Wednesday, October 16, 2024
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डॉ. मधु संधु की कलम से – प्रवास में पैर जमाने की संघर्ष कथा- वह दिन आयेगा ज़रूर

वह दिन आयेगा ज़रूर इला प्रसाद का विकल्प से 2024 में प्रकाशित दूसरा उपन्यास है। इससे पहले उनके पाँच कहानी संकलन और दो कविता संकलन आ चुके हैं। रोशनी आधी अधूरी सी की तरह यह भी बहुत कुछ स्वर्णिम भविष्य की खोज में अमेरिका आए उच्च शिक्षित भारतीय दंपति की कहानी है। पति इंजीनियर और नायिका तनुजा भारत की यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री में ग्रेजुएट और बी एड है। सारी शैक्षिक डिग्रियों के बावजूद वह एक स्कूल टीचर की स्थायी नौकरी जुटाने की जद्दोजहद में व्यस्त है। नायिका प्रधान यह उपन्यास ढेरों बड़े-बड़े सवाल छोड़ता है। भूमंडलीकरण के इस काल में भी व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मिसफिट क्यों है ? विसंगति का शिकार क्यों है?  
तनुजा अमेरिका पहुँचने के तीन साल बाद, पति अर्चित को अलटाडेना की केमिकल कंपनी में इंजीनियर की नौकरी मिलने पर जीवन में कुछ स्थिरता महसूस करती है और वहीं किसी स्थानीय स्कूल में नौकरी का मन बनाती है। अमेरिका के स्कूल में पढ़ाने के लिए पी. पी. आर. यानी पेडागाजी और प्रोफेशनल रेस्पॉन्सिबिलिटी- (बच्चों की मानसिकता को समझने का कोर्स- प्राथमिक स्कूलों की प्राथमिकतायेँ अलग, माध्यमिक की अलग, हाई स्कूल की अलग) की राज्य स्तरीय परीक्षा पास करनी अनिवार्य है। इसके लिये वह एक प्राइवेट कंपनी में अपने को रजिस्टर करती है, ट्रेनिंग लेती है। प्रशिक्षण में वह क्लिनिकल टीचिंग का विकल्प चुनती है। यानी अपने संस्थान के संपर्कों के माध्यम से वह किसी सरकारी स्कूल में कैमिस्ट्री टीचर का काम करके अनुभव जुटाएगी। पहली नौकरी सब्सिच्यूड़ अध्यापक की होती है। महत्वहीन स्थिति, रोज़ अलग स्कूल, अलग काम- कभी गेम टीचर, कभी हिस्टरी टीचर, कभी फ्रेंच, इंग्लिश, साइन्स, स्पेशल एजुकेशन टीचर, अनुपस्थित टीचर की वर्क शीट बाँट दो, हाजिरी बनाओ, अनुशासन रखो और पूरा दिन स्कूल में बिता जेब में मेहताना डाल कर चलते बनो। जल्दी ही वह करविंग हाई स्कूल की साइन्स टीचिंग में पूर्णकालिक शिक्षिका, क्लास रूम टीचर बनती है और फिर ओस्वाल्डो आई एस डी में उसकी नियुक्ति हो जाती है। पूर्णकालिक नौकरी से उसे ढेर सारी सुविधाएं मिलती हैं- हैल्थ इन्शुरेंस, पेड़ लीव, अच्छा वेतन  रिटायरमेंट प्लान, सामाजिक प्रतिष्ठा । नौकरी मिलते ही उसे बता दिया जाता है कि तीन सप्ताह उसे उसे न्यू टीचर अकादेमी में जाना होगा। फिर एक साल का प्रोबेशन। प्रोबेशनरी के बाद टियर वन टीचर बनते ही उसका आत्मविश्वास लौट आता है। बड़ी बात कि यह स्कूल ड्रग फ्री है। अमेरिका में बहुत कम स्कूल ड्रग फ्री हैं। ए पी, प्री ए पी क्लासें पढ़ाने का अर्थ है प्रतिभाशाली छात्रों को पढ़ाना। 
नायिका किसी सातवें आसमान को छूने का सपना नहीं पाल रही । उसकी बहुत  छोटी- छोटी इच्छायेँ हैं। वह सिर्फ विदेश की धरती पर सम्मानीय जीवन की आकांक्षा लिए है।  नौकरी पाना जितना कठिन है, उसे बनाए रखना, उसपर टिके रहना उतना ही प्रयत्न साध्य है। विद्यार्थियों और सहकर्मियों दोनों मोर्चों पर जूझना होता है। उपन्यास बाह्य संघर्षों की यातनामय कथा लिए है। इस युगल की सारी सोच, सारा संघर्ष, सारी चिंता विदेश की धरती पर पैर जमाने की है। 
