Sunday, September 8, 2024
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लता तेजेश्वर रेणुका का संस्मरण – जादुई चिराग़

जब भी मेरा बचपन मुझे याद आता है, याद आती है वह केरोसिन की डिब्बी जिसके सामने बैठकर हम तीनों बहनें पढ़ाई करती थीं। वह दिन थे 1972 के। मेरे जन्म के चार साल बाद की बात है। उस समय पिताजी गोलोती शम्भूमुर्ती आचारी, ओड़िसा के गंजाम जिल्ले के ‘गुम्मा’ गाँव में सिविल इंजीनियर थे। तब उनकी महीने की सैलरी मात्र 200 रुपये थी। सिविल इंजीनियर होने की वजह से उनका ऐसी जगह पर ट्रांसफर होता था जहाँ स्कूल और सड़कें नहीं होते थे। स्कूल और सड़क निर्माणों में उनका पूरा योगदान रहता था। ग्रामीणों की समस्याएँ उनका समाधान और गरीबों को उनकी अच्छी जिंदगी के लिए सिलाई मशीनें, बच्चों को मुफ़्त की पढ़ाई और अन्य किस्म की मदद सरकार की ओर से पहुँचाई जाती थी। मेरे पिताजी की जिम्मेदारी ऐसी ही कुछ थी जो छोटे-छोटे गाँवों से ही शुरू होती थी। 
   तब गाँवों की उन तंग गालियों में हमारा राज था। पिताजी ब्लॉक ऑफिस सँभालते थे। उन दिनों सरकारी नौकरी करना मतलब बहुत बड़े अफसरों में गिनती होती थी। इज़्ज़त और नाम पिताजी के कदम छूते थे। मेरे पिताजी की गरीबों की प्रति ईमानदारी को देखते वहाँ के लोग कभी मुर्गी तो कभी खेत से सब्जियाँ ले आते थे। मना करने के बावज़ूद वे दरवाजे पर रखकर चले जाते थे। कोई घर के आँगन में पानी भर देता तो कोई बगीचे की देखभाल कर देता। ये उनका प्यार था जिसे मना करके उनका अपमान नहीं किया जा सकता था। लेकिन पिताजी किसी न किसी रूप से उनकी मदद कर देते थे। चाहे उनके बच्चों को स्कूल में नाम लिखवाना हो या पुस्तकें आदि खरीदना हो, तो पिताजी पुस्तकें कलम आदि का इंतजाम कर देते। गाँववाले गरीब थे, तो क्या हुआ, दिल से धनी थे। इन गाँव वालों का प्यार देख पिताजी की उनके प्रति ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती थी। 
    महीना पूरा होते ही पिताजी को सैलेरी के 200 रुपये मिलते थे। उसी में से दादाजी के हाथ कुछ पैसे देने के बाद बाकी के पैसों में दादा, दादी, माँ, पिताजी, हम छह भाई बहनों की परवरिश होती थी। पहले तीन बेटियों के बाद बेटा फिर एक बेटी और सबसे छोटा जिसका नाम श्रीनू है। हम सबकी पढ़ाई के साथ गुज़ारा किस तरह माँ सँभाल लेती थी यह समझना आलादीन के चिराग़ का रहस्य बूझने जैसी पहेली थी। उन दिनों दादाजी स्कूल के टीचर थे। दादाजी को कहते सुना था कि, तब सोने का मूल्य सिर्फ 20 रुपये थे। मेरी दादी घरेलू औरत थीं और हर समय घूँघट में रहतीं थी। उन दिनों जेठ और ससुर से परदा करने का रिवाज़ था। ओड़िसा में बहुत जगह आज भी घूँघट का रिवाज़ चलन में है।                                                     
      ओड़िसा के गंजाम जिल्ले का एक छोटा सा गाँव था ‘गुम्मा’। आज भी है। लेकिन तब बहुत कम लोगों की बस्ती होने से शहर में उसका नाम प्रख्यात नहीं था। आज के दिनों में भी बहुत लोग इस गाँव का नाम कभी सुना भी नहीं होंगा। छोटा था तो क्या हुआ, प्रकृति का भरपूर खज़ाना समाया है इस गाँव के इर्द-गिर्द। गाँव में ब्लॉक ऑफिस होना अपने आप में गौरव की बात थी। उस समय घरों में बड़े-बड़े कमरे हुआ करते थे। बाग-बगीचे के लिए खुली जगह भी हुआ करती थी जो कि आज शहरों में देखने को नहीं मिलती। 
