Tuesday, September 17, 2024
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सूर्यकांत शर्मा की कलम से – रंगमंच मनुष्य की सनातन प्रवृत्ति: लक्ष्मीनारायण लाल

पुस्तक: लक्ष्मीनारायण लाल
लेखक: लहरी राम मीणा
प्रकाशक: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
पृष्ठ: 112
मूल्य:100
प्रकाशन वर्ष: जनवरी 2024
साहित्यक दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना चुके युवा कवि, आलोचक,एवं नाट्य़ चिंतक लहरी राम मीणा, आज के इस जटिल और चुनौती भरे समय में अपनी रचनाओं में  उम्मीदों से भरी एक दुनिया लेकर आते हैं। जीवन के  गहरे जुड़ाव और संवेदना इनकी रचनाओं का केंद्रीय विषय रहता है। मीणा की प्रमुख रचनाएंँसाहित्य का रंगचिंतन, जिस उम्मीद से निकला और अभी हाल ही में सध्: प्रकाशित पुस्तकआलोचना का जनतंत्रमें भी मानवीय जीवन की संवेदना का जीवंत दस्तावेज़ का विस्तृत विवरण देखने को मिलता है। एक काव्यसंग्रह का नाम ही उम्मीद पर रखा गया।जिस उम्मीद से निकलाका पूरा का पूरा जीवन उम्मीदों से भरा दिखाई देता है, जिस तरह जीवन कभी मरा नहीं करता वैसे ही इनकी उम्मीदें  भी कभी नहीं मरती है। 
अभी अभी प्रकाशित लक्ष्मीनारायण लाल विनिबंध पुस्तक को नौ अध्यायों में रखा गया है। जिनके बारे में आगे के पैराग्राफ़ में बताया जाएगा। लक्ष्मीनारायण के व्यक्तित्व के बारे में लेखक लहरी राम मीणा का कहना है कि, “बहुआयामी तथा बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न लक्ष्मीनारायण लाल को किसी एक विशेष खाँचे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। इनके नाटकों में भारतीयसंस्कृति और आधुनिकता के समन्वय के साथ ही समकालीन जीवन का यथार्थ भी देखने को मिलता है। परंपरा के प्रति रचनात्मक दृष्टि से उन्होंने अपनी साहित्ययात्रा शुरू की थी लाल का रचनाकर्म भारतीय भावभूमि पर केंद्रित था उनके लिए पश्चिम नाट्य़ परंपरा का कोई अर्थ नहीं था। लाल रंगमच को मुनष्य की सनातन प्रवृत्ति मानते थे।प्रस्तुत पुस्तकदो शब्दमें पुस्तक की रचनाप्रक्रिया के बारे में  स्वयं लेखक लहरी राम मीणा लिखते हैं कि, “लक्ष्मीनारायण लाल के सुदीर्घ जीवन काल, उपलब्धियों तथा कृतित्व का दायरा अत्यंत विस्तृत तथा व्यापक फ़लक पर फ़ैला हुआ है। इन सबकी एक झलक ही प्रस्तुत पुस्तक में समाविष्ट हो सकती है और हुआ भी यही।हालांँकि मैने पूरा प्रयास किया है कि लाल के जीवन तथा कृतित्व का कोई भी महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी पक्ष इस पुस्तक में आने से छूट जाए। लक्ष्मीनारायण लाल को पढ़ने के दौहरान मैने पाया कि उनको किसी एक विशेषण तक सीमित कर देना किसी भी तरह से न्यायोचित एवं सुसंगत नहीं होगा। मेरी नज़र में उनकी कोई भी भूमिका दूसरे की तुलना में तो कमतर है और ही कमज़ोर। 
प्रस्तुत संक्षिप्तपुस्तक में लाल के व्यक्तित्व, कृतित्व, उनकी अभिरुचि और साहित्य के साथ उनके समाज दर्शन, नवीन उद्भावनाओं एवं समसामयिक विषयों को भी उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है।
