Thursday, September 19, 2024
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डॉ जया आनंद का संस्मरण – अपनत्व से भरी हिंदी

हिन्दी भाषा एक ऐसी भाषा है जो मिठास से रची पगी है और यही मिठास सबको अपनत्व की डोर से बाँध लेती है। 
मैं लखनऊ की रहने वाली जहां की उर्दू मिश्रित हिन्दी मिश्री सी ही लगती है यानी अपनी नज़ाकत और नफ़ासत के साथ वक्ता के व्यक्तित्व को  सहज ही  आकर्षण का केंद्र बना देती है।
…..बात उनदिनों की है जब मैं विवाह के उपरांत उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सीधे गुजरात के शहर बड़ोदरा पहुंच गयी। बड़ोदरा एक प्यारा सा शहर, जलेबी, फाफड़े, उनधियों, ढोकलो का शहर। वहां की सभी दुकानें, रेस्टोरेंट के नाम गुजराती में लिखे थे। मुझे लगा कि यहाँ लोग हिन्दी समझते होंगे या नहीं या हिन्दी के प्रति उनका अनुराग होगा! …पर वहाँ दूसरे ही दिन घर की सहायिका ने अच्छी खासी हिन्दी में बात की तो मुझे बहुत खुशी हुई। “नैना बाई तुम इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेती हो …क्या उत्तर -प्रदेश की हो?” मैंने उससे पूछा 
“नहीं भाभी…मैं तो यहीं की रहने  वालीं हूं …और हिन्दी तो  हमारी अपनी ही भाषा है, बापू गांधी भी तो यही कहते थे।”  मैं उसके उत्तर को सुनकर अवाक थी, हिन्दी के प्रति उसका स्नेह भाव विह्वल करने वाला था। हम दोनों को हिन्दी भाषा जोड़ रही थी। वहां अन्य लोग भी धाराप्रवाह  हिन्दी बोलते। आपस में तो वे गुजराती में बात करते पर जब मैं उनसे हिन्दी बोलते हुए कुछ सामान मांगती या ऑटो वाले से कहती तो वे हिन्दी में ही उत्तर देते। 
अब  बारी  मेरी थी कि हिन्दी की सहोदरी भाषा यानी गुजराती को सीखा जाये। मैंने दुकानों पर लगे बोर्ड पढ़ना शुरू किया, नीचे अंग्रेजी या हिन्दी अनुवाद के  द्वारा  अर्थ समझ आने लगा। अनेक गुजराती गीत सीखे और फिर गांधी आश्रम जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। गांधी जी की अपनी आवाज में उनके भाषण की रिकॉर्डिंग सुनी। उनके भाषणों में हिन्दी का प्रेम सुवासित हो रहा था। हिन्दी के स्नेह की डोर से गुजरात का हरेक व्यक्तित्व आबद्ध था। उन  गुजरातियों के मध्य कहीं भी परायापन नहीं महसूस हुआ। ये अपनापन मुझे हिन्दी भाषा के द्वारा प्राप्त हुआ।    
वडोदरा में मैं गुजराती सीख ही रही थी कि मेरे पति के स्थानांतरण के कारण मुझे चेन्नई जाने का अवसर मिला यानी पुनः एक नए प्रांत में…।
