Sunday, September 8, 2024
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तरुण कुमार की कलम से – विविधवर्णी संवेदनाओं का विराट रचती कविताएं

कविता-संग्रह: एकांत में रोशनदान कवि : मोहन राणा/ पृष्ठ: 130/ मूल्य: 250 रू./  प्रकाशक: नयन पब्लिकेशन, ग़ाजियाबाद, उत्तर प्रदेश ईमेल: [email protected]  
समीक्षक
तरुण कुमार  
मोहन राणा अपने एक लेख में कहते हैं कि मैं कविता लिखता नहीं, जीता हूं। सचमुच वह किसी योजना के तहत, किसी उद्देश्य के लिए सायास नहीं लिखते बल्कि उनकी कविताओं का जन्म स्वत:स्फूर्त होता है। उनके लिए कविता “मैं” और “तुम” यानी भीतर और बाहर के बीच का संवाद है। वह अपने भीतर संवेदनाओं के उद्वेलन को महसूस करते हैं और उस उद्वेलन को बाहर की दुनिया के साथ साझा करने के लिए अपनी मनोवीथियों में रोशनदान का निर्माण करते हैं। यह रोशनदान उनकी संवेदनाओं की आवाजाही का मार्ग बन जाता है। वह कहते हैं, “घटती संभावनाओं से घिरा मैं अपने उद्वेलन में …छोड़ देना चाहता हूं वह अपनापन जिसे कोई गुमनाम थमा गया मेरा नाम लिखकर अपनी लिखी एक परची में कि तुम कौन हो (स्टेपलटाउन रोड स्टेशन)।” 
शोर और प्रायोजित पहचान से दूर मोहन राणा ब्रिटेन के एक ऐसे कवि हैं जिनका अंदाज सुफियाना है और वह जो भी लिखते हैं, बेलौस और बेझिझक लिखते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि उनके लेखन को लेकर पाठकों की प्रतिक्रिया क्या होगी। इस बात की परवाह किए बिना कि कौन उनकी रचनाओं के बारे में क्या राय बनाता है। उनकी कविताओं का परिप्रेक्ष्य काफी निजी और रहस्यमय है। समय की ढँकी मुंदी सरहदें और सभ्‍यताओं के उदास स्वर इन कविताओं की चौहदी है। ये कविताएं स्‍वप्‍न और संवेदना के एक वैश्विक देशज का निर्माण करती हैं। 
उनके नवीनतम काव्य संग्रह ‘एकांत में रोशनदान’ की कविताएं विविध, विषम और व्यापक हैं और ये देश व काल की सीमा से परे जाती हैं। इनके माध्यम से वह अपनी संवेदनाओं का विराट रचते है। कहीं भाषा की चिंता, कहीं यात्राएं, कहीं जीवन दर्शन तो कहीं पूरी तरह से निजी अनुभव, कहीं वैचारिक द्वंद, आदि विविध विषय इस संग्रह की कविताओं में देखने को मिलते हैं। उन्‍होंने इस संग्रह की कविताओं को चार खंडों में बांटा है। पहले खंड में 13 कविताएं हैं, इन कविताओं को किसी शीर्षक के अंतर्गत नहीं रखा गया है। जबकि दूसरे खंड का शीर्षक है ‘सपनों का अनुवाद’ जिसके अंतर्गत 12 कविताएं हैं। तीसरे खंड के अंतर्गत 15 कविताएं हैं जिसका शीर्षक ‘जंगल के बीज’ है, और अंतिम खंड ‘इस जगह का नाम’ के अंतर्गत 31 कविताएं हैं। इस प्रकार संग्रह में कुल 71 कविताएं हैं जो जीवन के विविध रंगों और संवेदनाओं का विराट रचती हैं।  
मोहन राणा कविता में अपनी प्राथमिकताएं नहीं चुनते। उनका कोई मिशन नहीं है। वह किसी विचारधारा के अंतर्गत नहीं लिखते। अधिकांश प्रवासी साहित्यकारों और कवियों की तरह वे भी अपने अनुभव को ही व्यक्त करते हैं। उनके पास कहने के लिए पूर्वनिर्धारित सत्य पहले से मौजूद नहीं है। इसलिए उनकी कविताएं पूर्ण प्रतीत नहीं होती। ‘जैसे जीवन कभी पूर्ण नहीं होता वैसे ही कविता कभी पूर्ण नहीं होती।’ परंतु उनकी सर्वोच्च आस्था कविता में ही है। उनके शब्दों की अपनी अर्थवत्ता और अर्थसत्ता है। तभी तो वह “अनिकेत” कविता में कहते हैं, ‘मेरी आस्था है कविता में किन्तु विश्वास नहीं रहा भाषा पर जैसे नहीं रहा अपनी हथेली की भाग्य रेखा पर’। अन्यत्र वह कहते हैं, ‘भाषा है जिसमें लिखता हूं पर जीता नहीं हूं। वह शब्‍द जो भी बचा रह जाता शेष।’ कविता में तो उनकी आस्था है परंतु भाषा में नहीं। संभवतया सभी सूक्ष्म संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर पाने में भाषा की अक्षमता के कारण।  कुछ मानवीय अनुभूतियां शब्दों की सीमा से परे होती हैं।  
अपने काव्य सृजन के बारे में वह “अनसुना” शीर्षक कविता में कहते हैं, “मेरी भाषा की जमीन मेरी रचना है, समूल मैंने रोप दिया उसकी जड़ों को पश्चिम की परती धरती पर।” अपनी मिट्टी से उखड़ने और प्रवासी जीवन जीने की कसक इन पंक्तियों में दिखाई पड़ती है। मोहन राणा की कविताएं उनके भीतर की यात्रा प्रतीत होती है। वह कहते हैं-
“मैं कभी होता नहीं सच में बाहर कहीं
पर वहीं तुम्‍हारे भीतर (इस कहानी में)”।  कुछ इसी आशय की पंक्तियां “बारंबार” शीर्षक कविता में भी द्रष्‍टव्‍य है; “मैंने मुड़कर देखा पीछे इतिहास नहीं था, उसके भीतर था मैं घट चुका भविष्‍य जो किसी को याद नहीं रहता घटता हुआ अब भी।”
