Wednesday, October 23, 2024
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डॉ पद्मावती की कलम से – प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ : एक अंतर्यात्रा

पुस्तक का नाम – प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ
लेखक प्रमोद भार्गव
प्रकाशन वर्ष 2024
प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग , गाजियाबाद , भारत ।
समीक्षक – डॉ पद्मावती 
हिंदी साहित्य जगत में प्रमोद भार्गव  एक ऐसा नाम है जिनकी साहित्यिक रचनात्मकता  उनके गहन अध्ययन और व्यवस्थित पारम्परिक शास्त्र  चिंतन का परिणाम है । ये एक प्रतिष्ठित पत्रकार है । सनातन ज्ञान परंपरा के संवाहक हमारे पौराणिक ग्रंथ पर आधारित इनका  सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘दशावतार’ काफी चर्चा में रहा था । मानवीय जीवन की व्यथा को बोधगम्य भाषा में व्यक्त करना इनकी साहित्य साधना की उपलब्धि मानी जा सकती है ।  इनका कथा- साहित्य समाज, संस्कृति, परम्परा के अन्योंन्याश्रित संबंधों को वृहत् फलक पर चित्रित करता है । प्रस्तुत संग्रह में बीस कहानियाँ है जिसका फलक लगभग एक सा ही लगता है –नारी अंतर्मन की गुत्थियों को बहिर्गत करता  हुआ मनोवैज्ञानिक धरातल  । ये कहानियाँ पाठक की अंतश्चेतना से तादाम्य उपस्थित करने में इस लिए भी सक्षम है क्योंकि इन कहानियों का कथ्य और संघटनाएं हमारे आस-पास के परिवेश से ही बुने गए  है और भाषा -सहज सरल व संप्रेषणीय है । 
सच है कि व्यक्ति समाज का अंग है और समाज से पृथक उसकी कोई सत्ता नहीं होती । व्यावहारिक और भावनात्मक दोनों धरातलों पर वह परिवेश से जुड़ा हुआ है । दैनंदिन जीवन में होने वाली हर छोटी से छोटी संघटना  तटस्थ रूप से उसके मनः पटल पर अंकित अवश्य हो जाती है और अगर वह  ह्रदय चित्रकार है तो उसका रचनात्मक कौशल  इन भावोद्रेकों को समय मिलते ही यदा कदा अपने चित्रों में बहिर्गत करने लगता  है  और अगर वह कहानीकार है उसकी  वैचारिकता उन संघटनाओं के भँवर से  अपनी कहानी के लिए  कथ्य बुनती  है और फिर कल्पना की आड़ी तिरछी रेखाएँ उस कथ्य को गति प्रदान करती है । तो माना जा सकता है कि कहानी में यथार्थ और कल्पना का चोली दामन का संबंध होता है लेकिन प्रमोद भार्गव की कहानियाँ एक और अनोखे आयाम को भी साथ  लेकर चलती है और वह है विज्ञान की तथ्यपरक विश्लेषणात्मक दृष्टि जो समकालीन कहानिकारों में  कमोवेश बहुत कम देखने को मिलती है ।  साहित्यकार अपने  समय का साक्षी होता है । वह अपने समय के साथ चलता है और समय … समय  परिवर्तनशील होता है ।  परिवर्तन प्रकृति का नियम है । फिर लेखक समय के परिवर्तनों को अनदेखा भला कैसे कर सकता है ?  जो लेखक समय से पिछड जाए , उसका साहित्य ठहरे  हुए पानी में जमी काई के समान सड़ जाता है , विलुप्त हो जाता है । तो मानना पडेगा कि काल-बोध से सम्पन्न  युगानुरूप साहित्य सृजन लेखनी को जीवंत ही नहीं कालजयी  भी बनाए रखता  है, तभी रचना का प्रभाव चिरकालिक और शाश्वत बन जाता है  इसमें  दो राय नहीं । 
