वरिष्ठ कथाकार अवधेश प्रीत के साथ
‘पुरवाई’ पत्रिका की उप-संपादक नीलिमा शर्मा की बातचीत।
नीलिमा शर्मा – रंगमंच से आपका जुड़ाव देखने को मिलता है। नृशंस, बाबूजी की छतरी , ग्रासरूट, हमजमीन, चांद के पार एक चाबी आदि जैसी आपकी कई कहानियों के मंचन हुए हैं। कई कहानियों पर टेलीफिल्म्स भी बनी हैं। इस जुड़ाव के बारे में कुछ बताइये।
अवधेश प्रीत – देखिए, बतौर कहानीकार मैं कहानियां लिखता हूं तो उसमें जो कथ्य होता है वह जितना महत्वपूर्ण होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है उसका ट्रीटमेंट। इस ट्रीटमेंट में पात्रों का चरित्र चित्रण,परिवेश की दृश्यात्मकता, कथा की गति में संवादों की संगति और ओवरऑल प्रभावोत्पादकता आदि शामिल होती है। शायद मेरी कहानियों में ये तत्व होते हैं, जो रंगकर्मियों को मेरी कहानियों के मंचन के लिए प्रेरित करते हैं। इस जुड़ाव की एक वज़ह यह भी है कि मैं स्वयं रंगमंच से जुड़ा रहा हूं, इसलिए भी मेरी कहानियों में हो सकता है, रंगमंच के अनुकूल नाटकीयता मंचन के लिए सुविधाजनक होती हैं।
नीलिमा शर्मा – आप अपनी कहानियों के विषय कैसे चुनते हैं। इसमें आपबीती या जग-बीती का कितना अनुपात रहता है। मतलब आपके अनुभव कैसे और किस रूप में कहानियों की शक्ल अख़्तियार करते हैं।
अवधेश प्रीत – मुझे लगता है, अपनी कहानियों के लिए विषय मैं नहीं चुनता, बल्कि विषय मुझे चुनते हैं। इसे मैं इस तरह कहना चाहूंगा कि आपकी दृष्टि, संवेदना और पक्षधरता जिस घटना, परिस्थिति और मुद्दे से जुड़ती है और जब वह बतौर लेखक मुझे उद्वेलित करती है, मुझे लगता है, कि इस विषय के साथ मैं वह कह सकता हूं, जो इस विषय में छुपा है, अदीठ है और कहे जाने की ज़रूरत है, तो मैं स्वतः उस विषय से एकमेव हो जाता हूं।
यहां मैं कथा आलोचक सुरेन्द्र चौधरी के मार्फ़त अपनी बात पुष्ट करना चाहूंगा। वह कहते हैं,’ कथाकार की रचना का उपादान उसकी प्रतीति-क्षमता है। यह प्रतीति-क्षमता प्रत्यक्ष ज्ञात हेतुक या कल्पित हो सकती है। प्रत्येक स्थिति में कथाकार अपनी प्रतीति सत्यों को रूपांतरित कर अपनी रचना का स्वरुप-विधान करता है। उसकी प्रतीति-क्षमता को हम उसके विषय क्षेत्र के विस्तार, उदबोध और तत्परता से माप सकते हैं। जब वह निर्विशेष रूप से वस्तु-जगत का प्रेक्षण करता है, तो उसे अपने विषय के अनुरूप वर्णय प्राप्त होते हैं।’ मेरी कहानियों में जो आपबीती होती है, वह जगबीती भी होती है।
दरअसल आप आपबीती को किस तरह एक व्यापक अर्थ विस्तार देते हैं कि, वह आपबीती न होकर जगबीती हो जाती है, बात वही है आपका विज़न।विज़न एकांगी है, तो रचना आपबीती होकर रह जायेगी। विज़न व्यापक है तो वह अपने कहन में जगबीती में रूपांतरित हो जायेगी। अनुभव और अवलोकन बेहद ज़रूरी होता है। ज़्यादातर कहानियों के कथ्य मेरे अनुभव में दर्ज़ होते रहते हैं और एक अरसे तक वे अपने कहे जाने की राह की प्रतीक्षा में पड़े रहते हैं। जब इन्हें प्रस्फुटित, अंकुरित होने की कोई अनुकूल उत्प्रेरक परिस्थिति बनती है, तो वह कथ्य एक कहानी का स्वरुप ले लेता है। मेरी अधिकांश कहानियां इसी तरह संभव हुई हैं। रही बात आपबीती और जगबीती के अनुपात की तो यह गणित मेरी समझ से बाहर है। विषय के साथ जब मैं जुड़ जाता हूं तो उसकी संवेदना, संभावना, विस्तार और विचार का जो संतुलन होता है, उस में से किसी को आनुपातिक रूप से अलगाना संभव नहीं होता। वह संपूर्णता में एक कहानी के होने के आवश्यक तत्व होते हैं।
नीलिमा शर्मा – क्या कभी ऐसा हुआ कि किसी रचना को पढ़ते हुए यह अहसास हुआ कि काश इसे आपने लिखा होता या फिर किसी रचना को पढ़ते हुए लगा कि आप इसे लिखते तो ऐसे नहीं वैसे लिखते?