देश और देश से बाहर भारतवंशियों को देश के साहित्य संस्कृति से परिचित कराने हेतु साहित्य अकादमी ने विनिबंध विधा का प्रयोग करते हुए एक परियोजना के तहत दिवंगत या भूले बिसरे साहित्यकारों के परिचय और योगदान को रेखांकित करते हुए  ‘भारतीय साहित्य के निर्माताश्रृंखला में विनिबंध विधा की परियोजना को मूर्त रूप दिया है।अब पाठक सोच रहे होंगें कि निबंध तो पता है पर विनिबंध क्या होता है?जी विनिबंध ऐसी विधा है। जिसमें एक ही व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व को विभिन्न अध्यायों में बांट कर एक ही ज़िल्द यानी पुस्तक में सारगर्भित, सहज, सरस एवं संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है।समीक्षित पुस्तक इसी का सजीव उदाहरण है।यूंँ भी आभासीयुग के युवा और आमजन को यह बताना नितांत आवश्यक है कि हमारे साहित्य और संस्कृति को समृद्ध करने वाले प्रणेता और पुरोधा कौनकौन थे। इसका सीधासीधा और प्रत्यक्ष लाभ हमारे  युवा भारत को प्रेरणादायक स्रोत के रूप में मिलेगा और जीवन में किस प्रकार संघर्षरत रह कर स्वयं और समाज में मूल्यवर्धन किस प्रकार किया जा सकता है।साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तकें भविष्य की थाती बनती जा रही हैं। तिस पर भी विपणन यानी मार्केटिंग तथा प्रचारप्रसार की अहम भूमिका को स्वीकारना  होगा ताकि यह पुस्तकें बाज़ार या मेलों के माध्यम से जनजन तक पहुंँच सकें और किया गया श्रम सार्थक हो।
   प्रस्तुत मोनोग्राफ़ यानी विनिबंध में स्वर्गीय लक्ष्मीनारायण लाल के व्यक्तित्व के छुएअनछुए पहलुओं को रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है प्रसिद्ध युवा कवि, आलोचक  डॉ.लहरी राम मीणा ने।लक्ष्मीनारायण लाल के सम्पूर्ण रचनात्मक कर्म को बहुत ही बारीकी से सहज, सरल भाषा में मीणा ने उदाहरणों के माध्यम से बताने का प्रयास किया है।लाल के बारे में  उनके जीवन के कुछ प्रसंग जो आज की युवा पीढ़ी के लिए बहुत ही प्रेरक का कार्य कर सकता है। वह लिखते है कि  लाल का जन्म बारिश के मौसम में हुआ था जिस कारण उसे स्थानीय भाषा में  ‘झकड़ीकहा जाता है।अतः उनकी दादी ने इनका नामझकड़ीरख दिया था!स्कूली शिक्षा के आरंभ में इन्हें अपना यह नाम प्राप्त हुआ। एक और दिलचस्प वाकया इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने हेतु जब यह कुलपति से मिले तो प्रवेशावधि समाप्त हो चुकी थी। कुलपति के यह कहने पर कि तुम में क्या सुरखा़ब के पर लगे हैं?जो तुम्हें प्रवेश दिया जाए, इस पर लक्ष्मीनारायण लाल ने अपनी हाज़िर जवाबी से बहुत ही विनम्र स्वर में कहा, कि सर! जब तक मुझे मौका ना मिले तो मैं कैसे बता दूंँ कि मुझ में सुरखा़ब के कितने पर लगे हैं! कॉलेज के प्रवेश की फ़ीस उस  समय दो सौ रुपए हुआ करती थी। इतनी बड़ी धनराशि इस फक्कड़ विद्यार्थी के पास नहीं थी।अतः इस पुरोधा ने दो दिन में अपना पहला उपन्यासरक्तदानलिखा और उसकी एवज़ में मिली धनराशी को  कॉलेज की फी़स के रूप में जमा करा दिया!