     ब्लॉक ऑफिस के सरकारी घरों के बड़े-बड़े आँगन, ऊँची-ऊँची छत जो छप्पर  की या तो सीमेंट की प्लेटों को एक दूसरे के साथ जोड़-जोड़ कर बनाये हुई होती थी। जिसकी धार सीधी न होकर घुमाऊ हुआ करती थी, जिस पर से बारिश का पानी आसानी से नीचे गिर जाए। जब पानी की किल्लत होती थी तब इन धार से पानी के नीचे बाल्टी या बर्तन रख दिया करते थे; जिसके भरने के उपरांत किसी कुंडी (सीमेंट के बने बड़े-बड़े पानी के घड़े, जो चौकोना होते थे।) में भर दिया जाता था। उसके अलावा गाँव के बहुत से मकान टिन और सूखे घास के भी होते थे।                   
     मिट्टी के लेप वाले बाँस की दीवारों से बने छोटे-छोटे घर का हर आँगन गोबर से लिपा-पुता रहता था। इन दीवारों पर चूना या चावल के आटे के घोल से बने सफेद पानी से रंगबिरंगे फूल-पत्तियों से सजावट और प्रकृति के सुंदर चित्र बनाए जाते थे। उससे पहले दीवारों और आँगन को गाय के गोबर से लीपा जाता था जो पहले हरे रंग में और सूखने के बाद भूरे रंग में दिखता था। उस पर फूल-पत्ते, डालियों और पशु-पंखियों के चित्र अंकित कर घर की सुंदरता में चार चाँद लगा ते थे। इसका सारा श्रेय उन घरेलू महिलाओं को था जो बाँस की छोटी-छोटी परत से घास की कुटिया की  दीवार में इस्तेमाल होने वाले पट्टी, टोकरी से लेकर साल भर का धान रखने के लिए बड़ी-बड़ी ओटी तक बना देती थीं ।
हमारी दादी की बात करूँ तो वह बहुत ही प्यारी थीं। दुबली-पतली, हल्के से भूरे रंग की, माथे तक के घूँघट पहने रहतीं थीं। वे हम सब की जादुई चिराग़ थीं। हम बहिनों या भाइयों को कोई भी चीज़ किसी भी वक्त चाहिए हो तो दादी हमेशा हाज़िर रहती थीं। हमारी  सभी ज़रूरतों पर ज़्यादा ध्यान दिया करती थीं। हम 6 बच्चे होने से माँ के खाना पकाने और अन्य कामों में व्यस्त समय में, हमें उन्होंने ही सँभाला है। शिक्षक की बीवी होने के नाते उनकी अपनी मर्यादा भी बनी हुई थी। स्कूल के बच्चे उन्हें बहुत मानते थे। 
     तब वहाँ गाँव की नारियाँ अनपढ़ जरूर थीं और अजीब लगती थीं। इन के लिए ऐसा कुछ भी नामुकिन जैसा काम ही नहीं थी। ये नारियाँ आज भी हैं, लेकिन भिन्न रूप में दिखतीं हैं। श्याम सौंदर्य को अपने में समेट कर लचकती चलने वाली यह नारियाँ अब कहीं नहीं दिखतीं। नाक में बड़े-बड़े नत्थू(नत्थन) पहनतीं थीं और हाथ में रंग-बिरंगी भरी-भरी चूड़ियाँ। पैरों में मोटे-मोटे खड़ू (हाथ में पहनने वाले कड़ा से भी ज्यादा मोटे और भारी चाँदी से बने होते थे) पहनतीं थीं। लगता है जैसे दुनिया में इनकी खनक कहीं गायब हो गई है। आधी साड़ी को घुटनों तक शरीर पर लपेटे, एक कपड़े की थैली में अपने बच्चे को लटका कर बड़े-बड़े कदमों से चलती थीं।
