Sunday, September 8, 2024
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नीलिमा करैया की कलम से नीलिमा शर्मा की पुस्तक ‘कोई ख़ुशबू उदास करती है’ की समीक्षा

पुस्तक –कोई ख़ुशबू उदास करती है
प्रकाशन वर्ष–2021 विधा–कहानी संग्रह
कहानीकार –श्रीमती नीलिमा शर्मा
प्रकाशक –शिवना प्रकाशन
समीक्षा –श्रीमती नीलिमा करैया
कहानी संसार की सबसे प्राचीन विधा रही है। जब लिखित में नहीं रही होगी तब भी दादी नानी के मुख से इसे सुना जाता रहा है।
कालानुरूप इसके लेखन की प्रवृत्ति परिवर्तित होती रही और आज यह अपने अतीत के लगभग सभी बंधनों को तोड़कर आधुनिक परिवेश में समायोजित हो गई है। वह समय के अनुरूप अपने नए परिवेश में नजर आती है- लेखन की दृष्टि से, विषय व नजरिये की दृष्टि से भी। कालचक्र के साथ परिवर्तन के नए-नए आयामों को पकड़ती हुई गाँवों से निकलकर शहरों और महानगरों में प्रवेश कर गई है यह,साथ ही संयुक्त परिवार के बंधनों से निकल कर एकल परिवार को आत्मसात करते हुए उसने घर- परिवार में प्रवेश किया है। हर परिवार की अपनी एक कहानी होती है, न जाने कितनी ही कहानियाँ एक घर में ही पनपती रहती हैं।यह हर घर के सामयिक विषयों को समेटते हुए नए-नए रूप में पाठकों को आश्चर्यचकित कर रही हैं।
नीलिमा शर्मा का कहानी संग्रह, *”कोई खुशबू उदास करती है!”* का प्रथम प्रकाशन भले ही 2021का है पर यह आज भी अपनी ग्यारह  सामयिक कहानियों के माध्यम से उतनी ही नवीन है।हर कहानी अपने नये विषय और जीवन के एक नये रंग के साथ आपको उद्वेलित करेगी। आप जान पाएंँगे कि कहानी सिर्फ मनोरंजन  नहीं होतीं, वह हमारे आसपास ही गुजरते हुए लम्हों की ऐसी दास्तान भी होती हैं जिसे कहीं कोई जी रहा होता है,भोग रहा होता है, महसूस कर रहा होता है, कहीं जीवन किसी की याद में ही गुजर जाता है, कहीं कोई अपने जीवन में अपनी ज़िन्दगी को तलाश करता है, तो कोई अपने लिए सुकून और सुख के दो पल के ही लिये तरसता रहता है। कभी-कभी कहीं थोड़ी सी खुशी की तलाश में   कुछ भूलें ऐसी हो जाती हैं जिनमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं बचती और जिंदगी तबाह हो जाती है।जीवन के ऐसे हर रंग आप इस कहानी संग्रह में महसूस करेंगे। और अगर जीवन के असंख्य रंग हैं तो नारी उस हर रंग के केंद्र में नजर आती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए हर कहानी में नारी आपको अपने एक अलग रूप में ही नजर आएगी।
इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि इसके चयनित शीर्षक हैं। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को तो सबसे ज्यादा दिक्कत शीर्षक चयन में ही आती थी,इसी समस्या से परेशान होकर उन्होंने अपने एक निबंध का शीर्षक “क्या लिखूँ” रख लिया।उसी में इस दर्द को बयां भी किया।
शीर्षक किसी भी रचना का पहला परिचय होते हैं। शीर्षक देखकर ही मन में रचना को पढ़ने का भाव जाग्रत होता है। और जैसे-जैसे हम कहानियों को पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं तो हर शीर्षक स्वयं अपनी सार्थकता को सिद्ध करता जाता है। हर कहानी अपने शीर्षक को किस तरह सार्थक करती है,यह आप कहानी पढ़ते हुए समझ पाएँगे।
कहानियों को पढ़ते हुए आप यह भी समझ पाएँगे कि यह सारी घटनाएँ हमारे आसपास से ही गुजर रही हैं। हम उसे देख रहे हैं और महसूस भी कर रहे हैं। जीवन की सच्चाइयों को कहानीकार ने अपनी कहानी में कल्पना के माध्यम से सरल व सहज शैली में, आकर्षक शब्द- संयोजन के साथ लिपिबद्ध किया है।
कितनी ही घटनाओं को आसपास से गुजरते हुए सब देखते हैं ,लेकिन उन घटनाओं को लिपिबद्ध करने का कौशल केवल कहानीकार की पैनी नजर और समर्थ सधी हुई कलम में ही होता है।
पाठक पढ़ते हुए हक्का-बक्का रह जाता है कि,” अरे! यह तो सत्य ही है! यह तो हम भी जानते हैं! हमने भी देखा है!” पर लेखन का कौशल सबके पास नहीं होता। एक कहानीकार हीअपनी कल्पना के माध्यम  से प्रभावशाली  लेखन शैली के द्वारा कहानी की सच्चाई को शब्दों में ढालकर जीवंत करता है।
इन कहानियों को पढ़ते हुए आप यह सब स्वयं महसूस कर पाएंँगे।
संग्रह की पहली कहानी *”टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी”* कोरोना महामारी के क्वारेंटाइन और लॉकडाउन के अव्यक्त दहशत की कहानी है।वह वक्त और था जब प्लेग और चेचक जैसी बीमारियों में गाँव के गाँव मौत के मुँह में समा जाते थे किंतु कोरोना महामारी ने तो पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। ऐसा प्रतीत होता था मानो ईश्वर छँटनी करने पर तुला हुआ है।एक अव्यक्त और अनदेखा भय चारों ओर घने अंधकार की भाँति फैला था जहाँ किसी को किसी के लिए कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था।उस समय की याद आते ही सीने में एक धक् सी बैठ जाती है और असंख्य लोग व परिवारों  की जिंदगी टुकड़े-टुकड़े होकर वायुमंडल में चक्रवात सी घूमती हुई धीरे-धीरे अंतरिक्ष में विलीन होती हुई नजर आती है।आने वाली पीढ़ी शायद इस बात पर विश्वास नहीं कर पाएगी कि कैसे एक बीमारी ने सारी दुनिया को हिला कर रख दिया था।