संग्रह के आरंभ में ही लेखक ने इस कथा संग्रह को उन स्त्रियों को समर्पित कर दिया है जिन्होंने वर्जनाओं को तोड़‌ने का साहस दिखाया है अर्थात पुस्तक को हाथ में लेते ही पाठक समझ जाता है कि ये कहानियाँ नारी संघर्ष नहीं बल्कि समयानुरूप उसकी प्रगतिशील सोच  की पैरवी करती चलेगी  और पहली ही कहानी में उसके आसार दिखाई देने लगते है जब ‘कोख में अजन्मा शिशु’ कोख में ही आक्रांत होकर अपने जन्म  पर प्रश्न चिन्ह उठा देता है क्योंकि वह ऐसे समाज में  जन्म ही नहीं  लेना चाहता जहाँ पैंसठ वर्ष की वृद्धा के साथ बलात्कार हो रहा है । विचारोत्तेजक कहानी से संग्रह की शुरुवात होती है और गहनता आती है उनकी अगली कहानी  ‘पहचाने हुए अजनबी’ से जो  ऐसे ही अनछुए मुद्दे को छूती लिखी गई है जहाँ पति विवाह के कुछ समय पश्चात  कोढ रोगी हो जाता है अपनी पत्नी रचना से वह इस बात को छिपाकर शारीरिक दूरी बना लेता है । वह डरता है कि अगर उसने अपनी पत्नी से शारीरिक संबंध बना लिए तो आने वाली सन्तान भी रोगग्रस्त ही पैदा होगी । शारीरिक दूरी दाम्पत्य जीवन की मधुरता को लील देती है । परिस्थितियाँ तनाव पैदा करने लगती  है और दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी बन जाते है व बात तलाक तक पहुँच जाती है  । परिवार में रिश्ते आपसी विश्वास के सहारे ही टिकते है । रिश्तों में पारदर्शिता का होना अत्यंत आवश्यक भी होता है । उसका अभाव दरारें  ला देता है ।  लेकिन फिर कहानी में अप्रत्याशित मोड आता है  और रिश्ता टूटते –टूटते संभल भी जाता है । दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित भावना से ईश्वर प्रदत्त उस दुर्भाग्य को स्वीकार कर लेते  है और जीवन भर निःसंतान रहना सहर्ष स्वीकार कर लेते है लेकिन एक रात  ‘प्रवीण का चंचल  मन और अनियंत्रित इंद्रियाँ अपना रंग दिखा  देती है और प्रवीण रचना की इच्छा  के विरुद्ध उसका हिंसक यौन उत्पीडन कर डालता है ।  अब तक रचना जो  अपने  दाम्पत्य जीवन को स्वर्ग बनाने के लिए अपनी इच्छाओं को दबा कर मन मार कर जी रही होती है , वहीं प्रवीण के अनियंत्रित दुराचरण से वह तिलमिला जाती है और बना बनाया स्वर्ग एक बार फिर नरक में बदल जाता है और वह उस  ‘संभोग को व्यक्तिगत स्वायत्ता का उल्लंघन’ कहती हुई उससे अलग हो जाती है । समय गुजरता है और अजनबी एक बार फिर संयोग से एक दूसरे के सामने आते है और कहानी अंत की ओर अग्रसर होती हुई रचना को अपनी गलती का अहसास कराती है और वह ‘वैवाहिक बलात्कार के विरोधाभासी कानून की दुहाई देने वाले छद्म नारीवाद की धज्जियाँ उडाती हुई प्रवीण के पास लौट आती है । कहानी की ‘रचना’ अपने ‘स्व’ के साथ कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं दिखती लेकिन वहीं वह अपनी खींची रेखाओं को कभी नहीं लांघती बशर्तें वह रेखाएँ उसके  द्वारा और उसकी सम्मति  से खींची गई हो । लेखक ने नारी को भले ही अपनी कहानियों में वर्जनाओं को तोडते  दिखाया  है लेकिन परिवार को तोड़ते कभी नहीं दिखाया ।  