कैलाश की अविस्मरणीय आध्यात्मिक यात्रा
मेरा नाम शांभवी शंभु है और मेरा जन्म भारत के उत्तरी हिस्से में हुआ। मैं वर्ष 2004 में यूके चली आई। मेरे परिवार में भगवान शिव को हमेशा हमारे कुल देवता के रूप में पूजा जाता रहा है, और एक दिलचस्प संयोग यह है कि मेरे पिता का नाम भी कैलाश है। मेरे पूरे जीवन में, मैंने अपने विश्वास को अपने मार्गदर्शन का आधार बनाया है। पिछले साल मेरे दोनों बच्चों का, जिन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ थीं, एक महीने के अंतराल में निधन हो गया। इस अपार क्षति ने मेरी आध्यात्मिक शक्ति को और प्रगाढ़ किया।
2019 में, मेरी मुलाकात मेरे गुरु, स्वामी सद्गुरु शरवना बाबाजी से हुई, जिन्होंने मेरी आध्यात्मिक यात्रा में मुझे मार्गदर्शन दिया। कुछ साल पहले स्वामीजी ने मुझसे कहा था कि मैं एक दिन कैलाश पर्वत की यात्रा करूंगी, लेकिन मुझे उस समय नहीं पता था कि यह भविष्यवाणी कब सच होगी।
5 मई 2024 को मुझे मोहनजी के साथ कैलाश की यात्रा का एक विज्ञापन मिला। मोहनजी फाउंडेशन कई सालों से आध्यात्मिक यात्रियों के लिए कैलाश यात्रा आयोजित कर रही है, और इसका हिस्सा बनना मेरे लिए एक अत्यंत आशीर्वाद व गौरव का अनुभव था। जैसे ही मैंने इस अवसर को देखा, मुझे महसूस हुआ कि यह वही समय था जिसकी भविष्यवाणी स्वामी जी ने की थी। बिना किसी संकोच के, मैंने अपनी जगह सुरक्षित कर ली। मोहनजी की शिक्षाओं और उनके मार्गदर्शन ने मेरी आध्यात्मिक यात्रा पर गहरा प्रभाव डाला है।
तैयारी के लिए, मैंने रोजाना पैदल चलने की शुरुआत की – पहले 1 किलोमीटर, फिर धीरे-धीरे इसे 15 किलोमीटर तक बढ़ाया। इस दौरान, मैंने अपनी सांसों पर ध्यान केंद्रित किया, हर सांस के साथ “ओम ह्रीं नमः शिवाय” मंत्र का जाप किया। यह साधारण अभ्यास धीरे-धीरे एक ध्यानपूर्ण चाल में बदल गया, जो सहज रूप से उभर आया। हर कदम के साथ, नई अनुभूतियाँ मेरे भीतर जाग्रत होती रहीं, और मुझे महसूस हुआ कि मैं बाहर से भीतर की यात्रा पर निकल चुकी हूँ।
जैसे-जैसे प्रस्थान की तारीख पास आई, मैं लंदन से दिल्ली होते हुए काठमांडू के लिए रवाना हुई और 11 अगस्त की सुबह काठमांडू पहुंची। अगले चार दिन मोहनजी के दिव्य सानिध्य में बीते, जहां मैंने अपने शरीर और आत्मा को आगामी यात्रा के लिए तैयार किया।
15 अगस्त को हमने कैलाश की ओर अपनी यात्रा शुरू की। हमारी पहली रात नेपाल-तिब्बत सीमा पर बसे रसुवागढ़ी नामक कस्बे में बीती। अगले दिन, हम चीन में प्रवेश कर गए, जहां हमें सीमा पार करने में घंटों का समय लगा। लेकिन जैसे ही हम पार गए, मुझे प्राकृतिक सौंदर्य ने मंत्रमुग्ध कर दिया-हरी-भरी पहाड़ियाँ, झरते हुए झरने और गहरी घाटियाँ। हमने केरुंग नामक कस्बे में रात बिताई, जो समुद्र तल से 2,800 मीटर की ऊँचाई पर है। यहाँ की ऊर्जा सघन और लगभग महसूस की जा सकने वाली थी, लेकिन एक स्तूप के पास मुझे शांति का अप्रतीम अहसास हुआ। मैंने वहाँ बौद्ध भिक्षुओं के साथ समय बिताया, जो मेरी यात्रा के बारे में जानने के लिए बेहद उत्सुक थे। भले ही उनकी अंग्रेजी सीमित थी, हमने एक-दूसरे से संवाद किया, हंसी-मजाक किया, और एक जुड़ाव महसूस किया। उन्होंने उदारता से मुझे 5 खजूर प्रसाद के रूप में दिए।