वास्तव में जिंदगी टुकड़े-टुकड़े होकर ही रह गई थी।अपने ही अपना साथ देने से कतरा रहे थे और कहीं अपनों को ही बचाने की जद्दोजहद में इंसान टूटता जा रहा था।
यह कहानी उसी पीड़ा से उपजे दर्द की दो विपरीत दर्जे और जीवनशैली के  मनोवैज्ञानिक धरातल  पर रची गई है।
जहाँ  संपन्नता अकेलेपन के दंश को बीमारी की गंभीरता के मध्य भयभीत होकर क्वारेंटाइन रहकर हर पल जीवन की चिंता में व्यतीत कर देती है ,वहीं दूसरी ओर घर में काम करने वाली  17 वर्षीय नसरीन कमसिन उम्र में एक पल चिंतित तो होती है ;पर उर्वशी के चौदह दिनी क्वारेंटाइन की खबर से जीवन के स्वप्निल व सुखद आनंद को रानी की तरह जीती है; इस बात से बेखबर कि अपने मोबाइल में उर्वशी उसे लाइव देख रही है।
वह मनचाहा बना कर खाती है और उर्वशी के कपड़े पहनती हैं,उनके नर्म बिस्तर पर सोती है। वह 14 दिनों में अपनी स्वप्निल जिंदगी को पूरी तरह जी लेना चाहती थी।
मृत्यु का अहसास  जिंदगी का महत्व समझा देता है। घर आने पर उर्वशी नसरीन के प्रति सह्रदय हो चुकी होती है जबकि नसरीन के मन में एक सुखद स्वप्न टूटने की पीड़ा होती है, भले ही वह ऊपर से उसका स्वागत कर अच्छा बनने का दिखावा करती है।
सब कुछ वक्त के हाथों में होता है;खास तौर से हमारे स्वभाव का परिवर्तन;हम चाहें या न चाहें, कई बार वक्त वह सब करवा देता है जिसकी हम कभी कल्पना भी नहीं कर पाते।
यह कहानी मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सोचने पर विवश करती है कि संपन्नता के अभाव में जीवन यापन करने वाले आश्रित लोगों को जब घर में ही रख लेते हैं तो उनमें भी उस जीवन को जीने के ख्वाब अंकुरित होने लगते हैं।जिन्हें हर पल वे देखते हैं।वे सुखद, आरामदेह ,रेशमी, रंगीन अहसास का कीड़ा उनके दिमाग में भी किस तरह कुलबुला सकता है, यह तब पता चलता है जब नसरीन स्वयं को मालकिन समझते हुए मालकिन की तरह पूरे घर का लुत्फ उठाती है। यहाँ तक कि उस आनंद की असीमता में अपने एकाकीपन का दुख भी भूल जाती है।इन 14 दिनों में वह जीवन के हर स्वप्निल आनंद को जिस उत्सव की तरह मनाती है वह इस कहानी का सबसे सफल भाव पक्ष है, जिसे बड़ी ही बारीकी और कुशलता से कहानीकार ने बुना है।
बेटे की प्रबल चाहत ही आज भ्रूण हत्या का कारण बन गई है।वह वक्त और था जब लोग इस बात से अनभिज्ञ थे कि पुत्र और पुत्री का बीजक पुरुष है। पुत्री होने पर सारा दोष स्त्री पर आरोपित कर उसे प्रताड़ित किया जाता था।शिक्षा ने सोच को परिवर्तित किया है और माताएँ भी जागरूक हुई हैं।
*कोई रिश्ता ना होगा तब* कहानी बेटी की भ्रूण हत्या के संदर्भ में एक मांँ के अंतर्द्वंद की व्यथा को अभिव्यक्त करती है।वैसे तो पितृसत्तात्मक साम्राज्य का अहम् अपना वर्चस्व हर जगह कायम रखना चाहता है, किंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियाँ भी स्त्रियों की बड़ी शत्रु होती हैं। वंश बढ़ाने वाले की चाहत उनके मन में भी कम नहीं होती।प्रताड़ना में भी वह पुरुषों से पीछे नहीं रहतीं। यद्यपि समय बदल रहा है लेकिन फिर भी मानसिक रूप से बीमार सोच रखने वाले आज भी इसे समझना नहीं चाहते कि सभी ऐसा करेंगे और स्त्री ही नहीं होगी तो फिर तो संसार में कोई रिश्ता ही नहीं बचेगा।
सुमन की पहली संतान बेटी थी जब वह दूसरी बार पुनः उम्मीद से होती है तो उसकी सास  बेटे से कहती है-
“इस बारी परीक्षण करवा लेना! कहीं इस बार भी लड़की ही न जन दे तुम्हारी लाडली बीवी! बिना बेटे के तो स्वर्ग भी नहीं मिलता।”
अंधविश्वास भी लोगों को उनकी सोच से अलग सोचने की इजाजत नहीं देता।
सुमन इस मानसिक यंत्रणा को झेलते हुए उसके खिलाफ निरंतर अपने आप से युद्ध कर रही थी। वह इस युद्ध को जीतना चाहती थी और अंततः उसका पूरा आक्रोश उसके पति राजीव पर उतर जाता है।
माँ की पीड़ा को कोई समझना ही नहीं चाहता है। सबकी अपनी-अपनी मानसिकता होती है। नहीं सुधरने वाले कितना भी पढ़ लिख जाएँ नहीं सुधर सकते।
विषय बेहद गंभीर है। अगर लड़कियाँ न होंगी, तो सारे रिश्ते खत्म होते जाएँगे और कोई रिश्ता ना होगा तब? कहानीकार की आतुरता अपने विषय के प्रति कितनी संजीदा है यह कहानी के अंत से पता चलता है जो स्वप्न बन कर निरंतर सुमन को सताता रहा।
“जहांँ सिर्फ स्त्री पुरुष हैं और पौरुष के अहम् में हर पुरुष के सम्मुख सिर्फ भूख थी। देह की भूख और पेट की भूख। लेकिन कोई रिश्ता न था।”