त्रिकालदर्शी की भांति वे अतीत, वर्तमान और भविष्‍य को एक साथ देखते हैं। वह कहते हैं, ‘जिस तरह अंधेरे को चाहत होती है उजाले की वैसे ही हर सुबह किसी रात का सपना ही होती है। अतीत से ही हम पहचानते हैं भविष्‍य के वर्तमान को। प्रश्‍न इस बात का आश्वासन देते हैं कि  कुछ जान पाने की संभावना है।’ 
वह मानते हैं कि कविता अपना जन्‍म खुद तय करती है। किन परिस्‍थतियों में कौन सी कविता उनकी लेखनी से जन्‍म ले लेगी वह खुद नहीं जानते। वह कहते हैं – 
“मैं मौन को लिखना चाहता हूं शब्‍द बूझते 
मन को कानों को साधे सुबह के मोहरे को सुनते”
कवियों ने काव्य रचना के तत्व के रुप में प्राकृतिक तत्वों का आलंब हमेशा से लिया है। मोहन राणा भी इससे अछूते नहीं हैं। उनकी कविताएं प्रकृति प्रेम और प्रकृति के रहस्‍यों को भी रेखांकित करती हैं। वह कहते हैं, 
“अक्‍सर लाइलैक के पेड़ पर बैठती है और बोलती रहती है, एक छोटी सी नीले रंग की चिडि़या ………..जैसे वह उस पेड़ में छुपे जादू को प्रकट करने की कोशिश कर रही है, जो शायद गरमियों में फूलों के रूप में प्रकट होगा” (यह डर कैसा)।  उनकी कविता की यात्रा उनके अपने भीतर अपने अंतर्मन की यात्रा है और अपने अंतर्मन में भी वे प्राकृतिक रूपक ढ़ंढ लेते हैं।  वह कहते हैं,  “घूमत घामते में पहुंचता मन के सीमांतों, आत्‍मा के बीहड़ में (भूल भुलैया)।  ‘पहचान’ कविता में एक अन्‍य प्राकृतिक तत्व हवा की बात करते हैं। कहते हैं, ‘मैं हवा के बारे में सोच रहा था उसकी कोई सीमा नहीं है,  ना ही कोई देश, ना उसकी अपनी जाति, भाषा ना कोई अस्मिता का सवाल। 
किसी से भी पूछो – सवाल और हर भाषा में एक ही जवाब है – हवा।‘
“पानी का गीत” कविता में वह कहते हैं, 
‘गीत जैसे परखनली में जनमता जीवन हो। 
वर्तमान के कुहराम में 
ऊंचा सुनता है भविष्‍य।’ 
इंग्‍लैंड में अकेलेपन की त्रासदी को बांचती कविता है, ‘बहुत दिनों बाद पता चला’। 
मोहन राणा यथार्थवादी कवि नहीं है, पर वह समाजविमुख कवि भी नहीं हैं। यह अपेक्षा करना सही नहीं होगा कि सभी कवि जीवन की समस्‍याओं को एक ही ढंग से उठाए और एक ही कोण से उठाए। यदि उनकी कविताओं में जीवन का स्‍पंदन है तो उनमें जीवन की समस्‍याओं की अनुगूंज भी जरूर किसी न किसी रूप में होगी। यह उत्‍सुकता हो सकती है कि उनकी कविताओं में जीवन की कौन सी समस्‍याएं व्‍यक्‍त हुई हैं। नदी को बचाने की गुहार लगाती कविता ‘तुम’ में यह समाजिक सरोकार स्‍पष्‍ट दिखाई पड़ता है “क्‍या तुम नदी को डूबने से बचा सकती हो, बचा लो वरना वो पत्‍थर हो जाएगी।” डूबना प्रतीक है धीरे-धीरे समाप्‍त होती जा रही नदियों का।
मोहन राणा की संवेदनाएं शब्दों के चौखटे में नहीं समाती हैं इसलिए उनकी कविताओं में एक रहस्यमयता बनी रहती है। भावों के किसी सिरे को पकड़कर किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना कठिन होता है। वह जनसामान्य के कवि नहीं हैं। उनकी कविताओं से तफरीह करते, बतियाते नहीं गुजरा जा सकता है। कवि बिना किसी कथावृत्त या भूमिका के आत्‍मचिंतन के सबसे अजनबी रास्‍तों पर ढ़केल देता है जहां पाठक को खुद ही वहां तक पहुंचना होता है जहां कवि ले जाना चाहता है और इस प्रक्रिया में पाठक राह भटक जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। जिस प्रकार इलियेट की कविताओं को बिना संदर्भ के नहीं समझा जा सकता, उसी प्रकार मोहन राणा की कविताओं को उनके संदर्भ के बिना समझना मुश्किल है। उनकी कविताओं का एक-एक शब्द, हर एक पंक्ति गहरी समृतियों और संदर्भों से जुड़ा है। एक ही पंक्ति में अर्थों की अनेक परतें हैं जिन्हें अनावृत करने के लिए त्रिनेत्रीय समझ की आवश्यकता है। 
संग्रह की अनेक कविताओं में बिंबों और प्रतीकों का विलक्षण प्रयोग किया गया है। इनमें  इंप्रेशनिष्ट चित्रकारों का सा क्षण चित्रण है-  ‘सारी रातभर बारिश होती रही, धोती रही पाषाण आंसुओं को।’ भाषा ऊपरी तौर पर सरल है, पर उलझी हुई प्रतीत होती है। इनके अर्थ को भेदना दुर्गम मार्ग पर चलने जैसा है। संग्रह में कई कविताओं में मात्राओं और वर्तनी की अशुद्धियां हैं, जो खटकती हैं। मुक्त छंद में लिखी उनकी कविताओं के गद्यात्मक विन्यास में भी एक लयात्मकता अंतर्निहित है। संग्रह की रचनाएं निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति होने बावजूद सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं और कवि की संवेदनाओं के बाहरी दुनिया के साथ संपर्क के लिए रोशनदान का काम करती हैं।
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2 टिप्पणी