अगली सुबह हम सागा की ओर बढ़े, जो 4,800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते, मुझे पहली बार सांस लेने में कठिनाई और सीने में जकड़न महसूस हुई। सागा में रहते हुए, मुझे एक नकारात्मक ऊर्जा का सामना करना पड़ा, जिसने मेरे स्वास्थ्य पर असर डाला। शुरुआत में मैं ठीक थी, बस मेरी नाक बंद थी, इसलिए मैंने अपनी दोस्त लक्ष्मी से कहा, “चलो नाक स्प्रे लेने फार्मेसी चलते हैं।” लौटते वक्त, अचानक मुझे बेचैनी महसूस हुई, और मैं सीधे होटल की ओर भागी।
मुझे लगातार उल्टियाँ होने लगीं, लेकिन उसी समय मैंने अपने स्वामी की उपस्थिति को गहराई से महसूस किया। उनकी आवाज़ मेरे मन में आई, “मेरी शॉल को अपने सीने से लगाए रखना।” मुझे लगा, वहां कुछ नकारात्मक ऊर्जा ने मुझ पर हमला किया था, लेकिन भगवान और गुरु की कृपा से, मैं उस कठिनाई में भी सुरक्षित रही।
सागा की वह रात बेहद कठिन थी-रात 2 बजे तक मेरी उल्टियाँ जारी रहीं, और सोने के हर प्रयास के साथ मैं हांफते हुए जाग जाती थी। आखिरकार, सुबह 4 बजे कुछ घंटों की नींद नसीब हुई। चौथा दिन आराम करने और हल्की सैर में बीता, लेकिन उस रात सांस लेने में दिक्कत और पेट दर्द की चुनौतियां फिर लौट आईं।
इन तमाम संघर्षों के बावजूद, मेरा मानसरोवर झील तक पहुंचने का उत्साह कम नहीं हुआ। जब झील के दर्शन हुए, तो बीती रातों की सारी कठिनाइयां जैसे मिट गईं। इस दिव्य झील की सुंदरता अविस्मरणीय थी। इस दिव्य स्थान की सुंदरता ने मेरे मन को शांति और गहरा आनंद प्रदान किया। हमने पांचवीं रात मानसरोवर में बिताई, जहां की ऊंचाई सागा से थोड़ी ही अधिक थी, जिसके लिए मेरा शरीर धीरे-धीरे अभ्यस्त हो गया था।
छठे दिन। मैंने एक यज्ञ में भाग लिया, और यह अनुभव रहस्यमय रूप से दिव्य था। मैंने फिर से अपने स्वामी की उपस्थिति को महसूस किया, जैसे वह मुझे कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटियों पर ले गए हों। वहाँ, मैंने खुद को तीन घंटे तक गहरे ध्यान में पाया, जहां मैंने परमात्मा के साथ अपने संबंध को और गहराई से अनुभव किया। यज्ञ के बाद, मैंने मानसरोवर छोड़ दिया और कैलाश परिक्रमा के लिए दारचेन के आधार शिविर की यात्रा की। उस रात, मैं दारचेन के एक आरामदायक होटल में रुकी
सातवें दिन मेरी कैलाश परिक्रमा की यात्रा यम द्वार से शुरू हुई, जो प्रतीकात्मक रूप से वह जगह है जहां तीर्थयात्री अपने पुराने जीवन की आदतों को पीछे छोड़ते हैं। यम द्वार पर, मैंने अपना मन पीछे छोड़ दिया। मुझे पता था यह प्रतीकात्मक है, लेकिन यही मेरी सच्ची इच्छा थी। उस दिन मैंने लगभग 10 किलोमीटर की यात्रा की। रास्ता बेहद खूबसूरत था, शांत पहाड़ियाँ और बलखाती, शोर मचाती, अलहड़ नदियाँ, और फिर अचानक कैलाश पर्वत सामने था। उसे प्रत्यक्ष रूप से देखना मेरे लिए दिल को छू लेने वाला अनुभव था। ऐसा लगा कि यही वह स्थान है, जहां मैं हमेशा से रहना चाहती थी। मेरी आँखों से आँसू बह निकले। मैंने डिरापुक के एक शयनगृह में रात बिताई, जहाँ से कैलाश का अद्भुत दृश्य दिखाई देता था। उस रात, मैं बिल्कुल सो नहीं सकी। बस बाहर बैठी, पूर्णिमा के चाँद की रोशनी में कैलाश पर्वत को निहारती रही। ऐसा लगा मानो कैलाश मेरे साथा जागकर मेरी संगत कर रहे हों।
