Wednesday, October 16, 2024
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प्रकाश मनु का संस्मरण – विश्वनाथप्रसाद तिवारी : गँवई धज में खिला-खिला सा व्यक्तित्व

जब तिवारी जी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने, तब भी अंदर से एकदम गँवई शख्स ही रहे। उन्होंने इसी इंटरव्यू में शायद बताया था कि वे ट्रेन में मिलने वाले लोगों को यह कभी नहीं बताते कि वे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष हैं। वे हमेशा खुद को एक गँवई किसान के रूप में दर्शाते हुए ही बात करते हैं, जिससे सामने वाला खुलकर बात करता है और अपने भीतर की सारी बातें निस्संकोच कहता-सुनता है।

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हिंदी के अपने ढंग के निराले कवि-आलोचक और चिंतक विश्वनाथप्रसाद तिवारी जी से आप जब भी मिलें, उनके खिले-खिले से व्यक्तित्व की आब सबसे पहले असर डालती है। गँवई धज में भी कितनी बारीक प्रतिभा, कौशल और खुद्दारी छिपी होती है, यह तिवारी जी से मिले बगैर शायद नहीं जाना जा सकता। शायद इसलिए कि वे अपनी तरह के व्यक्ति हैंअपनी तरह के कवि, लेखक, आलोचक और उनसे मिलना एक भरपूर शख्सियत से मिलने सरीखा है जो एक प्रसिद्ध कवि तो है ही, पर साथ ही एक बड़े कद का आदमी और एक संवेदनशील पारिवारिक सदस्य सरीखा भी है। एक ऐसा सहृदय साहित्यकार, जो आपके घर-परिवार तक की चिंताओं में शरीक है और भीतर-बाहर से आपके साथ है। 
याद पड़ता है, तिवारी जी से मेरी पहली मुलाकात त्रिवेणी सभागार के किसी साहित्यिक कार्यक्रम में हुई थी। वहाँ मुझसे परिचय होने पर अचानक खिलखिलाते हुए साथ खड़े सज्जन से उन्होंने कहा, “देखो भाई, दिल्ली में प्रकाश मनु जैसे लोग भी हैं। क्या लगते हैं कहीं से ये दिल्ली वाले? एकदम सीधे-सादे आदमी। इन्हें देखकर कौन कहेगा कि ये भी दिल्ली के ही हैं।
फिर कुछ और बातें हुईं। और यह भी कि वे आगे जब भी आएँगे, मिलेंगे। उसके बाद वे जब-जब दिल्ली आए, फोन पर बातें हुईं और मुलाकातें भी। कभी मिलना नहीं हो पाया, तो फोन पर तो जरूर बतिया लिए। इसमें उन्हें भी अच्छा लगता था, मुझे भी। हर बार उन्होंने दस्तावेजके लिए कोई रचना या लेख भेजने के लिए आग्रह किया। पर किसी संपादकीय दबदबे के साथ नहीं। बल्कि एक अजब सी अविश्वनीय विनम्रता के साथ कि, “जो कुछ आप लिख रहे हैं, उसी में जो उचित समझें, आप हमें दें। हम उसे छापेंगे।साथ ही दस्तावेजपत्रिका के अंक भी लगातार मिलते रहे।
उन्हीं दिनों बीसवीं शताब्दी के अंत की कहानियों पर एक लंबा लेख मैंने उन्हें भिजवाया जिसे उन्होंने बड़े सम्मान से छापा। लगातार दो किस्तों में और वे दोनों किस्तें कुल मिलाकर पत्रिका के लगभग पैंतीस पृष्ठों तक चली गई थीं।
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यों कहानी वाले इस लेख की भी बड़ी अजब कहानी है। उसे कहना मेरे लिए कोई सुखकर नहीं है, इसीलिए कि उसके साथ ज्ञान जी का नाम भी जुड़ा है जिनकी मैं बड़ी इज्जत करता हूँ।
कहानी पर यह लेख मुझसे भाई ज्ञान जी ने लिखवाया था और बार-बार आग्रह करके लिखवाया था। उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तानमें छपा मेरा लेख पढ़ा था लेकिन कहानी अब भी संभावना है। यह लेख याद पड़ता है, मैंने नब्बे के दशक के प्रारंभ में लिखा था। मैंने वर्ष भर में छपे सभी महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रहों को पढ़ने के बाद, जो संभवत: साठ-सत्तर से कुछ अधिक ही रहे होंगेउन पर एक विस्तृत लेख लिखा था। लगातार कई दिनों की अथक मेहनत से यह लेख लिखा गया था। और इसमें उन कहानियों को रेखाकित किया था जिनसे मेरे खयाल से कहानी का आगे का रास्ता निकलता है। 
इस लेख की एक खासियत यह थी कि यह किसी बनी-बनाई आलोचनात्मक शैली या शब्दावली में नहीं लिखा गया था और इतनी सारी कहानियाँ पढ़ने के बाद मेरे भीतर जो प्रतिक्रियाएँ या रिफलेक्शस पैदा हुए, उन्हीं को मैंने सिलसिलेवार सामने रखा था। जिन कहानियों ने एक संवेदनशील पाठक के रूप में मुझे गहराई से छुआ और जिनमें आज का समय, संवेदना और आज के आदमी की मुश्किलें थीं, उन्हें मैंने खास तौर से रेखाकित करने की कोशिश की, फिर भले ही वे एकदम नए लेखकों की क्यों न हों!

