ग़ज़ल – 1
नफ़ा दिखा नहीं कि बस ज़मीर से हिला है वो,
मुझे लड़ा के ख़ुद ही दुश्मनों से जा मिला है वो।
उदासी देख ली है आज उस ने मेरे चेहरे पर,
तभी तो आज कुछ ज़ियादा ही खिला खिला है वो।
नया है खून, है नयी नयी जवानी का जुनून,
पड़ा है चाक पर, समझ रहा है इक किला है वो।
हया अदा झिझक अकड़ गुरूर गुस्सा बेरुखी,
अकेला मत समझना उसको, एक क़ाफ़िला है वो।
उसे भुलाऊं जितना उतना ही वो याद आता है,
न ख़त्म हो कभी जो, एक ऐसा सिलसिला है वो।
शजर तभी कटा है जब दगा दिया है शाख़ ने,
तभी कुल्हाड़ी चल सकी, जो साथ जा मिला है वो।
पनपता कैसे फूल वो, रहा घरों में कैद जो,
ज़मीं मिली न धूप ही, तभी तो अधखिला है वो।
ग़ज़ल – 2
उसकी थी न कोई ख़ता पर दुश्मन बताने लगे,
धरती वाले मिल आसमाँ पर पत्थर चलाने लगे।
सोचा समझा कुछ भी नहीं बस तोहमत लगाने लगे,
तुम भी यार किस आदमी की बातों में आने लगे।
जिसकी भक्ति में डूब कर पूजा था जिसे रात दिन,
उसको ही डुबोने चले और होली मनाने लगे।
आलम यूँ दशहरे का था, देखा भेष में राम के,
रावण सारे निकले घरों से पुतले जलाने लगे।
अपने एक भी ऐब की कुर्बानी नहीं दी कभी,
मिलकर बेज़ुबाँ जानवर पर आरी चलाने लगे।
था त्योहार ये रोशनी का, दीये जलाते थे हम,
किसकी है ये साजिश कहाँ से बारूद आने लगे।
क्या है बहर, क्या काफ़िया, मतला क्या है, क्या है रदीफ़,
जिनको था न कुछ भी पता, वो ग़ज़लें सुनाने लगे।
जो कहते थे कल तक कि बस दे दो एक मौका मुझे,
कुछ तारीफ़ होने लगी तो अब भाव खाने लगे।
आदरणीय आशुतोश जी!
हमें गजल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, इसलिये क्या अच्छा लगा और क्यों अच्छा लगा, बस यह लिखते चलेंगे। भावगत हम क्या सोचते हैं बस इतना ही, कलागत आप समझते ही हैं-
नफ़ा दिखा नहीं कि बस ज़मीर से हिला है वो,
मुझे लड़ा के ख़ुद ही दुश्मनों से जा मिला है वो।
वाकई आज का समय ऐसा ही है। हर शख्स लाभ को देखते हुए ईमान खो देता है।
उदासी देख ली है आज उस ने मेरे चेहरे पर,
तभी तो आज कुछ ज़ियादा ही खिला खिला है वो।
कुछ लोगों से दूसरों की खुशी देखी नहीं जाती। दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो दूसरों के दुख से ही खुश होते हैं और आजकल तो ज्यादा लोग ऐसे ही हैं। सामयिक सा शेर है।
नया है खून, है नयी नयी जवानी का जुनून,
पड़ा है चाक पर, समझ रहा है इक किला है वो।
युवावस्था का खुमार ऐसा ही होता है।
हया अदा झिझक अकड़ गुरूर गुस्सा बेरुखी,
अकेला मत समझना उसको, एक क़ाफ़िला है वो।
वाकई का काफिला ही है अगर इतने सारे चरित्र लिए हुए है।
उसे भुलाऊं जितना उतना ही वो याद आता है,
न ख़त्म हो कभी जो, एक ऐसा सिलसिला है वो।
दुनिया में कोई कोई लोग ऐसे भी होते हैं।
जिन्हें हम भूलना चाहे वह अक्सर याद आते हैं टाइप।
शजर तभी कटा है जब दगा दिया है शाख़ ने,
तभी कुल्हाड़ी चल सकी, जो साथ जा मिला है वो।
ऐसा भी होता है कभी-कभी। आजकल तो हमेशा ही भी कह सकते हैं। अपने ही लोग अपनी जड़ काटते हैं
पनपता कैसे फूल वो, रहा घरों में कैद जो,
ज़मीं मिली न धूप ही, तभी तो अधखिला है वो।
बड़ा गहरा सा अर्थ है इसका। बहुत मार्मिक लगा कुछ ऐसी शख्सियत याद आईं जिनके लिए ना धरती में जगह थी ना ही आसमान उनका था
पौधा कोई भी हो अपनी धरती पर ही बना पाता है पर आसमान भी उसकी जरूरत होती है
सार्थक गजल है आपकी यह।
ग़ज़ल – 2
उसकी थी न कोई ख़ता पर दुश्मन बताने लगे,
धरती वाले मिल आसमाँ पर पत्थर चलाने लगे।
स्वार्थ जब से सर चढ़ता है ईमान साथ छोड़ देता है बिना गलती के भी दोष नजर आने लगते हैं और सजा दे दी जाती है।
सोचा समझा कुछ भी नहीं बस तोहमत लगाने लगे,
तुम भी यार किस आदमी की बातों में आने लगे।
यह विचार करने वाली बात है।
जिसकी भक्ति में डूब कर पूजा था जिसे रात दिन,
उसको ही डुबोने चले और होली मनाने लगे।
इस शेर का भाव हम नहीं समझ पाए लेकिन हांँ! पढ़ते हुए हमें मूर्तियों की विसर्जन का दृश्य घूम गया।
आलम यूँ दशहरे का था, देखा भेष में राम के,
रावण सारे निकले घरों से पुतले जलाने लगे।
आज का समय ऐसा ही है।साधु की वेश में ही तक नजर आते हैं सब।
अपने एक भी ऐब की कुर्बानी नहीं दी कभी,
मिलकर बेज़ुबाँ जानवर पर आरी चलाने लगे।
अपनी ओर कोई देखता ही कहाँ है? कुर्बानी के लिए हमेशा दूसरे का ही गला दिखाई देता है।
था त्योहार ये रोशनी का, दीये जलाते थे हम,
किसकी है ये साजिश कहाँ से बारूद आने लगे।
यह विचारणीय बात है।
क्या है बहर, क्या काफ़िया, मतला क्या है, क्या है रदीफ़,
जिनको था न कुछ भी पता, वो ग़ज़लें सुनाने लगे।
इस बात पर तो सिर्फ हँसा ही जा सकता है!
जो कहते थे कल तक कि बस दे दो एक मौका मुझे,
कुछ तारीफ़ होने लगी तो अब भाव खाने लगे।
ऐसा ही होता है।
दोनों ही गजलें बेहतरीन है बहुत-बहुत बधाई आपको।
नमस्ते आदरणीय नीलिमा जी,
आपने समय निकालकर प्रत्येक शे’र को पढ़ा एवं अपनी भावनायें व्यक्त कीं – इसके लिए साधुवाद।
उत्साहवर्धन एवं ग़ज़लों को सराहने हेतु आत्मिक आभार।