छोटे परिवारों के चलन से कई रिश्ते तो वैसे ही खत्म हो रहे हैं आने वाले समय में मामा,बुआ, ताऊ  ,चाचा ,मौसी के रिश्ते ढूँढने से भी शायद ही मिलें।
यह अपनी अजन्मी पुत्री के प्रति एक माँ के अंतर्द्वंद की कहानी है जिसे कहानी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करती है।
उत्सव शब्द सुनते ही मन आनंदित हो उठता  है ।मानव जीवन की दैनन्दिनी से जीवन की ऊब को खत्म करने के लिए ही पग-पग पर हमारी संस्कृति में उत्सव स्वयं ही सम्मिलित हैं। किंतु उत्सव का अर्थ सिर्फ त्योहार से ही नहीं होता। हमारे आनंद के क्षण भी हमारे लिए किसी उत्सव से कम नहीं होते।
 एक स्त्री के लिए उसकी देह, उसका सौंदर्य भी कभी-कभी शाप हो जाता है। सच पूछा जाए तो सबसे पहले उसके सबसे अधिक विश्वस्त ही उसकी अस्मिता पर नजर डालते हैं ।स्त्री के लिए उन क्षणों की चर्चा किसी सजा से कम नहीं होती;और जब सबकी नजर में वही दुष्कर्मी बहुत अपना व सबकी नजर में सम्माननीय हो तो तकलीफ और बढ़ जाती है।अपनी व्यथा किसी से कह भी नहीं पाते।वह व्यक्ति जब स्वयं मृत्युशैया पर हो तो शोषित स्त्री के लिए वह खुशी का अवसर होता है,सबसे बड़े उत्सव का अवसर होता है।
कई या शायद सभी स्त्रियों को जीवन में इस तरह की समस्याओं से संभवतः जूझना पड़ा होगा।वह पिता का मित्र,कोई दोस्त ,रिश्ते में भाई  इत्यादि कोई भी हो सकता है। *उत्सव* कहानी पिता के मित्र की है जो पिता तुल्य तो थे पर पिता नहीं हो सके।उनके मन में सब कुछ था पर अपने अजीज मित्र की सबसे छोटी व प्यारी बेटी के प्रति पितृत्व का भाव ही ना उपज सका।” फैशनेबल कपड़ों में गमी में नहीं जाते” कहकर जब  बार-बार शीना को कपड़े बदलने के  लिये कहा जाता है तो उसकी आँखें आग उगलने लगती हैं और बरसों से अंदर दबा लावा ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ता है।
“हाँ! हाँ! हाँ! मुझे यही कपड़े पहनने हैं !क्योंकि मुझे कोई अफसोस नहीं है खजूर अंकल के मरने का ।अच्छा हुआ जो आज मर गए। मैं आज सिर्फ उनकी मौत का उत्सव देखने जाना चाहती हूँ।”
एक जगह फिर वह कहती है-“मुझे खुशी है! सच में खुश हूँ मैं तो!”
और फिर शीना से सारी सच्चाई जानकर घर के सभी लोग स्तब्ध रह जाते हैं।
स्त्री दूसरों से तो अपनी रक्षा कर लेती है पर आस्तीन के साँपों से अपने को बचाना मुश्किल होता है।
सम्बन्धों की मजबूत जड़ों को उखाड़ कर फेंकना इतना सहज नहीं होता। कैसी बेबसी में घिरे पल होते हैं और वो यादें अपने आप को एक ऐसे युद्ध में निरत पाती हैं जहाँ स्त्री अपनों के विरुद्ध युद्ध के मैदान में अर्जुन की तरह स्वयं को शोकाकुल पाती है पर कोई कृष्ण नजर नहीं आता। वह चाह कर भी अभिमन्यु नहीं बन पाती।
यहाँ पर ऐसा प्रतीत होता है मानो कहानीकार ने परकाया प्रवेश की जादुई शक्ति से शीना के शरीर में प्रवेश कर लिया हो। इतनी तड़प! इतनी आग!! शायद ज्वालामुखी में भी न हो!
यहाँ कहानीकार की लेखन शैली इतनी अधिक प्रभावशाली हो उठी  है कि पाठक की संवेदनाएँ व सह्रदयता शीना के साथ जुड़ उठती हैं। प्रसंग जीवन्त सा महसूस होता है।
जिस समाज में कुछ स्त्रियाँ स्वार्थवश दूसरों पर इस तरह के झूठे इल्जाम लगाने में जरा भी संकोच नहीं करतीं वहीं इज्जतदार महिलाएँ खामोश  रहकर अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं।
उत्सव वर्तमान का सबसे घिनौना,किंतु दयनीय और सत्य का पारदर्शी कथानक है।
*इत्ती-सी खुशी* प्यार की बेहद खुशनुमा और मासूम सी कहानी है।
जिंदगी में कभी-कभी असंभावित बहुत कुछ अच्छा हो जाता है जो जिंदगी की दिशा ही परिवर्तित कर देता है
नौकरी छोड़कर जब मजबूरन व्यवसाय संभालने का उत्तरदायित्व मीनू के पति गुप्ता जी पर पड़ा, तो यह अनचाहा कारोबारी धंधा गुप्ता जी के जीवन रस को शुष्क कर गया। रोबोट की तरह नियमित जिंदगी जीते पति-पत्नी दोनों का ही जीवन नीरस था। जिंदगी बेरंग सी गुजर रही थी कि एक ऐसा मोड़ आता है जब दोनों के जीवन में अनायास खुशियों के रंग भर जाते हैं और रोबोट की तरह चलने वाली जिंदगी खुशियों से झूम उठती है।इस बेहद प्यारी सी  कहानी को पढ़कर पाठक भी कुछ पल के लिए प्यार के उन सुखद पलों में सराबोर हो उठता है।
जिंदगी में छोटी-छोटी खुशियाँ आनंद की आर्द्रता से सराबोर करने हेतु सर्वत्र बिखरी हुई हैं परंतु मानव-मन अपने अहम् के  गहन धुंध में उन्हें देख ही नहीं पाता कि खुशियाँ उनका इस्तकबाल करने हेतु किस तरह लालायित हैं और हम असंतुष्टि, निराशा ,और जो पास नहीं है या जो खो गया है उसके इंतजार में खुशी के अन्य रास्तों को नजर अंदाज करते हुए बंद दरवाजे के बाहर बैठ उसके खुलने का ही इंतजार करते रहते हैं। जो नहीं करना चाहिये। यही इस कहानी का केंद्रीय भाव है जो पुकार- पुकार कर कहता है कि हम हर वक्त खुश रह सकते हैं क्योंकि वह खुशी अपने अंदर ही है! खुश होना या ना होना अपने ही हाथ में है!