भाई ज्ञान जी ने पहलके लिए भी ऐसा ही एक लेख लिखने का आग्रह किया। वर्ष भर की कहानियों के बजाय, पिछले आठ-दस वर्षों में जो भी महत्त्वपूर्ण संग्रह आए हैं, सबको समेटते हुए। पर मैं उन दिनों अपने उपन्यास कथा सर्कसमें डूबा था, इसलिए यह काम टलता रहा। लेकिन उसके बाद मैं लेख लिखने में जुटा तो फिर लगभग नशे की सी हालत पैदा हो गई। शताब्दी के आखिरी दशक के जितने भी महत्त्वपूर्ण संग्रह थे, वे सब मैंने पढ़े और उन पर बहुत लंबा लेख लिखा जो लगभग सवा सौ पन्नों का था। फिर इसे संक्षिप्त करके कोई सत्तर-अस्सी पन्ने निकाले और दोबारा सारा लेख हाथ से लिखा गया। यह पूरा लेख ज्ञान जी को भिजवाया गया। 
इस लेख में भी लिखने का तरीका वही था जिसमें कहानी के एक पाठक के रूप में कहानियों की यात्रा करते हुए मेरे इंप्रेशंस या प्रतिक्रियाएँ मुख्य रूप से उभरीं। और वे आलोचना की रूढ़ भाषा में नहीं थीं। बल्कि उनका मुझ पर जो असर पड़ा, उसे सीधे-सहज अल्फाज में कहने की कोशिश रही। इस लेख को लिखने के लिए काफी लंबी तैयारी करनी पड़ी और कई महीने लगे। यह लेख ज्ञान जी को भेजा गया तो तत्काल उनका पत्र आया कि आपने बड़ी मेहनत की है, लेख पढ़कर मैं फिर पत्र लिखूँगा। पर फिर चुप्पी।
यह चुप्पी बढ़ती ही गई तो मैं समझ गया कि उसे छापने में उन्हें कुछ दिक्कत है। यह समझने में देर नहीं लगी कि संभवत: कुछ कहानीकारों की कहानियों या उनकी कथा-शैली पर मेरी प्रतिक्रियाएँ उन्हें अच्छी नहीं लगीं। शायद वे लेख खुद ही लौटा देंमैंने सोचा। लेकिन काफी समय गुजर गया, और उस पर कोई पत्र नहीं आया, तो मैंने ज्ञान जी को लिखा कि मैं उस लेख को फिर से एक बार देख जाना और थोड़ा रिवाइज करना चाहता हूँ। कृपया उसे मेरे पास भिजवा दें।
यह पत्र भेजने के कुछ ही दिन बाद वह लेख मेरे पास आ गया और साथ ही ज्ञान जी का पत्र भी कि प्रिय भाई, यह एक संयोग ही है कि जब आपका पत्र मिला, तभी यह लेख मैं डिस्पैच करने ही वाला था। इसे, आपके पास भिजवा रहा हूँ, ताकि आप इसे फिर से देख लें।
लेकिन सच तो यह है कि उसे फिर से देखने या रिवाइज करने का मेरा मन कतई नहीं था और न मुझमे इतनी सामर्थ्य ही बच रही थी। हाँ, थोड़ा दुख और अवसाद उपजा कि जिस लेख के लिए मुझसे इतनी बार आग्रह किया गया था और जिसे लिखने के लिए मैंने इतना समय लगाया और इतनी अधिक तैयारी कीकोई सौ-डेढ़ सौ कहानी-संग्रहों को पढ़ने के बाद सिलसिलेवार मैंने कहानी के मौजूदा हालात और परिदृश्य के बारे में लिखा थाउसकी अंतत: यह गति हुई। लेख खासी बेबाकी से लिखा गया था और कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत से कहानीकारों के बारे में मेरी राय या टिप्पणियों से ज्ञान जी सहमत न हों। पर ऐसा तो होता ही है। होना चाहिए भी। मेरा मानना है कि लेखक को तो अपने ही विचार लिखने चाहिए, संपादक के नहीं। फिर संपादक चाहे ज्ञानरंजन जैसा बड़ा, सम्माननीय और आदमकद संपादक क्यों न हो!