     ये वे स्त्रियाँ थीं जो घर के आँगन को ही अपना सर्वस्व मानती थीं; और सुबह उठकर जंगल से काठ अपने सिर पर लादे ले आती थीं। कहाँ हैं अब वह नारियाँ, जिन्हें स्त्री कहा जाता था। शायद वे दुनिया के किसी अन्य छोर में जा बस गईं हैं। क्योंकि उनका अब इस दुनिया से कोई वास्ता नहीं है। इन्हें आज की नारी अजब-गजब लगती होंगी। 
      इन दिनों वे सब गायब हैं या यूँ कहूँ आधुनिकता की होड़ में अपना सौंदर्य खो चुकी हैं। काले सौंदर्य पर सफेदी पोतकर होंठो पर नकली लाली और चेहरे पर लीपा-पोती कर अपने सहज कोमल चेहरों पर रंगों की एक कठोर परत डाल ख़ुद को प्रकृति से  छुपाने की जद्दोजहद में हैं। जैसे पहले अपने लकड़ी के घरों को गोबर से पोत कर रंगीन रंगों से नक्शे बनाकर सुंदर बनाने की कोशिश थी। आज के शहरों में आधुनिकता की होड़ में या यूँ कहूँ आज के बाज़ारीकरण ने इनके प्राकृतिक सौंदर्य को छीन लिया है, जीवन के असली सौंदर्य से ज्यादा नकली सौंदर्य को प्रदर्शन के लिए झोल बनाया जा रहा है। 
 हमारे ब्लॉक कॉलोनी से कुछ ही दूरी पर था मुख्य रास्ता। जिस रास्ते पर यह बाज़ार बैठता था। जिसे ओड़िआ भाषा में ‘हाट’ कहा जाता है। उन पगडंडियों पर हमारे उन दिनों की यादें और हमारे कदमों के निशान अब भी बसे हुए हैं। जैसे हमारे दिलों को उस गाँव ने बाँध रखा है। उस मिट्टी की सुंगध और गोधूली में चलती गायों के पैरों के शोर में भी एक धमक थी। कभी-कभी गौओं को विभिन्न रूप में सज़ा कर ढोल के साथ घर-घर नाच दिखाने ले आते। हम सब उन गौओं के रंग में रंग जाते थे। 
     गुम्मा की कॉलोनी में हमारे घर के सामने एक बड़ा आम का बगीचा था। जिसमें तरह-तरह के आम फलते थे। जब वसंत ऋतु आती कोयल की ‘कुहू-कुहू’ से रोम-रोम पुलकित हो उठता। आम की बौरों की वह खुशबू और कच्ची मिट्टी की सुगंध शहरों में कहाँ मिलती है? चाहे गाँवों में बिजली न हो, न ही बड़े-बड़े स्कूल कॉलेज, लेकिन उस गाँव में आज भी शहर में रहे मेरे दिल की धड़कने बसी हुई हैं। क्योंकि वहाँ हमारा बचपन बीता है। मैं फिर बचपन में खो जाती हूँ। 
    आज अजन्मा भ्रूण भी अपनी माँ के गर्भ में डरा सहमा हुआ-सा है, न जाने कब लड़की समझकर उसे जन्म होने से पहले ही गर्भपात कर उसका अस्तित्व मिटा दिया जाए। दहशत में आ गईं हैं वे। दुनिया का यह वीभत्स दृश्य भी देखना होगा उन्हें। नवजात के इस दुनिया में आने के बाद उसके खाना अपूर्ति से उन्हें कहीं पंगु न बना दे समाज। फिर लड़की की सुंदरता पर एक नज़र घूरती रहती है हमेशा। जली-कटी बातों से दिल टूट जाता है। अगर सुंदर है तो बुरी नजर से बचने की कोशिश अगर सुंदर न हो तो चुभती बातों से बचाने और चेहरे पर नकली चेहरे की आजमाइश। 
 बचपन की यादों के साथ याद आ जाती है हमारी दादी। दुबली-पतली सी हमारी दादी भी बच्चों सी हमारे साथ नाचने-कूदने लगती थीं। सीधी-सादी साड़ी में लिपटी हुई होती थीं। जब कभी आँगन में निकलती पल्लू को सिर पर ओढ़ लेती थीं। हम अपनी माँ से ज्यादा दादी के करीब थे। माँ जब हमें सुंदर से तैयार कराके खेलने के लिए बरामदे में बिठा देती थी, तब दादी हमें कहानियाँ सुनाती थीं। और उनकी नज़र उस आम के पेड़ पर होती थी जो सामने के बगिया में अपने को फैलाये खड़ा था।
   मैं पूछती, “दादी यहाँ क्यों बैठी हो अंदर चलो ना!” 