अवधेश प्रीत – हां, कई बार ऐसा हुआ है। मसलन कोई विषय ऐसा होता है, जो बहुत प्रभावित करता है और मन में आह उठती है, काश, यह विषय मुझे मिला होता। कई बार ऐसा हुआ है जब किसी विषय ने मन को छुआ है, पर अन्यान्य कारणों से लिखना टल गया और जब किसी दूसरे लेखक ने उसपर लिख दिया और बहुत बेहतर लिख दिया है,तो मैं अपनी कहिली को कोसता हूं। किराये की कोख और किन्नर-जीवन ऐसे विषय रहे हैं। उपन्यासों में सारा आकाश, सूरज का सातवां घोड़ा, गुनाहों का देवता,टोपी शुक्ला, आधा गांव ऐसे उपन्यास हैं, जिन्हें पढ़ते हुए लगा कि काश, इन्हें मैं लिखता। तीसरी क़सम, हंसा जाई अकेला, हृषीकेश सुलभ की कहानियां बूड़ा वंश कबीर का, पांड़े का पयान, चन्द्रकिशोर जायसवाल की कहानी, नकबेसर कागा ले भागा, उदय प्रकाश की कहानी टेपचू आदि आदि। मैं लिखता तो ऐसे नहीं वैसे लिखता जैसा ख़याल कभी नहीं आता। मैं मानता हूं,हर लेखक का एक रेंज होता है, उसने जो लिखा वह मैं नहीं लिख सकता, तो जो मैं लिखता हूं दूसरा वह नहीं लिख सकता, इसलिए यह बात मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती।
नीलिमा शर्मा – आपने ‘नयका पोखरा ‘ जैसी मिट्टी से जुड़ी कहानी लिखी। आप रेणु की विरासत को आगे बढ़ाने वाली पीढ़ी के अग्रणी कथाकार हैं। अपने से पूर्व की पीढ़ी के किन कथाकारों से आपको प्रेरणा मिली।
अवधेश प्रीत – मैं ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्रेमचंद के क़रीब पाता हूं। रेणु मेरे प्रिय लेखक हैं और उनकी कहानियों में निहित संबंधों की अंतरंगता, राग-अनुराग और जिजीविषा की गहन छवियां प्रभावित करती हैं। मेरे लिए प्रेमचंद और रेणु दोनों मिलकर कहानी के कैनवास को विस्तार और पूर्णता प्रदान करते हैं। जहां तक प्रेरणा की बात प्रेमचंद के अलावा मुझे मोहन राकेश, अमरकांत, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, शिव प्रसाद सिंह, मन्नू भंडारी, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वज़ाहत जैसे अनेक कहानीकार हैं, जो अपनी अनेक विशिष्टताओं से प्रभावित करते रहे हैं। हां, इनकी एक बात समान है और वो है आम आदमी की पक्षधरता। यही मेरी पसंद और प्रेरणा का स्रोत है। जहां तक ‘नयका पोखरा’ की बात है, वह ग्रामीण समाज से जुड़ी कहानी है, जो सामंती जकड़न और उसमें स्त्रियों की स्थिति को लेकर लिखी गई है। इस कहानी में बदल रहे ग्रामीण समाज और वंचितों, स्त्रियों में अपने अधिकार के लिए जद्दोजहद की शिनाख़्त देखी जा सकती है। ‘ नयका पोखरा ‘ एक रूपक है, जिसके इर्द-गिर्द पूरा ग्रामीण समाज अपनी विडंबनाओं के साथ उपस्थित है और वही पोखरा बदलाव का बायस बनता है।
नीलिमा शर्मा – आपकी कजरी, अली मंजिल, अम्मी और कई अन्य कहानियों में मुस्लिम समाज का बहुत ही मर्मस्पर्शी और रोचक चित्रण पढ़ने को मिलता है। इसके बारे में कुछ बताइये।
अवधेश प्रीत – ये और ऐसी मेरी तमाम कहानियां अपने समाज को, उसकी अभिन्नता को, देखने, समझने और जानने की कोशिश है। मैं साझी संस्कृति और समाज में पला बढ़ा हूं…मेरे लिए मुस्लिम समाज कोई अलग या अज़नबी किस्म का समाज नहीं रहा। यही वज़ह है कि मैंने अपनी ऐसी कहानियों के ज़रिये उस साइकी को डिकोड करने की कोशिश की है, जो हमें संचालित करती है. देखिए व्यक्ति के तौर पर हम सभी अपनी आस्थाओं के प्रति संवेदनशील होते हैं, पर विविध आस्थाओं के साथ रहते हुए, एक दूसरे के लिए समान भाव वाला सामाजिक बनाना आसान नहीं होता। यह अर्जित होता है एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे के प्रति सम्मान और संयम के दीर्घकालिक अभ्यास से। इस अर्जित सद्भाव और समरस समाज के ताने बाने को छेड़ने का अर्थ है, अपनी सांझी विरासत का अनादर। मैं उसी विरासत को लेकर चिंतित होता हूं और मनुष्य के भीतर बचे हुए उसी सद्भाव में विश्वास करता हूं। मेरी ऐसी तमाम कहानियों में न दंगा है, न सांप्रदायिकता की थोपी हुई कोई घटना है, बल्कि रोज़मर्रे की ज़िंदगी में निहित सांप्रदायिकता की जो सायकी है और उसके कार्य-कारण हैं,उनके ज़रिये इस समस्या को समझने की कोशिश की गई है। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से धर्म के आधार पर अलगाने, पहचाने और व्यवहृरित करने से बड़ा अपराध कुछ नहीं हो सकता। मेरी ऐसी कहानियों में उसी का प्रतिकार है।
नीलिमा शर्मा – आपकी एक लंबी कहानी है ‘चांद के पार एक चाबी’। इस कहानी में आप बिहार के लोकेल और युवाओं के जीवन को सामने लेकर आए। इस कहानी की प्रेरणा और रचना प्रक्रिया पर जानने की इच्छा है।
अवधेश प्रीत – हां ‘चांद के पार एक चाभी’ मेरी एक ऐसी कहानी है, जो इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण समाज और आधुनिक तकनीक के साथ जी रहे युवाओं के अंदर बाहर के बदलावों को देखने समझने की कोशिश करती है। यह कहानी ऊपरी बदलाव और भीतरी जड़ता पर चोट करती है। जाति की जकड़न में गहरे तक धंसा यह समाज नये डिवाइसेज, नयी तकनीकों को अपना लेने के बावज़ूद आधुनिक नहीं हुआ है। अपनी जाति श्रेष्ठता और सामंती अकड़ को जस का तस बरकरार रखे हुए है। दलित युवा तकनीकी दक्षता हासिल करने के बावज़ूद इस समाज में अंततः दलित ही रह जाता है। उसका हुनर, उसकी दक्षता उसकी पहचान नहीं बनती। यह कहानी ग्रामीण समाज में व्याप्त अनेक जटिलताओं को रेखांकित करती है, जिसमें प्रेम करने के अधिकार को विमर्श के केंद्र में लाती है। हां, कहानी का लोकेल बिहार का ज़रूर है, लेकिन इसका अंतर्निहित यथार्थ पूरा हिन्दी भाषी प्रदेश है। दलितों के प्रति, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, हमारा व्यवहार, हमारी दृष्टि कितनी बदली है? तो यह कहानी उस विडंबना को संबोधित करती है। हां, यहां अब दैन्य भाव नहीं है, क्रूर सच्चाई से आँख मिलाकर बात करने का साहस है।
यह कहानी आधुनिकता के न्यस्त अर्थ को भी प्रश्ननांकित करती है। जहां तक प्रेरणा का प्रश्न है, तो यह एक से जुड़ी सच्ची कथा है। इस कहानी का नायक वास्तविक है और इस कहानी की प्रेरणा भी वही है। यह कहानी उस युवक के मेरे जीवन में अचानक आने और अरसे तक ग़ायब रहने और फिर एकबारगी नमूदार होकर मुझे चौंका देने के उसके बदलाव से शुरु हुई, लेकिन अपनी गति में यह कहानी प्रेम, युवाओं के अंदर की संलिष्टता, दलित एवं उच्च जातियों के सामाजिक व्यवहार और उनकी जकड़न के भीतरी-बाहरी संघर्ष के बड़े कैनवास तक फैलती है। रचना प्रक्रिया तो बकौल मुक्तिबोध घुप्प अंधेरे में लालटेन लेकर आगे बढ़ते जाने का उपक्रम है। मेरी रचना प्रक्रिया भी कुछ ऐसी है, और निःसंदेह इस कहानी की रचना प्रक्रिया भी इसी तरह संभव हुई है।
नीलिमा शर्मा – आजकल कथेतर गद्य खूब लिखा जा रहा है। वहीं जीवनीपरक उपन्यासों की भी धूम है। आपके इस विषय में क्या विचार हैं?