*कोई खुशबू उदास करती है* इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है।बेहद कारुणिक संवादों से प्रारंभ हुई यह कहानी मानव मन के एकतरफा अप्रकट प्रेम के माधुर्य से लिप्त अद्भुत व अनोखी कहानी है।अप्राप्य प्रेम की गहन वेदना में प्रेम का मिश्री की तरह घुल जाना फिर  धीरे-धीरे घुन की तरह अंदर ही अंदर स्वयं को खोखला करती जीवन रस की शुष्कता की कहानी है यह।
कहानी का शीर्षक बहुत ही अर्थपूर्ण है मोगरे के फूलों की वह दिलअजीज खुशबू किसी की उदासी का सबब बन गई ,जिसे कहानी की नायिका ने मौसेरी बहन की शादी में महसूस किया था, दिलो दिमाग में बस गई थी।उसे भ्रम हुआ कि वह दीदी का देवर है।दीदी के देवर को घर के लोगों ने इषिता के लिये पसंद किया किन्तु उसने अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली।
कभी-कभी माता-पिता का क्रोध पर अनियंत्रण व जिद बच्चों के जीवन की दिशा ही बदल देती है। इस कहानी का नायक शेखर ऐसे ही क्रोध और जिद का ऐसा परिणाम है जो एकतरफा प्रेम जीकर मरता रहा। क्रोध के आवेश में इषिता के पिता जल्दबाजी में उसका विवाह अपने व्यापारी दोस्त के बेटे से कर देते हैं।
कई वर्षों बाद इत्तफाकन ही इषिता की मुलाकात एक अस्पताल में रेणु से होती है।शेखर मरणासन्न है।रेणु द्वारा दी गई शेखर की डायरी के माध्यम से शेखर का सच उसके सामने आता है।
एक पेज में उसने लिखा था,” उस शाम का तुम्हारी कमर का स्पर्श रह-रहकर मुझे आन्दोलित करता है।वह गजरे की खुशबू आज भी मेरे ज़हन में तरोताजा है। आज भी कहीं वह गजरे दिख जाते हैं तो उसकी खुशबू माहौल को उदास बना देती है।”
दीदी की शादी के वक्त जिस खुशबू व स्पर्श  को इषिता ने महसूस किया था और जिससे वह प्रभावित भी थी, उसकी सच्चाई वह इस डायरी से जान पाती है।उसका भ्रम टूट जाता है।
अत्यधिक संवेदनशील मार्मिक व करुण कहानी है।
कहानी फ्लैशबैक में है। एक लड़की वास्तविक प्रेमी से पूर्णत: अनभिज्ञ, एक प्रेमी लाइफ लाइन की हद तक अप्राप्य प्रेम में आकण्ठ डूबा हुआ और उसकी पत्नी!रेणु? उस एक तरफा प्यार की सच्चाई  को जानकर भी  पति के प्रति बिल्कुल निर्लिप्त भाव से ,जी जान से समर्पित है।
कहानी को पढ़कर लगता है कि एक बार मिले इस मानव -जीवन में मानव सबसे कीमती प्रेम-भाव के मूल्य को क्यों नहीं समझ पाता? माता-पिता क्यों कर अपने बच्चों के ही दुश्मन हो जाते हैं! पर बहुत सोचने पर भी जवाब नहीं मिलता!
अंततः शेखर की मृत्यु हो जाती है और शोक व्यक्त करने के लिए अभिनव भी वहांँ उपस्थित था, जिससे इषिता ने शादी करना चाहा था।अभिनव के हाथों के थाल में मोगरे के फूल थे पर आज इषिता को सदा प्रिय लगने वाली यह खुशबू उदास करती है।
यहाँ कहानी का शीर्षक स्वयं को सार्थक करता है।
हर स्त्री के जीवन की एक कहानी होती है और उसकी एक कहानी में ही न जाने कितनी कहानियाँ और भी गुथी रहती हैं।
कहानी मानस पटल पर देर तक और दूर तक अपना प्रभाव छोड़ती है।
बेहद मर्मस्पर्शिता के साथ रची गई यह कहानी अंत में पाठक की आँखें भिगोने में सक्षम है।
मायके के प्रति स्त्रियों के अगाध प्रेम के पीछे मातृत्व के अहसास की भावभीनी, मंगलमयी सोच और विश्वास काम करता है, पर विकास की द्रुत गति ने जहाँ धरती की दूरी को समेटा है वहीं उसी गति में रिश्तों की अहमियत संकुचित होती जा रही है।विकास की अंधी दौड़ में हम अपनों को पीछे छोड़ते  जा रहे हैं । *मायका* कहानी स्त्री की इसी पीड़ा को व्यक्त करती है ।चार भाइयों की इकलौती बहन को मायके में कोई पूछता नहीं व ससुराल में पति अपनी बहन की सेवा इस स्वार्थ से करता है कि वह  जायदाद में हिस्सा न माँग ले।
अत्यंत साधारण सी लगती हुई भी यह कहानी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस कहानी में नंद-भौजाई की समझ,सोच व सम्बन्धों में  अपनत्व की महक है।भाभी को मायके में चारों भाई नहीं पूछते थे अपनी पीड़ा को उसने समझा और अपनी नंद के हित में उसका साथ दिया। ससुराल से त्रस्त नन्द जब भाभी को अपनी व्यथा बताती है तो भाभी  खुद अपनी नन्द को अपने हक के लिए लड़ने व अपने भाई से अपना
हिस्सा माँगने के लिये प्रेरित करती है ताकि उसे जीवन को स्थापित करने में मदद हो सके। उसके संकोच को दूर करने के लिए उसे प्रोत्साहित करती है। निशा अपनी नंद से कहती है-” दीदी यह घर उतना ही आपका है जितना आपके भाई का और मेरा। आज से आप पूरे आत्मसम्मान के साथ यहीं रहेंगी। जब तक जीजाजी आपको आपका हक वापस नहीं करते हैं ,आप वापस नहीं जाएँगी। अपने पति से तो आप बाद में हक लीजिएगा ,पहले मायके में अपने भाई से अपना हक लेना शुरू कीजिये।”
