Sunday, September 8, 2024
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जो सपने हमने 1991 में देखे थे, वो अब पूरे होते नज़र आ रहे हैं – संदीप मारवाह

फ़िल्म और टेलीविजन की दुनिया में संदीप मारवाह का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। नोएडा फ़िल्म सिटी के संस्थापक सहित मारवाह स्टूडियो और एशियन एकेडमी ऑफ़ फ़िल्म एंड टेलीविजन के अध्यक्ष के रूप में संदीप मारवाह की पहचान न केवल भारत अपितु विश्व भर में फैली हुई है। यह पुरवाई परिवार के लिए प्रसन्नता का विषय है कि संदीप जी ने समय निकालकर पुरवाई टीम के सवालों के जवाब दिए हैं। इस बातचीत में संदीप जी ने अपने निजी और व्यावसायिक दोनों ही जीवनों के विषय में खुलकर बात की है। प्रस्तुत है।

प्रश्न संदीप जी आपका जन्म दिल्ली में हुआ। मगर फ़िल्मों के लेकर आपकी इतनी परिपक्व सोच कैसे पैदा हुई कि आपने 26 साल की आयु में दिल्ली सरकार को फ़िल्म सिटी बनाने का प्रस्ताव पेश कर दिया?
संदीप जी नमस्कार। जी, बिलकुल ठीक कहा आपने। हक़ीक़त तो ये है कि मैं अपने कॉलेज के दौरान थिएटर और क्रिएटिव आर्ट में बहुत ज़्यादा व्यस्त रहा था। वहीं से पहले फ़िल्मों और फिर एक्टिंग की तरफ़ मेरा रुझान हुआ। ये मेरी ख़ुशक़िस्मती थी कि मुझे कॉलेज और स्कूल दोनों ही में बहुत प्रोत्साहन मिला। मैं आर्ट और म्यूज़िक को लेकर बहुत ज़्यादा सक्रिय था, तो मेरे टीचरों ने भी आगे बढ़ाने की कोशिश की। चाहें वो नाटक हो, म्यूज़िक हो, रेसाइटेशन हो, इंटरेक्शन प्रोग्राम हो या स्पोर्ट हो, हर चीज में मुझे स्कूल और कॉलेज में बहुत प्रोत्साहन मिला। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन कॉलेज में प्रिंसिपल ने मुझे बुलाकर कहा कि यार मारवाह, तुम हर हफ़्ते अपनी कोई न कोई नई रिक्वायर्मेंट लेकर के आ जाते हो और कोई न कोई नई चीज़ के चक्कर में पड़े रहते हो, तो ऐसा करो कि तुम ख़ुद ही कॉलेज चला लो। तब किसे मालूम था कि उनके वो शब्द मेरा भाग्य बदल देंगे और एक दिन मैं ख़ुद कॉलेज का प्रिंसिपल बन जाऊँगा। 
फिर दिल्ली में नाटकों का एक ग्रुप था, वहाँ मैं नादरा ज़हीर जी के साथ जुड़ गया। सौभाग्यशाली हूँ कि नादरा जी के साथ एंट्री डायरेक्शन में राज बब्बर, पंकज कपूर, नीना गुप्ता, अनुपम खेर, धीर और कविता जैसे अच्छे आर्टिस्ट के साथ मुझे काम करने का अवसर मिला। मुझे लगता है कि वहाँ से मुझे थोड़ी और प्रेरणा मिली। कॉलेज ख़त्म करने के बाद मेरी बड़ी इच्छा थी कि हिंदुस्तान का जो पुराना प्रीमियर फ़िल्म स्कूल है, वहाँ से एक्टिंग का एक कोर्स करूँ। लेकिन वहाँ जाने पर पता चला कि वहाँ एक्टिंग का कोर्स बंद हो चुका है। तब मेरी जिज्ञासा और जोश एक जर्क खा गई और लगा कि हज़ारों लोग भारत में फ़िल्म और टीवी के साथ जुड़ना चाहते हैं, लेकिन भारत का एक इंस्टीट्यूशन है और वो भी अपना एक्टिंग का कोर्स बंद करके बैठा हुआ है। ख़ैर, मैं फिर दिल्ली वापस आ गया और थियेटर करता रहा। टेलीविज़न में मुझे मौक़ा मिला। दिल्ली दूरदर्शन का एक चैनल था, जिसमें एक दफ़ा आपको काम मिल जाए तो फिर छ: महीने से पहले काम मिलता नहीं था। लाइनों में खड़े रहिए, ऑडिशन देते रहिए, लेकिन उनका ये तय किया हुआ था कि जो आज एक दफ़ा आ गया वो अगले छः महीने बाद ही टेलीविजन पर किसी रूप में आ सकता है। क्योंकि, एक ही चैनल था और हज़ारों कलाकार वहाँ मौजूद रहते थे। 

ख़ैर, फिर एक दफ़ा मुझे मौक़ा मिला दिल्ली में, वहाँ एक फ़िल्म प्रॉड्यूसर मिस्टर एच एन रेड्डी आए हुए थे। उनसे मेरी मुलाक़ात हुई। मेरे पिताजी के अच्छे मित्रों में रहे मशहूर एक्टर ओम प्रकाश, बड़े डायरेक्टर व प्रॉड्यूसर प्रकाश मेहरा, सत्यम पाल चौधरी आदि भी, जब मेरे घर आते तो मुझे मोटीवेट करते थे कि, आइये-आइये, बंबई आइए, थोड़ी जान लड़ाइये तो कहीं न कहीं मौक़ा मिल जाएगा। मैं बंबई चला गया। वहाँ मुझे वही एच एन रेड्डी जो मुझे दिल्ली में मिले थे, ने मुझसे कहा कि मैं आपको अपनी फ़िल्म में लेना चाहता हूँ। तीन फ़िल्में उन्होंने मेरे साथ साइन कीं, उस वक़्त की तीन बड़ी हीरोइनों के साथ। मेरा इंटरेस्ट वहाँ जाग गया। लेकिन अफ़सोस की बात यह रही कि आदरणीय एच एन रेड्डी जी का स्वर्गवास हो गया और वो तीनों फ़िल्में बंद हो गईं। मैं निराश होकर दिल्ली वापस आ गया। इस बार मैंने ये सोच लिया था कि मैं जो कुछ भी करूँगा, दिल्ली में करूँगा। इसी ज़िद को लेकर मैं आगे बढ़ा और फिर 1986 के अंदर मैंने ये सपना देखा कि जिस चीज़ केलिए हम बंबई की तरफ़ भाग रहे हैं, वैसा ही कुछ दिल्ली में क्यों न हो! इस सपने को मैंने कागज पर उतारा, एक नक़्शा बनाया और उसे लेकर दिल्ली में गली-गली घूमता रहा कि कोई इसे उठा ले। मैं एलएनडीए, एमसीडी, दिल्ली सरकार सबसे मिला और कई दफ़्तरों में गया। लेकिन इन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। कई लोगों ने तो मुझे बेवकूफ़ और पागल ही समझा कि, इसे फ़िल्मी कीड़े ने काट रखा है और ये नाटक या फ़िल्म करके दीवाना हुआ कागज लेकर घूम रहा है। 
फिर मैं कहूँगा मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि हमारी अपनी दुकान जो ख़ान मार्केट में मेरे भाई चलाते थे, वहाँ एक रोज़ जब मैं गया तो, मेरे भाई ने कहा कि, ये देखिए आपके सामने नोएडा अथॉरिटी के चेयरमैन खड़े हैं। आप इनसे मिलिए और इन्हें अपनी बात बताइये। योगेश चन्द्र जी तब नोएडा अथॉरिटी के चेयरमैन थे। उन्हें मैंने बताया कि एक फ़िल्म सिटी का सपना मैंने देखा है। अगर सरकार उसमें जुड़े और आपको ये ठीक लगता है, तो मैं ये प्रोजेक्ट आपको देना चाहता हूँ। उन्होंने ध्यान से मेरी बात सुनी और कहा कि आप कल परसो में मेरे दफ़्तर में आकर मिलिए। मैं एक-दो दिन बाद उनके दफ़्तर में अपनी फाइल लेकर चला गया। उन्होंने बड़े इत्मीनान से फाइल देखी और तब मैंने पहली दफ़ा किसी आईएएस ऑफिसर को कुर्सी से उछलते देखा। उन्होंने कहा,  देखिए मेरे पास ज़मीन भी है और मुझे नई प्रोजैक्ट्स की ज़रूरत भी है। उन्होंने कहा कि आप इसे एक डिटेल प्रोजेक्ट बनाकर लाइए। इसे हम सबमिट करेंगे। तब लगा कि संदीप मारवाह तेरा काम होता नज़र आ रहा है। 
1986 के दिसंबर का महीना था। मैंने दस दिन बाद एक पूरा प्रोजेक्ट बनाकर सबमिट किया और वो प्रोजेक्ट नोएडा अथॉरिटी के बलबूते पर लखनऊ में, तब के हमारे, चीफ मिनिस्टर आदरणीय वीर बहादुर सिंह जी के पास पहुँच गया। यह भी एक संयोग कहेंगे कि वीर बहादुर सिंह जी को फ़िल्मों का बड़ा शौक़ था और उन्हें ये प्रोजेक्ट बहुत अच्छा लगा। उस प्रोजेक्ट को लेकर फिर भले ही एक साल कभी लीगल डिपार्टमेंट तो कभी लैंड डिपार्टमेंट वग़ैरह में लगा। फिर दिसंबर, 1987 में ये प्रोजेक्ट यूपी की विधानसभा से पास हो गया। इसके बाद लोगों ने मुझे नोएडा का फाउंडर कहना शुरू कर दिया। फिर एक लंबी कहानी है, नोएडा फ़िल्म सिटी को तैयार करने की। लेकिन इस प्रोजेक्ट की सोच के पीछे, आठवीं-नौवीं से लेकर पूरी कॉलेज लाइफ़ और उसके बाद तक चौदह-पंद्रह साल का पूरा एक वनवास मैंने बिताया। मैं समझता हूँ कि किसी फ़िल्म स्कूल में मुझे एडमिशन न मिलना, बंबई में कामयाबी न मिलना और फिर मेरी ये ज़िद कि उत्तर भारत में ही काम करना है, जैसी कई चीजें इस प्रोजेक्ट के पक्ष में काम कर गई थीं।   
प्रश्न आपका रीना जी से विवाह 23 वर्ष की आयु में ही हो गया था जो कि आम तौर पर किसी लड़के के लिये छोटी मानी जाती है। क्या यह एक लव-मैरिज थी या फिर माता-पिता द्वारा तय की गयी शादी?