इस गहरे दुख और अवसाद के समय मुझे तिवारी जी और उनके दस्तावेजकी याद आई। मैंने तिवारी जी को पत्र लिखा कि मेरे पास शताब्दी के अंत में लिखी गई कहानियों पर एक लंबा, बहुत लंबा और थोड़ा अनौपचारिक किस्म का लेख है जो पहलके लिए लिखा गया था, लेकिन अब वहाँ नहीं छप पा रहा। लेख बहुत मेहनत से लिखा गया है। आप कहें तो वह लेख मैं आपको भेज दूँ। अगर आप उसे छापना चाहे तो मुझे खुशी होगी। बस, मेरी एक ही शर्त है कि उस लेख में से न कुछ काटा जाए और न कुछ जोड़ा जाए।” 
कोई हफ्ते भर के भीतर ही मेरे पास तिवारी जी का जवाब आ गया कि मनु जी, वह लेख मैं देखना चाहता हूँ। आप भेजिए तो सही।
और जब लेख भेजा गया तो उसके तत्काल बाद फिर उनका पत्र आया कि मनु जी, आपका लेख दस्तावेजमें छपेगा और ठीक वैसे ही, जैसे आपने कहा। उसमें न एक भी शब्द जुड़ेगा और न हटाया जाएगा। आपको हम बता दें कि हम किसी से नहीं डरते। और सच्ची और खरी बात कहने में और छापने में किसी की परवाह नहीं करते। कहानीकारों और उनकी कहानियों के बारे में आपकी जो भी राय है, वह ज्यों की त्यों छपे और पाठकों तक जाए, हम भी यही चाहेंगे। इसके अलावा भी जो लेख आप लिखना चाहें, निश्चिंत होकर लिखें। वे भी बिना किसी काट-छाँट के, जैसे आप चाहेंगे, पाठकों तक जाएँगे।
पत्र एक पोस्टकार्ड पर लिखा गया था, भाषा एकदम सादी। कोई भावुकता की उड़ान नहीं। न अति विनम्रता, न ज्यादा रोब-दाब। पर उसके पीछे एक संपादक की दृढ़ता की जो मिसाल थी, उसे मैं कभी नहीं भूलूँगा। इसलिए भी कि वह गहरे और दुख भरे अवसाद के समय मुझे राहत देने वाली थी। चोट पर मरहम की तरह। फिर वह लेख छपा दो किस्तों में। कुल मिलाकर दस्तावेजसरीखी बड़े आकार की पत्रिका के लगभग पैंतीस-छत्तीस पृष्ठों में, और उस पर पाठकों और कहानीकारों के ढेरों पत्र आए। अविस्मरणीय, उत्तेजक और बेहद भावपूर्ण।
यही वह समय था, जब मैंने जाना कि इस सादा सी लगने वाली दस्तावेजपत्रिका का मान-सम्मान और विस्तार कितना है। साथ ही उसे पढ़ने वाले दस्तावेजपत्रिका और उसके संपादक ही नहीं, लेखकों को भी कितना आदर देते हैं। तब समझ में आया कि अपनी सादगी के बावजूद विश्वनाथप्रसाद तिवारी जैसे शख्स क्या हैं और अपने जीवन में क्या कुछ बनाया है उन्होंने।
इसके बाद तो दस्तावेजके लिए खासी तैयारी के साथ किसी न किसी विषय पर लिखने का एक सिलसिला ही चल पड़ा। बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यासों पर भी मैंने खूब जमकर काम किया और एक लंबा लेख लिखा। तिवारी जी को बताया तो उन्होंने कहा, “तत्काल भेजिए।यह लेख याद पड़ता है दस्तावेजके तीन अंकों में छपा था। और कुल मिलाकर पत्रिका के शायद साठ पृष्ठ इसमें खर्च हुए। कोई संपादक अपने लेखकों को इतना स्थान मुहैया करता है, इसका मतलब ही है कि वह अपने लेखकों पर कितना भरोसा करता है और उन्हें कितना बड़ा और आदर योग्य स्थान देता है।
वर्षों बाद मुझे दस्तावेजपर मनोहर श्याम जोशी की एक टिप्पणी पढ़ने को मिली। वह टिप्पणी कितनी सार्थक है, इसे मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ। जोशी जी ने कहा था, “हिंदी की और पत्रिकाएँ तो संपादकों की पत्रिकाएँ हैं, जबकि दस्तावेजसंपादक से ज्यादा लेखकों की पत्रिका है।मैं समझता हूँ, यह साहित्य के उस सच्चे प्रजातंत्र की स्वीकृति थी जिसे विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने गँवाई व्यक्तित्व में छिपे अपने ऊँचे साहित्यिक कद और दस्तावेजसरीखी पत्रिका से बनाया। इसके बाद उसी क्रम में बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण की बाल कविताओं मेरा पर लंबा लेख भी उन्होंने छापा और उस पर भी ढेरों पत्र और प्रतिक्रियाएँ मुझे मिलीं।
मुझे लगा कि दस्तावेजने मुझे एक साहित्यिक मंच ही नहीं, एक भला-भला और संवेदनशील साहित्यिक परिवार भी दिया है, जिसने मुझे साहित्य के प्रति आस्था दी। इसके लिए सचमुच मैं तिवारी जी के प्रति गहरी कृतज्ञता महसूस करता हूँ।
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अब तो विश्वनाथप्रसाद तिवारी मेरे परिवार के सदस्य सरीखे हो गए थे। उनका अकसर दिल्ली आना होता रहता था। हर बार मिलना और फोन पर बातें। उनके छोटे भाई राजेंद्र रंजन दिल्ली में ही हैं। अकसर तिवारी जी वहीं ठहरते थे और वहीं उनसे बातें और थोड़ी गपशप भी होती।