 इस तरह कहानी का एक सुखद अंत होता है।
इस कहानी का अंत काबिले-तारीफ ही नहीं काबिले गौर भी है।
*अंतिम यात्रा या अंतर्यात्रा* कहानी पढ़ने पर भावनात्मक दृष्टि से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी इस संग्रह की सबसे अधिक मार्मिक कहानी महसूस होगी। पितृसत्तात्मकता का अहम् पुरुष पर इतना हावी रहता है कि पुरुष पत्नी को अपमानित करने व प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता और स्त्री नियति समझ कर सब चुपचाप सहती रहती है।जीवन की लंबी पारी में यह सब आदत  में स्वयमेव ही नहीं शुमार हो जाता है। उस समय कल्पना में भी नहीं आता कि जब दोनों में से एक भी नहीं होगा तो उन आदतों का क्या होगा जिसके बिना हम रहने के आदी नहीं।जो जीवन से साँसों की तरह जुड़ गई हैं।
यह कहानी एक ऐसी ही मनोव्यथा का मार्मिक चित्रण है।मरणासन्न स्थिति में जब पत्नी शारदा अस्पताल में भर्ती रहती है तब पुरुष का अहम् अपनी अंतर्यात्रा में कहीं अकेले घूमता रहता है। जीवन संगिनी के साथ प्रारंभ से लेकर इस यात्रा तक की कहानी उसके अंतर्मन में चलचित्र की तरह यात्रा करती हुई प्रतीत होती है।
जीवन संगिनी की अंतिम यात्रा का अहसास पति को आत्म मंथन की स्थिति की ओर  उन्मुख करता है और उसके सामने अतीत की किताब का हर पन्ना एक-एक कर अंतर्पटल पर जीवित हो, बीते पलों को मानो फिल्मांकित करता है कि किस तरह उसने उसे तकलीफ देने में,अपमानित करने में, तिरस्कृत करने में,यहाँ तक कि कई बार पिटाई करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
संसार में इससे बड़ा दर्द और इससे बड़ी सजा और कोई हो ही नहीं  सकती कि जब इंसान को अपने सबसे अजीज जीवन- साथी के प्रति जानबूझकर किये गए  अत्याचारों का अहसास हो और वह अपने गुनाहों के लिए पश्चाताप कर उसके सम्मुख सब स्वीकार करने व माफी माँगने की हसरत  भी रखे  किंतु वह उसकी दुनिया से दूर चला गया हो, कभी वापस न आने के लिये। भीड़ में भी अकेलेपन व पश्चाताप का यह अहसास एक अनचाही सजा के साथ जीना दुश्वार कर देता है।
पत्नी शारदा की अंतिम यात्रा के समय अपने जीवन के  उन हर लम्हों को याद करते हुए पति इसी तकलीफ में डूबते- उतरते रहे। अंतर्यात्रा से प्रभावित और व्यथित पश्चाताप भरे स्वर में पति  कहते हैं-
“जा शारदा! अब कभी मत आना मेरी जिंदगी में। मैं तुझे कभी कुछ नहीं दे पाया, लेकिन तू जाते-जाते भी यादों से मुझे भर गई।और अगर कभी आना भी मेरी जिंदगी में तो पति बनकर आना।मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ इस जन्म में की गई गलतियों का ….मुझे माफ कर दो शारदा! मुझे माफ कर दो!!”
और अंत में फिर पति का कथन-
“और मेरी आँखें सबके सामने बरस ना जाएँ इसलिए अपने कमरे में चला आया। मेरी आत्मा छटपटा कर देह में अंतर्यात्रा कर रही थी और बाहर उसकी देह आत्मा से विलग होकर अंतिम यात्रा…अंतिम यात्रा की तैयारी!”
काश ऐसा हो कि इंसान एक अच्छे मित्र की तरह दाम्पत्य जीवन को एक दूसरे का सम्मान करते हुए व्यतीत करने की आदत डाले। क्योंकि जो कष्ट आपने दिए हैं, और जो सामने वाले ने भोग लिये, वे वापस नहीं लौट सकते। पछतावा जीने नहीं देताऔर मौत आती नहीं।सारा चैन व सुकून चला जाता है।साँसे चलती हैं पर जीवन नहीं रहता।
आत्मकथात्मक शैली में रची गई यह कहानी अनायास ही आँखों में आँसू भर देती है।
रिश्तों में स्थायित्व के लिए संवेदनाओं का होना बहुत जरूरी है। उसी से रिश्तों में स्थायित्व आता है वरना खून के रिश्ते भी अपनी पहचान खो देते हैं। जब दर्द एक सा होता है तो संवेदनाओं के चलते परस्पर सहानुभूति स्वत:हो जाती है।
जीवन में हमसफ़र अगर साथ दे ,कद्र करें, फ़िक्रमंद हो,परस्पर सम्मान भाव रहे;यह बहुत मायने रखता है, अगर ऐसा नहीं होता तो जीवन दुरूह हो जाता है, फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।
समय चाहे जितना भी बदल जाए पर स्त्रियों के लिए आज भी उसका स्त्री होना अभिशाप की तरह है और अगर वह गरीब के घर की बेटी है, फिर  बहुत खूबसूरत भी;तो यह परिवार के लिये चिंता ही नहीं । संकट की बात हो जाती है ।
 “पुरुष से प्रेम मिलता रहे तो मजबूत चट्टान- सी स्त्री हर मुसीबत का सामना करती रहती है लेकिन जब संवेदनाओं के स्तर पर अकेली हो जाए तो जरा सा भी ज़ोर उसे बालू के कणों की तरह बिखर देता है। उनकी मजबूती प्यार के दो लफ़्ज़ या सहानुभूति की आवाज से पिघल जाती है।”
“सिर्फ स्त्री ही नहीं पुरुष भी प्यार के भूखे होते हैं।हर ह्रदय पाषाण नहीं होता।”