संदीप जी बिल्कुल, माता-पिता द्वारा तय की गई शादी थी। हक़ीक़त तो ये थी कि, मैं उस वक़्त बिल्कुल भी मेंटली तैयार नहीं था और ना उस वक़्त शादी करना चाहता था। उम्र मेरी काफ़ी छोटी थी। मुझे फिल्म, टीवी, मीडिया, आर्ट-कल्चर का तो भूत सवार ही था और कुछ करके दिखा देना चाहता था। 
मैंने थियेटर में तो अच्छा नाम दिल्ली में कमा लिया था। इतना पता है कि, आई वाज हाईएस्ट पेड एक्टर और मेरे साथ काम करने वाले नैशर स्क्रो ड्रामा के सभी आर्टिस्टों को कम मिलता था, मुझे सबसे जादा मिलता था। मैंने अच्छे नाटक किये, ख़ुद मैंने नाटक प्रोड्यूस किये, डायरेक्ट किये, एक्ट किये, स्टेज क्राफ़्ट किया तो सारी विद्याएँ मैंने नाटक में तो सीख ही ली थीं। टेलीविज़न में दूरदर्शन के सहारे मुझे काम मिलना शुरू हो गया था। एक छोटी सी recognition बन गयी थी। लोग जानते थे कि ये लड़का दिल्ली में काम करता है। इस बीच में पिता जी के business के साथ भी मैं जुड़ा ही रहा। क्योंकि जब मैंने 1978 में कॉलेज पास कर लिया था, मैं मात्र 18 साल का था। मुझे अपने पढ़ाई के दौरान स्कूल और कॉलेज में दो बार डबल प्रमोशन मिली। मैं 15 साल की उम्र में स्कूल पास कर लिया था और जो बाद में थोड़ा difficult भी हुआ मुझे कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए तो मुझे special letter इशू की गई बोर्ड से और स्कूल से कि भाई इसे डबल प्रमोशन दी गई थी। इसलिए ये एक साल आगे चल रहा है। और इसी तरीक़े से मैं अट्ठारह साल की उम्र में कॉलेज से बाहर हो गया, तो मैंने पिताजी के साथ काम करना शुरू कर दिया। पिता जी को ये लगने लगा कि लड़का बहुत mature हो गया है और मैं obedient स्टूडेंट और एक बहुत ही obedient बच्चा था। अपने माँ-बाप की हर बात को मानता था। मुझे लगता था कि माता-पिता के experience को आप absorb कर लें तो आपकी अपने ज़िन्दगी के हाथ जलाने वाले जो दिन हैं, वो कम हो जाते हैं।और इसी बीच में ये रिश्ता आया। छोटे-मोटे रिश्ते इधर-उधर से जरूर आते रहे होंगे। कपूर फैमिली का दिल्ली आने का कार्यक्रम बना जिसमें उनकी मदर-फ़ादर और रीना खुद एक शादी अटेंट करने आ रहे थे। उनकी कज़िन की शादी थी। हमारे एक कॉमन फ्रेंड से उन्होंने रेफ़र किया कि आप भी आइए। मेरे माता-पिता गए, लेकिन मैं नहीं गया। मेरा तो कहीं कोई विचार ही नहीं था कि शादी करनी है। ये बात वहाँ अधूरी सी हुई। उस दिन शाम को माँ-बाप वापस आ गए। लेकिन उन्होंने रीना को देखा और उन्हें रीन बहुत पसंद आई। उन्होंने आकर ये कन्विन्सिंग शुरू कर दी कि, भाई देखो ऐसा है कि तुम एक दफ़ा लड़की देख के हाँ-ना बोल दो ताकि उन लड़की वालों को भी संतोष हो जाए। अगर वो इस सोच से दिल्ली आए भी हैं तो। ये एक बड़ा अजीब सा माहौल हो गया मेरे लिए। वो लोग कुछ दिन दिल्ली रहने वाले थे।  एक दिन का शायद गैप छोड़ के उसके अगले दिन कनॉट प्लेस के अंदर प्लाजा सिनेमा में एक जो थिएटर है, उसके उपर एक बहुत खूबसूरत सा फ्लैट है जहां रीना के मामा जी एफसी मेहरा जो ख़ुद चर्चित फ़िल्म प्रोड्यूसर और प्लाज़ा के मालिक रहे,  उनके साथ हमारी वहाँ पर जनरल फ़ैमिली मीट हुई। चार-पाँच लोग उनकी ओर से, चार-पाँच लोग हमारी तरफ़ से। ड्राइंग रूम में बैठकर जैसे सब लोग बात करते हैं, वैसे ही वहाँ से बातों की एक हल्की सी सरसराहट शुरू हुई। 
वहाँ पर मैंने जब रीना को देखा तो हक़ीक़त यही है कि मैं भी मोहित हो गया। शी इज़ वैरी नाइस गर्ल। मैं उनकी तमीज़, तहज़ीब और उनके बोलने के ढंग से प्रभावित हुआ, सिर्फ़ प्रभावित हुआ, लेकिन तय नहीं कर पाया कि, मुझे शादी करनी है या नहीं। ख़ैर, वो बात फिर एक दफ़ा अधूरी रह गई। हम लोग घर आ गए, वो लोग जवाब माँगते रहे। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। फिर एक दिन का गैप और आ गया और मेरे पिताजी ने बड़ी हिम्मत करके कहा कि मुझे लगता है कि लड़का-लड़की को खुलके बातचीत करने का भी मौक़ा देना चाहिए। फिर पिताजी ने हमारे घर पर एक डिनर रखा और उसमें सभी लोग शाम को आए। इसबार मुझे रीना से बात करने का मौक़ा भी मिला। हम लोग अलग से एक कमरे में बैठकर चर्चा करते रहे और शायद उस आधे घंटे के दौरान उन हालात, उन तौर-तरीक़ों और नज़ाकतों ने मुझे मजबूर किया या मुझे ऐसा लगा कि ये मेरे लिए हैं। वो शायद दिन था कि लव एट फ़र्स्ट साइट जैसा कुछ हुआ और मुझे लगा कि यकीनन हां कह देनी चाहिए। शायद वहीं से बात तय हुई, बाक़ी आगे तो कहानियाँ बन गईं; और फिर रिश्ता पक्का हो गया, और एक दिन के गैप के बाद, बल्कि उन्होंने ज़बरदस्त तैयारी कर दी और दोनों फैमिलियों के तक़रीबन 200 लोग मिले और एक बहुत तरीक़े से एंजेगमेंट फंक्शन दिल्ली में ऑर्गनाइज़ कर दिया गया। तो मुझे वो पुरानी बात याद आ जाती हैं कि मैरिजेज आर सेटल्ड इन हेवन।
प्रश्न एक मामले में आप महान शोमैन राज कपूर के मुकाबले में आ खड़े होते हैं। उन्होंने जिस उम्र में आर.के. स्टूडियो की स्थापना की, लगभग उसी उम्र में आपने नोएडा फ़िल्म सिटी की स्थापना कर दी। पुरवाई के पाठकों को अपने इस अनुभव के बारे में बताइये।
संदीप जी मैं समझता हूँ, ये ऊपर वाले का आशीर्वाद है, हमारे माता-पिता का आशीर्वाद है कि, मुझे एक एक्स्क्लूसिव काम करने का मौका मिला भारत के लिए, और क्योंकि बंबई में तो महाराष्ट्र की फिल्म सिटी बनी हुई थी, लेकिन और कहीं पे भी कोई दूसरी फिल्म सिटी देश में नहीं थी। मद्रास में फिल्म बिज़नस थोड़ा ज़रूर इस्टेब्लिश था, कलकत्ते में बहुत थोड़ा सा फ़िल्म बिज़नस इस्टेब्लिश था। इस तरह ये उत्तर-भारत की पहली और भारत की दूसरी फ़िल्म-सिटी तैयार हो रही थी। जिसको पास होने के बाद भी कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा और कई लोग तो इसके पास होने पे और इग्नोरेन्स होने के बाद भी इसे कोसते रहे। कुछ लोग ये कहते रहे कि ये कभी सफल नहीं होगी। कुछ लोग इसे 1970 में, जब सुनील दत्त भी एक दफ़ा गाजियाबाद के अंदर फिल्म सिटी बनाने का सपना लेकर आए थे और वहाँ पर उन्होंने एक भव्य कार्यक्रम में ये एनाउंस किया था। लेकिन उसके बाद भी कुछ नहीं हुआ था। पिछली सरकारों ने भी कई बार ये सब बातें की थीं, कभी साउथ से आवाज आती थी, कभी नॉर्थ से, लेकिन कभी भी कोई कॉन्क्रीट जॉब नहीं हो पाया था। 