वह हमेशा हर कहानी में ऐसी  स्थितियों का सृजन कर डालता है जहाँ मानसिक द्वंद्व , शंका-कुशंकाओं के बीच भी परिवार और  सम्बंध बने रहते है  ,टूटते नहीं  , बिगडते  नहीं । लगता है लेखक हर स्थिति में रिश्तों को बचाए रखने में ही जीवन की सफलता मानता है जो श्लाघनीय है । कथ्य की प्रकृतिबुनावट , भाषा , शैली में सामंजस्य प्रशंसनीय है । 
ऐसी ही अगली कहानी है पूर्णबंदी ,ग्लैमर की दुनिया की सरताज,पारंपरिक मूल्यों और रूढियों को धता बताकर विरोधाभासी मूल्यों को जीने  का माद्दा रखने वाली छप्पन वर्षीय प्रौढ़ नायिका प्रज्ञा  सुशांत के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहकर एक बार धोखा खाती अवश्य है लेकिन जीवन के रोमाँच को खोना नहीं चाहती । महामारी की विभीषिका लॉकडॉउन में विधुर पडौसी मिश्रा जी से उसकी निकटताएं बढती है और दोनों अपने जीवन के खालीपन को भरने के लिए  एक हो जाने का फैसला ले लेते है । लेखक के शब्दो में, ‘प्रेम पर किसी आयु विशेष का अधिकार नहीं , यह जीवन की अंतिम सांस तक जारी रहने वाली दिव्य भावना है’ । इन्हीं शब्दों का प्रभाव  फेसबुक कहानी की  नायिका विधवा भावना की जीवन शैली में भी नजर आता है जब वह अपनी बहू दिव्या से तकनीकी सीख कर फेस बुक पर अपना खाता खोल अपने बचपन के खोए प्रेम को एक बार फिर पा लेती है ।  
संग्रह की एक और कहानी को पाठक को उद्विग्न कर जाती है वह है , ‘ल से लडकीजिसमे लेखक ने निर्भया हत्या काण्ड के परिदृश्य को शब्द दिए है । दिल्ली की बस में लड़की के साथ अमानवीय कुकृत्य और उसकी नृशंस हत्या । अभियुक्त नाबालिग होने के कारण सुधार घर पहुँच जाता है और वहाँ प्रायश्चित्त कर रहा होता है । लेखक यहाँ  शील हरण जैसी पाशविक मनोवृत्ति में उन्मादी परिवेश को दोषी ठहराता है । उदाहरण के तौर पर शहरीकरण की अंधी होड में जंगलों का विनाश, उसमें  बसे आदिवासियों का विस्थापन और काम की तलाश में उनका दिल्ली प्रवास ।  महानगर की चका-चौंध में होशो-हवास खो कर नशीली दवाओं का सेवन , बुरी संगत का प्रभाव और अंतरजाल पर पोर्न जैसी अश्लील दृश्यों का खुले आम प्रदर्शन और उसके कारण विस्थापितों का नैतिक पतन । लेकिन यहाँ यह कहना उचित होगा कि ये सभी विनाशकारी स्थितियाँ उत्प्रेरक अवश्य हो सकती  है लेकिन बलात्कार जैसे पाशविक कुकृत्य में ये ऊपरी कारण किसी भी आरोपी को किसी तरह भी दोषमुक्त सिद्ध नहीं कर सकते । अस्तु ! 