फिर उनसे एक इंटरव्यू लेने का भी संयोग बना, जिसके लिए दैनिक हिंदुस्तान की रविवासरीय पत्रिका के तत्कालीन संपादक विजयकिशोर मानव ने खासकर आग्रह किया था। इस इंटरव्यू में तिवारी जी के बचपन की न भूलने वाली छवियाँ हैं। और इसे पढ़कर पता चलता है कि गँवई गाँव का एक शरारती सा बच्चा जो पूरी तरह से किसानी परिवेश में ढला हुआ था और परिस्थितियाँ मानो उसे किसान ही बनाना चाहती थीं, कैसे उन दायरों से बाहर निकलता है और होते-होते पढ़ाई-लिखाई के जरिए उस उजाले की राहतक पहुच जाता है, जहाँ से उसे एक बड़ा साहित्यकार बनना था और गंभीरता से लिखते-पढ़ते हुए कुछ मिसालें कायम करनी थीं। 
यह दीगर बात है कि जब तिवारी जी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने, तब भी अंदर से एकदम गँवई शख्स ही रहे। उन्होंने इसी इंटरव्यू में शायद बताया था कि वे ट्रेन में मिलने वाले लोगों को यह कभी नहीं बताते कि वे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष हैं। वे हमेशा खुद को एक गँवई किसान के रूप में दर्शाते हुए ही बात करते हैं, जिससे सामने वाला खुलकर बात करता है और अपने भीतर की सारी बातें निस्संकोच कहता-सुनता है।
यह इंटरव्यू इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि इसके जरिए तिवारी जी के अंतरंग व्यक्तित्व की कई निर्मल छवियाँ सामने आईं और कई परतें खुलीं। फिर गाँव में बीते उनके बचपन की बहुतेरी न भूलने वाली स्मृतियाँ इसमें हैं, जिनके बगैर कवि-आलोचक विश्वनाथप्रसाद तिवारी और उनके व्यक्तित्व को समझा ही नहीं जा सकता।
तिवारी जी का बचपन कैसा था और क्या वे जानते थे कि बड़े होकर वे लेखक बनेंगे, लेखक ही बनेंगे? यह पूछने पर उन्होंने मुसकराते हुए जवाब दिया था
सच मानिए तो नहीं…बिल्कुल नहीं। प्रकाश जी, उस समय जो परिवेश था या जिस तरह की गाँव-देहात की स्थितियाँ थीं, उनमें तो मैं यह भी नहीं जानता था कि मैं पढ़ूँगा भी…या पढ़कर कुछ होऊँगा, यह सोचना भी मुश्किल था। एकदम ठेठ किसानी माहौल था, जिसमें न तो पढ़ने-लिखने की कोई संभावना थी और न पढ़ाई कोई ऐसा मूल्य ही था कि पढ़कर यह बनना है, वह बनना है। लगता था, पढ़ूँगा भी तो पढ़-लिखकर किसानी करूँगा। यही ज्यादा से ज्यादा उस समय सोच सकता था।
और आज के खासे गंभीर विश्वनाथप्रसाद तिवारी तब बड़े शरारती और ऊधमी भी थे। अपने इस मनमौजी बचपन से रू-ब-रू कराने के क्षणों में हँसते हुए उन्होंने बताया
मैं इतना शरारती और ऊधमी लड़का था कि आज मुझे देखकर आपके लिए कल्पना करना मुश्किल होगा कि मैं कभी ऐसा भी रहा होऊँगा। सारा दिन मैं किसी न किसी को तंग करता था। खूब शैतानी, खूब ऊधमबाजी।गनीमत यह थी कि इसके बावजूद बुद्धि प्रखर थी, इसलिए पढ़ाई में कोरे कभी नहीं रहे। जरा तिवारी जी से ही सुनें उन दिनों का हाल, “ऐसा है प्रकाश जी, खेल-कूद में मुझे मजा आता था अैर पढ़ाई में रुचि या दिलचस्पी बिल्कुल नहीं थी। हाँ, बुद्धि प्रखर थी।…हालाँकि यह बात भी क्या अपने मुँह से कहना ठीक है? बस, इतना ही कह सकता हूँ कि जो पढ़ता था, वह याद हो जाता था और रिजल्ट अच्छा ही आता था। अकसर अपनी क्लास में अव्वल आता था।
फिर थोड़ा बड़े होने पर आसपास की चीजों और दृश्यों को समझने और देखने-भालने का भी मन बना। किशोरावस्था तक आते-आते, दुनिया जो उनके आगे थी, अब धीरे-धीरे अपने अर्थ खोलने लगी। वे चीजों का मर्मसमझने लगे। और उनके लेखन की आत्माया बीजक्या था? इस पर भी उन्होंने विचार किया—
हाँ, एक बात और है, जो मेरे लेखन का बीज हो सकती है। हमारे गाँव में संपन्न परिवार कुछ गिने-चुने थे। ज्यादातर गरीब लोग थे, उनकी हालत अच्छी नहीं थी। तन पर साबुत कपड़े नहीं, न दवा-दारूतो उनके दुख मुझे द्रवित करते थे। अकसर मैं अपने दरवाजे पर उन्हें कुछ न कुछ माँगते हुए देखा करता था। उन्हें देखकर मैं दुखी होता था।…तो यह भी एक कारण था जो मुझे जाने-अनजाने लेखन की ओर ला रहा था। फिर हमारे गाँव की एक और विशेषता है जो मुझे अच्छी लगती है कि उसमें आधे मुसलमान हैं। पर उनमें कभी अलगाव या भेदभाव नहीं नजर आया। अत्यंत सांप्रदायिक सौहार्द की यह मिसाल मुझे बचपन से देखने को मिली।