जब ये फ़िल्म-सिटी पास हुई, तो एक बहुत बड़ा काम हुआ‌। क्योंकि ये कहते हुए मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है कि, ये इन सोलह स्टूडियो में से तक़रीबन साढ़े तीन सौ चैनल, एक सौ बासठ मुल्कों में प्रसारित हो रहे हैं, करीब सत्रह हज़ार लोग इस वक्त आठ घंटे की तीन शिफ्ट में यहां पर काम कर रहे हैं। जब फिल्म सिटी का सपना लेकर हम आगे बढ़े थे और नोएडा अथॉरिटी ने इस प्रोजेक्ट को पास कर दिया था तो हक़ीक़त तो यह कि कोई आना ही नहीं चाहता था। ढोल-नगाड़े बजाने पड़े दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास, बंबई में  लोगों को बताना पड़ा कि नोएडा में फिल्म सिटी आने वाली है – आईये, आईये, अप्लाई करिये। कोई आने को राजी नहीं था। नोएडा  को लोग कहते थे नो आईडिया, यूपी को लोग कहते थे उल्टा-पुल्टा। सोचिए, बहुत चोट पहुंचती थी और ऐसा लगता था कि लोग कितने नादान हैं, इनकी शिक्षा कितनी कमज़ोर है कि, ये लोग इस बात को भी नहीं समझ पा रहे हैं कि, आने वाले दिनों में ये एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट बन सकता है। 
मुझे ख़ुद जाकर बंबई से, बोनी कपूर को, टूटू शर्मा को, एफसी मेहरा को लाना पड़ा। दिल्ली में मेरे दोस्त थे गुल्शन कुमार जी, जो म्यूजिक का काम करते थे, क्योंकि फिल्मों के साथ जुड़े हुए थे, उनको मैंने राजीऊ कर लिया था कि, आप आइए, आपको तो यहाँ पर आना ही पड़ेगा और वो बड़े खुश थे आकर। उन्होंने मेरे साथ हाथ बढ़ाया, बल्कि पहले थे वो, जिन्होंने मेरे साथ यहाँ पर प्रोजेक्ट में, अपना भी प्रोजेक्ट, अपनी भी एप्लिकेशन डाली। फिर पूरण चंद सरीन के साथ मिलकर, उन्होंने यहाँ एक प्लॉट अप्लाई किया। 
जितेंद्र, जो हमारे चर्चित कलाकार हैं, उनके भाई, brother-in-law ने, apply किया। इस तरीक़े जो है फिल्मों का बनना शुरू हो गया और बड़े-बड़े चर्चित नाम जुड़ने शुरू हो गये। फिर इसी भीड़ में हम लोगों ने निवेदन किया यश चोपड़ा से, वो भी आ गए। विनोद पांडेय और डैनी दोनों ने मिलकर एक प्लॉट अप्लाइ कर दिया। इस तरह हम क़रीब 12 लोग हो गये थे, जिन लोगों को पहली अलॉट्मेंट हुई थी, और उसके बाद जब हवा बदली और देश भर में जब खबरें छपनी शुरू हो गई, तो सैकड़ों लोगों की लाइन लग गई। उसी नोएडा अथॉरिटी में जहां कोई अंदर घुसना नहीं चाहता था, वहाँ कतारों में बड़े बड़े नामी-गिरामी फिल्म प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर्स खड़े हो गए और मुझे याद है, अशोक ठकरिया, इंद्र कुमार, ऋषि कपूर, जैसे लोग लाइन में रहे, जो चाहते थे कि उन्हें भी अलॉट्मेंट हो। लेकिन तीन साल का समय दिया गया कि आप तीन साल के अंदर अपने भवन तैयार कर लेंगे और प्रोडक्शन में आ जाएंगे, ये मेरा सौभाग्य था। 
मुझे लगा कि क्योंकि मेरा प्रोजेक्ट है, मैं फाउंडर कहला रहा हूँ तो मुझे सबसे पहले रेडी कर देना चाहिए और चारदिवारी बनाने के बाद और एक स्टूडियो पूरा तैयार करने के बाद हमने 10 मार्च 1991 को, क्योंकि 1988 में अलॉट्मेंट हुई और तीन साल का वक्त मिला और हमने मार्च 1991 के अंदर उत्तर-भारत के पहले प्रोफ़ेशनल फ़िल्म स्टूडिया का उद्घाटन कर दिया। 10 मार्च 1991 को हमारा उद्घाटन हुआ और बहुत सारे लोग बंबई से नोएडा पहुँचे। दो हजार से भी जादा लोग उस पूरे सेंटर में हमारे मारवाह स्टूडियो के प्रांगण में आ गए। एक हज़ार, जिन्हें बुलाया गया था, एक हजार वो जिन्हें अंदर नहीं बुलाया गया था; और भी बहुत सारे लोग वहाँ पर पहुँच गए। जब हम स्टूडियो बना के तैयार हो गए, एक बहुत बड़ी इनॉग्रेशन हुई तो बहुत सारे लोगों को ये यकीन हो गया कि अब फिल्म सिटी यहाँ आएगी और बहुत सारी फ़िल्मों व टीवी मीडिया एवं आर्ट-कल्चर का काम होगा। हमारी ख़ुद की अपनी जो प्रेस थी मीडिया वो भी लगी हुई थी। धड़ाधड़ किसी ना किसी तरीके से नेगटिव न्यूज़ बनाने में। शायद उन्हें मज़ा आता होगा। उस नेगटिव न्यूज़ बनाने का और मुझे कई बार जो पेपर नेगटिव लिखते थे, उसे बुलाकर उसे सीधी बात बताने पड़ती थी कि, आप फ़िल्म और टीवी मीडिया की बात कर रहे हैं तो, समझिए कि रातों-रात कोई जादू की छड़ी नहीं है कि, यहाँ पर लाइन लग जाएगी। मेहनत करनी पड़ेगी और बहुत मेहनत करनी पड़ी। दिन-रात एक करना पड़ा। लेकिन मुझे इतना पता है कि जब हमारी इनॉर्गरेशन थी तो उसमें मैं टेलीविज़न सीरियल दूरदर्शन का एक कमिशन प्रोग्राम था, उस पूरे सीरियल को मैं मारवाह स्टूडियो में ले के आया। उसकी पूरी शूटिंग वहीं हुई। क्योंकि मेरे पास ही ज़िम्मेदारी थी तो उसके अंदर हम लोगों ने प्रेम की जो शूटिंग थी, संजय कपूर को लेकर, वो वहां से शुरू की। पहला सेट लगा उस सेट को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे कि, फ़िल्म स्टूडियो क्या होता है। लोग उसे देखने के लिए वहाँ पर आते थे। वो एक चहल-पहल का कारण बन गया था।  करते-करते वो और बात है कि हम लोगों ने मारवाह स्टूडियो से फिर से एक बार एक अंतरराष्ट्रीय रिकॉर्ड कायम कर लिया। मज़े की बात है कि तक़रीबन साढ़े चार हजार टेलीविज़न प्रोग्राम पचास से भी ज़्यादा चैनल के लिए करीब पांच हजार ट्रेनिंग फिल्मों का हमने निर्माण किया। करीब एक सौ बीस फ़ीचर फिल्मों के साथ हम जुड़े इंडोर-आउटडोर को मिला कर और और मेरी प्रोड़क्शन कंपनी ने यहां से करीब 3500 शॉर्ट फिल्मों का निर्माण किया। 
इस तरह हम लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कोई दिन ऐसा खाली नहीं छोड़ा जब हमने दिन-रात मेहनत न की हो। क्योंकि पूरे उत्तर-भारत के अंदर फिल्म-टीवी मीडिया का कोई कल्चर नहीं था। लोगों को ध्यान ही नहीं था। दूरदर्शन की चारदिवारी को छोड़कर और ऑल इंडिया रेडियो को छोड़कर, किसी को कुछ पता ही नहीं था कि, फ़िल्म, टीवी, मीडिया में कैसे क्या हो सकता है। क्योंकि उन दोनों में जो एडवरटाइजिंग कंपनी थी, वो भी बंबई जाय करती थी और कोई अगर पैसा कमा लेता था तो फिल्म बनाने भी बंबई ज़ाया करता था। जिसे बहुत ज़्यादा लालसा होती थी, फ़िल्मों में काम करने की, किसी भी तरीके से, वो भी बंबई जाया करता था। तो एक बहुत बड़ा जो पर्पज़ लेकर हम चले थे कि, हमें यहाँ फ़िल्म-सिटी इस्टैबिलिश करनी है, फिल्म, टीवी, मीडिया का काम इस्टैबिलिश करना है, ताकि जो लोग उत्तर-भारत से इधर-उधर काम ढूंढने के लिए जाते हैं, उन्हें यहीं काम मिले। दिल्ली और आसपास के लोगों को पता चले। यहाँ एक बहुत बड़ा अट्रैक्शन सेंटर बने और उत्तर-भारत के लोगों को यहाँ काम करने का मौका मिले। इतना ही नहीं, यह भी कि दुनिया भर से जो भी लोग फ़िल्म की बात करते हैं, उन्हें भी यहाँ आने का मौका मिले। शुरू-शुरू में मानना ही था कि ऐसा हो सकता है आने वाले समय में कुछ होगा। आज देखिये 33 साल तो स्टूडियो को हो गए। जितनी मेहनत हमने की, ऐसा लगता है कि परमात्मा ने हमें उसका फल भी दिया है।   

प्रश्न आप देखने में ख़ासे ख़ूबसूरत, गोरे-चिट्टे पंजाबी हैं। बोनी कपूर, अनिल कपूर और संजय कपूर आपके साले हैं। क्या कभी आपका दिल नहीं चाहा कि आप भी सिनेमा के हीरो बन कर लोगों के दिलों पर राज करें?