इसी प्रकार और भी बहुत से प्रेरणादायक व्यक्तित्व के पहलुओं पर डॉ. मीणा ने प्रकाश डाला है और साथ ही साथ उनके गहन कृतित्व पर भी
समीक्षित पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैजिनका क्रम निम्न हैप्रथम अध्याय  लक्ष्मीनारायण लाल का जीवन वृत, द्वितीय अध्याय में नाटककार, तृतीय में एकांकीकार, चतुर्थ में कहानीकार, पंचम में उपन्यासकार, षष्ठ में जीवनीकार , सप्तम में लक्ष्मी नारायण लाल के विचार, अष्टम में नाटक और रंगमंच की नई दृष्टि, नवम में लक्ष्मीनारायण लाल की सनातन दृष्टि आदिके  अतिरिक्त परिशिष्ट एक मेंलक्ष्मीनारायण लाल का रचना संसार,परिशिष्ट दो में संदर्भसामग्री और परिशिष्ट तीन में रचनाओं का प्रथम मंचन वर्ष और निर्देशन कुल मिलाकर पाठक को एक सुखद यात्रा पर ले जाते हैं।
विनिबंध विधा में यह नितांत आवश्यक है कि  पुस्तक को सीमित पृष्ठों में सार्थक रूप से पठन सामग्री को प्रस्तुत करना।आज के युग में उन्हीं विद्वानों का योगदान, पुस्तकालयों ,संस्थानों या प्रकाशक के गोदामों में सुरक्षित रहता है जो स्कूल कॉलेज में पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाते हों, अन्यथा पुस्तक हेतु सही प्रमाणिक सामग्री भूसे के ढेर में सुई ढूंढना  जैसे है।  
लेखक डॉ. मीणा ने वर्षों  के श्रम से यह सामग्री देश के कोनेकोने से खोज कर रोचकता के पुट के साथ प्रस्तुत की है।हमारे देश की विडंबना यही है कि प्रमाणिक सामग्री और उसके संरक्षण और उसके प्रस्तुतिकरण पर डिजिटल होती भारतीय ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था को लंबा और कठिन रास्ता अभी और तय करना है।
यहांँ पर पाठकों को यह बताना निहायत जरूरी है कि श्री लक्ष्मीनारायण लाल को सबसे अधिक यश प्राप्ति एक नाटककार के रूप में प्राप्त हुई या दूसरे शब्दों में हम उन्हें एक ऐसे लेखक कह सकते हैं जिनका संपूर्ण रचनाकर्म भारतीय संस्कृति एवं भारतीय भावभूमि पर केंद्रित रहा उनकी नजरों में पश्चिम में नाट्य़ परंपरा का कोई अर्थ नहीं था। उनकी नाट्य़ चेतना बहुआयामी एवं वैविध्यपूर्ण थी।
     लक्ष्मीनारायण लाल ने अपने कार्यकाल में अनेकों विश्वविद्यालयों तथा सरकारी विभागों में कार्य किया, वे सन् 1956 में नाटककार जगदीशचंद्र माथुर और प्रकृति के कोमल कवि के नाम से प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत जी के आग्रह पर  आकाशवाणी लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर के रूप में कार्य किया। सन् 1958 मेंनाट्य़ केंद्रनामक नाट्य संस्था की स्थापना की। सन् 1964 में यूरोप में होने वाली अंतरराष्ट्रीय नाटक संगोष्ठी में भारत का प्रतिनिधित्व किया और इस दौरान हुए ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, ग्रीक आदि देशों की यात्राओं पर गए।वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नाट्य प्रवक्ता के रूप में रहे और कुछ समय राष्ट्रीय पुस्तक न्यास में बतौर संपादक कुछ समय के लिए कार्यरत रहे।
