Friday, October 18, 2024
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मीना पाठक की कलम से – दुःख-प्रेम, संघर्ष, प्रतिशोध, समर्पण के भावों की कहानियाँ

समीक्षा : हवा का झोंका थी वह (कहानी संग्रह) लेखिका : अनिता रश्मि प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन की अनुसंगी इकाई विद्या विहार, 19, संत विहार,गली नं, अंसारी रोड, नई दिल्ली – 110002;
संस्करण : 2023 मूल्य : 300/-
समीक्षक
मीनाधर पाठक
अनिता रश्मि समकालीन हिंदी साहित्य में एक जाना-पहचाना नाम है उनके कई उपन्यास, कहानी-संग्रह, काव्य-संग्रह तथा यात्रावृत्त आदि प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हीं में से मैंने एक संग्रह ‘हवा का झोंका थी वह’ अभी-अभी पढ़कर समाप्त किया है। संग्रह की कहानियाँ विविधवर्णी है। दुःख-प्रेम ईर्ष्या संघर्ष, प्रतिशोध तथा समर्पण आदि भाव इन कहानियों की विशेषता है।
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 संग्रह की पहली कहानी। ‘हवा का झोंका थी वह’, एक आदिवासी स्त्री मीनवा की कहानी है जो एक घर में सहायिका है। मीनवा की पूरी कहानी उसकी मालकिन के माध्यम से आगे बढ़ती है। साधारण नाक-नक्श की आदिवासी स्त्री मीनवा अपनी मालकिन के घर का कार्य करते हुए जब अति उत्साह में होती है तब काम के साथ अपनी बातें भी मालकिन से साझा करती है। वह बताती है कि उसने कैसे दो पतियों को त्याग कर तीसरा विवाह किया है।
 “क्यों छोड़ा उन दोनों को?”
 मालकिन के पूछने पर वह कहती है कि पहला पति दूसरी के घर जाने लगा था। कई बार तो रात रात भर वहीं रहता। तब एक ही झटके में उसे त्याग, दूसरे का दामन थाम लिया उसने। दूसरे पति की क्रूरता के बारे में मिनवा कहती है,” आपन छऊआ को कसाई लेखि मारत रहे दीदी। बोल का लखे नय छोड़ते!’ हाथ गोड़ जला देता था।”
जितनी आसानी से कह दिया था मीनवा ने उतनी ही आसानी से तीसरी बार ब्याह भी रचा लिया था। इस बार उसका पति झारखण्ड राज्य की अलग मांग की लड़ाई करने वाला सिपाही या नेता था।
मालकिन के पूछने पर कि अलग राज्य की मांग करना क्या उचित है? मीनवा तपाक से कहती है, “कैसेन उचित नखे! उ कहेला झारखण्ड अलग होई तो हमन सोउबे के आपन हक मिली। हमीन सोउब खुसी से रहेंगे। यहां के एतेक संपदा बहरे नीं जाई।”
  मीनवा स्वयं भी हाथों में तीर-धनुष ले कर अपने नए पति के साथ जुलूस में शामिल होती और “झारखंड अलग करो…अलग करो” का नारा बुलंद करती।
समय बदलता है। आधुनिकता की बयार सुदूर रहवासियों तक भी पहुंचती है और खेती छोड़ लोग आजीविका तलाशने शहर की ओर निकल पड़ते हैं। बस में चढ़ी मीनवा अपने साथ बदसलूकी करते एक व्यक्ति को ऐसा सबक सिखाती है कि वह अपना सा मुँह लिए पीछे की सीट पर जा बैठता है।
 एक दिन मालकिन के द्वारा पुराना ब्लाउज दिए जाने पर मीनवा कहती है, “अब सोउब पींधो। आपन नज़र में तो नय, देखकवाला कर नाइजर में खोट आय गेलक (अब सब पहनते हैं। अपनी तो नहीं, दूसरे की नजर में खोट आ गई है।)”
अचानक एक दिन मीनवा काली दुर्गा सी अवतरित होती है और फिर गुमनामी के अँधेरे में गुम हो जाती है। कहानी का अंत एक प्रश्न के साथ होता है।
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‘आँखें’ कहानी में नया ज्वलंत विषय है। लीव इन का चलन इधर समाज में बढ़ा है। हालाँकि इसके सुपरिणाम कम ही दिखाई पड़ा है फिर भी आज के कुछ युवा न जाने क्यों इस रिश्ते की ओर आकर्षित हो रहे हैं। अपने माता-पिता को लड़ते-झगड़ते देख पायल विवाह बंधन में न बंधने का फैसला करती है और लीव इन रिलेशनशिप को अपनाती है। परन्तु कुछ समय के बाद वह महसूस करती है कि सुमंत उसके पापा जैसा और वह स्वयं अपनी माँ जैसी होती जा रही है। वही माँ, जिसे कभी भी अपने मन का करने, खुश रहने की आजादी न तब थी, न अबतक है। तब भी अपने पापा जैसे बनते सुमंत के साथ जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाने को तैयार पायल समझौते की राह पर चल पड़ी है, जहां अपनी माँ की तरह पग-पग अपना मन मारते हुए चलना है।