संदीप जी ये तो इंट्रेस्टिंग है कि बचपन से ही लोग मुझे स्कूल और कॉलेज में हीरो-हीरो बोला करते थे। पता नहीं क्यों बोलते थे। शायद इसलिए बोलते होंगे क्योंकि कहीं ना कहीं मेरा फिल्म, टेलीविज़न, मीडिया की ओर रुझान भी था; और शायद मुझे क़िस्मत यहां तक लेकर आना भी चाहती थी; तो एक्टिंग का तो मैंने शौक़ पूरा कर ही लिया था स्कूल में, फिर कॉलेज में और फिर प्रोफेशनल थिएटर में। क्योंकि मुझे नामी-गिरामी लोगों के साथ लीड रोल करने तक का मौका मिला और मैंने थिएटर से और टेलीविज़न से अपने मन को रुझा लिया था। मुझे अल्टिमेटली यह समझ आ रहा था कि मुझे शायद इससे ज़्यादा काम करना है। जब मैं बंबई गया था तो वहाँ पहली फ़िल्म ‘पवित्र गंगा’ की शूटिंग में मुझे रेड्डी साब ने गेस्ट अपियरेन्स का काम दिया था। एक छोटा रोल था, बड़ा  ख़ूबसूरत सा रोल था। मुझे ऐसे लगा कि एक छोटी चीज़ चार-छः-आठ लाइने बोलने के लिए सारा दिन मुझे बैठना पड़ा, मेकअप लगा कर। और अगले दिन भी बची हुआ लाइनों के लिए फिर लगा रहना पड़ा; तो वहाँ शायद मुझे ज्ञान-सा आ रहा था। मुझे लगा कि मैं तो बहुत ज़्यादा काम करना चाहता हूँ और ये तो बहुत हल्का काम है मेरे लिए कि मैं दो दिन में दस-बारह लाइनें बोल के बैठा हूँ। क्या इसलिए मैं यहाँ आया हूँ। क्या यही काम मुझे करना है। शायद इन सारी चीज़ों ने  मुझे मजबूर किया और समझदार बना दिया कि एक्टिंग से बढ़ कर आगे काम करो और शायद यही वज़ह रही कि फ़िल्म-सिटी बनाने का मौका मिला। फ़िल्म-सिटी के बाद मुझे देश का पहला निजी फ़िल्म संस्थान बनाने का मौक़ा मिला जो आज देश की पहली फ़िल्म यूनिवर्सिटी बन चुकी है, और प्रधानमंत्री ख़ुद चाहते थे कि देश के अंदर एक फ़िल्म यूनिवर्सिटी होनी चाहिए। क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म बनाने वाला देश है। उसके पीछे उसके बैकअप के लिए एक यूनिवर्सिटी का होना अनिवार्य है, और वो सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। मैंने फ़िल्म, टेलीविज़न, मीडिया और क्रियेटिव एजुकेशन के अंदर एक स्पेशलाइज़ेशन तैयार कर ली। इतने सालों का ज्ञान लेकर जब 1991 में स्टूडियो शुरू किया और 1993 के अंदर ही मैंने इस बात को रियलाइज़ किया कि यह इतनी बड़ी जो फ़िल्म सिटी यहाँ पर बनती चली जा रही है और सभी लोगों ने मेरे विश्वास के ऊपर अपने स्टूडियो बनाने शुरू कर दिए हैं तो काम कौन करेगा? काम करने के लिए आपको एक ट्रेंड मैन-पावर की ज़रूरत होती है। क्योंकि फ़िल्म में सिर्फ़ आर्ट नहीं है, टेकनीक्स भी हैं, साइंस भी है और मैंने पूरे प्रोजेक्ट को स्टडी किया और करते-करते हम लोग चार कोर्सेज़ और 40 स्टूडेंट्स से आज 75 कोर्सेज़ और 6000 स्टूडेंट्स को एक साथ पढ़ा रहे हैं। हम लोग तक़रीबन 20,000 लोगों को ट्रेंड कर चुके हैं जो मेरे पास पूरे भारत से और अन्य 145 मुल्कों से यहां पर पढ़ने केलिए आये। इसी तरीके से जब हम फ़िल्म सिटी बना रहे थे तो मुझे अंदाज़ा हो रहा था कि ये एक दिन बहुत बड़ा टूरिस्ट सेंटर बन सकता है। जैसे हमने अमेरिका के बारे में सुना था कि यूनिवर्सल स्टूडियो में टिकट लेकर अंदर जाते हैं तब मुझे लगा था कि यहां भी लोग टिकेट नहीं, कम से कम देखने तो आएंगे और हम लोगों ने एक English dictionary को एक word दिया था Film & Culture Tourism लेकिन तब कोई नहीं समझ पाया था। आज कितनी मज़े की बात है कि Film & Culture Tourism के बारे में पूरी दुनिया बात कर रही है और नौ करोड़ से भी ज़्यादा लोग फ़िल्म-सिटी में आ चुके हैं। मारवाह स्टूडियो में अकेले हम, तीस लाख लोग 156 मुल्कों से लेकर आ चुके हैं। मुझे लगता है कि वो जो सपने हमने 1991 में देखे थे वो अब पूरे होते नज़र आ रहे हैं। 
आज नोएडा फ़िल्म-सिटी जो है, वर्ल्ड के सिनेमा मैप के उपर गहरे रंगों से गढ़ी जाती है; जो सिर्फ़ एक्टिंग का भूत था, एक्टिंग सिखाने से और फ़िल्म बनाने से उसकी तृप्ति मुझे मिल गई।  मुझे कम से कम ये अच्छा लगने लगा कि क्योंकि फिल्ममेकिंग में बीस डिपार्टमेंट हैं, तो मैं सिर्फ़ एक डिपार्टमेंट पर टिक के रह जाता, लेकिन आज कम से कम मैं दावा कर सकता हूँ कि, फिल्म टेलीविज़न और मीडिया के लगभग सभी डिपार्टमेंट के साथ इस वक्त मैं डील कर रहा हूँ। मुझे हज़ारों बच्चों को पढ़ाने का, सिखाने का और उन्हें कामयाब होता हुआ देखने का एक बहुत बड़ा सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हिंदुस्तान का कोई ऐसा हिस्सा, कोई चैनल, कोई मीडिया हाउस नहीं है जहां पर एएएफ़टी  का बच्चा काम ना कर रहा हो। मैं दुनिया के किसी भी कोने में जाता हूँ, वहाँ न जाने किस कोने से निकल कर हमारा स्टूडेंट मिलने के लिए आ जाता है और ये लोग चारों तरफ़ फैले हुए हैं। नाम कमा रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, इज़्ज़त कमा रहे हैं और इन लोगों के मन की जो अभिलाषाएँ हैं, वो पूरी हो रही हैं, उसको देखकर मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है। 
प्रश्न हमने महसूस किया है कि आपकी सोच बहुत ऊँची और बड़ी है। आप अन्य देशों के राज्याध्यक्षों से इस तरह संपर्क साध लेते हैं जैसे कि वे सब साधारण लोग हैं। आपकी पहली मुलाक़ात शायद मंगोलिया के राष्ट्राध्यक्ष से हुई थी। आपकी संस्था के इस समय कितने देशों के साथ कार्यकारी रिश्ते बने हुए हैं?