बचपन में ऐसी क्या चीज थी, जो उन्हें लेखक बना रही थी? इस सवाल पर वे अपने भीतर गहरे उतरते हैं। और फिर उन्हें कुछ ऐसा याद आता है, जो उन्होंने परिवार और गँवई परिवेश में अर्जित किया और जो आज तक उनके साथ चला आता है। उनकी निजी शख्सियत हो या साहित्यिक व्यक्तित्व, तिवारी जी हर क्षण स्वाधीन-चेता हैं, और इसके बगैर उनकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। इस बारे में मेरे प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने जो कुछ कहा, उसे उद्धृत करना यहाँ जरूरी लग रहा है। तिवारी जी के ही शब्दों में—
आपने प्रश्न किया तो एक चीज पर मेरा ध्यान गया। शायद वही आपके सवाल का जवाब भी हो।…असल में, बचपन से ही परिवार में मुझ पर कोई अंकुश नहीं था। और इससे मुझमें स्वाधीनता की चेतना पैदा हुई। यानी मैं कहीं भी जाऊँ, कोई भी काम करूँ…किसी भी दिशा में जाऊँ, मैं चाहे जो करूँ, मुझे कोई कुछ कहने वाला नहीं था। शायद मैं बड़ा बेटा था, इसलिए यह रहा हो।…लेकिन जो भी हो, जन्म से जो स्वाधीनता का बोध मुझमें आया, वहीं प्रकारांतर से आपको मेरी कविताओं और साहित्य में भी दिखेगा। बचपन से ही मैंने यह पाठ सीखा कि कहीं किसी दबाव के आगे झुकना नहीं है और इस स्वाधीनता को मैं बड़ा मूल्य मानता हूँ। इसलिए तमाम तरह के मतवाद और विचारधाराएँ जिनसे लोग आतंकित होते हैं, मैंने उन्हें पढ़ा-समझा, पर उनके रोब में कभी नहीं आया।
फिर थोड़ी चुप्पी और एक हलके अंतराल के बाद वे अपनी बात को कुछ और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “ऐसे ही मुझे लेखक बनाने वाले जिन कारणों के बारे में आपने पूछा है, उनमें एक शायद यह भी है कि मैं बचपन से कुछ अतिरिक्त संवेदनशील था। तो यह जो मेरे भीतर की अतिरिक्त संवेदनशीलता थी, वही मुझे अपने परिवेश के बारे में कुछ अलग ढंग से सोचने-विचारने के लिए तैयार कर रही थी। और मेरे लेखन के लिए वह बीज भी बनी।…फिर बचपन में गाँव के लोगों की जो गरीबी और असहायता देखी या गाँव के लोगों पर जो अत्याचार होते थे, कभी सरकारी कर्मचारियों द्वारा, कभी पुलिस के द्वारा, इससे मेरे भीतर दर्द और गुस्से की एक लहर पैदा हुई। एक प्रोटेस्टकरने की तीव्र इच्छा पैदा हुई और यह प्रोटेस्ट करना ही शायद मेरे लेखन की पहली प्रेरणा थी।…यानी कविता के द्वारा या साहित्य के द्वारा प्रोटेस्ट करना।
कहते हुए तिवारी जी के चेहरे पर मैंने जो असाधारण दृढ़ता देखी, उसे मैं आज भी नहीं भूल पाया। सादगी और दृढ़ता एक साथ। यह एक हिंदी लेखक का तेज था। ऐसा हिंदी लेखक, जो अपनी जड़ों से बड़ी दृढ़ता से जुड़ा हुआ है और जिसे जरा भी दिखावे की जरूरत नहीं है।
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तिवारी जी के निजी जीवन के पृष्ठों को हम पलटते हैं, तो इसमें शक नहीं कि उन पर माँ के व्यक्तित्व का असर सबसे ज्यादा है और उन्हें याद करके आज भी वे भावुक हो जाते हैं। माँ पर उन्होंने संस्मरण लिखा है, कई कविताएँ भी लिखी हैं। खासकर माँ के न रहने पर लिखी गई तिवारी जी की कविताएँ मन में एक गहरी टीस और उदासी पैदा करती हैं। चिता में जलती हुई माँतिवारी जी की बहुत मार्मिक कविता है। चिता में जलने के साथ ही माँ का हंसा उड़ जाने वाला अकेले का सफर! पढ़कर आँखें भीग जाती हैं। 
इस बारे में बात चलने पर खुद तिवारी जी ने भावुक होकर बताया था, “असल में मेरी माँ एक सीधी-सादी कर्मनिष्ठ महिला थीं। पढ़ी-लिखी तो थीं नहीं, पर इनसानियत बहुत थी उनमें। किसी भी दुखी आदमी की मदद करने को वे हर वक्त तैयार रहती थीं। बचपन से मैंने यही देखा, कभी किसी को चावल की गठरी बाँधकर दे दी, कभी दही भरकर दे दी…और किसी न किसी काम में वे सुबह से रात तक लगी रहती थीं। तो आप कह सकते हैं, वह सारी दुनिया से बेखबर अपने काम में लगी रहने वाली महिला थीं।…और आपने प्रेम के बारे में पूछा है तो मेरे प्रति कभी कोई अतिरिक्त लाड़ नहीं दिखाया उन्होंने। या कि उनके मन में कभी यह भाव नहीं आया कि मेरा बेटा ही योग्य या अनोखा है, बाकी दूसरे नहीं हैं। ऐसे ही मुझे लेकर कोई बड़ी महत्त्वाकांक्षा भी उनके मन में नहीं थी कि यह कोई बड़ा आदमी बने…या फलाँ-ढिका। बस, सोचती थीं, जैसे गाँव में और सब होते हैं, वैसे ही यह भी हो! यानी आप कह सकते हैं कि माँ का मेरे प्रति एक तटस्थ किस्म का प्रेम था, जिसमें भीतर का प्रेम तो था, पर कोई फालतू दिखावा या बेकार का लाड़ नहीं था…!”