उपन्यास में अनेक पात्र हैं, या यूँ कहिये कि तनुजा चौधरी समय- समय पर अनेक लोगों के संपर्क में आती है- प्रशासनिक व्यस्तताओं से घिरी, अविवाहित, उम्र के चालीसवें दशक में, दृढ़ निश्चयी, कार्यकुशल, संधर्षशील किम स्मिथ, मोटी गौरी स्पेनिश, स्कूल डिस्ट्रिक्ट की साइन्स को- आर्डिनेटर- डोना डोनाल्सन,  स्कूल डिस्ट्रिक्ट डायरेक्टर- शौन्ड्रा  विलियम्स, भौतिकी और आई. पी. सी. पढ़ाने वाला स्पेन से- कार्लोस, विभागाध्यक्ष स्कॉटिश 28 वर्षीय उत्साही टीचर जेफ, कॉलेज बोर्ड की को- ओर्डिनेटर और ए पी, प्री ए पी डाइरेक्टर एम्मा एंडरसन, मानव ससंधान विभाग के डायरेक्टर- मिस्टर मरफ़ी, मैथ्स टीचर जॉनसन, ए पी, प्री ए पी क्लासेस पढ़ाने से पहले 35 घंटे की अनिवार्य ट्रेनिंग देने वाली- ऐन जॉनसन, अति महत्वाकांक्षी और नालायक- रॉडनी जेम्स, डॉलर स्टोर और सेवेन एलेवन में काम कर चुका, शेफ रह चुका मैक्सिकन ह्यूगों, प्रिन्सिपल- जस्टिन पेरेज, सहायक प्रिन्सिपल- विलसन, प्रिन्सिपल की सेक्रेटरी- अगाथा तथा राइस, विभा दी, तनिशा मूअर आदि। 
बिना संपर्क के इस देश में भी नौकरी नहीं मिलती। अध्यापकों की नियुक्ति के लिए लिस्टें खरीदी भी जाती हैं और प्रशासन से ली भी जाती है। श्वेत लोगों का चयन पहले होता है, अवधारणा है कि बच्चे अश्वेत अध्यापकों के साथ बेहतर समायोजन नहीं कर पाते हैं। उच्चारण की समस्या भी रहती है, उसके बाद अमेरिकन इंडियन– एच फोर– यानी जिनके पास  अमेरिका में नौकरी करने का परमिट है। वैसे उसका एच वन के लिए आवेदन करवा दिया जाता है। जब तक ग्रीन कार्ड नहीं हो जाता, तब तक वेतन ओरों से कम मिलता है। हिस्पैनिक ( मैक्सिकन, स्पेनिश, लेटिन अमेरिकन परिवारों से) छात्रों के लिए हिस्पैनिक टीचर को वरीयता दी जाती है। स्कूल प्रशासन को प्रभावित करना और प्रिन्सिपल से दोस्ती रखना पक्की नौकरी पाने के लिए अनिवार्य है। नौकरी के लिए क्नेकशन सबसे जरूरी है। क्नेकशन हों तो बिना सर्टिफिकेट के भी नौकरियाँ मिल जाती है। स्थानीय लोग तो सिर्फ ग्रेजुएट ही क्यों न हों, उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए अवार्ड दिये जाते हैं, जैसे कि राइस को अवार्ड मिलता है। सोफिया वरगास की आंट प्रिन्सिपल की मित्र है, इसलिए उसे नौकरी भी मिल जाती है और स्टार टीचर का अवार्ड भी। भारत में जिसे भाई- भतीजावाद कहते हैं, यहाँ उसी को कांटैक्ट/ कनेक्शन का नाम दिया गया है। हर स्कूल में ऐसी ही राजनीति है।
रॉडनी या ह्यूगों जैसे सहकर्मी तंग करते ही रहते हैं, शिकायत करने पर भी अमेरिकन टीचर असोसिएशन कोई सहायता नहीं करती, बेकार है। कुछ सिखलाने का नाटक कर एक अध्यापक तनुजा की ए पी, प्री ए पी  क्लासें झपट लेता है और तनुजा को ऑन लेवेल कक्षाएं दे दी जाती हैं।