अवधेश प्रीत – कथेतर गद्य हमेशा लिखा जाता रहा है, तब सोशल मीडिया न होने से इसे कोई व्यापक चर्चा नहीं मिली। डायरियां, यात्रा वृतांत, पत्र लेखन, आत्मकथाएं,आत्मकथात्मक उपन्यास पहले भी लिखे गये। अज्ञेय का शेखर एक जीवनी इसका बड़ा उदाहरण है। यह एक स्वभाविक रचनात्मक उपक्रम था। लेकिन अब कथेतर गद्य को जिस तरह एक अभियान या नियोजित विमर्श की तरह पेश किया जा रहा है, जैसे अचानक कोई नवोन्मेषी स्फोट हुआ हो। इन दिनों कई पत्रिकाओं में कथेतर गद्य को लेकर अतिरिक्त उत्साह देखा जा रहा है। अब हो ये रहा है कि हर लेखक कथेतर गद्य लिखने के अनुष्ठान में जुता है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे यह कथा विधा को रिप्लेस करने की कोई कवायद हो। लेखक जब स्वभाविक रूप से अपनी ज़रूरत के हिसाब से किसी भी विधा में लिखता है, तो वह उसका निजी चयन और आग्रह होता है, पर जब किसी विधा को अभियान की तरह स्थापित किया जाये तो उसके निहितार्थ को एकदम कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? मैं किसी भी विधा को नकारता नहीं, बल्कि हर विधा समृद्ध हो, यह कामना है। पर वह लेखक की अनिवार्य ज़रूरत से संभव हुई हो, न कि किसी अभियान से उसे प्रक्षेपित किया गया हो। हां, इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इसी बहाने कथेतर विधा कुछ और होगी।
नीलिमा शर्मा – साहित्य में पिछले दिनों बेस्ट सेलर टर्म खूब प्रचलित हुआ। विशेष बात यह भी रही कि तथाकथित लोकप्रिय या किन्हीं खास प्रकाशन गृहों से जुड़ी किताबों का इन सूचियों में बोलबाला रहा। यह बदलते ट्रेंड की आहट है या कुछ और? वरिष्ठ लेखक होने के नाते आप क्या राय रखते हैं।
अवधेश प्रीत – हिन्दी साहित्य में बेस्ट सेलर किताबें हो रही हैं तो यह सुखद सूचना होनी चाहिए, लेकिन अफ़सोस कि हक़ीक़त में ऐसा कुछ नहीं है। वैसे बेस्ट सेलर का आधार क्या है? कितने प्रकाशक घोषित करते हैं कि किसी क़िताब की कितनी प्रतियां छापी हैं और अगर वो सारी बिक गई हैं तो लेखक को उसकी कितनी रॉयल्टी दी गई है। मेरी जानकारी में ऐसी कोई घोषणा… सूचना तो होती नहीं दिख रही… तो ज़ाहिर है ये झूठ का कारोबार है, जिसे सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ाया गया है। प्रश्न है, कितनी कॉपियाँ बिकने को बेस्ट सेलर माना गया है? क्या कोई मानक है? हिन्दी में हज़ार कॉपियाँ छपने और साढ़े आठ सौ बिकने को अगर बेस्ट सेलर माना गया है, या पांच हज़ार प्रतियों की बिक्री को भी बेस्ट सेलर माना गया हो, तो मुझे इस तथ्य पर अफ़सोस ही होगा। दया आती है। अगर लाइब्रेरी खरीद को जोड़कर कोई बेस्ट सेलर का दम्भ भर रहा हो तो बेस्ट सेलर होने का कोई तर्क नहीं बनता। बेस्ट सेलर अंग्रेजी किताबों की बिक्री से आया है, जो इस दौर में हिन्दी में जानबूझकर झोंका गया है। यह एक तरह से मार्केटिंग नुस्खे की तरह है, इस बहाने शायद किताबों की बिक्री को बूस्ट मिल जाये। ख़ास प्रकाशन गृहों की यह बिक्री स्ट्रेटजी हो सकती है। जिस दिन हिन्दी साहित्य के लेखक को उसकी किताबों की बिक्री से उसके लिए बेहतर जीविकोपार्जन संभव हो जायेगा, उसी से बेस्ट सेलर की अवधारणा साकार हो सकेगी।
नीलिमा शर्मा – आप पटना में रहते हैं जो प्रदेश की राजधानी है। जाहिर है साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र भी है। क्या इसका फायदा किसी लेखक को मिलता है कि वह दूर दराज में रहकर लेखन करता है या फिर राजधानी या बड़े शहर में रहकर?