कभी-कभी, किसी- किसी के जीवन में कई बार चाहे-अनचाहे, जाने- अनजाने या परिस्थितियोंवश ऐसा वक्त आता है कि आवेश में  अविवेक हावी हो जाता है। हजारों सावधानियाँआपको संतुष्ट कर सकती है पर नियति की चाल किसी को नजर नहीं आती। अगर इंसान एक बार गलत चाल में उलझ जाता है तो लत लग जाती है और यही लत भारी पड़ती है।
“माँ भूख लगी है!” कहती हुई बिटिया रानी ने माँ को पूरे घर में खोजा। सारे घर में सन्नाटा पाकर,” पिछले स्टोर में होंगी” सोच कर उसने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने बड़े पापा और अपनी माँ को इस अवस्था में देखकर  भौंचक्की रह गई और जोर-जोर से चिल्लाने लगी।”
“आनन-फानन में जैसे-तैसे अपने कपड़े पहनते हुए मनोज ने कमरे से बाहर का रास्ता लिया। सरोज को काटो तो ख़ून नहीं।ज़मीन फट जाए जैसे हालात उसके सामने थे। एक क्षण का दैहिक सुख उम्र भर की तपस्या खराब कर गया।‌”
सम्मान के मानक पर हमारी गलतियाँ जो सजा देती हैं उसकी गूँज घंटे की ध्वनि की तरह दूर तक और देर तक सुनाई देती है।
*लम्हों ने ख़ता की* कहानी पढ़कर पाठक सिहर उठेगा।
आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई *मन का कोना* कहानी कन्या भ्रूण के गर्भ में आने से लेकर जन्म, किशोरावस्था से युवा होते तक के बीच उसके अपने अस्तित्व और वर्चस्व का अंतर्द्वंद्व है। आसमान छूते विकास के पंखों की उड़ान कन्या के नाम पर क्यों शिथिल हो जाती है? यह एक विमर्श का विषय है। कुछ माता-पिता की चाहत, कुछ पारिवारिक अपेक्षाएँ जो कुल दीपक के प्रति इतनी सुदृढ़ मानसिकता के साथ कुछ स्त्री- पुरुषों ,दोनों के ही मन में बैठी हुई है,और इस विमर्श के कारक हैं! जानना जरूरी है कि बेटी के जन्म में माता निर्दोष ही होती है। जो बीज पुरुष बोता है उसे माता संसार में लाती है। क्या यही दोष है स्त्री का? जिसके लिए उसे प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है। पुत्र के बरक्स पुत्री की अपेक्षा न्याय संगत नहीं और जब माँ को भी पहली पहली संतान पुत्री रूप में नाखुशी दे तो उस पुत्री के लिए इससे ज्यादा दुखद और क्या हो सकता है? भ्रूण रूप में भी अपने लिए बेटे शब्द का संबोधन उसे व्यथित करता है।जन्म के बाद उसे सबका प्यार  मिलता है दादी, दादा, पापा; पर माँ की उपेक्षा-
“ले जाओ इसको, मुझे नहीं चाहिये। जिस- जिस ने मुझे जो भी दवा दी, मैंने खाई थी ।जो करने को कहा गया, मैंने किया। हर मंदिर, गुरुद्वारे में माथा टेका; लेकिन क्या फायदा हुआ? आई तो लड़की ही ना ?हाय री किस्मत!!”
घर में सब खुश थे सिवाय माँ के।’मन का कोना’ कहानी कन्या की इसी बहती पीर की व्यथा है जो उसे भाई होने के बाद और गहरी होती दिखाई देती है। हर पल घर में बेटी और बेटे के मध्य परिवार का पक्षपात दिखा। जन्म के बाद उसे गोद में लेते हुए पापा ने कहा था,
” जीवन का संगीत है यह तो! हम इसका नाम सुर रखेंगे!” पर भाई के आते ही पूरे परिवार के सुर ही बदल गये।बचपन में किया गया गलत व्यवहार और दिये गये ताने बाल मन पर गहरा प्रभाव डालते हैं।बालमन उसका अर्थ  समझे न समझे, पर व्यवहार समझ में आता है।
“ताई, मासियाँ, पापा के सब दोस्त इतने सारे उपहार लेकर आ गए थे! उपहार में आए खिलौनों में से जब मैंने कार निकालनी चाही तो दादी ने आँखें गोल कर मना कर दिया कि यह काके का है।जाओ, अपनी गुड़िया से खेलो।जोर से रोकर जब मैंने विरोध जताया तो पापा ने जोर से आवाज लगाकर चुप रहने को कह दिया। यह वही पापा थे- मैं जो कहती थी, मान जाते थे। आज काके को गोद में लेकर अपने सुर को भूल गए थे।”
कितना मार्मिक है यह अंतर एक चार साल की  नासमझ बच्ची के लिये।और यह अंतर निरंतर  नजर आता है।
जब उसकी शादी की बात चलती है तब वह दृढ़ निश्चय कर लेती है-
“घर में एक लड़के ने पैदा होकर मेरा वजूद,मेरे औचित्य को झकझोर दिया है ।अब मेरी जिन्दगी में एक और लड़का नहीं ,जो मुझ पर हुकूमत करे।जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार न करे।मुझे नहीं करनी है शादी,अब मैं अपने मन के कोने में किसी और को झाँकने तक नहीं दूँगी। विवाह और संतान के बिना भी एक स्त्री का अस्तित्व होता है। मुझे अपने पैरों में खड़े होना है। यह जिंदगी मेरी है और मैं …..अपने साथ जिउँगी हमेशा-हमेशा के लिये।”
अंततः एक दृढ़ निश्चय के साथ मन के कोने की जद्दोजहद समाप्त होती है। भले ही दुनिया मंगल व चाँद पर पहुँच रही है, किंतु लड़कियों के प्रति अधिकतर संकुचित मानसिकता अपने दायरे,अपनी सीमाओं से परे आज भी नजर नहीं आती।