 किसी रिश्ते का बने रहना टूटने से ज्यादा मायने रखता है। संभवतः इसी लिए कहानीकार ने कहानी का ऐसा अंत चुना है कि पायल सुमंत से शादी का फैसला कर लेती है। पर अपनी मां में परिवर्तित होती पायल और पापा में परिवर्तित होता सुमंत के रिश्ते आगे कितने मधुर होंगे, नहीं पता।
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‘कोलतार की तपती सड़क’ पर जिंदगी कैसे मुस्कुराती है ये जानने के लिए कहानी पढ़नी चाहिए। खुश रहने के लिए दिनोदिन बढ़ती सुविधाओं का भार जितना भी बढ़ जाय पर ये सुविधाएं क्या हमें वो खुशी दे पाती है जिसकी तलाश में हम बैल बने कोल्हू में जुते हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें जिस दिन मिल जाएगा, हम भी मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह ‘कोलतार की तपती सड़क’ पर मुस्कुरा उठेंगे।
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‘शहनाई’ कहानी हमें संगीत की दुनिया में ले जाती है। संगीत, जिसका सोता हमारे हृदयतल से फूटता है और जब इसी हृदय पर कोई पहाड़ सा दुख या विषाद आ पड़े तो संगीत क्या जीवन भी कठिन जान पड़ता है। शहनाई वादक निशांत के जीवन में बेटे की अनुपस्थिति ने एक खालीपन ला दिया था और उसके हाथ से शहनाई छूट गई थी। संगीत कला केंद्र में चार-चार बैच चलाने वाले निशांत के सैकड़ो शिष्य देश विदेश में उसका नाम कर रहे थे पर वह स्वयं अब संगीत से जुड़ नहीं पा रहा था। सब छूट गया है। अपने बेटे के दुःख से निशांत उबर नहीं पा रहा था। परंतु एक दिन शहनाई की एक बेसुरी तान ने उन्हें जीने की उम्मीद के साथ उस बेसुरी तान को सुर में लाने की जिम्मदारी भी दे दी।
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 दूसरे के खेतों में मजदूरी कर के जीने वाले किसानों की जब अगली पीढ़ी आती है तब वह उसी व्यस्था में जीने का विरोध करती है। वे जीवन भर दूसरों के खेत में मजदूरी करते जीना नहीं चाहती। वे कर्ज में दब कर आत्महत्या नहीं करना चाहती न ही किडनी बेंच कर कर्ज उतरना चाहती है तब वह अफ़ीम की खेती का रास्ता चुनती है परन्तु क्या इस राह पर चल कर वह अपना और अपने परिवार का भला कर पाई? ‘सबका साथ सबका विकास’ की पोल खोलती कहानी है, ‘एक नौनिहाल का जन्म’।
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 हमारी आवश्यकताएँ इतनी बढ़ गईं हैं कि पति-पत्नी दोनों को नौकरी करनी पड़ रही है और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है। न चाहते हुए भी बच्चों को आया या किसी रिश्तेदार के पास छोड़ना पड़ता है। फिर चाहे बच्चा किसी भी हाल में हो या रखा जाए। ‘उस घर के भीतर’ एक पड़ोसी ने जो कुछ भी देखा, पढ़ कर हृदय काँप उठता है।
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 हमें लगता है कि समाज बदल गया है और आज स्त्रियाँ स्वावलंबी हो कर अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं, पर कितनी? शायद कुछ गिनती की। पेशे से डॉक्टर, शुभदा अपने क्रूर और लालची पति से इतनी प्रताड़ना क्यों सहन कर रही है? वह क्यों नहीं अलग हो जाती? कहानी पढ़ते हुए हमारे मन में प्रश्न उठता है परन्तु क्या हमारा समाज इस बात को आसानी से स्वीकारता है कि एक स्त्री अपने पति से अलग होने का निर्णय ले! क्या इस निर्णय को लेते हुए एक सामाजिक और पारिवारिक दबाव नहीं रहता है स्त्री पर! संभवतः शुभदा को निर्णय लेने में इसी कारण देर हुई। हम विचारों से आज भी आदिम काल में ही जी रहे हैं। हाँ, कुछ अपवाद हो सकते हैं।
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 ‘एक उदास चिट्ठी’ पूरी कहानी पत्र शैली में लिखी गई है। या यूँ कहें कि एक पत्र ही है। एक बेटी के द्वारा अपनी माँ को लिखा गया मार्मिक पत्र। यहाँ दो संस्कृतियों की टकराहट के बीच पली-बढ़ी बेटी पिता से मिली भारतीय संस्कृति को चुनती है। परन्तु आगे चल कर एक आघात से उसका विश्वास खंडित हो जाता है और वह अपनी माँको पत्र लिखती है। यहाँ की विचारधारा, नैतिकता सब कुछ उसे खोखली जान पड़ती है।