अवधेश प्रीत – हां किसी हद तक लाभ मिलता है। जहां जितनी साहित्यिक गतिविधियां होती हैं, लेखक में उतनी ही गतिशीलता आती है। साहित्यिक गतिविधियां विषयों, विधाओं, उनकी बहुआयामिताओं, उसकी सद्यः स्थितियों को जानने -समझने का अवसर उपलब्ध कराती हैं। इन गतिविधियों से लेखक समृद्ध होता…अध्यतन होता है। राजधानी जैसे बड़े शहरों में संवाद, समकालीनता की हलचलों, ध्वनियों आदि को सुनने की पर्याप्त गुंजाइश होती है, जो प्रकरांतर से लाभदायक तो होती हैं। दूर दराज़ के लेखक को ऐसे अवसरों का लाभ नहीं मिल पाता। उसका एक्सपोजर भी कम हो पाता है। हालांकि इस धारणा को कई लेखकों ने अपनी सक्रियता, तत्परता और हस्तक्षेप से ध्वस्त भी किया है, लेकिन उनकी ऐसी उपस्थिति का कार्य -कारण कुछ और होता है। फ़िलहाल,सूचना-क्रांति और अवसरों की सर्वत्र उपलब्धता ने इस बैरियर को तोड़ा है।
नीलिमा शर्मा– साहित्य में लेखकों के मध्य अमूमन कैसे रिश्ते रहते है? परस्पर वैमनस्य, दोस्ती या तटस्थता?
अवधेश प्रीत – यह बहुत जटिल प्रश्न है। इसका उत्तर हर लेखक के व्यक्तिगत अनुभव और सरोकार से जुड़ा है। पहले के लेखकों में भी संबंधों को लेकर खींचतान रही है। जहां मधुर और सहयोगी भाव के अनेक उदाहरण मिलते हैं, वहीं कटु संबंधों के भी कई उदाहरण हैं। प्रेमचंद के तो ज़्यादातर लेखकों से pp अच्छे संबंध रहे। उनके जयशंकर प्रसाद और जैनेन्द्र से भी अच्छे संबंध रहे। लेखकों के रिश्ते एक दूसरे से इस बात पर निर्भर करते हैं,कि आप उनको कितना सूट करते हैं। मुझे लगता है, आजकल बेलौस संबंध बहुत कम रह गये हैं। आजकल रिश्ते नेटवर्किंग में निहित हैं। मेरा मानना है, साहित्य में वैमनस्य का कोई मतलब नहीं है, अदावत या फौजदारी की साहित्य में कोई जगह नहीं। मेरे जितने भी लेखक दोस्त हैं, उनसे मेरा सौहार्दपूर्ण रिश्ता है। जो अहम्मन्यता में डूबे होते हैं, उनसे मैं तटस्थता ही बरतता हूं। हालांकि ऐसे लोग बहुत कम हैं।
नीलिमा शर्मा – एक साहित्यकार को कैसे लोगों से मित्रता रखनी चाहिए ? मित्रों का चुनाव कैसे किया जाना चाहिए?