इस इंटरव्यू में बर-बार ऐसे आत्मीय क्षण आए कि तिवारी जी को भीतर तक भीगता महसूस किया। हालाँकि उनमें एक ऐसा भीतरी दृढ़ अनुशासन भी था कि वे खुद को काबू किए हुए थे। अत्यंत प्रियजनों की बात भी वे इस तरह कर रहे थे, जैसे कोई सहृदय आलोचक कहानी या उपन्यास के पात्रों का चारित्रिक विश्लेषण सामने लाता है। और इसलिए जब वे माँ के बारे में कह रहे थे, तो गाँव की एक कर्मठ स्त्री का चित्र बार-बार आँखों के आगे उभरता था।
इसी तरह बाबा का उन पर गहरा असर पड़ा। बाबा जो अनपढ़ होकर भी गहरी दृष्टि से संपन्न थे और दूर तक देख सकते थे। उनके बारे में तिवारी जी बताते हैं, तो उनके बचपन के सोच-विचार और व्यक्तित्व का गठन किन तत्वों से हुआ, यह समझ में आता है। तिवारी जी के ही शब्द हैं—
मेरे बाबा एकदम अनपढ़ थे, लेकिन समझदार बहुत थे। उन्होंने अंग्रेजों का जमाना और अत्याचार लंबे समय तक देखे थे। शायद इसीलिए उनकी यह महत्त्वाकांक्षा थी कि मैं पढ़-लिखकर कोई बड़ा अधिकारी बनूँ! उनके मन में शायद कहीं एक तड़प थीएक सपना था कि मैं पढ़-लिखकर जज या बैरिस्टर बनूँ! उस समय शायद वे बड़ा से बड़ा यही सपना देख सकते होंगे। सोचते होंगे कि जज या बैरिस्टर होकर मैं खुद अंग्रेजों के मुकाबले खड़ा हो जाऊँगा।…तो प्रकाश जी, मेरे बाबा बहुत ही सीधे थे। न पढ़े-लिखे, न दुनियादार, पर वैसा व्यक्ति मैंने आज तक कोई और नहीं देखा।… 
आप विश्वास नहीं करेंगे, उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी चाबी हाथ में नहीं ली या पैसे का स्पर्श नहीं कियामरते समय तक नहीं। उनका यही कौल रहा कि न पैसा हाथ से छुएँगे, न चाबी! आपको यह भी आश्चर्यजनक लगेगा कि मेरे पिता चौदह वर्ष की अवस्था में घर के मालिक बन गए थे।…असल में बाबा दुनियादार तो थे नहीं। तो बाबा के बड़े भाई ने उन्हें अलग कर दिया था। बाबा ने तभी मेरे पिता को घर का मालिक बना दिया था और खुद इस सारे प्रपंच से अलग हो गए थे…!”
आगे बाबा के व्यक्तित्व की कुछ और बरीक रेखाएँ उभारते हुए तिवारी जी जो कहते हैं, उसमें खुद उनके जीवन-कर्म और मूल्यों का स्वर भी कहीं देखने को मिल सकता है। बाबा उन्हें आध्यात्मिक नहीं, दुनियादार ही लगते है। पर उनकी दुनियादारी कैसी है और उसमें जीवन भर परमार्थ के लिए कर्मलीन रहने का कैसा तप है, इसे खुद तिवारी जी से सुनिए—
नहीं, आध्यात्मिक तो नहीं…इसलिए कि बाबा के जीवन में दो विरोधी छोर थे। अपने लिए वे संन्यस्त थे, पर परिवार के लिए पूरी तरह दुनियादार भी कि घर के लोगों की सभी जरूरतें पूरी हों..या किसी को कोई कष्ट न हो। बस, अपनी जरूरतें वे कम से कम रखना चाहते थे।…तो कोई न कोई आदर्श तो उनका था, पर वह आध्यात्मिक आदर्श रहा हो, मुझे नहीं लगता। इस अर्थ में यह अगर कोई आदर्श था तो कुछ-कुछ ऐसा ही कि अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीना है। आप कह सकते हैं कि कुछ लोग अपने शरीर-सुख और अपनी सुविधा के लिए जीना चाहते हैं, जबकि दूसरे लोग अपने शरीर-सुख और सुविधाओं को तुच्छ मानकर चलते हैं। तो मेरे बाबा दूसरी किस्म के थे…!”