  1. एकांत में रोशनदान कविता संग्रह पर तरुण कुमार की इतनी सटीक और समग्र को समेटे हुए टिप्पणी पढ़कर एक बार पुनः मोहन राणा की इस कृति को दोबारा पढ़ने की तीव्र इच्छा जाग रही है। मोहन राणा के प्रत्येक संग्रह की कविताएं हमारे आसपास बिखरी वस्तुओं, नदियों, पहाड़ों, गांवों, शहरों और उनमें रह रहे मनुष्यों की संवेदनाओं को मूर्त रूप देती हैं। टिप्पणीकार की इस टिप्पणी से मैं भी सहमत हूं कि उनकी भाषा और शब्द भले ही सरल हों लेकिन उनसे प्रस्फुटित विचार निश्चित ही बहुत गहरे अर्थ प्रदान करते हैं।

  2. आदरणीय तरुण कुमार जी!
    मोहन राणा जी के कविता संग्रह पर आपकी समीक्षा हमने पूरी-पूरी पढ़ी। आपकी समीक्षा को पढ़ना सरल व सहज लगा।बेहतरीन शैली है,पर मोहन राणा जी की काव्य पंक्तियों को समझना उतना सरल नहीं लगा जो आपने उद्धरण तौर पर लिखीं थीं।

    एक पंक्ति जो बेहतर लगी और समझ में आई-
    *सारी रात भर बारिश होती रही, धोती रही पाषाण आंसुओं को।’*
    अकेली पंक्ति ही बड़ी पीड़ा को अभिव्यक्त कर रही है।
    आँसुओं का पत्थर हो जाना सहज नहीं होता है। कितनी पीड़ा, कितना दर्द, कितनी तकलीफ सही होगी, तब कहीं जाकर आँसू पत्थर बने होंगे। आँसुओं का पत्थर हो जाना, संवेदनाओं की, भावनाओं की मृत्यु है ;जैसे कोमा में चले जाना. इंसान जिंदा तो रहता है लेकिन देह मृत रहती है।
    आगे आपकी बात को ही कहते हुए हम आपका समर्थन करते हैं- “भाषा ऊपरी तौर पर सरल है, पर उलझी हुई प्रतीत होती है। इनके अर्थ को भेदना दुर्गम मार्ग पर चलने जैसा है।”
    संग्रह को तो पढ़कर ही जाना जा सकेगा लेकिन आपकी समीक्षा बहुत अच्छी है इसमें कोई दो मत नहीं।
    आपने बहुत हिम्मत की जो इतनी सारी कविताओं का संग्रह और उसकी समीक्षा की।आपकी हिम्मत को दाद देना पड़ेगा।
    इस परिश्रम के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया और पुरवाई का आभार।

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