चेन्नई तमिलनाडु की राजधानी, यहां के सबसे मुख्य इलाके ‘टी नगर’ जिसे चेन्नई का हृदय भी कहते हैं, वहाँ एक सोसाइटी में हम सपरिवार रहने लगे। तमिलनाडु के विषय में तो बहुत प्रचलित था कि यहां के लोग हिन्दी से दूर ही रहते हैं और हिंदी का बहुत विरोध भी करते हैं। यहां के आसपास के लोग या तो तमिल में बात करते थे या फिर अंग्रेजी में। काम वाली बाई तो न हिंदी और न  ही अंग्रेजी  समझती तो उससे इशारों में बात समझाना पड़ता।
क्या सचमुच तमिलनाडु में हिंदी से स्नेह करने वाला कोई नहीं….! मन में आशंकाएं जन्म लेने लगी थीं, कहीं मन का एक कोना उदासियों से घिर रहा था पर शाम को ही जैसे उदासियों के बादल को चीर कर चाँद निकल आया। पति देव ने ऑफिस से आते ही ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ के विषय मे बताया। “ये है कहाँ” मैंने उत्सुकता से पूछा। 
“अरे ! बहुत पास, हमारी सोसाइटी से निकलते ही चौराहे के दांयीं ओर, मुश्किल से पांच मिनट का रास्ता.. “पति देव मुस्कुराते हुए बोले। मेरी खुशी मेरे पूरे चेहरे से छलक रही थी।     
दूसरे ही दिन मैं पांच मिनट का रास्ता तय कर के ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्राचार सभा’ के परिसर में प्रवेश कर गयी। विशाल परिसर हरीतिमा से आच्छादित था। नारियल के लंबे-लंबे वृक्ष, पीपल के विशाल वृक्ष, सुव्यवस्थित ढंग से कटी हुई झाड़ियों से घिरा बगीचा और अपूर्व शांति। संपूर्ण वातावरण मन को विश्रांति दे रहा था। वहाँ की इमारत लाल रंग की दीवारों और सफेद रंग के किनारों से सुसज्जित थीं। उसके अंदर प्रवेश करते ही गांधी जी की बड़ी सी पेंटिंग एक दीवार पर बनी थी। मैंने गांधी जी की पेंटिंग के आगे नमन किया और स्वागत काउंटर पर बैठे महानुभाव को अपना परिचय देते हुए हिन्दी प्रचार सभा के निदेशक के कक्ष का रुख़ किया। वहां के निदेशक तमिल भाषी थे, किंतु वे धारा प्रवाह हिन्दी बोल रहे थे। मैंने अपना परिचय दिया कि मैं भी हिन्दी से पीएचडी हूं और उत्तर प्रदेश लखनऊ से हूं; तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा हिन्दी तो सबको जोड़ देती है। वहाँ की एक प्रोफेसर डॉ वैजयंती जी से भी परिचय हुआ, वे भी तमिल भाषी थीं पर बहुत ही शुद्ध और प्रवाह पूर्ण हिन्दी मे बोल रही थीं। उनकी हिन्दी सुनकर तमिलनाडु में हिन्दी विरोध की बात सिरे से खारिज होती हुई मुझे महसूस हुई। उत्तर-प्रदेश और तमिलनाडु आज हिन्दी के माध्यम से जुड़ गए थे। इस जुड़ाव को और भी प्रगाढ़ करने के लिए मैंने उनसे हिन्दी प्रचार सभा में अपनी सेवाएं देने की बात कही। उन्होंने बड़ी ही आत्मीयता से मुझे एक सप्ताह के बाद फ़ोन पर सूचित करने का आश्वासन दिया। 
    