संदीप जी मैं एक सच्चा हिंदुस्तानी हूँ, मुझे अपने देश से बहुत प्यार है और मैं हमेशा ये चाहता रहा हूँ कि हमारे देश का नाम दुनिया भर में हो। बचपन से ही एक मेरा लगाव था कि मुझे कुछ ऐसा भी करना चाहिए जिससे हमारे देश का नाम हो। एक फ़िल्म-सिटी बनाने के बाद मैं तो चर्चा में आ ही गया, मारवाह  स्टूडियो चर्चा में आ गया, एशियन अकेडमी, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन तरीक़े से काम करने लगी और पहले बैच में ही मुझे याद है नेपाल से बच्चा आ गया, दूसरे बैच में बंगलादेश से बच्चा आ गया और इस तरह धीरे-धीरे करते करते तकरीबन 145 मुल्क हमारे एजुकेशन सेंटर के साथ जुड़ गए। 
विदेशों से आने वाले स्टुडेंट, विदेशों से आने वाले डेलिगेशन, विदेशों से आने वाले आर्ट-कल्चर के लोग और बड़े-बड़े गवर्नर, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जब हिंदुस्तान आते थे तो वो ज़िक्र करते थे हमारे प्रधानमंत्री से, प्रधानमंत्री के सचिवालय से कि हमें बॉलिवुड के बारे में, फिल्मों के बारे में बताया जाये। भारत सरकार के पास कोई विंडो तो थी नहीं तो आप समझिये कि  मारवाह  स्टूडियो जो है वो देश की सरकार का एक विंडो बन गया और जो भी बड़ी-बड़ी हस्तियां आती थीं, वो हमारे यहाँ आनी शुरू हो गईं। हम उनके लिए एक बहुत खूबसूरत-सी पैकेज बना लेते थे। बहुत बड़ा आदमी है तो पंद्रह मिनट और उससे थोड़ा कम रैंक का व्यक्ति है तो आधा घंटा तय करके उन्हें कोई फ़िल्म दिखाना और उनका मान-सम्मान कर देना। ऐसा करना कि जब वो यहां से निकले तो उनके पास पूरा ज्ञान होना चाहिए हिंदुस्तान की फिल्मों के बारे में। इस काम में लोगों को बहुत आनंद आना शुरू हो गया। इसी सिलसिले के अंदर मुझे याद है, पहली दफ़ा, आज से कोई सत्रह-अट्ठारह साल पहले, एक डेलिगेशन आई हुई थी नाईजीरिया से। वो मिनिस्ट्री ऑफ़ इनफ़ार्मेशन और ब्रॉडकास्टिंग गई और कहा कि हम लोग हिंदुस्तान की फिल्मों के साथ जुड़ना चाहते हैं, तो उन्होंने बोला कि आप नोएडा चले जाएँ। वहाँ बहुत बढ़िया मौकाहै। तब  हमने पहली इंडो-नाईजीरियन फ़िल्म एसोसेशन क्रियेट की, उन्नीस साल हो गया शायद इस बात को और वहाँ से हम लोगों ने नाईजीरिया की सरकार से बातें करना शुरू कर दिया। 
आज नाईजीरिया के अंदर एक बहुत बड़ा एएफटी बन चुका है। दो दफ़ा मैं सरकारी गेस्ट बनकर नाईजीरिया जा चुका हूँ। नाईजीरिया के फिल्म इंड़स्ट्री का मैं पैट्रोंन बना हुआ हूं। और यहां तक कि नाईजीरियन फिल्म इंड़स्ट्री ने मुझे Father of new Nigerian cinema का टाइटल दिया है। यहां से जब बातें शुरू हो रही थीं, तो मुझे ऐसा लगा कि हम और भी देशों में जा सकते हैं। इसी तरीक़े से नाईजीरिया के अंदर जो फिल्म इंडस्ट्री इस्टेब्लिश हुई, वो एएएफ़टी  की वज़ह से हुई। आज नाईजीरिया जो है वो दुनिया का सबसे ज़्यादा तेज़ी से बढ़ता हुआ फिल्म सेंटर बन चुका है। इसी तरीक़े से भूटान से हमारा पाला पड़ा, भूटान में कोई भी फिल्म इंडस्ट्री नहीं थी। वहाँ पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री जो है वो एएएफ़टी  चला रही है और अभी मुझे जाना है। भूटान के महराजा ने मुझे बुला रखा है वो हमें वहाँ पर समानित करना चाते हैं। क्योंकि ये बात तै हो चुकी है कि भूटान के अंदर जो इस टाइम फ़िल्म प्रोड्यूसर एसोसिएशन है उसका मैं पैट्रन हूँ; और वो मुझे वहाँ का जो क्रियेटिव आर्ट्स का सबसे बड़ा ऑनर है वो देना चाहते हैं। 
हमारे यहाँ पर विभिन मुल्कों के प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति, उप-प्रधानमंत्री, गवर्नर्स, यूनियन मिनिस्टर्स, स्टेट मिनिस्टर्स, मेंबर ऑफ़ पार्लयामेंट्स आने शुरू हो गए और ये चर्चाएं चलनी शुरू हो गईं कि, किस तरीके से हिंदुस्तान और ये मुल्क आपस में मिलकर  फ़िल्म, टीवी, मीडिया, आर्ट और कल्चर को प्रमोट कर सकते हैं तो हम लोग पूरे सेगमेंट्स को, क्रियेटिव आर्ट को सॉफ्ट  कर रहे हैं और पूरे पावर को हम लोग बेहतरीन तरीक़े से प्रमोट कर रहे हैं। जहां फ़िल्म, टीवी, मीडिया, आर्ट, कल्चर, फैशन, डिजाइन, इंटीरियर डिजाइनिंग, हॉस्पिटालिटी, टूरिज्म, डिजिटल मीडिया, परफॉर्मिंग आर्ट, फाइन आर्ट, ये सब कुछ इसके अंदर इंक्लूड होता चला जा रहा है, और इन लोगों के प्रोमोशन और अपने देश की प्रमोशन करते-करते हम लोगों ने एक नया  वर्ल्ड रिकॉर्ड बना लिया कि 75 देशों ने हमें अपना कल्चर ऐम्बैसडर नियुक्त किया है। इसी को पूरा करते-करते हम लोग तक़रीबन 7500 इवेंट कर चुके हैं। एक अंतरराष्ट्रीय अवार्ड बना के एक सिंगल हेड के नीचे 7500 हर किस्म के इवेंट जो आप सोच सकते हैं चाहे वो डांस रेसाइटल है, म्यूज़िक रेसाइटल है, आर्ट एक्जिबीशन है या कुछ और है, सब हम कर चुके हैं। उससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के ऊपर एएएफटी और मारवाह स्टूडियो का नाम होता चला गया। 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने गद्दी सँभाली तो तब हमने एक चैम्बर शुरू किया था इंटरनेश्यल चैम्बर ऑफ़ मीडिया एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री जो देश और दुनिया का पहला एक मात्र ऐसा चैम्बर बना जो डेडिकेटेड था – प्रोमोशन ऑफ़ क्रिएटिव आर्ट, फ़िल्म, टीवी, मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के लिए और अब ये चैम्बर जो है तकरीबन पूरे दुनिया भर में खुल चुका है। इसकी शाखाएं चारों तरफ हैं। 190 कमेटियाँ इसके अंदर काम कर रही हैं। कोई ऐसा देश नहीं बचा है शायद कुछ को छोड़ के, जहां पर आईसीएमईआई की अच्छी गहरी नींव न डल गई हो और हम लोग लगातार काम कर रहे हैं। हमें विभिन्न देशों की सरकारों का बहुत खूबसूरत ढंग से साथ मिला है जिसे हम बड़े मज़े से निभा रहे हैं।
प्रश्न हम केवल पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट के बारे में सुना करते थे। आपने तो सिनेमा को लेकर पूरा विश्वविद्यालय खड़ा कर दिया है। आपका सिलेबस आप स्वयं तय करते हैं या फिर यू.जी.सी. का उसमें दख़ल रहता है? क्या प्रतिष्ठित फ़िल्म हस्तियां आपके यहां अतिथि-स्पीकर के तौर पर शिरक़त करती हैं?
संदीप जी मैं तो कहूँगा कि पूरा हिंदुस्तान हमारे इंस्टिट्यूट के साथ जुड़ा हुआ है। पहले ये एक बुटीक फ़िल्म स्कूल के रूप में शुरू हुआ लेकिन अब जैसा कि आपने कहा, यह विश्वविद्यालय बन चुका है। मैं भारत सरकार और राज्य सरकार का बारंबार आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने मुझे इसका चांसलर भी नियुक्त किया है। एक गवर्नर की रैंक देने का मतलब बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। विश्वविद्यालय यूजीसी अप्रूव्ड ही होता है। जब मैं यूनिवर्सिटी की बात करता हूँ तो कुल लगभग दस हज़ार स्टूडेंट्स और नौ सौ लोग इससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। 156 मुल्कों के साथ हमारा कोई न कोई वार्तालाप रहता है। 55 से ज़्यादा देशी-विदेशी यूनिवर्सिटियाँ हमसे जुड़ी हुई हैं। कोई हफ़्ता नहीं होता जब हमारे यहाँ कोई विदेशी न पहुँचे। मैं तो कहूँगा कि ऊपरवाले का आशीर्वाद है कि अपने आप लोग एएएफ़टी  के साथ जुड़ना चाहते हैं। कई बार तो ऐसा हुआ है कि बड़ी अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी के साथ हम जुड़ने के लिए अप्रोच करते हैं, तो वे कहते हैं कि हमारी यूनिवर्सिटी के साथ आप जुड़ जाइए। उनका पूरा रवैया ही अलग होता है। उन्हें लगता है कि अगर एएएफ़टी  यूनिवर्सिटी उनके साथ जुड़ जाएगी तो उनके जो आर्ट-कल्चर एवं मीडिया के कोर्सेज हैं, वो हाईलाइट हो जाएँगे। उन्हें एक बहुत बड़ा सहारा मिल जाएगा। चाहें वो यूनिवर्सिटियाँ कितने ही साल पुरानी हों या हमसे कितनी ही बड़ी हो। ये स्पेशलाइजेशन हमने बना लिया है, जिसका फ़ायदा हमें मिलता है। नाम के साथ-साथ काम भी मिलता है। मैं तो कहूँगा कि पूरी यूनिवर्सिटी एएएफ़टी  ने भारत से लेकर विदेशों में तक बहुत ही शानदार बच्चों को तैयार करके भेजा है। एएएफ़टी  की कुछ ख़ास पहचान बन गई है। जैसे कि ये पढ़ाई के लिहाज़ से विश्व की सबसे कम खर्च वाली फ़िल्म यूनिवर्सिटी है। जहां अमेरिका और लंदन में प्रतिवर्ष की पंद्रह से तीस लाख तक की फ़ीस होती है, वहीं हमारी कुल फ़ीस एक साल की सवा दो लाख की है। एएएफ़टी  आज एक केस स्टडी बन गई है दुनिया के 27 मुल्कों के लिए जिनमें अमेरिका यूसीएलए स्कूल भी शामिल है। जो हमारी नई एजुकेशन पॉलिसी आई है, उसमें भी एएएफ़टी  केस स्टडी बन चुका है। यहाँ तक कि भारत सरकार ने एजुकेशन बोर्ड के डिपार्टमेंट में मुझे लिया है। मीडिया एंड एंटरटेनमेंट स्किल काउंसिल के बोर्ड पर मुझे लिया है। भारत सरकार ने मुझे मीडिया और एंटरटेनमेंट की अपग्रेडेशन कमिटी का चेयरमैन बनाया है। इसके अलावा हाल ही में मुझे स्पोर्ट्स मंत्रालय में भी कमिश्नर नियुक्त किया गया है, जिसमें हम 11 सेगमेंट के ऊपर स्टैण्डर्ड सैटल कर रहे हैं। तक़रीबन 60 आदमी मेरे साथ मंत्रालय में काम करते हैं। जहां भी हमें अवसर मिलता है, हम सलाह देते हैं। यदि हमको भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में जगह दी जाती है, तो इसका मतलब ये है कि हमने देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नई दिशा दिखाई है। और वही दिशा हम देश के मंत्रालयों में नई चीजों में देना चाहते हैं, ताकि हमारा एजुकेशन सिस्टम व हमारी मीडिया एवं एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री आगे बढ़े। दुनिया के दस सबसे बड़े फ़िल्म स्कूलों में आज हमारा नाम आता है और नौ वर्ल्ड रिकॉर्ड हमने क़ायम किए हैं। कुल मिलाकर मारवाह स्टूडियो और एएएफ़टी  को लेकर जो कुछ भी हम कर सके हैं, उसका सारा क्रेडिट एएएफ़टी  को ही जाता है।   
प्रश्न आपको तो विश्व भर में बहुत से सम्मानों से अलंकृत किया गया है। पूरे विश्व में हिन्दी सिनेमा का प्रतिनिधित्व करते हुए कैसा महसूस होता है?