और पिता…?” मैंने जानना चाहा। इस पर तिवारी जी ने बताया कि वे गँवई किसान थे, एकदम सीधे-सादे। शायद बाबा जैसे घोर कर्मठ भी नहीं। पर बेटे को पहचानने में उनसे भूल नहीं हुई। समझ गए कि यह औरों से अलग है और कुछ अलग ही ढब का है। 
फिर अपने बचपन की यादें खँगालते हुए तिवारी जी ने कहा, हाँ, मैं जब बोला करता था, तब जरूर उनका ध्यान इस बात की ओर जाता था कि यह लड़का कुछ अलग ढंग का है। थोड़े चकित होते थे और उन्हें अच्छा भी लगता था…और उससे भी ज्यादा बाबा को। बाबा हालाँकि एकदम अनपढ़ थे, पर उनमें एक अंतर्दृष्टि और सहज ज्ञान ज्यादा था। मुझे आज भी याद है, एक दफा मुझे खेत में काम करते देख, बाबा ने पिता से कहा था, ‘सोने के कुदारी से खेत नाही कोड़ल जाला।यानी सोने की कुदाली से खेत की गुड़ाई नहीं की जाती।…उनका यह वाक्य ऐसा है कि उसे मैं कभी भूल नहीं पाया। शायद इसलिए भी कि इसमें मेरे बाबा का समूचा व्यक्तित्व समाया हुआ है। उन्हें शुरू से ही लगता था कि मैं खेती के लिए नहीं बना। मुझे विद्या के क्षेत्र में जाना चाहिए।
और अब तिवारी जी की साहित्य-यात्रा का प्रारंभ या कहें, लेखन का मंगलाचरण’! वह कब और कैसे हुआ? इस बारे में भी उनसे खुलकर बातें करने का मौका मिला। यह मुझे अच्छा और सुखकर इसलिए लगा कि तिवारी जी खुद को या अपने अतीत को ग्लोरीफाई कभी नहीं करते। वे अपनी सीमाओं के बारे में खुलकर बताते हैं और उनसे बाहर आने के संघर्ष और जद्दोजहद को लेकर भी बड़ी साफ बात कहते हैं। एकदम गँवई परिवेश में पल और बढ़ रहे विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने जब किशोरावस्था में कलम हाथ में ली और लिखना शुरू किया तो स्वाभाविक ही रामनरेश त्रिपाठी उनके आदर्श थे। यहीं से कविता की लकीर मन में खिंची तो आगे बढ़ती ही चली गई। इस बारे में खुद तिवारी जी ने बताया, “रामनरेश त्रिपाठी का खंडकाव्य पथिकहमारे कोर्स में था। उसमें एक स्वाधीनता-प्रेमी आदमी का जीवन था जो घर-बार छोडक़र प्रकृति का आनंद लेने के लिए प्रकृति की गोद मे चला जाता है। इस खंडकाव्य का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा था और मुझे यह पूरा कंठस्थ था।…तो जब पहली कविता लिखी, तो उस पर इसका प्रभाव भी था।
फिर उनकी साहित्यिक यात्रा आगे कैसे चली, ‘दस्तावेजनिकालने का खयाल मन में कैसे आया और फिर साहित्य के मौजूदा परिदृश्य और आज के समय और समाज को एक साहित्यकार के रूप में वे कैसे देखते हैं, ऐसे एक नहीं ढेरों मेरे खदबदाते सवाल और तिवारी जी की शांत प्रभा में लिपटे उनके जवाब, जो ऊपरी शांत आवरण के भीतर गहरी हलचल समेटे हुए थे।
हालाँकि जैसा इस इंटरव्यू को थोड़ा सा और आगे चलकर होना था, हुआ।…यानी अंत तक आते-आते सवाल-जवाब भी कहाँ रहे, एक अजब तरह की अनौपचारिक बतकही चल पड़ी। अब नाम उसे इंटरव्यू दिया जाए या कुछ और, इसकी परवाह किसे थी!
शायद इसी अर्थ में हर तरह की सर्जनात्मकता या रचना सीमाएँ तोड़ती है। तोड़ती और कुछ बनाती है। नजदीक से देखें, तो तिवारी जी में भी यह तोड़ना और बनाना है, लेकिन बड़े शांत कलेवर में!
