Tuesday, September 17, 2024
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मनोज कुमार मनोज के गीत

1.
अब चैन क्यों मिलता नहीं मन है प्रणय की प्यास में।
लगता नहीं जियरा कहीं तेरे मिलन की आस में।।
साकेत के सौमित्र से, मन उर्मिला सा जल रहा।
सुख रूठ बैठा है प्रिये! दुख-दाह केवल फल रहा।
क्या छोड़ दोगे भाविका! मुझको इसी संत्रास में।
लगता नहीं जियरा कहीं तेरे मिलन की आस में।।
परिरंभ आतुर देह को, लेपन मिलेगा प्रीत का।
बिन प्रीत ही कट जाएगा, मौसम सुहाना शीत का।
यह मन-मदिर कैसे उड़े? सुख प्रेम के आकाश में।
लगता नहीं जियरा कहीं, तेरे मिलन की आस में।।
देखो नदी सहकर सभी, गहरे समन्दर मिल गयी।
तितली मिली जब फूल से मन-भावना से खिल गयी।
शापित अहिल्या-सा रहा, इस प्रेम के वनवास में।।
लगता नहीं जियरा कहीं तेरे मिलन की आस में।।
वह कौन-साधन बता? जिससे फलित तू हो सके।
मुझको निलय में घोलकर, मेरे हृदय में खो सके।
क्या-क्या सजाऊँ साधना बोलो प्रिये! अरदास में?
लगता नहीं जियरा कहीं तेरे मिलन की आस में।।
छूकर तुझे देखूँ प्रिये! रति से तरंगित गात से।
मैं भी मुदित हो जाऊँगा, प्रिय नेह के जलजात से।
कैसे जिया जाए प्रिये! बस प्रेम के आभास में।
लगता नहीं जियरा कहीं तेरे मिलन की आस में।।
2.
फिर निराला गीत बनकर वेदना में में छा रहे हो।
प्रीत का मौसम गुलाबी, प्राण क्यों तरसा रहे हो।।
रोम कंटक हो गये हैं, याद में देखो तुम्हारी।
देह विह्वल हो रही है, भाविका! तुम बिन हमारी।
जिस दिवस से तुम मिले हो, चाँदनी-सी रच रही है।
भावना के शान्ति-पथ में, बस प्रलय-सी मच रही है।
गीत वासंती सुनाकर, राग भैरव गा रहे हो।
प्रीत का मौसम गुलाबी, प्राण क्यों तरसा रहे हो।।
एक अनुबंधन प्रणय का, दर्द पर भारी पड़ेगा।
पीर के इस सैन्य-दल पर , साँस अंतिम तक लड़ेगा।
एक अनुरागी छुवन को, तप्त है यह मन रसीला।
प्रेम-प्रथ में आ गया है, बावरा बन-मन हठीला ।
अब दिलासा दो न कोई, बोल दो कब आ रहे हो?
प्रीत का मौसम गुलाबी, प्राण क्यों तरसा रहे हो।।
ये तड़ागों के कुसुम सब, हर कहानी कह रहे हैं।
हाय!ये भी निज प्रिया हित, धूप में नित दह रहे हैं।
प्रेम-मद में घूमती हैं सिक्त मन तितली निराली।
चूमकर मुखड़ा सुमन का, सेज उपवन की सजा ली।
जब हृदय की बात जानो क्यों भला तड़पा रहे हो?
प्रीत का मौसम गुलाबी, प्राण क्यों तरसा रहे हो।।
है प्रिये मुधु प्रेम तुमसे, तुम नहीं तो वेदना है।
अब हृदय के पास आकर, बोल दो मन अनमना है।
धडकनें समवेत स्वर में, राग गाने को विकल हैं।
यह प्रणय की मधुर-वेला नैन फिर भी क्यों सजल हैं?
शीत के ये रात लम्बी, पीर क्यों बरसा रहे हो?
प्रीत का मौसम गुलाबी, प्राण क्यों तरसा रहे हो।।
3.
तुझसे हृदय अरविंद कुसमित पल्लवित सद्भावना।
करता रहूँ तव रूप की दिन रात मैं मधु वंदना।।
याचक बनूं, साधक बनूं, गायक बनूं, बस नेह दो।
धनवान हूँ , द्युतिमान हूँ, यदि प्रेम सुरभित गेह दो।
मैं हूँ प्रिये पाषाण-सा, तू है प्रिये पारस- मना।
करता रहूँ तव रूप की, दिन-रात मैं मधु वंदना।।
मतिमान हो, रतिवान हो, तू है मदन मन की प्रिया।
हर पल निखर, यौवन प्रखर,इस देह कंचन में जिया।
अनुप्रास का चुम्बन का वरूँ, नित-नित सजाऊँ अल्पना।
करता रहूँ तव रूप की, दिन रात मैं मधु वंदना।।
सब एषणा मिटती रही, इस दृष्टि पथ जब आ गए।
जग से बनी अब दूरियाँ, नभ प्रेम में घन छा गए।
मिल जाओ अब सौगंध है, पूरी करूँ हर साधना।
करता रहूँ तव रूप की, दिन रात मैं मधु वंदना।।
किस जन्म की आराधना, किस जन्म की पावन कथा।
मन चाहता कह दूँ प्रिये! हर जन्म की पूरी व्यथा।
यदि एक आलिंगन मिले सारी समर्पित अर्चना।
करता रहूँ तव रूप की, दिन रात मैं मधु वंदना।।
रसमय अधर, रक्तिम कपोलो का निमंत्रण क्या कहें ।
रति गूँजती घट देह में, मन का नियंत्रण क्या कहें।
अभिधा लिखूँ, या लक्षणा, फूले-फले हर व्यंजना।
कराता रहूँ तव रूप की, दिन रात मैं मधु वंदना।।
4.
हमेशा घेर लेती है, मुझे यह याद की गुंजन।
बड़ा ही अनमना रहता, बताएँ आजकल यह मन।
उदय होने से पहले ही, कही हम खो नहीं जाएँ।
मनों में भाव मंजुल हैं, कहीं वे सो नहीं जाएँ।
पवित आकाश में सज्जित, उठी है प्रेम की बदरी ।
उसी में डूबकर हमने, लिखी है प्रेम में कजरी।
गहन परिरंभ में पाऊँ, अधर पर प्रीत का चुम्बन।
बड़ा ही अनमना रहता, बताएँ आजकल यह मन।।
हृदय के गाँव आ जाओ, करें कुछ नेह की बातें।
जिएँगे एक होकर फिर, नवेली प्रेम की रातें।
पुराना गीत गाकर अंक में मुझको सुनाना फिर।
तुम्हारी याद क्या आई, हुआ मौसम सुहाना फिर।
चले आओ हृदय की कोर में यह ढूंढता है मन।
बड़ा ही अनमना रहता बताएँ,आजकल यह मन।।
तुम्हारी भावना अब तो कहीं जीने नहीं देती।
विरह का ही गरल है बस, सुधा पीने नहीं देती ।
समय का सिन्धु होकर भी सदी में डूब जाता हूँ।
तपिश में सूर्य होकर भी, नदी में डूब जाता हूँ ।
मदिर अलमस्त करती है, हमें वह प्रेम की चितवन।
बड़ा ही अनमना रहता, बताएँ आजकल यह मन।।
कठिन पाषाण को तुमने तरल-सा जल बनाया है।
घृणित कालिख रहा था मैं, मुझे काजल बनाया है।
अभी भी याद आए जब, हृदय मकरंद है मेरा।
अभी भी सांध्य वेला में, हमेशा याद ने घेरा ।
चले आओ हृदय के द्वार, लेकर प्रीत का दर्पन।
बड़ा ही अनमना रहता, बताएँ आजकल यह मन।।
वचन जो भी दिए हे भाविका!पूरे निभाएँगे।
मरुस्थल है अगर जीवन, उसी में घर बनाएँगे।
नवल इस शब्द-सागर में, निराले शब्द भर देना।
प्रणय के द्वार आ फिर, साँस को मकरंद कर देना।
बुलाता है प्रिये! तन-मन, मदन के भाव का शोभन।
बड़ा ही अनमना रहता, बताएँ आजकल यह मन।।