सौंदर्य सदैव आकर्षण का कारण रहा है, फिर वह सौंन्दर्य जहाँ भी नजर आए, जिसमें भी नजर आए। पति-पत्नी के मध्य यह सोच कभी-कभी भारी पड़ती है।अगर पति ज्यादा हैंडसम है तो पत्नी स्वयं को असुरक्षित महसूस करती है और अगर पत्नी सुंदर हो तो पति के मन में विवाह पूर्व का जीवन शंका के घेरे में रहता है। विकसित मानसिकता भी एक दूसरे के प्रति स्वयं को शंकित महसूस करती है। *आखिर तुम हो कौन* कहानी पुरुष के इसी दंभ के विद्रूप क्रियाकलाप की लिखित बानगी है। पुरुषों की मानसिकता को बदलना सहज नहीं,चाहे वह कितना ही पढ़ लिख जाएँ किंतु किसी न किसी कोने में शक की सुई घूमती ही रहती है। एक सुलझे सोच की आवश्यकता है ।स्वयं खोद- खोद कर पत्नी से पूछना और सरलह्रदया पत्नी बता दे तो उसे दिल में लेकर परेशान करना गलत है। ऐसे में बसी बसाई जिंदगी बर्बादी के कगार तक पहुँच जाती है। पुरुष के प्रति इस तरह के प्रश्नों के जवाब देते हुए स्त्री का सचेत व सावधान रहना जरूरी है। बोलते हुए शब्दों को बहुत तौलकर बोलना चाहिये, यह समझते हुए कि इसका संदेश क्या व किस तरह जाएगा और फिर परिणाम का पूर्वानुमान भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता।
 “चल ना अब बता कौन था? कहाँ मिले, क्या करता था, क्या-क्या बातें करते थे?”
 “तुमको बड़ा मज़ा आ रहा है बीबी से उसकी आशिकी के किस्से सुनते हुए ।”
“कविता अपने रौ में सब बताए चली जा रही थी। उसको पता ही नहीं चला कि अविनाश उसके चेहरे के हर भंगिमाओं को अपने मन-मस्तिष्क में एक तस्वीर या चलचित्र की तरह सहेजता जा रहा है हर बात पर उसके चेहरे के रंग बदल रहे थे।जब कविता चुप हो जाती तो कहता,”अरे ,फिर क्या हुआ?आगे बताओ ना। देख, मैं कोई पुराने ज़माने का पति नहीं हूँ। हम दोनों दोस्त भी है न? उम्र भर साथ रहना है, सब मालूम होना चाहिए एक दूसरे के बारे में।”
किस तरह कुरेद-कुरेद कर पूछना!!!और कितनी विश्वसनीयता !!!
 “बेटियों की आपसी शरारत में कविता को धक्का लगा और लस्सी अविनाश की शर्ट पर छलक गई। फोन हाथ में लिए अविनाश ज़ोर से चीख उठा।
” यह क्या बदतमीजी है? सब्र नहीं है ना? तुम थी हीं उस उजड्ड के लायक! इस हरकत पर दो थप्पड़ लगाता और तुमको तुम्हारी असली जगह बताता। पता नहीं ईश्वर ने यह सेकेंड हैंड पीस क्यों मेरी जिंदगी में लिख दिया……”
 जब दिल पर गहरी चोट लगती है तो चाहे कितनी भी माफी माँग ली जाए , घाव भरते नहीं है।
माफी सिर्फ एक बार ही माँगी जाती है। इसका मतलब यही होता है कि दोबारा माफी माँगने की स्थिति न बने ,लेकिन बार-बार गलती करके माफी मांँगना जानबूझकर अपराध को दोहराने की तरह से ही होता है। होटल में सबके सामने की गई बेज्जती तो सबसे अधिक तकलीफदेह रही।
जो बातें घर के अंदर बंद कमरे में भी तकलीफ दे जाती है वह बातें खुली जगह पर सबके सामने कैसी चोट देती होंगी , यह पुरुष के लिये मायने नहीं रखता पर पत्नी के लिये अकल्पनीय व अपमानजनक ही है।
यह प्यार की बड़ी ही मासूम सी कहानी है *उधार प्रेम की कैंची है*
दो ममेरी-फुफेरी बहनों का निकाह एक दूसरे के भाइयों से कर दिया जाता है। दोनों पक्की सहेलियाँ भी थीं।मुमानी के बेटे फ़हीम के लिये फुफेरी बहन की बेटी शीरीं को नानी ने पसंद किया था। फ़हीम और शीरीं यह जानते थे।वे एक दूसरे को पसंद भी करते थे।
पारिवारिक खटास के चलते हैं यह संभव नहीं हो पाता है। शीरीं का परिवार हमेशा के लिए दुबई जाने लगता है।उस समय फ़हीम पढ़ाई के लिए बाहर था। उसकी परीक्षाएँ चल रही थीं। शीरीं ने फ़हीम के लिए तोहफ़ा देने 6 रुमालों में एफ कढ़ाई किया हुआ था।
रवानगी के पहले-
“वो चुपके से सीढ़ियों से उतरकर सीधे फ़हीम के कमरे में गई और उसकी किताबों के बीच रुमाल तह लगाकर रख आई। फिर दरवाज़े तक जाकर वापस लौट कर उसने फ़हीम की एक कॉपी उठाई जिसमें उसने गणित के हल किए थे और उसके चार अलग-अलग रंग के रिफिल वाला पेन अपनी सलवार में अटका कर कमीज नीचे छुपा लिया, फिर उसने मुमानी की लाल लिपस्टिक उठाई और वापस रुमाल उठाकर सब रुमालों पर  कोनों में अपने होठों के लिपस्टिक वाले निशान चस्पा कर दिये।अपने बालों में बँधे नीले रिबन को उतार कर उसने कॉपी के बीच के पन्ने पर सब रुमाल रख कर पैक किये और रिबन से बाँधकर उस पर लिखा- “उधार प्रेम की कैंची है…. तुम्हारे इस बरस के जन्मदिन का तोहफा….. मुझे भूल मत जाना….. अल्लाह चाहेगा तो हम फिर मिलेंगे…. और किताबों के बीच छिपा कर रख दिया।”
 दुबई में उसकी भी शादी हो जाती है और शादी के 20 साल बाद वह अपनी बेटी सबा के साथ पुनः भारत लौटती  हैं तब तक फ़हीम की भी शादी हो गई रहती है।
किंतु पहला प्रेम अटल था। स्मृतियाँ कभी मरती नहीं हैं। समय की दीर्घकालिक अवधि या व्यस्ततावश ज़िक्र न हो पर अनुकूल समय पाकर पुनः जी उठती हैं।
माधुर्य भाव से ओतप्रोत प्रेम और वियोग की मासूम सी कहानी है यह।
नीलिमा  शर्मा का यह कहानी संग्रह आपकी नजर है। कहानियों को पढ़कर सिर्फ़ दिलों में हरकत ही नहीं होती बल्कि जीवन को समझने और सहेजने की सीख भी मिलती है।
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19 टिप्पणी