कहा जा सकता है  सामाजिक सरोकार और युग संपृक्क्तता  पर लिखी इनकी कहानियाँ एक नवीन प्रतिमान ही नहीं गढती, बल्कि रचनात्मक सृजन यात्रा को नवीन आयामों में विश्लेषित करती है । ऐसी ही दो  कहानियों को लिया जा सकता है   ,’परखनली का आदमी और ये जो अदृश्य है  जिसमे लेखक  ने विज्ञान की व्याख्याओं द्वारा कई अनसुलझी समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया है । वैज्ञानिक तथ्यों का शास्त्र सम्मत तर्क देना लेखक की एकांतिक विशेषता मानी जा सकती है जहाँ पाठक को उनकी वैज्ञानिक प्रज्ञा  और  शास्त्रीय  ग्रंथों पर उनकी गहन पैठ का परिचय प्राप्त होता है । लगता है हम कहानी नहीं कोई वैज्ञानिक शोध ग्रंथ पढ़  रहे है और जिसके सूत्र हमारी आध्यात्मिकता से जुडे हुए है । पाठक अभिभूत होता जाता है ।  सांस्कृतिक उन्मेष और वैज्ञानिक प्रज्ञा की  संतुलित भाव-व्यंजना ने कथ्य को नया क्षितिज दिया है । 
   कहा जा सकता है कि संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ नारी विषयक समस्याओं पर केंद्रित है । ये कहानियाँ   मातृ सत्तात्मक समाज की कहानी कहती है । उजागर करती  है सशक्तिकरण के उन बिंदुओं को जिनके सूत्र हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों में बिखरे हुए है और तदनंतर पितृ-प्रधान समाज में जिन्हें सायास यह कहकर दबा दिया गया था कि, ‘बचपन में पिता, यौवन में पति और बुढापे में पुत्र ही नारी की रक्षा करते है और नारी ….जीवन भर आश्रित है , आश्रित ही रहनी चाहिए । इसी में उसकी सुरक्षा है । पिछली शती कि अंतिम सदियों में नारी विषयक लेखन काफी चर्चे में रहा जो नारी की स्वतंत्रता को उच्छृंखलता के कगार पर भी लेकर आ गया । कई अश्लील मुद्दों को साहित्य में समाहित कर लिया गया । कई ऐसी आत्मकथाएं लिखी जाने लगी । अनकहा कुछ न रहा । नैतिकता की नई परिभाषाएँ गढी गई । मानदंड बदले , मानक बदले । ऐसे लेखन को बोल्ड लेखन कहकर परिभाषित किया गया । लेकिन प्रमोद भार्गव की नायिकाएं कहीं भी अपनी खींची परिधि को नहीं लांघती ।  परंपरा और आधुनिकता का इनका समीकरण काफी संतुलित और समीचीन लगता है । इन कथाओं में  पारम्परिक चिंतन और आधुनिक प्रगतिशील दृष्टि का अद्भुत समाकलन मिलता है। कहानियों के कलात्मक उत्कर्ष के साथ-साथ उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रयोगधर्मिता सराहनीय है । 
कथ्य में भाषा का मानक रूप हो या प्रादेशिक  बोलियाँ , आश्चर्यजनक रूप से उसको उसी  रंग में  सजीवता और प्रांजलता  से पाठकों को परोसा गया है , जो उनकी भाषागत घनत्व व  गवेषणात्मक शोधपरक दृष्टि के साथ -साथ लोक भाषाओं में इनकी पकड़ को दर्शाती है ।  आत्म द्वंद्व से उद्भूत सामाजिक सरोकार व प्रतिबद्धताओं का वह वास्ता शब्द संपन्न्ता और अर्थ गांभीर्य  इतिहास में दर्ज हो चुकी भारतीय  सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला का पुनर्सृजन भी लेखक का अभीष्ट रहा है ।
अंततः कहा जा सकता है यह संग्रह साहित्य के प्रेमी के लिए संग्रहणीय है । 
डॉ पद्मावती
डॉ पद्मावती
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु. विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, जन कृति, अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , स्मृति लेख , साहित्यिक आलेख ,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन. राष्ट्रीय स्तर पर सी डेक पुने द्वारा आयोजित भाषाई अनुवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत. संपर्क - padma.pandyaram@ gmail.com
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