यहांँ पर एक और बात प्रासंगिक है कि  लक्ष्मीनारायण लाल ने सभी विधाओं में लेखन कार्य किया, विशेष रूप से उपन्यास, कहानी, एकांकी, जीवनी निबंध एवं नाट्यालोचना से जुड़े सभी विषयों पर  निरंतर लिखते रहे। सृजनात्मक लेखन के बारे में वे एक स्थान पर लिखते हैं कि,” नाटक लिखते लिखते जब मैं थक जाता हूंँ, तब उपन्यास लिखकर विश्राम करता हूंँ, और जब उपन्यास लिखकर थक जाता हूंँ, तब नाट्य़ लेखन से विश्राम करता हूंँ इस तरह के रचनात्मक व्यक्तित्व के धनी थे लक्ष्मीनारायण लाल।
लेखक ने उनके कृतित्व को साहित्य के अलगअलग अध्यायों में वर्णित किया है।जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है तिस पर भी बतौर नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल ने तीस के लगभग नाटक लिखेउनमें से कुछ प्रमुख नाटक  इस प्रकार है:अंधा कुआंँ (1955), मादाकैक्टस (1959),सुंदर रस(1959), तीन आंँखों वाली मछली,( 1960),बलराम की तीर्थ यात्रा (1984) कथा विसर्जन (1987) आदि सभी नाटकों सहित  अन्य विधाओं और कृतियों का सारगर्भित वर्णन इस पुस्तक में देखने को मिलता है जो कि इस पुस्तक की  महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
लक्ष्मीनारायण लाल ने एकांकी विद्या में 95 के लगभग एकांकी लघु नाटकों की रचना की है जिनमें से प्रमुख एकांकी संग्रह  इस प्रकार हैं: ताजमहल के आंँसू (1945),पर्वत के पीछे (1952),नाटक बहुरंगी(1961),दूसरा दरवाजा ( 1972),खेल नहीं नाटक(1978),शुरू हो गया नाटक (1983) आदि ।श्री लाल द्वारा लिखी गई कहानियों की बात करें तो उन्होंने साठ के लगभग मौलिक कहानी लिखी जिनमे उनके प्रमुख कहानी संग्रह इस प्रकार है: सूने आंँगन रस बरसे (1956), लक्ष्मी नारायण लाल की प्रतिनिधि कहानियांँ (1959),,एक और कहानी(1964), डाकू आए थे (1973),आने वाला कल (1988) आदि। 
लक्ष्मीनारायण लाल एक जाने माने उपन्यासकार भी थे जिन्होंने नाट्य़ साहित्य के साथसाथ अन्य विधाओं में प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया।उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग पंद्रह के आस पास प्रमुख उपन्यासों का सृजन किया उनके प्रमुख उपन्यास इस प्रकार है: धरती की आंँखें (1951), बया का घोंसला और सांप ( 1953),काले फ़ूल का पौधा(1955), बड़ी चंपाछोटी चंपा(1958), रूपाजीवा(1959),मन वृंदावन(1966), प्रेम एक पवित्र नदी(1972), अपना अपना राक्षस(1973)असत्यभाषा(1986) आदि।बहुआयामी व्यक्तित्व और बहुमुखी प्रतिभा यह दोनों ही विशेषता लक्ष्मी नारायण लाल के पर्याय थे।  वह एक अच्छे जीवनीकार भी थे उन्होंने तीन प्रमुख जीवनियां लिखी, जो इस प्रकार है: जयप्रकाश(1974), अंधकार में प्रकाश:जय प्रकाश(1977) कर्मयोगी घनश्यामदास (1987) आदि।
इस विनिबंध में लक्ष्मीनारायण लाल के विचार जो साहित्य, समाज और राजनीति पर थे उनका भी सहज ,सरल परंतु सारगर्भित वर्णन किया गया है।