बहुत व्यग्रता के साथ मैंने एक सप्ताह तक प्रतीक्षा की और फिर प्रतीक्षा सार्थक सिद्घ हुई। ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा से फ़ोन आया कि मुझे हिन्दी दूरस्थ परास्नातक (एमए) की कक्षाओं से संबंधित अंशकालिक सेवाएं देने का अवसर मिल गया है। विद्यार्थी से शिक्षक बनने का यह मेरा पहला अनुभव था। हिन्दी मुझे वो सब दे रही थी जिसका मैं सपना देखती थी।  
       
अगले दिन साड़ी पहनकर, मैं हिन्दी प्रचार सभा पहुंची। निदेशक जी से मिलकर उन्हें धन्यवाद दिया और अपने कार्य स्थल की ओर चल पड़ी। सर्वत्र हिन्दी ही हिन्दी प्रवहमान थी। हिन्दी के प्रति उनका नेह देख कर मन अपूर्व आनंद से भर रहा था।  वहां का सुन्दर विशाल पुस्तकालय देख कर खुशी और भी दुगुनी हो गयी। मैंने अविलम्ब वहां की सदस्यता ग्रहण की और दो पुस्तकें पढ़ने के लिए घर ले आयी । 
   
‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ के निदेशक, प्रोफेसर, विद्यार्थी, कर्मचारी सभी तमिल भाषी थे पर हिन्दी धारा प्रवाह बोलते थे। उनके हिन्दी प्रेम को देख कर मेरे मन मे तमिल भाषा को सीखने की इच्छा जागृत हुई। अपनी भारतीय भाषाओं को सीखने से आपसी, भाषाई प्रेम में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। तमिल की गिनती, उसकी वर्णमाला सीखने के लिए मैंने अपनी कामवाली बाई की बेटी  को गुरु  बना लिया, जो कि तमिल के साथ थोड़ी हिन्दी और थोड़ी अंग्रेजी भाषा भी जानती थी। एक से दस तक कि गिनती जैसे उन्न, रेंड, मून, नाल, अंच, आर …..,, तमिल के रोज़मर्रा के अनेक शब्द सीखे जैसे दूध को पाल, दरवाजा को मुक, बच्चे को पापा, कान को काद, थाली को थट्ट आदि। 
     
मैं हिन्दी प्रचार सभा जा कर अपना तमिल ज्ञान उन्हें बताती, वहाँ सभी लोग बहुत प्रसन्न हो जाते। वास्तव मे हिन्दी हम सब के मध्य सेतु का काम कर रही थी। हिन्दी अपनी छोटी बहनों को सदैव साथ ले कर चलती आयी है। अहिंदीभाषी प्रांतों में रहते हुए निश्चय ही हम हिन्दी भाषियों को वहाँ की भाषा अवश्य सीखने का प्रयास करना चाहिए और शिक्षा नीति के अंतर्गत हिदी भाषी राज्यों में एक क्षेत्रीय भाषा सीखना अनिवार्य करना चाहिए। इससे हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बीच माधुर्य पनपेगा। 
         
थोड़े ही समय पाश्चात, पुनः हमारा स्थानांतरण एक और अहिंदीभाषी प्रांत में हो गया। उसकी गाथा फिर कभी…। यों दक्षिण भाषा हिन्दी प्रचार सभा में कुछ  महिनों  के लिए अपनी सेवाएं देना अत्यंत सुखद रहा। वहाँ के निदेशक जी ने कहा कि, आपका महात्मा गांधी  के प्रति कोई ऋण होगा, इसलिए आपको यह सौभाग्य मिला कि आप यहां कार्य कर सकीं। 
       
निश्चय ही  हिन्दी भाषा के स्नेह और अपनत्व से सभी बिंध जाते हैं। हिन्दी भाषा सभी भाषाओं के साथ सामंजस्य बिठाती हुई सबको जोड़ती चलती है। हिन्दी ने ही मुझे गुजरात और तमिलनाडु जैसे अहिंदीभाषी प्रांतों में आत्मीय क्षण दिए। हमारी  हिन्दी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। हिन्दी भारत माँ के माथे की बिंदी है। भारत माँ का मस्तक इस हिन्दी की बिंदी से सदैव जगमगाता रहे यही शुभेच्छा है। 
डॉ जया आनंद
व्याख्याता (मुंबई)
स्वतंत्र लेखन 
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2 टिप्पणी

  1. अच्छा संस्मरण है जया जी आपका और वाकई आपके अनुभव काफी कीमती हैं। साउथ के लिए तो विशेष तौर से यह बात कही जाती है कि वहाँ के लोग हिंदी नहीं जानते। पर आपके संस्मरण ने इसे गलत साबित किया।
    वैसे तो अन्य सभी प्रान्तों की भाषा थोड़ी न थोड़ी समझ में आ ही जाती हैं लेकिन साउथ की चारों भाषाएँ ऐसी हैं, जिन्हें समझना सहज नहीं।

    इसमें कोई दो मत नहीं की हिंदी ऐसी भाषा है जो सबको जोड़ती है इसमें अपनापन है, प्यार है, यह सबको अपने में समाहित करती चलती है।
    जीवन की इस मीठी याद के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

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