अवधेश प्रीत – यह एक और जटिल प्रश्न है। पहली बात तो यह कि मित्रता किसी फॉर्मूले पर आधारित नहीं होती। मित्र चुनना शर्तों पर संभव नहीं होता।आप साहित्यकार हैं तो यक़ीनन साहित्य से जुड़े लोग, साहित्य की समझ रखने वाले लोग, समान सोच और रुचि के लोग ही मित्रता के दायरे में आयेंगे। मेरे लिए यह दायरा थोड़ा और बड़ा हो जाता है, जब मैं समाज के अनेक अनुशासनों और अनुभव क्षेत्रों के लोगों को मित्र बनाता हूं। आप साहित्यकार हैं, तो आपसे उदारता और उदात्तता दोनों की अपेक्षा की जाती है, इसलिए आप अपने परिवेश, समाज और सरोकारों के प्रति कितने सजग, संवेदनशील हैं, यह आपकी मित्रता से समझा जा सकता है। मित्रों का चुनाव कैसे करें, यह बता पाना मेरे लिए संभव नहीं। हमारे यहां एक कहावत है, जैसी संगत धरिये बालक, वैसे पाइये गुण। मेरा मानना है, मित्र थोड़े हों लेकिन वे संवेदनशील हों, एक-दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान की भावना रखते हों और ईर्ष्यालु तो कतई न हों। यद्यपि, फॉर्मूला तो कोई नहीं होता।
नीलिमा शर्मा– आप पढ़ने के लिए किसी पुस्तक का चुनाव लेखक का नाम देखकर करते है या विषय देखकर? आप किन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हैं। अपने कुछ प्रिय लेखकों के नाम बताएं?
अवधेश प्रीत – दोनों। कई नामचीन लेखक हैं, जिन्होंने बहुत महत्वपूर्ण लिखा है, इसलिए उन्हें पढ़ने का मतलब होता है, उनके महत्वपूर्ण लिखे को पढ़ना। कई बार कुछ नये विषयों की तलाश में जो पढता हूं, उसमें लेखक का नाम गौण होता है। वैसे इतना कुछ लिखा गया है, और पढ़ना शेष है कि उसके लिए चयन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। अच्छे लेखकों की अच्छी रचनाओं को पढ़ना मेरी प्राथमिकता होती है। हां, नये लेखकों को,उनमें क्या नया है, उस तलाश में उनका नाम देखे बगैर पढता हूं। उन्हें पढ़कर ख़ुद को अपडेट करता हूं। मेरे लिए पढ़ने की कोई एक कसौटी नहीं है. कोई क़िताब चर्चित होती है, तो उसे पढ़ने का आग्रह होता है. कोई क़िताब कोई मित्र सुझाता है तो उसे पढता हूं। अपने पूर्ववर्ती लेखकों को पढ़ने के लिए नाम और विषय से ज़्यादा महत्वपूर्ण उनकी परंपरा को समझने की जिज्ञासा होती है, इसलिए वह जो और जैसे उपलब्ध है, मुझे पढ़ना सुखकर लगता है। अपने प्रिय लेखकों की बड़ी लंबी फ़ेहरिश्त है। चेखव, लूशुन से लेकर समरसेट मोम, जैक लंडन, प्रेमचंद, अज्ञेय, रेणु, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, अमरकांत, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, चित्रा मुदगल, उदयप्रकाश, संजीव, हृषीकेश सुलभ, हरि भटनागर, संतोष दीक्षित आदि अनेक मेरे प्रिय लेखक हैं। यहां सब का नामोल्लेख संभव नहीं।
नीलिमा शर्मा – जब कभी हिन्दी साहित्य की बात होती है, कोई भी साहित्यकार भारत से बाहर लिखे जा रहे साहित्य के बारे में दो शब्द भी नहीं कहता। क्या आपको लगता है कि भारत के बाहर रचा जा रहा हिन्दी साहित्य इतना कमज़ोर है कि उस पर बात करना समय की बरबादी होगी या फिर उसे पढ़ा ही नहीं जाता?