पाठकों को नाटक और रंगमंच की समझ हो और वह भी लाल की दृष्टि में भारतीय नाट्य साहित्य कैसे पश्चिम के नाट्य़ साहित्य से अलग है, लाल रंगमंच का  शाब्दिक अर्थ कैसे  रंगभूमिके नाम से मानते है आदि विषयों की विस्तार से जानकारी हो, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लेखक मीणा ने लाल की रंग दृष्टि पर अलग से एक अध्याय में बहुत ही विस्तार से सुंदर वर्णन किया है। नाटक और रंगकर्म से संबंधित  श्री लाल ने पांँच नाट्यालोचना की  महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी, जिनमें प्रमुख हैं: रंगमंच और नाटक की भूमिका (1960), पारसी हिंदी रंगमंच(1973), आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच(1973),रंगमंच: देखना और जानना (1983), रंगभूमि:भारतीय नाट्य सौंदर्य शास्त्र 1988 आदि।परिशिष्ट को तीन भागों में विभाजित किया गया है प्रथम परिशिष्ट में लक्ष्मीनारायण लाल का रचनासंसार , दूसरे परिशिष्ट में संदर्भसामग्री और तीसरे परिशिष्ट में  रचनाओं का प्रथम मंचन वर्ष और निर्देशन आदि विषयों में चित्रित किया गया है।मंचन और निर्देशन बेहद उद्देश्यपूर्ण अंदाज़ में प्रकाशित किए गए हैं। यथा पुस्तक में विभिन्न विधाओं की रचनाओं को संक्षिप्त रूप से  और दिया जाता तो कुछ और सारगर्भित जानकारियांँ इसमें समाहित कर दीं जाती तो पाठकों को कुछ और अधिक  जानकारी मिल पाती।यह और भी प्रासंगिक हो जाता कि श्री लक्ष्मीनारायण लाल के बचपन में जीवन के विभिन्न सोपानों के रंगीन चित्र भी इसमें समावेशित कर दिए जाते या एक फ़ोटो फी़चर भी इसमें रखा जा सकता था ताकि लक्ष्मी नारायण लाल को विभिन्न रूपों में पाठक देखे और उनसे और अधिक प्रभावित और प्रोत्साहित होते।बेहतरीन विनिबंध के शौकीन इसे पढ़ें।विद्यार्थियों, शोधार्थियों ,युवा जन और आम पाठक इस छोटी सी पुस्तक में श्री लक्ष्मीनारायण लाल के जीवनवृत्त से जुड़े छुएअनछुए पहलू को जान सकते हैं।उनके संपूर्ण रचना संसार से एक झलक में परिचित हो सकते हैं। रंगमच ,नाटक,नाट्य़ मंचन तथा नाट्य़ आलोचना की समझ का आनंद इस लघु पुस्तिका में ले सकते हैं।
यह पुस्तक पाठकों के लिए एक सरल एवम् सुंदर पुस्तक है जिसे सुधी पाठक निश्चित रूप से खरीद कर अपने बुक्शेल्फ़ में रखना चाहेंगे
पुस्तक का आकार ,कीमत  और प्रस्तुत सामग्री आज के युवाओं की पसंद के अनुरूप रखी गई है ,ताकि मोबाइल रूपी व्यसन से पीछा छूटे और हमारा युवा बहुर्मुखी और सक्रिय तथा गतिशील जीवन को जिएं और युवा भारत को विश्व पटल पर मजबूती से उकेर सकें।
समीक्षक :
श्री सूर्यकांत शर्मा ,
मानसरोवर अपार्टमेंट, फ्लैट B – 1 
प्लॉट नंबर– 3, सेक्टर 5, द्वारका 
नई दिल्ली – 11007 
संपर्क सूत्र: 7982620 596

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1 टिप्पणी

  1. आदरणीय सूर्यकांत जी!

    – रंगमंच मनुष्य की सनातन प्रवृत्ति: लक्ष्मीनारायण लाल
    आपके द्वारा लिखित आलेख को देखा।
    थोड़ा सा पढ़ा और महसूस हुआ कि यह पढ़ने और लिखने दोनों की दृष्टि से ही हमारे अनुकूल नहीं है।
    इसके लिए तो हम आपसे सिर्फ यही कहेंगे कि जिनके लिए आपने लिखा है उनको भी हमारी तरफ से प्रणाम और आपने जो असाध्य‌ परिश्रम इसके लिए किया है,उसके लिये हम आपकी सराहना करते हैं। और आपको प्रणाम करते हैं।
    यह सब लिखना हमारे लिए जरूरी इसलिए भी था ताकि आप यह न सोचें कि हमने आपकी रचना को नजरअंदाज किया।
    आपको एक बार पुनः प्रणाम

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