए यह करना बहुत सहज था। कहीं ना कहीं तो उनके मन पूर्व भावना रही होगी। देश में राज करते हुए उनकी क्रूरता क्या कम थी ! इसलिए ऐसा करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी और उन्होंने किया‌। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता रहा होगा कि जिन पर प्रयोग किया गया है, उनको क्या तकलीफें होने वाली है? और उनकी बला से मर भी जाते तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ना था और न पड़ा होगा।

    आप कोई परीक्षण भी कर रहे हैं, उसके लिए आपने बताया भी तो इस ढंग से कि सामने वाला समझ ही नहीं पाया फिर चाहे वह कारण कोई सा भी रहा हो और फिर आपने उसके परिणाम का, जिस उद्देश्य से अनुसंधान किया गया था , परिणाम क्या हुआ? उन पर क्या प्रतिक्रिया हुई जिन पर प्रयोग किया गया? वह जिंदा हैं भी या नहीं? और अगर हैं तो किस हाल में है? यह सब जानने का प्रयास भी नहीं किया। यह तो सरासर अन्याय ही है। और अनुसंधान भी ऐसा जिसमें जानलेवा खतरा हो, कैंसर जैसे रोग का खतरा हो!!!

    सांसद ओवाटेमी का कहना कि वे पार्लियामेंट में इस मामले में डिबेट की माँग रखेंगी कि ऐसा क्यों हुआ ?यह स्वागत योग्य है। सांसद ज़ारा सुल्ताना ने भी मामले की जाँच की माँग में ओवाटेमी का साथ देने की बात कही है, इसका भी हम स्वागत करते हैं।
    आपने बिल्कुल सही कहा है तेजेन्द्र जी- अनुसंधान में जनता और रोगी दोनों के लिये ही भागीदारी की दृष्टि से हर काम में पारदर्शिता होनी ही चाहिए। निष्पक्षता व ईमानदारी होनी भी चाहिये और दिखनी भी चाहिये।
    देश-दुनिया में होने वाले संवेदनशील मुद्दों पर तथ्य पूर्ण सामग्री के साथ अपनी बात को संपादकीय के माध्यम से सबके सामने निर्भयता से लाने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।

    • आपकी विस्तृत टिप्पणी संपादकीय को बहुत से नये आयाम देती है नीलिमा जी। हार्दिक आभार।

  22. बहुत संवेदनशील विषय उठाया आपने सर l अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों के शोषण का एक और पर्दाफाश जैसा, जिसमें उनका अमानवीय चेहरा खुल कर सामने आ रहा है l ये एक निंदनीय मेडिकल धोखा है l ऐसे मुद्दे को हम पाठकों के सामने लाने के लिए आभार l

  23. अनुसंधान कोई भी हो उसका सर्वप्रथम महत्वपूर्ण पक्ष सत्य व तथ्य पर आधारित होना ही है, जिसका लक्ष्य मानव जीवन को समृद्ध कर उसकी गुणवत्ता में सुधार करना है, और जहां तक गामा और बीटा जैसी खतरनाक विकिरणों से लैस रेडियोएक्टिव आइसोटोप, जिस पर प्रयोग करते समय वैज्ञानिकों को भी दुष्प्रभाव से बचने हेतु परिरक्षण सामग्री का उपयोग करना पड़ता है, ऐसे में हमारे देश की कम पढ़ी लिखी, निर्दोष, सीधी-सरल भारतीय महिलाओं पर किया गया यह स्वार्थपरक प्रयोग अत्यंत शर्मनाक और भयावह है। इनका यह कुकृत्य दर्शाता है, कि भारतीयों के प्रति अमानुषिकता क्या स्तर रहा होगा! इस घृणित प्रयोग के पश्चात उन तमाम स्त्रियों व गर्भवती महिलाओं के पुन:निरीक्षण की कार्यवाही ना कर उन्हें उनकी स्थिति पर छोड़ देना भी अति निंदनीय है। रेडिएशन का उन मासूम महिलाओं व उनके गर्भ में पल रहे बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा यह सोचकर आत्मा कांप जाती है। ऐसे में सांसद ताइवो ओवाटेमी व सांसद ज़ारा सुल्ताना द्वारा लिया गया इस जघन्य घटना की जांच का निर्णय अत्यंत सराहनीय है, क्योंकि यदि यह प्रयोग पारदर्शी होता तो संभवत: पूर्व में ही इसका परिणाम सार्वजनिक होता।
    आदरणीय,देश विदेश के अमानवीय सत्य को उजागर करता, अति संवेदनशील मुद्दे पर लिखा गया आपका ये सूचनात्मक सम्पादकीय नैतिक चिंताओं का प्रखर परीक्षण और आपके सशक्त लेखन का पर्याय है…साधुवाद।