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 ‘रस’ कहानी का विषय नया नहीं है। ऐसी बहुत सी कहानियां हमने पढ़ी हैं और आगे भी पढ़ने को मिलती रहेंगी पर इस कहानी का अंत चौंकाता है। माँ के द्वारा वृक्ष काटना मुझे अच्छा नहीं लगा। एक हरा-भरा और युवा वृक्ष काट कर उसे क्या मिला? वह अपने बेटे को तो कोई सजा न दे पाई पर उस निरपराध अबोले वृक्ष को ही काट दिया। संभवतः हमारे मन पर ‘माता कुमाता नहीं होती’ का गहरा प्रभाव है, शायद इसीलिए। परन्तु बेटे के जन्मदिन पर लगाया गया वृक्ष जो हवा, छाया और फल दे रहा है, उसे ही माँ ने काट दिया ! भयानक रस का परिणाम भी भयानक ही होता है।
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  भूख से आत्मा कैसे व्याकुल होती है, ये एक भूखे से ज्यादा कौन जान सकता है? फिर भी वह भूखा रह लेता है पर अपने बच्चों को भूख से लड़ते नहीं देख पाता और एक पाव भात के लिए वह हत्यारा बन जाता है। ये अपराध किसका है? उस भूख का? या व्यवस्था का? एक जज के मानसिक विचलन और ‘विकास’ के पीछे के अन्धकार की कहानी है ‘एक फैसला और’।
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 जाति-पाति और छूआछूत की कुरीति हमारे समाज से आज भी गई नहीं है। कहानी की माय एक ऐसी ही स्त्री है। चावल माँगने आए कलुवा को अछूत मानती है। उसे अपने द्वार पर आया देख घर के भीतर से ही चीखती है, “का रे कलुवा, भीतर काहे घुसा आ रहा ? चौखाटवा छू दिया ना!”
 उसके जाते ही वह जहाँ खड़ा था, वहाँ गंगा जल छिड़कवाती है। परन्तु जब एक प्राकृतिक आपदा में वह पति को खो कर जीवन-मृत्यु से जूझ रही होती है, तब सहायता के लिए जो हाथ सबसे पहले बढ़ता है, वह हाथ उसी अछूत कलुवा का होता है। और जब वह भूख-प्यास से लड़ रही होती है, तब भी उसी कलुवा को अपनी भूख-प्यास से पहले माय की याद आती है। हम दुनियाभर के रिश्ते निभा लेते हैं, सिवाय मनुष्यता के।
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 ‘चीखें…सन्नाटा’ देर आये दुरुस्त आये कहावत चरितार्थ करती कहानी। अपनी माँ की मृत्यु का बदला लेने के लिए अमृत क्रूरता में रसिक से भी दो कदम आगे निकल गया। कई मासूमों की हत्याओं के बाद उसकी आत्मा जागृत होती है। वह अपने भीतर की आवाज सुन कर वापस लौटता है। पर क्या उन मासूमों की हत्या के लिए वह स्वयं को कभी क्षमा कर सकेगा? क्या सारे अग्नेयास्त्र स्वर्णरेखा के हवाले कर के अमृत चैन का जीवन व्यतीत कर पाएगा? कहानी समाप्त करने के बाद कई प्रश्न पाठक मन को व्यथित करते हैं।
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 शहीदों की चिताओं पर
 लगेंगे हर बरस मेले
 वतन पर मरने वालों का
 यही बाकी निशाँ होगा।।
 सच है, न जाने कितने ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं, जो आज तक गुमनामी के अँधेरे में हैं। ऐसी ही स्त्री है बड़ी मां, जो अपनी यादों की गठरी जीवन भर संभाले रहती हैं। आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों से तो हार नहीं मानी थीं। देश भी आज़ाद हो गया परन्तु आज़ाद देश में अपनों से हार गईं। सुराज पाने के बाद अपनों ने ही ज़मीन के विवाद में बड़ी मां के पति को जीवित ही आग में के हवाले कर दिया था। जिस पप्पा को अंग्रेज छू भी नहीं पाए थे, उसी पप्पा को बिरादरी वालों ने आग में झोंक दिया और बड़ी मां उनकी निशानी जीवन भर गठियाए घूमती रहीं। उनके अंत समय में उनकी गठरी से जो भी निकलता है, उसे देख सभी हतप्रभ रह गए।
 रश्मि जी की कहानियाँ पात्रों के साथ बड़ी सहजता से आगे बढ़ती हैं। संग्रह की कुछ कहानियाँ माटी की महक से सराबोर है। कहीं गीत गाती धान रोपती स्त्रियाँ हैं तो कहीं तपती धूप में सड़क पर काम करते हँसते-खिलखिलाते चेहरे। कहीं जंजीर में बँधा बचपन तो कहीं भूख से बिलबिलाते अपने मासूम बच्चों की हत्या करते पिता! और भी बहुत से विषय हैं जो कहानियों में लिए गए हैं। हरेक कहानी की अपनी-अपनी तासीर है। तथा भाषा की अपनी मिठास जो पढ़ते समय पाठक के अंतस में उतर जाता है।
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