अवधेश प्रीत – यह बहुत अहम सवाल है और सच तो यह है कि इस सवाल को बार-बार उठाया जाना चाहिए। पहली बात तो यह है कि इसके लिए कोई एक्सक्यूज़ नहीं है। भारत से बाहर लिखा जा रहा साहित्य कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ये लेखक अव्वल तो हिन्दी के, हिन्दी साहित्य के एम्बेसडर हैं, तो एक तो यह एक बड़ा योगदान है, इस तरह हिंदी साहित्य को ग्लोबल स्वरूप मिलता है। हिन्दी के अनुभव संसार में व्यापक इज़ाफ़ा होता है। प्रवासी लेखक भारत से इतर, जिस देश, परिवेश में रहता है, वहां सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के साथ तालमेल करते हुए वह एक ग्लोबल नागरिक भी होता है, वह जिन सच्चाइयों से दो-चार होता है, वह अपने लेखन से, अपनी उपस्थिति से भारत के मन की अभिव्यक्त कर रहा होता है।
तो मैं बाहर लिखे जा रहे साहित्य को कतई कम नहीं मानता। एक ज़माने में अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर जैसे प्रवासी लेखकों के लिखे को काफी पढ़ा सराहा गया। लेकिन ये वे लेखक थे, जिनके पूर्वज मारिशस, फिजी, त्रिनिदाद, गयाना आदि में गये, जिनकी संततियों ने अपनी पहचान, संघर्ष और गुलामी के, अतीत के अर्जित, संचित अनुभवों को अपने लेखन में शामिल किया। बाद के ऐसे लेखक जो ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका और अन्य देशों में गये और वहां से लिख रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि अलग है। इनके लेखन को भारत के हिन्दी साहित्य में पहचान देर से मिली. अब तो प्रवासी लेखन पर पत्रिकाओं ने विशेष अंक भी निकाले हैं। तेजेन्द्र शर्मा, सुधा ओम ढींगरा, हंसा दीप, सुषम बेदी, अर्चना पेन्यूली, शिखा वार्ष्णेय आदि अनेक नाम हैं, जो भारत में काफी लोकप्रिय हैं।
हां, यह सच है कि सामान्य चर्चा में यहां के साहित्यकार बाहर लिखे जा रहे साहित्य के बारे में कुछ नहीं बोलता। इसकी एक बड़ी वज़ह बाहर लिखे जा रहे साहित्य से ग़ाफ़िल रहना, दूसरे पढ़ने का जो अभ्यास है उसमें ऐसे साहित्य का शामिल न होना। वैसे मैं जानता हूं कि प्रवासी लेखन और लेखकों पर अनेक आलेख लिखे गये हैं, शोध भी हो रहे है, इसलिए उल्लेख का परिदृश्य इतना भी निराशाजनक नहीं, व्यक्तिगत रुप में यह कमी हो सकती है।
नीलिमा शर्मा – आप आने वाली पीढ़ी से कैसा साहित्य रचे जाने की उम्मीद रखते हैं?
अवधेश प्रीत – हमसे पूर्व की पीढ़ी ने हमसे कैसे साहित्य की अपेक्षा की होगी? दरअसल हर पीढ़ी अपने समय के सत्य से अपने लेखन की सामग्री ग्रहण करती है। यथार्थ का स्वरुप बदलता रहता है। उस समय की ऐतिहासिक घटनाएं, उस समय का यथार्थबोध, नये मनुष्य के मूल्य, टकराहटें आदि अनेक कारक होते हैं, जो अपने समय के लेखक को प्रभावित करती हैं। कुल जमा यह कि आने वाली पीढ़ी मनुष्यता के पक्ष में अपना साहित्य रचेगी और एक बेहतर दुनिया के निर्माण के स्वप्न को जिंदा रखेगी।
बहुत ही ऑब्जेक्टिव प्रश्न और युवाओं,विद्यार्थियों ,शोधार्थियों के लिए यह प्रश्न और बातचीत का सिलसिला एक नज़ीर बन सकता है कि कैसे प्रश्न हों और हां सामने कौन सी शख्सियत है जिसका दीदार महज़ अल्फाज़ से पढ़ने वालों को कराना है।
बधाई नीलम जी को और पुरवाई पत्रिका के संपादक श्री तेजेंद्र शर्मा जी और परिवार को।
बहुत ही ऑब्जेक्टिव प्रश्न और युवाओं,विद्यार्थियों ,शोधार्थियों के लिए यह प्रश्न और बातचीत का सिलसिला एक नज़ीर बन सकता है कि कैसे प्रश्न हों और हां सामने कौन सी शख्सियत है जिसका दीदार महज़ अल्फाज़ से पढ़ने वालों को कराना है।
बधाई नीलम जी को और पुरवाई पत्रिका के संपादक श्री तेजेंद्र शर्मा जी और परिवार को।
बहुत शानदार सवाल और मानीखेज उत्तर , बहुत बधाई