    • आपके समर्थन हमारा हौसला बढ़ा रहा है ऋतु जी। हम ऐसे मुद्दे आप सबके सामने लाते रहेंगे।

  24. डा०कुश चतुर्वेदी इटावा उत्तर प्रदेश,भारत डा०कुश चतुर्वेदी इटावा उत्तर प्रदेश,भारत

    रंग भेद और नस्ल भेद का अमानवीय पक्ष है यह रेडिओ एक्टिव चपातियां।इतने गंभीर विषय पर यह संपादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है।इतने साल बाद जांच की मांग बिट्रेन की संवेदना और जागरूकता को दर्शाता है।यह ऐसा विषय है जिस पर हम लोगों को सब कुछ नई जानकारी मिली है।आज समय बदला है भारत वंशियो ने जहां भी हैं अपनी प्रतिभा से स्थान बनाया है,अब शायद कोई देश भारतीयों को कमतर आंकने की भूल न कर सकेगा।

  25. हमेशा की तरह एक बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने के लिए बहुत धन्यवाद सर… आपकी खोजी स्वतंत्र पत्रिकारिता को नमन मैं भी अभी हाल में कहीं पढ़ा था कि भारत में 80 से 90 प्रतिशत महिलाओं के रक्त में आयरन की कमी है तभी एक दोहा लिखा था कि –

    अद्भुत रचना इश्क की, नारी तभी सशक्त।
    जग से लोहा ले रही, नहीं आयरन रक्त।।

  26. रेडियोएक्टिव चपातियों के बारे में इतना ही कहना चाहूँगी कि सदियों से अमीरों ने गरीबों को कमतर समझा है वे उन्हें इंसान नहीं जानवर ही समझते हैं और रहेंगे।आपने अपने संपादकीय में सन 1960 में भारतीय मूल की गरीब महिलाओं को रेडियो एक्टिव चपातियां खिलाकर उन पर उनका दुष्प्रभाव जानने की, एक अमानवीय बात को उजागर किया है लेकिन
    55 वर्षो पश्चात् एक ब्रिटिश सांसद द्वारा भारतीय मूल की महिलाओं के साथ हुई ज़्यादती के बारे में ब्रिटेन की संसद में प्रश्न उठाना, इस बात का सबूत है कि आज भी कुछ लोगों में मानवीयता जीवित है।
    आपको साधुवाद

  27. बहुत ही महत्वपूर्ण व संवेदनशील विषय ।निश्चय ही हम भारतीयों को दोयम दर्जे का मान ऐसा प्रयोग किया गया।कहीं न कहीं हम उनकी नजर में गुलाम रह चुके थे।उन्होंने है सबको अपने से कमतर हो आंका था।यह उनका अमानवीय पक्ष उजागर करता है।अच्छी जानकारी के लिए संपादक महोदय को शुभकामनाएं।यूं ही हम सभी पुरवाई परिवार को नए नए विषयों से जाग्रत करते रहें।साधुवाद तेजेंद्र जी

  28. हैरतअंगेज और संवेदनशील एकदम हिला देने वाला संपादकीय।एक बार फिर साबित हुआ कि कमजोर को ही हमेशा दबाया जाता है अशिक्षित होना भी कितना बड़ा अभिशाप है।

  29. बहुत ही लीक से हटकर जानकारी। ज्ञानवर्धक संपादकीय है आपका सर। बहुत सी बातें जानने को मिली शुक्रिया आपका

  30. सुन्दर विवेचन। हर बार एक नए विषय पर आपकी संपादकीय होती है।
    पढ़कर कृतार्थ हुआ।
    – मोक्षेन्द्र

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