अमेरिका के कानून के अनुसार अठारह की उम्र तक सबको स्कूल जाना है, अगर माँ- बाप नहीं भेजते तो वे सलाखों के अंदर हो सकते हैं। सेक्स एजुकेशन और भोगवादी संस्कृति के कारण छोटे छोटे बच्चे ही यौनिक प्रयोग करने लगते हैं। छात्र जीवन में सेक्स का प्रयोग भयंकर बात तो है ही। किशोर बच्चे अपने पपी लव के लिए बहुत बार पिछले दरवाजे से निकल जाते हैं। सब को गर्ल फ्रेंड/ बॉय फ्रेंड चाहिए। यह सपने देखने और अपने को सबसे बुद्धिमान समझने की उम्र है। मार्क की प्रेमिका उसे लेने आती है और वह बहाना बना स्कूल से उसके साथ हवा हो जाता है। मुश्किल यह है कि उनकी इस चालाकी का हिसाब टीचर को रखना होता है। वर्कशाप में ही बता दिया जाता है कि छात्र अध्यापक को खूब तंग करते हैं। वह बोर्ड पर लिखती है, लेकिन बच्चे न कुछ देखते हैं, न सुनते हैं, सेल फोन पर कंट्री म्यूजिक सुनते हैं। उपस्थिति दर्ज होने तक ही चुप रहते हैं। कभी होम वर्क नहीं करते।  शरारतें उन्हें अकसर सूझती रहती हैं। देखती है कि ए ग्रेड लेने वाला मार्क फेल हो रहा है। क्लास में सो जाता है। क्योंकि वह देर रात तक काम पर रहता है। यह इक्कीसवीं शती की पहली दुनिया यानी अमेरिका के अत्याधुनिक बच्चे हैं- सेल्फ़मेड। अपनी ब्रैड खुद कमाने वाले। स्कूल के बाद बच्चे काम/ नौकरी करते हैं। ऐन की हाई स्कूल में पढ़ने वाली दोनों बेटियाँ टीचर अकेडेमी की सप्ताहांत क्लासेज में उसकी सहायता करती हैं। यह विखंडित परिवार के बच्चे है। कोई माँ और सौतेले पिता के पास और कोई पिता और सौतेली माँ के पास। सब बच्चे शिक्षक का स्नेह लेना चाहते हैं। क्या टीचर उस अभाव को भर सकती है? 
बच्चे जानते हैं अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए, अपनी इवैल्यूएशन के लिये टीचर को ठीक- ठाक ग्रेड देना ही है और ऑन लाइन रेकॉर्ड भी ठीक रखना है। माँ- बाप अलग से धमकाते- चिल्लाते हैं।
   जीवन स्टाइल कुछ ऐसा है कि पापा अर्चित ऑफिस, ममा तनुजा काम पर, बेटी नव्या डे केयर में और बेटा कौस्तुभ छुट्टियों में भी प्ले-स्कूल में। बच्चों के भविष्य के लिए अर्चित और तनुजा बहुत संवेदनशील हैं।  अमेरिका की पराई धरती पर रहकर अपनी भारतीय परम्पराओं और संस्कृति की समझ देने के लिए उन्हें वैदिक स्कूल भी डाला जाता है। सरकारी से प्राइवेट स्कूल में किया जाता है। लेकिन एक रोज़ किसी शरारती तत्व द्वारा कक्षा में कौस्तुभ की आई- डी हैक कर आपत्तिजनक टेक्स्ट डाल उसे अपराधी वर्ग का बना दिया जाता है। फिर उसे स्कूल से निकालने का अभियान शुरू होता है। वकील किया जाता हैं, कोई फायदा नहीं होता। कौस्तुभ को स्कूल से निकाल ही दिया जाता है।  
नायिका की लड़ाई किसी रॉडनी या हयूगो से नहीं है, यह सारे महत्वाकांक्षाओं और अस्तित्व के तकादे हैं। धरती पर पैर जमाने के अपने- अपने प्रयास हैं। रॉडनी या हयूगो जैसे खल पात्र हैं तो अगाथा, प्रिन्सिपल, किम, जेफ जैसे अच्छे लोग भी हैं। 
कहते हैं कि अमेरिका में बंदूकें मूँगफली की तरह बिकती हैं। आतंक वहाँ के जीवन का अनिवार्य अंग है। एक दिन कोई शरारती तत्व स्कूल के सामने पेड़ पर एक बॉक्स लटका देता है। बम होने की आशंका में सारे बच्चे निकाल दिये जाते हैं। पुलिस, अग्निशामक गाडियाँ, हेलीकाप्टर – सब सक्रिय हो जाते हैं, भले ही बॉक्स से कुछ कागज ही निकलते हैं। आम बात है कि स्कूल खत्म होते कोई छात्र बंदूक तान कर धमकाने लगे। यूं ड्रग लेना तो सामान्य बात है।  