मनोज कुमार मनोज
माता-पिता– श्रीमती सरोज सिंह व श्री धर्मपाल सिंह
जन्म एवं स्थान- 2 अगस्त, रोशनपुर डौरली , मेरठ।
संप्रति–हिंदी प्रवक्ता
लेखन विधा– गीत, सजल , गज़ल, मुक्तक , हिंदी पारंपरिक छंद। हिंदी कविता की प्रायः सभी विधाओं में सृजन।
प्रकाशित कृतियाँ–
वेदना के द्वार से (गीति-काव्य)
बस तेरे हैं मेरे गीत (गीत-संग्रह)
बाल-साहित्य–
गुनगुना रे गुनगुना
(भाग- 1,2,3)
प्रकाशन क्रम में–
जय माखन की मनमोहन की (सवैया छंद में )
श्रीमद्भगवद्गीता काव्यानुवाद।
इसके अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन से अधिक काव्य-संग्रह प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं।
सम्मान–
दुष्यंत पुरस्कार,कला विभूति सम्मान,
सरदार पटेल इन्टरनेशनल अवार्ड
गीत गौरव (न्यूयार्क) आदि सैकडों पुरस्कारों से विभूषित।
अन्य–
अनेक देश विदेश के चैनलों से काव्यपाठ एवं साक्षात्कार प्रसारित।
सम्पर्क सूत्र
मनोज कुमार मनोज
(कवि/गीतकार)
धर्म-सरोज, एच-31 मधुर विहार
पल्लवपुरम फेज़-1
मेरठ (उ.प्र.) भारत।
मो. 9837606377
वाट्सप – 9411269162
E-mail [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. बड़े और और लंबे गीत हैं आपके विप्रलंब श्रृंगार से आपूरित मनोज जी! पहले तो देख कर ही हिम्मत नहीं हुई पढ़ने की।पर पढ़ा। गीत में वियोग की पीड़ा महसूस हुई ।वियोग गीत लिखना सरल नहीं होता है इन गीतों के लिए आपको बधाई।

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