संदीप जी मैं तो कहूँगा कि ये मेरा भाग्य है कि, मुझे बार-बार भारत से बाहर जाकर, भारत को रिप्रेज़ेन्ट करने का मौका मिल रहा है। मैं क़रीब 170 संस्थाओं को चेयर कर रहा हूँ। लगभग 250 संस्थाओं के बोर्ड में हूँ, क़रीब 650 संस्थाओं को मैं डील कर रहा हूँ। ‘फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया’ जो भारत की सबसे बड़ी सिनेमा की संस्था है- मदर एपेक्स बॉडी- उसका मैं एग्जेक्टिव बॉडी का मेम्बर हूँ।  पिछले 8 सालों से, जो क़रीब 1 करोड़ लोगों को रिप्रेजेंट कर रही है, जिसमें 18 लोग बोर्ड मेम्बर हैं, उसमें से मैं भी एक हूँ,  पिछले 8 साल से। क्योंकि मैं एंबेसेडर और हाई कमीशनर के साथ डील करता हूँ , तो उनके लिए भी आसानी हो जाती है कि किसी जाने पहचाने व्यक्ति को निवेदन भेज सकते हैं, इन्विटेशन दे सकते हैं, अपने मुल्क में आने के लिए। क्योंकि नए सिरे से नई वाक़फ़ियत बनाना मुश्किल भी है और बहुत बड़ा जोख़िम भी है। क़रीब 1200 से भी ज़्यादा अवार्ड हमारी संस्था को मिले हैं, शायद भारत में ये एक मात्र संस्था है, जिसको लार्जेस्ट नम्बर ऑफ अवार्ड्स मिले हैं। 210 से ज्यादा अंतराष्ट्रीय अवार्ड लाया हूँ, विभिन्न देशों से भारत के लिए। पहला भारतीय हूँ, जिसे 8 दफ़ा ब्रिटेन पार्लियामेंट में सम्मानित किया गया है।  पहला भारतीय हूँ  जिसे 8 दफ़ा  हंग्री में सम्मानित किया गया है। ऐसे बहुत सारे फर्स्ट हैं; मुझे पॉलैंड में सम्मानित किया गया, I’m first Indian to be honoured in Belgium; तो ऐसे बहुत सारे हैं, जिनके एक लाइन या चैप्टर बन जायेगा।
बहुत खुशी होती है, बड़ा गर्व महसूस होता है कि पिछले दस सालों में, भारत ने एक नई रौशनी देखी है। आदरणीय नरेंदर मोदी जी के आने के बाद से, उन्होंने पूरे देश को उजागर किया है, विभिन्न देशों में जाकर उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जो बातें की हैं, यहां के आर्ट-कल्चर की बात जो बीच में आ जाती है, जब कि बिज़नेस के लिए जाया जाता है, तो हमारा सारा काम और भी आसान हो जाता है।
मुझे तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी जी जिस मुल्क से वापस आते हैं, मैं उस मुल्क में चला जाता हूँ, ताकि मैं ग्रासरूट लेवल के ऊपर उस मुल्क के साथ कुछ ना कुछ नई चीज़ को नए काम को, नया MOU साइन करूं। ताकि हमलोग आपस में मिल के काम कर सकें।
आर्ट एण्ड कल्चर का तो कोई क्षेत्र ऐसा छोड़ा ही नहीं जिसको यहां पर, हिंदुस्तान में ना करवा लिया हो। क्योंकि वो मेरे बस में है, हिंदुस्तान में करना मेरे बस में है। लेकिन वही चीज़ किसी दूसरे मुल्क़ में करना, सौ टाइम्स मुश्किल है। उसके लिए बहुत पैसा चाहिए, मैन पवार चाहिए, कॉन्टैक्ट और सबसे बड़ी बात है कि फिर आपको ऑडियंस चाहिए।
मीडिया का बहुत बड़ा सहारा मिलता रहा और मुझे खुशी इस बात की है कि पूरे मिडिया ने हमें सराहा और हमारे कार्य को; नोएडा फिल्म सीटी से उठा, कर पूरे दुनिया तक में उसे डाला। कोई ऐसा दिन नहीं है, जब ऊपर वाले के आशीर्वाद से, मीडिया कवरेज हमें ना मिल रही हो, पच्चीस-पचास कटिंग रोज़ हमें किसी ना किसी जगह से आ कर इकट्ठी ना हो जाती हैं, कि जो हमारे किसी ना किसी एक्टिविटी के बारे में बातचीत करता रहता है, बोलता रहता है।
प्रश्नआपने अपनी संस्था की ओर से साहित्यिक सम्मान देने की प्रथा शुरू की है। क्या आपके विश्वविद्यालय में साहित्य के जानकार प्रोफ़ेसर मौजूद हैं जो इसमें आपकी सहायता करते हैं या फिर आप बाहरी साहित्यिक हस्तियों का सहयोग लेते हैं?
संदीप जी साहित्य से मेरा पुराना नाता है- नाटकों के ज़रिए, फ़िल्मों के ज़रिए, फिल्म स्क्रिप्ट से लेकर, कहानियों से लेकर स्क्रीनप्ले तक। फिर उसके बाद किताबों को पढ़ने का शौक और फिर, मैंने जो लाइब्रेरीज़ डेवलप की हैं- चार लाइब्रेरीज़, मैं अब तक बना चुका हूँ। मैं समझता हूँ हमारी इनकम का क़रीब पच्चीस पर्सेंट का जो हिस्सा है, वो मैं किताबों में डालता हूँ। इस वक़्त हमारे पास दस हज़ार से भी ज्यादा किताबें हैं, हर विषय पर किताबें हैं। और इसी शौक ने मुझे लपेटा और मुझे मजबूर किया कि मैं उत्तर भारत का सबसे बड़ा ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टीवल’ जो है, वो शुरू करूँ।
उससे पहले की हमलोग ये फेस्टिवल शुरू करें; हम लोगों ने ‘राइटर्स एसोशिएशन ऑफ़ इंडिया’ बनाई। जिसके अन्दर तकरीबन सौ चर्चित जो हमारे राइटर हैं, विभिन्न भाषाओं के, ख़ासतौर पर हिंदी, इंग्लिश और कुछ रीज़नल भाषाओं के, नए और पुराने राइटर्स जुड़े और उन लोगों की सलाह लेकर, हमने ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टीवल’ शुरू किया, और आज पिछले आठ साल से हम ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टीवल’ में लगे हुए हैं; जो उत्तर भारत का एक बहुत बड़ा फेस्टिवल बन चुका है।
पिछले फेस्टिवल में पंद्रह हज़ार से भी ज़्यादा लोग तीन दिन के इस कार्यक्रम में आए और हमने तीन दिन में तकरीबन छत्तीस इवेंट्स डिज़ाइन किये। इस ‘ग्लोबल लिटरेरी फेस्टीवल’ को हमलोग कला और संस्कृति से बहुत खूबसूरत तरीके से जोड़ते हैं ताकि ये एकपूरा वाइब्रेंट फेस्टीवल बन सके।
चर्चाएं तो होती रहती हैं, अलग-अलग विषयों को लेकर। मुझे सीखने का बहुत मौका मिलता है। जब बड़े-बड़े साहित्यकार, लेखक, कहानीकार, कवितायें लिखने वाले और कविता पाठ करने वाले, ये जब सभी लोग पहुँचते हैं तो, उनको सुनके, उनको पढ़ के,उनको देख कर, उनसे बातचीत करके, नई सोच पैदा होती है और यही हमारा पर्पज़ है।
क्योंकि अगर मैं अपने स्टूडेंट्स को लेकर कहीं लिटरेचर फेस्टीवल में जाता तो, शायद सब लोग वहाँ नहीं पहुंच पाते, उस टाइम पर नहीं पहुँच पाते, वहाँ सब लोग शायद सब कुछ नहीं जान पाते। इसलिए हमने लिटरेचर फेस्टीवल ही अपने कैंपस में प्लान कर दिया। एक-एक वक़्त में पाँच-पाँच प्रोग्राम चल रहे होते हैं। तीन दिन के अंदर, तैंतीस-चालीस प्रोग्राम निकाल देते हैं। जिसमें कविसम्मेलन होते हैं। कविता पाठ होता है। सूफ़ी संगीत होता है, नृत्य नाटिका होती हैं। जिसके अन्दर चर्चाएं होती हैं, वर्कशॉप हैं, सेमिनार हैं, सिंपोजियम हैं, इंटरेक्शन प्रोग्राम है, टॉक्स हैं। किताबों की रिलीज होती हैं, नई किताबें छपती हैं। वो भी छपवाते हैं हमलोग। हमारा पब्लिकेशन डिपार्टमेंट है, हमारा राइटिंग डिपार्टमेंट है, ये बहुत आगे निकल चुका है। पिछले आठ सालों के अन्दर हमने एक बहुत अच्छी जगह बनाई है। देश का दूसरा, बड़ा फेस्टीवल ये कहलाने लगा है, ‘लिटरेचर फेस्टीवल’।