आवास की समस्या भी इला प्रसाद ने दिखाई है। स्कूल के आसपास कई अपार्टमेंट देखे जाते हैं। हर साल अपार्टमेंट का किराया 75 डॉलर बढ़ा दिया जाता है। अलटाडेना यूं तो सौ साल पुराना इलाका है, लेकिन इस शहर में केमिकल कंपनियों में काम करने वाले लोग ही रहते थे। धीरे- धीरे यहाँ माल, स्कूल, बैंक, अपार्टमेंट होम, मुख्य शहर से जोड़ने वाला हाई वे बने। इसका वह भाग जहां ब्लू कॉलर जॉब वाले रहते हैं, आज भी टूटी- फूटी सड़कें लिए है। यहाँ तनुजा एक साल की लीज़ पर अपार्टमेंट लेती है, लेकिन फैक्टरियों की रासायनिक गंध वातावरण में सदैव बनी रहती है। बेड़ रूम की छत से पानी टपकता है। भले ही बॉयलर फट जाये, आग और धुआँ सांस लेना मुश्किल कर दे, प्रशासन तब तक सक्रिय नहीं होता, जब तक यह डाउन टाउन के डोनेशन देने वाले पाश लोगों को संतप्त नहीं करता।   
बात को समासात्मक ढंग से कहना, थोड़े में अधिक अभिव्यक्त करना इला प्रसाद को बखूबी आता है। जैसे-
  1. क्लास रूम दूसरा घर होता है बच्चों के लिए, उन्हें घर जैसी सुरक्षा और स्नेह का अनुभव मिलना चाहिए। तब वे पढ़ते हैं। 
  2. प्रस्तुतीकरण ही अधिक महत्वपूर्ण है।  
  3. ज़िंदगी में सफलता के लिए कोई शॉर्ट कट नहीं होता। — ज़िंदगी घुमाती है, नचाती है, इतने चक्कर दिलाती है कि गश आ जाता है और तब भी हो सकता है कि हम भटकते ही रहें प्यासे- पानी की एक बूंद के लिए। 
  4. सपनों की कोई उम्र नहीं होती। वे तो बने रहते हैं चिर युवा। सपने को ईश्वर क्यों नहीं कहता कोई, वही तो जिलाए रखते हैं हमें। 
  5. संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती।
उपन्यास में प्रवासी की नंबर दो की हैसियत बार- बार याद दिलाई गई है। कभी उसकी उच्चारणगत भिन्नता द्वारा, कभी मिलिटरी में पक्की नौकरी पाये छात्र द्वारा, कभी सिर्फ ग्रेजुएट टीचर को मिले अवार्ड द्वारा, कभी उच्च कक्षाओं के हाथों से फिसल जाने पर, कभी वीज़ा के चार-2 द्वारा।     
उपन्यास प्रवासी जीवन और शिक्षा जगत की विसंगतियों को केले के गाभ की तरह खोल रहा है। प्रवास में एक उच्च शिक्षित परिवार की जमीनी हकीकत से रूबरू करवा रहा है। उसे पता है- जीवन आसान नहीं था, जीवन सम्पूर्ण समायोजित भी नहीं था, लेकिन जीवन सुंदर है—– बस ह्यूगो की उपस्थिति उसे असुंदर बनाती थी। शीर्षक ही प्रतीक्षारत नायिका का बिम्ब उभारता है। आवरण पृष्ठ पर चित्रित स्त्री की भाव मुद्रा भी इसी तथ्य का पोषण करती है। कितनी विसंगतियाँ हैं जीवन में- लेकिन तनुजा के अंदर एक जीवट है, एक सकारात्मसक सोच, एक आशावाद, एक प्रतीक्षा-  वह दिन ज़रूर आयेगा जब पति अर्चित को स्थायी (कांट्रैक्ट) काम मिलेगा और उसे सरकारी नौकरी और तीन चार वर्ष में ही वह दिन आ जाता है। उसे प्रतीक्षा है- वह दिन जरूर आयेगा जब रोडनी, ह्यूगो जैसे चालबाज़ सहकर्मियों को सच्चाई से दो- चार होना पड़ेगा, मुंह की खानी पड़ेगी और योग्य अध्यापक को उचित सम्मान मिलेगा और आज विद्यार्थी सच में उसे कॉम्प्लिमेंट देते हैं। उसे उस दिन का इंतज़ार है जब स्कूली राजनीति के खेल/ कुचक्र उसका पीछा छोड़ेगे और तीन वर्ष होते ही उसे ए पी, प्री ए पी कक्षाएं वापिस मिल जाती हैं।
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।
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