   तब वो कहतीं, “देख! दूर आम के पेड़ पर कोयल की कुहू की आवाज़ सुन, कितनी मधुर है उसकी आवाज़।”
    मैं सुनने को कोशिश करती थी। 
    वे फिर कहतीं, “हमारे बचपन में जब मुर्गा कुकडू-कूं करके बाँग देता तभी उठकर हम, हमारे गाँव से दूर नदी में नहाने जाते थे और लौटते वक्त पानी से घड़ा भर के सिर पर उठा लाते थे। तब मेरी उम्र सिर्फ 8 साल थी। तभी कोयल की ‘कुहू’ आवाज़ के साथ हम भी चहकने लगते थे और कोयल को ढूँढते हुए आम की बगिया में चले जाते। कच्चे आम उठाकर घर ले आते थे। उसमें नमक मिर्च डालकर सखियों संग चटख जाते थे।” मेरे गाल पर चुटकी देती थी दादी। 
   “पता है नौ साल की उम्र में ही मेरी शादी हो गई थी। जानते हो, तब हमें बाहर जाने का इज़ाज़त तक नहीं थी। घूँघट में सारा दिन रसोई में ही कट जाता था। जब इसकी आवाज सुनती हूँ मेरा बचपन मेरे सामने आ खड़ा हो जाता है। जो स्वतंत्रता तब नहीं देख पाई आज आप सबमें देख खुशी से उछल पड़ती हूँ। देख, कैसे आम की डाली पर कोयल डेरा डाले बैठी है।” दादी की आँखों में एक चमक छा जाती थी। उनके मन में प्रकृति के प्रति आकर्षण और प्यार देख हम सब भाव-विभोर हो उठते थे। उनके बचपन की सारी यादें हमारे साथ बाँटती थीं। 
    मैं कहती, “लेकिन मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा दादी। कोयल तो काली होती है ना? आम के पेड़ पर किसी डाली की छाया में बैठी होगी।” उनकी गोद में बैठकर मैं उनकी चुबुक पकड़ कर पूछती।
    “हाँ, कोयल काली होती है तो क्या हुआ, उसकी आवाज़ में जो मिठास भरी है उसे ध्यान से सुन, और अपने मन की आँखों से देखने की कोशिश कर।” मेरे बाल सँवारते हुए मुझे कहती थीं।
    तब मुझे पंखियों की आवाज़ में फ़र्क नहीं पता होता था। लेकिन वह मीठी-सी आवाज मेरे कानों में जैसे शहद घोलती थी। मैं कहती, “हाँ कूहु .. आवाज़ तो आती है लेकिन कोयल दिखाई नहीं देती।” कोयल-सी आवाज़ को मैं अपने गले से दोहराते कहती। तब उषा दीदी हँस पड़ती और दादी की हाँ में हाँ मिलाती और कहती, “मुझे तो दिखती है, बुद्धू।”
   “अच्छा!” कोशिश करके भी न देख पाने से हारकर मैं चुप हो जाती, और दादी जैसे उन बचपन की यादों में जी उठती थीं। जैसे ही पेड़ से एक आम गिरता मेरी दादी और मेरी बड़ी बहिन शान्ति(उषा) दोनों आम उठाने भागते। उन सभी आम को काटकर नमक मिर्च डालकर चट कर जाते। मैं एक टुकड़े को चखकर फेंक देती। मुझे बहुत ज्यादा खट्टा पसंद नहीं था। 
    एक था बचपन और एक था बचपना, यानी 8 साल की बच्ची के साथ 40 साल की दादी भी खट्टी-मीठी आम को चटखने के सुख से ख़ुद को कहाँ वंचित रख पाती थीं। पिताजी जब ऑफिस से घर लौटते, उन आमों को देख गुस्सा हो जाते। कहते, “मुझे कह देते कच्चे आम बाजार से ले आता। बाग-बगीचे में जाने की क्या जरूरत थी, कोई काँटा चुभ गया होता तो, और साँप भी हो सकते हैं।” लेकिन दादी भी हमें बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी। क्यों न बचाती भला? अगर हम पकड़े जाएँगे तो उनकी उम्र का लिहाज़ करता कौन? और ‘बगिया से आम लाकर खाने में जो मज़ा है वह खरीद कर खाने में कहाँ?’
लता तेजेश्वर ‘रेणुका’
मोबाइल- 9004762999
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1 टिप्पणी

  1. अच्छी यादें हैं आपकी।वह समय ऐसा ही था। सन् 72 में 200 रु मायने रखते थे।
    हमारी बड़ी सास की शादी 6 साल में हुई थी और हमारी सास की 10 साल में।
    पर राजस्थान में तो हमने गोद में बच्चों को लेकर भी शादी होते हुए देखा।
    घूंघट तो आज भी चलन में है कई जगह।
    अच्छी यादें हैं।
    बधाई आपको।

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