इसने हमारी यूनिवर्सिटी को भी एक नई धारा दी है। नई सोच दी है। बहुत सारे लोग इन्हीं चीजों के बहाने लिखने लगते हैं, उनमें शौक़ पैदा हो जाता है। ये शौक दबा होता है और बहुत सारे लोगों को ये ही नहीं पता होता कि उनमें लिखने की क्षमता है। ऐसे फेस्टिवल्स में जब उन्हें लोगों को सुनने का, समझने का, बोलने का और लिखने का मौका मिलता है तो उन्हें अपने ही बारे में पता चल जाता है कि, मैं कितना अच्छा लिख सकता हूँ। हमने ऐसे बहुत सारे नए राइटर पैदा किए, बहुत सारी नई किताबें लिखवाई और छपवाई हैं। पब्लिकेशन एक रेगुलर फीचर बन चुका है।
मुझे बड़ी खुशी है मैं लिटरेचर फेस्टीवल शुरू कर सका। बिकॉज़ हर आदमी लिटरेचर फेस्टीवल नहीं शुरू कर सकता। फिल्म फेस्टीवल भी हिंदुस्तान में  हजारों होंगे, जिनमें कामयाब पाँच-सात ही हैं, जिनमें हमारा ‘ग्लोबल फ़िल्म फेस्टीवल’ भी है।
जहाँ जर्नलिज़्म की बात आती है; दुनिया का सबसे पहला ‘ग्लोबल फेस्टीवल ऑफ़ जर्नलिज़्म’ हमने शुरू किया है, जो जर्नलिज़्म से जुड़ा हुआ है। इसी तरह हम ‘ग्लोबल फ़ैशन वीक’ भी करते हैं, जो दुनिया के सारे इंस्टीट्यूशन्स में होने वाले फ़ैशन वीक्स में सबसे बड़ा एक दर्जा लेकर तैयार खड़ा हुआ है।
विभिन्न किस्म की एक्टिविटीज़ से विश्वविद्यालय में  एक नया जोश, नई लगन, नई उम्मीद, नई नॉलेज लेकर आती है और लोगों में नया उत्साह पैदा होता है; काम सीखने का, काम करने का, देश को आगे बढ़ाने का एक नया जोश पैदा होता है और शायद यही मेरा काम भी है।
प्रश्न क्या आपका विश्वविद्यालय या आप स्वयं निजी रूप से फ़ीचर फ़िल्मों का निर्माण भी करते हैं या केवल विद्यार्थियों को शॉर्ट फ़िल्म बनाने में सहायता करते हैं?
संदीप जी शॉर्ट फ़िल्म में तो मेरी स्पेशलाइजे़शन हो चुकी है। मेरा वर्ल्ड रेकॉर्ड बन चुका है। क्योंकि हमलोग कुल मिलाकर 3500 शॉर्ट फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं। जिसमें करीब 16-17 हजार लोगों को हमने मौक़ा दिया है, क़रीब पैंतीस सौ डायरेक्टर्स, सोलह-सत्रह हज़ार टेकनिशियन हैं, वो तक़रीबन एक सौ पैतालीस मुल्कों से मेरे साथ जुड़ चुके हैं। एक बहुत बड़ा अंतराष्ट्रीय रेकॉर्ड बन चुका है जिसका वर्ल्ड बुक्स ऑफ़ रेकॉर्ड्स में भी मेंशन होना शुरू हो चुका है। इसके अलावा भी हमें ऐसा लगता था कि हमें इससे भी आगे बढ़ कर, ऐसी फिल्मों का निर्माण करना है, सही कहा तुमने तेजेन्द्र! ऐसी कई फिल्मों का हमने निर्माण किया-
‘आघात’, ‘निमंत्रण’, ‘प्रश्न’, ‘कॉफी हाउस’, जो कांस तक हो कर आई। ‘आई ऐम’, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला; राष्ट्रपति के हाथों, विज्ञान भवन में, बेस्ट फिल्म 2010 का। छोटी फिल्मों के निर्माण में भी हम, ‘स्माइल पिंकी’ के साथ जुड़े;  जिसकी पोस्ट प्रोडक्शन, हम लोगों ने की, उसकी ओपनिंग क्लोजिंग टाइटिल थे,  ग्राफिक्स एनिमेशन था। ‘स्माइल पिंकी’ भारत की पहली फिल्म बनी, शॉर्ट फ़िल्म, जिसको 2010 में ऑस्कर मिला। जब ‘स्लम डॉग मिलेनियर’ की चर्चा चल रही थी उसी के साथ ही  ‘स्माइल पिंकी’ की भी चर्चा चल रही थी, हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ कि ऑस्कर के साथ भी हमलोग जुड़े।
कुछ ऐसी फिल्में हैं जो बिल्कुल प्रोफेशनल लेवल के ऊपर बनीं जैसे, ‘हू किल्ड महात्मा गांधी’  जैसी ख़ूबसूरत फ़िल्म बनी, जिसको हमने ओ टी टी पर भी रिलीज़ किया। राजेश खन्ना की आख़िरी फिल्म भी हमलोगों ने मारवाह स्टूडियो से तैयार किया। ‘दर्दे डिस्को’ एक और फीचर फिल्म जिसे हमने यहाँ तैयार किया। इस तरीके से कुछ पांच-सात फिल्मे हैं। बंगाली फ़िल्म बनी, इंग्लिश फ़िल्म भी। आइडिया ये था कि एक्सरसाइज नहीं, बल्कि दुनिया का पहला एक मात्र फ़िल्म स्कूल बना दिया; जिसमें स्टूडेंट्स के साथ मिल कर फीचर फिल्म का निर्माण किया। अब तक दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ कि, स्टूडेंट्स के साथ फीचर फ़िल्म बनाई गई। शॉर्ट फिल्म तो बनाई गईं, लेकिन फीचर फिल्म स्टूडेंट्स के साथ मिलकर तैयार करना, ऐसा शायद दुनिया में पहली दफ़ा ऐसा हुआ। इन सारी फिल्मों को हमने दूरदर्शन और टीवी पर दिखाया। बड़ी फ़िल्मों को हम थियेटर तक भी लेकर गए और थियेटर में भी ये फ़िल्में रिलीज़ हुईं और थियेटर में भी इन फ़िल्मों ने अच्छा खासा नाम कमाया।
फिल्म बनाना मुश्किल काम है। इसमें बहुत सारे पैसों की जरूरत होती है। तो कहीं बार-बार ऐसा लगता रहा कि जितना पैसा फिल्मों में लगेगा, उससे बेहतर है कि उस पैसे से नया इक्यूपमेंट ले लिया जाए, या उसके बदले एक नया इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर दिया जाय, इसके बदले स्टूडेंट्स को प्रमोट कर दिया जाए और इसी तरीक़े से… क्योंकि जो फिल्में हमारे स्टूडेंट्स बनाते हैं; वो भी इंस्टीट्यूट के खर्चे पर बनाते हैं, वो एक भी पैसा भी अपने पास से नहीं लगाते हैं। ये छोटी फिल्में भी एक अच्छा नाम कमा रही हैं, देश और दुनिया भर से अवार्ड लेकर आ चुकी हैं। कांस फिल्म फेस्टिवल से भी अवार्ड लेकर आ चुकी हैं।
मोबाइल फिल्मों का दौर हमलोगों ने शुरू किया, सत्रह साल पहले। दुनिया का हम पहला और एक मात्र इंस्टीट्यूट बने, जिसने दुनिया का पहला ‘इंटरनेशलन फ़ेस्टीवल ऑफ़ सेलफोन सिनेमा’ हमने लॉन्च किया। अब हम सत्रहवां फेस्टिवल करने जा रहे हैं। सत्रह साल से हम मोबाइल सिनेमा बना रहे हैं। न्यूयोर्क यूनिवर्सिटी से भी मुझे ‘फ़ादर ऑफ़ मोबाइल सिनेमा’, का ख़िताब दिया गया। बहुत सारा काम हम इनोवेटिव, डिफरेंट, क्रियेटिव, आउट ऑफ़ बॉक्स करते हैं; ताकि वो चीज़ें हमारे स्टूडेंट्स के अन्दर भी आयें और उनमें भी वो जिज्ञासा, नई चीज़ की खोज बनी रहे।
प्रश्नएक बड़े फ़िल्म परिवार के रिश्तेदार होने का कभी लाभ मिला है या इससे परेशानियां भी उत्पन्न हुई हैं?