आठवां दिन। उस दिन का रास्ता बेहद कठिन था, क्योंकि मुझे डोल्मा-ला-दर्रे तक पहुँचने के लिए 22 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई करनी थी। जब मैं शीर्ष पर पहुँची, तो गौरी कुंड के दर्शन हुए, वह पवित्र कुंड जहाँ माँ पार्वती स्नान करती थीं। यात्रा की शुरुआत से ही मेरी इच्छा गौरी कुंड तक पहुँचने की थी। हालांकि मुझे लगा कि यह यात्रा मेरी शारीरिक क्षमता से कहीं ज्यादा है, मुझे पूरा विश्वास था कि देवी माँ मुझे मार्ग दिखाएंगी। इस मार्ग में डोल्मा-ला-दर्रे से 200 मीटर की खड़ी और पथरीली सीढ़ियाँ उतरनी थीं, मुझे न केवल वहाँ पहुँचना बल्कि वापस लौटना भी बहुत मुश्किल लग रहा था। मेरा पोर्टर मेरे साथ जाने से हिचकिचा रहा था, लेकिन जब उसने मेरे दृढ़ संकल्प को देखा, तो उसने मेरी मदद करने का निर्णय लिया और मुझे सभी आवश्यक सहायतायें उपलब्ध कराईं।
गौरी कुंड जाने की प्रेरणा मुझे इसलिए मिली क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी सबसे प्रिय वस्तुएं देवी माँ को भेंट के रूप में वहां छोड़ सकता है। मेरे लिए मेरे बच्चे सबसे अनमोल थे, उनकी तस्वीरें मैंने झील पर रखकर उन्हें, माँ की गोद में समर्पित कर दिया। उनके निधन के बाद, मैंने कभी खुलकर शोक नहीं किया था, लेकिन गौरी कुंड पर यह क्षण मेरे लिए कठिन भी था और राहत देने वाला भी। मैं माँ के निवास पर अपने बच्चों के लिए और स्वयं को स्वीकार करने के लिए माँ की प्रार्थना करते हुए बहुत रोई। जब मैं बर्फीले पानी के पास खड़ी थी, तो मैनें अपने दिल में दर्द को सिमट कर समाप्त होता महसूस किया। वापस चढ़ते समय 5800 मीटर की ऊंचाई के कारण मेरी सांसें थम गई थीं।
उसी समय, एक आदमी अचानक मेरे पोर्टर के पास आया और उसने मेरे लिए ऑक्सीजन सिलेन्डर दिया। लेकिन जब तक मैं उसे धन्यवाद कह पाती, वह गायब हो गया। उस क्षण मुझे लगा, जैसे भगवान शिव स्वयं अपनी बेटी शांभवी की मदद करने आए थे। दूसरे दिन की कठिन यात्रा पूरी करने की संतुष्टि के साथ, मैं ज़ुटुल्फुक पहुंची और वहीं रात बिताई।
नौवां दिन आसान था, लगभग 10 किलोमीटर की यात्रा थी। इसके बाद, मैंने परिक्रमा पूरी करने के लिए दारचेन लौटने के लिए बस ली।
काठमांडू लौटने का रास्ता आसान नहीं था। जगह-जगह भूस्खलन हो रहे थे, चीन की सीमा बंद थी, और पूरे दिन मुझे खाना भी नहीं मिला। मेरी हेलीकॉप्टर यात्रा भी छूट गई, लेकिन इन सभी चुनौतियों के बावजूद, मेरे अंदर एक गहरी शांति थी। आखिरकार, रात भर की बस यात्रा के बाद, 26 अगस्त को मैं काठमांडू वापस पहुंच गई, ताकि अपने घर जाने के लिए फ्लाइट पकड़ सकूं।
अब, मैं अपनी सबसे अविश्वसनीय यात्रा से लौट आई हूँ। इसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन अगर मुझे इसका सार देना हो, तो मैं कहूंगी कि कैलाश ने मुझे यह सिखाया कि जीवन के तूफानों के बीच शांत कैसे रहा जाए। यही कैलाश की शिक्षा थी।
A very well narrated article about Kailash yatra. The personal experience add a relatable and emotional layer to the journey, making it both informative and inspiring for readers.