  1. सार्थक और विस्तृत समीक्षा ,जो पूरी की पूरी पुस्तक का पारी है अपनी माइक्रोस्कोपिक दृष्टि से पाठकों को करवाती है। कहानी दर कहानी और उसके अंश और फिर समीक्षक की टिप्पणी, समीक्षा को लंबा तो अवश्य करती हैं तथापि समीक्षा समग्र रूप से पड़ताल कर पुस्तक का आईना पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है।
    बधाई हो समीक्षक लेखक और संपादक को।

  2. नीलिमा जी की कहानी संग्रह आपकी समीक्षा से पढ़ने की मुझमें उत्सुकता जगा दी। बहुत बढ़िया समीक्षा।

    • भाग्यम जी आपके द्वारा पुस्तक पढ़ी जाएगी तो यह मेरा सौभाग्य होगा । शुक्रिया

    • आदरणीय भाग्यामजी आप पुस्तक को जरूर पढ़ें। पुस्तक प्राप्त करने के लिए नीलिमा शर्मा जी से संपर्क करें।

  3. आदरणीय नीलिमा जी ने पूरी किताब को न केवल खोलकर रख दिया, बल्कि पाठक के लिए उसमें प्रकाशित कहानियों की अन्तर्वस्तु को समझना आसान कर दिया। एक समीक्षक में जो धैर्य और ठहराव होना चाहिए, वह नीलिमाजी में भरपूर है। बधाई दोनों नीलिमा जी को..!

    • बहुत-बहुत शुक्रिया सुरेंद्र!तुम्हारी इस सकारात्मक टिप्पणी ने हमें कृतार्थ किया! लिखना सफल हुआ।

  4. आदरणीय नीलिमा जी ने पूरी किताब को न केवल खोलकर रख दिया, बल्कि पाठक के लिए उसमें प्रकाशित कहानियों की अन्तर्वस्तु को समझना आसान कर दिया। एक समीक्षक में जो धैर्य और ठहराव होना चाहिए, वह नीलिमा जी में भरपूर है। बधाई दोनों नीलिमा जी को..!

    • बहुत-बहुत शुक्रिया बजरंग जी! आपने पढ़कर हमारी समीक्षा को सार्थक किया !तहे दिल से आपका शुक्रिया !आप जैसे विद्वत् जनों का पढ़ा जाना यह लेखन की सफलता सिद्ध करता है।

  5. नीलिमा करैया जी, आपकी ‘कोई ख़ुशबू उदास करती है’ पुस्तक की समीक्षा आद्यंत पढ़ी। एक-एक कहानी का मर्म आपने अच्छी तरह उद्घाटित किया है। ‌ कहानी के तथ्य के साथ-साथ आपकी अपनी निजी सहमतियां- असहमतियां भी बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हुई हैं।
    आप तो प्रत्येक दिन समीक्षक की भूमिका में होती हैं और इतना अच्छा लिखती हैं। अतः किसी स्थापित समीक्षक से कम नहीं हैं। बहुत बधाई स्वीकार करें। आदरणीया नीलिमा शर्मा जी को भी उत्कृष्ट कहानी संग्रह के लिए हार्दिक बधाई।

    • आदरणीय विद्याजी!आपकी इस सकारात्मक टिप्पणी ने हमारे हौसले में वर्धन किया है ।ऐसी सकारात्मक टिप्पणियों को पढ़कर बल मिलता है। तहेदिल से आपका शुक्रिया।

  6. भाग्यम जी आपके द्वारा पुस्तक पढ़ी जाएगी तो यह मेरा सौभाग्य होगा । शुक्रिया

  7. नीलिमा करैय्या दीदी द्वारा लिखित कहानी संग्रह ” कोई खुशबू उदास करती है ” की समीक्षा को पढ़कर ये स्वतः स्पष्ट हो रहा है कि समीक्षक ने कहानी संग्रह की सभी कहानियों का पूर्ण मनोयोग से गहन अध्ययन किया है तत्पश्चात उन सभी कहानियों की एक एक करके सटीक ,सार्थक व सारगर्भित समीक्षा की है । समीक्षा से सभी कहानियों का सार सरलता से समझ में आ रहा है ,ये नीलिमा करैय्या दीदी की लेखनी की खूबी है ।
    सच में कहानियां किसी न किसी परिवार की ,समुदाय की ,समाज की ही होती हैं , उन्हीं लोगों के बीच से निकलती हैं । जो पात्र हमारे परिवेश में हमारे इर्दगिर्द घूमते हुए हमारे मनोमस्तिष्क पर गहन प्रभाव डालते हैं ,उनसे सम्बंधित कहानी / विषयों पर लेखनी की धार तेज हो जाती है । ये भी सत्य ही है कि कहानी विधा आज से नहीं सदियों से चली आ रही है , क्योंकि कहानी को खोज की आवश्यकता नहीं वरन् ये तो रोजमर्रा की जिन्दगी से ही निर्गत होकर प्रवाहित होती हुई पूरे समाज को स्वयं के रूप से प्रभावित कर देती है ।
    जब कहानियां पुस्तक रूप में नहीं होंगी ,तब भी मौखिक रूप में सुनना सुनाना चलता रहा होगा ,तभी आगे चलकर लिखित रूप में पल्लवित पुष्पित हुई होंगी ।

    नीलिमा दीदी आपकी समीक्षा सुन्दर शब्द शिल्प संयोजन लिए सहज और सरल भावों में प्रवाहित हो रही है ,जो कि उत्कृष्ट लेखक अथवा लेखिका की पहचान है । समीक्षा की लेखन शैली रोचकता लिए कहानी संग्रह को पढ़ने की ओर प्रेरित कर रही है ।
    लेखिका व समीक्षक दोनों ही बधाई के पात्र हैं । दोनों को उज्ज्वल भविष्य की ढेरों शुभकामनाएँ । आप दोनों की लेखनी अनवरत चलती रहे ।
    डॉक्टर पूनम अरोरा

  8. प्रिय पूनम! इतनी लंबी और उत्साहवर्धक टिप्पणी पढ़कर दिल बाग -बाग हो गया! ऐसी सकारात्मक टिप्पणियों को पढ़कर लिखने का हौसला बढ़ता है और रुचि भी जाग्रत होती है। दिल की गहराइयों से तुम्हारा शुक्रिया।

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