संदीप जी – फिल्म इंड्रस्टी से मेरा पुराना, गहरा  सम्बन्ध है। ये मेरा सौभाग्य है कि, हिंदुस्तान की एक नामी-ग्रामी फ़ैमिली के सभी लोग मेरे रिश्तेदार हैं। लेकिन ना तो हमने कभी इस चीज़ का फ़ायदा उठाने की कोशिश की, ना तो कोइ ऐसा फ़ायदा मिलता है। ये सारी इंड्रस्टी जो है, वो आपके अपने कर्मों के ऊपर निर्भर होती है। आप क्या कर रहे हैं, वो रिकॉग्नाइज़ होता है। आपके रिश्तेदार क्या कर रहे हैं, उसकी रिकॉग्नीशन से आपका कोई मतलब नहीं होता है; हो सकता है कि कहीं कुछ लोग आपसे, पहले से थोड़ा ज़्यादा प्रभावित हो जायें। वरना जब लोगों को पता चलता है की आपकी क्या क़ाबलियत क्या है, तब आपको मान-सम्मान और इज्ज़त, अवार्ड और जगह मिलती है। ये मैंने सीख लिया है पिछले 40 /45 सालों में और मैंने कभी भी ज़िक्र नहीं की;  कौन मेरा रिश्तेदार है, कौन मेरा दोस्त है, क्योंकि मैंने हमेशा कर्म पर विश्वास किया है-
“कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर रे इन्सान,
जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान”
आपके कर्म अच्छे हैं, आपकी मेहनत है, आप  ईमानदारी से काम कर रहे है, लगन है, जोश है, उम्मीद है, सबसे बड़ी बात है कि, नीयत साफ़ है, तो फल देने वाला तो परमात्मा ही होता है, तो हमलोगों ने इसी बात पे विश्वास किया है।
ये बड़ी ख़ुशी की बात है कि, जब-जब भी मैंने बोनी को या अनिल को या संजय को बोला या उससे पहले पिता जी सुरेंदर कपूर जी को बोला, ये लोग मेरे कहने पर बड़ी आसानी से चले आये। क्योंकि मुझे ये लगा कि  मेरा फर्ज़ है इनको बुलाना, और उन्हें लगा कि ये उनका फर्ज़ है कि, आकर अपने दुनिया भर के तजुर्बों को, नए लोगों के साथ बाँटना, नई जनरेशन के साथ बाँटना; तो समय-समय पर जब-जब भी हमने इन्हें तकलीफ़ दी, बुलाया, ये लोग आए। ऐसा भी नहीं  कि ये हर रोज़ आ रहे हैं। कभी साल में एक दफ़ा कोई एक आ गया, कभी दूसरे साल में कोई दूसरा आ गया। बहुत बड़ी इंडस्ट्री है;  मैं बहुत सारे लोगों को जानता हूँ, साल भर में मैं तकरीबन सौ से ज्यादा लोगों को इन्वाइट करता हूँ;  पूरे देश भर से और पूरी दुनिया से। अगर इन सौ लोगों में से एक या दो मेरे रिश्तेदार हैं, जो वाकई में बुलाने लायक़ हैं, वो आ भी जाते हैं तो, कोई ऐसा गुनाह ना मैं कर रहा हूँ  और न वो कर रहे हैं। हमलोगों ने अपने अपने-अपने काम में अपनी दिलचस्पियाँ रखी हैं। वो अपना काम कर रहे हैं और एक दूसरे के काम में कोई इंटरफ़ियर नहीं करता है। वो सभी लोग अपना काम कर रहे हैं और मैं अपना काम कर रहा हूँ। मेरी दिशा अलग है, मेरी सोच अलग है, मेरा काम करने का तरीक़ा अलग है। उनके काम करने का तरीक़ा अलग है, उनकी सोच अलग है। उनका काम ही अलग है। मुझे लगता है कि वो सब काम छोड़ कर ही तो मैंने ये सब काम शुरू किया था। मैं चाहता था कि मैं एक बहुत बड़े प्रोस्पेक्टिव पर काम करूँ, देश के एक नेशनल लेवल पर एक इंटरनेशनल लेवल पर काम करूँ और मुझे परमात्मा का आशीर्वाद मिला कि, मैं अपने कार्य को अपने देश की कैपिटल से उठा कर पूरे देश तक और फिर पूरी दुनिया तक ले गया। मुझे लगता है कि उनका एक बहुत बड़ा सहारा है, अच्छे लोगों का एक बहुत बड़ा सहारा होता है। बहुत बड़े लोगों का हमेशा एक सहारा होता है; मैंने कभी भी इस बात को नकारा नहीं।
प्रश्नअपने बेटों मोहित और अक्षय के फ़िल्मी कैरियर को लेकर आप कितना संतुष्ट महसूस करते हैं?
संदीप जी मैंने एक कहावत पढ़ी थी कि
पूत कुपूत तो क्यों धन संचय और पूत सपूत तो क्यों धन संचय –
कि अगर आपके बच्चे बेवकूफ़ हैं तो फिर आप किसके लिए काम कर रहे हैं और धन जोड़ रहे हैं और अगर आपके बच्चे अच्छे हैं तो फिर भी आपकी कोई जरूरत नहीं, वो ख़ुद ही अपना काम कर लेंगे;  तो मैंने हमेशा इस प्रथा को माना है और मैंने अपने बच्चों को पूरा मौका दिया, एक अच्छी एजुकेशन लेने का  चाहे वो  पूरे देश भर के अंदर हो या फिर विदेश में रही हो, जो उनका मन करता था, जो उनकी चाहत थी, मैंने उनको पूरा मौका दिया कि वो एक अच्छी पढ़ाई पढ़ें और पूरी पढ़ाई करें। मास्टर्स करें,  जो करना चाहते हैं वो करें।
लेकिन ये बात बार-बार कहना ज़रूरी है कि, सारी पढ़ाई के बाद तज़ुर्बा जो है, वो ज़िन्दगी में बहुत बड़ी चीज़ है। हमने अपने बड़ों से बहुत तज़ुर्बा लिया; जिसका मुझे पूरा फ़ायदा मिला;  यही बात मैं अपने बच्चों को भी सिखाता रहा कि, बड़े-बूढ़ों के तज़ुर्बा होता है, उनकी जो बातें होती है वो बहुत गुड़ी हुई होती हैं। पढ़ाई बहुत ज़रूरी है, लेकिन गुड़ाई भी उतनी ही ज़रूरी है ; तो जो हमारे तज़ुर्बे हैं या जो तुमने और बड़े-बुजुर्गों से सीखा है, उसे अपने साथ बँधा के रखिए, वही जिंदगी में काम आता है।
मुझे ख़ुशी इस बात की है कि, मेरे दोनों बेटे, मोहित मारवाह बड़ा और अक्षय मारवाह छोटा, दोनों ही फ़िल्म-टेलीविज़न, मीडिया और मीडिया, जिसे एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री मैं कहूँगा, उसके साथ ख़ूबसूरत तरीके से जुड़े हुए हैं। मोहित को, क्योंकि शौक़ एक्टिंग का भी था तो मैंने कहा कि, तुम अपना एक्टिंग का शौक़ भी ज़रूर पूरा करो। अच्छा लगा कि उसने कुछ फ़ीचर फिल्मों में लीड रोल किये; कुछ दूसरे भी प्रोग्राम किए। ‘फगली’ जैसी चर्चित फ़िल्म, जिसे अक्षय कुमार ने प्रोड्यूस किया। वो प्रोवोग का ब्रांड एंबेसेडर बना, ऋतिक रोशन के बाद और देश भर में उसकी चर्चा हुई और दुनिया भर में उसके ऐड्स और पेपर ऐड्स, वीडिओ ऐड्स चले। उसने म्यूजिक वीडिओ किए बहुत चर्चित लोगों के साथ। ऐड्स कीं…
लेकिन मुझे बहुत खुशी इस बात की है कि, कहीं ना कहीं उसका रुझाव जो था, वो वापस एजुकेशन, एडमिनिस्ट्रेशन और डेवलेपमेंट ऑफ़ न्यू बिसनेस की तरफ़ रहा। इसी तरह अक्षय, जो मेरे साथ ही दिल्ली में था, और मोहित, जो मुंबई में रहा शायद इसलिए, शुरू-शुरू में उसका रुझान पहले-पहले फिल्मों की तरफ़ था । लेकिन अक्षय ने, क्योंकि मुझे काम करते हुए देखा है, तो अक्षय और मोहित दोनों ही मेहनती हैं, ईमानदार हैं। अपने काम के प्रति वफ़ादारी है। लोगों के प्रति बहुत, बहुत ख़ूबसूरत उनका एटिट्यूड है। दोनों बहुत अच्छे इन्सान हैं। शायद यही मैं चाहता  था। क्योंकि कि किसी को भी बड़ा बिसनसमैन बनने से पहले एक अच्छा इन्सान बनना बहुत ज़रूरीहोता है। तो मुझे ऐसा लगता कि जो मेरी जो पढ़ाई-लिखाई है, जो मेरी तैयारी है, जो इन पर मैंने काम किया है, वो सफल होता नज़र आता है। क्योंकि दोनों अच्छे इन्सान हैं। स्टाफ़ को डील करने का तरीक़ा, उठने-बैठने- बातचीत करने का तरीक़ा, इज्ज़त, मान, मर्यादा का तरीक़ा, देश के प्रति जो प्यार-मोहब्बत होती है वो सब उनमें जागृत है और ऐसे ही बच्चों की मुझे ज़रूरत थी। मुझे लगता कि दोनों ही बहतरीन तरीक़े से इस वक़्त अपना काम कर रहे हैं, दोनों ही मेहनती हैं, ईमानदारी से अपना काम करते हैं, और मुझे  पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में ये एक नया इन्कलाब पैदा करेंगे।
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1 टिप्पणी

  1. संदीप मारवाह जी को पूरा पढ़ा।काफी विस्तार से उन्होंने अपने सारे परिश्रम, सारी मेहनत का खाँचा खींच
    दिया। मन में लगन हो और हौसला हो तो इंसान क्या कुछ नहीं कर सकता।
    उनके स्वप्न को, लगन को ,परिश्रम को सभी को सादर प्रणाम। सफलता उनके कदम चूमे।

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