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अलबत्ता कोई ढाई घंटे तक चले इस अनौपचारिक इंटरव्यू से विश्वनाथप्रसाद तिवारी को काफी भीतर तक जानने का मौका मिला। बीच-बीच में ऐसे क्षण आए कि मैं आर्द्र हो उठा। उनकी रचनाएँ ही नहीं, रचना की जमीन भी अब जैसे अर्थ खोलने लगी। इसके बाद खुद-ब-खुद तिवारी जी के रचनाकार रूप से भी निकटता होती चली गई। 
तिवारी ने अपनी कुछ पुस्तकें भेंट कीं, तो उनके कवि और आलोचक रूप को निकट से देखने-जानने का अवसर मिला। उनकी कविताओं से तो बहुत पहले से परिचित था। लेकिन उनके गद्य-लेखन की शक्ति को अब नजदीक से जाना। आलोचना, संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत, तिवारी जी के गद्य के इन तीनों रूपों से रू-ब-रू होने का अवसर मिला। इनमें यात्रा-निबधों से निकटता कुछ पहले हुई और इन पर एक छोटी-सी टिप्पणी भी मैंने लिखी भी। कारण शायद यह कि तिवारी जी के यात्रा-निबंधों में जैसी सादगी और सहजता है, वह बहुत कम देखने को मिलती है। 
ये ऐसे यात्रा-वृत्तांत हैं, जिनमें तिवारी जी ने कैमरा पूरी तरह अपने ऊपर नहीं रखा और राह में जो लोग मिले, वे सब इसमें खुद-ब-खुद शामिल होते जाते हैं। भले ही वह कोई मैला, उदास बच्चा या अनाम सा शख्स क्यों न हो! पर जिस-जिस पर भी तिवारी जी की नजर पड़ी और जिस-जिसने भी उन्हें सोचने को बाध्य किया, वे उसे अपने साथ ले लेते हैं। फिर इन यात्रा-वर्णनों में प्रकृति की सुंदरता की एक से एक अनोखी झाँकियों का वर्णन तो रसमग्न कर देने वाला है। लगता है कि विश्वनाथप्रसाद तिवारी का कवि रूप यहाँ बोल उठा है।
लेकिन अपनी इन अनथक यात्राओं में वे सिर्फ भावमग्न कवि ही नहीं बने रहते, बल्कि जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ लोगों के व्यवहार और जीवन-परिस्थितियों को भी गहराई से देखते-आँकते और समझना चाहते हैं। तिवारी जी के यात्रा-वर्णनों की दो पुस्तकें बहुत चर्चित हुईं, आत्म की धरती और अंतहीन आकाश। इनमें खासी विविधता है। यानी एक ओर मैदानी यात्राएँ हैं, तो दूसरी ओर पहाड़ और समंदरों की पुकार उन्हें जहाँ-जहाँ ले गई, उन सभी स्थलों का वर्णन है। इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद यह आश्चर्य होता है कि एकदम सीधा-सादा देहाती सा लगने वाला यह व्यक्ति कहाँ-कहाँ हो आया और कैसे अपने ढंग से समूचे भारत की परिक्रमा कर डाली। उत्तर और पूर्वी भारत ही नहीं, धुर-दक्षिण तक वे गए। यहाँ तक कि पूर्वोत्तर प्रदेशों तक। और फिर विदेशों की उनकी यात्राएँ तो हैं ही। आश्चर्य होता है कि क्या उनके भीतर पालथी मारे राहुल सांकृत्यायन सरीखा कोई सैलानी बैठा है, जिसके भीतर नए-नए लोगों से मिलने और नए-नए स्थानों को देखने की एक गहरी अनझिप प्यास है।
पर मजे की बात यह है कि जहाँ-जहाँ वे गए, वह देश हो या विदेश, छोटे कस्बे हों या महानगर, उनका सादा और खुद्दार गँवई व्यक्तित्व हमेशा उनके साथ रहा है। वे कभी किसी के रोब में नहीं आते।
कुछ-कुछ यही खूबी तिवारी जी के संस्मरणों में भी है, जो औरों से अलग हैं और एक बार पढ़ लेने के बाद आसानी से भूलते नहीं हैं। इस लिहाज से उनकी पुस्तक एक नाव के यात्री बहुत महत्त्वपूर्ण और बार-बार पढ़ने लायक है। पुस्तक के प्रायः सभी संस्मरणों में एक ऐसा स्वाभाविक खुरदरापन है, जो लगातार उनकी शख्सियत और भीतरी ताप को हमारे सामने उभारता है। साथ ही ये रसमग्न कर देने वाले संस्मरण हैं। तिवारी जी जब किसी बड़ी साहित्यिक शख्सियत या सहयात्री के बारे में कह रहे होते हैं, तो पूरी तरह से तल्लीन होकर या डूबकर कहते हैं और पाठकों को भी अपने साथ बहा ले जाते हैं। 
आम तौर से जिसके बारे में वे लिख रहे हैं, उसके बारे में आदर, स्नेह या गहरी हार्दिकता का भाव ही उनमें रहता है। आजकल जैसे दूसरों की टाँगखिचाई और कीचड़ उछालने के लिए संस्मरण लिखे जाते हैं, वैसे संस्मरण आप यहाँ हरगिज न पाएँगे। लेकिन तिवारी जी से ऐसे संस्मरणों की उम्मीद भी न की जाए, जिनमें अहो-अहोवाली झूठी प्रशंसा होती है। लिहाजा जब, जिसके बारे में, जो कहना होता है, वे हर हाल में कहते ही हैं। फिर चाहे विद्यानिवास मिश्र जैसे उनके आदरणीय और विद्वान मित्र हों, नामवर सिंह जैसे बड़े आलोचक हों या फिर परमानंद श्रीवास्तव जैसे उनके समकालीन। लिखते समय वे अपने नायक या सहयात्री की विशेषताएँ ही उभारते हैं, पर बीच-बीच में जहाँ कहीं कोई सीधी, बेबाक बात कहने की जरूरत होती है, वहाँ वे कहते हैं और पूरे साहस के साथ कहते हैं। आदमी बड़ा है या छोटा और उनके कहने का कोई बुरा मानेगा या अच्छा, इसकी वे कतई परवाह नहीं करते। 
यही कारण है कि विद्यानिवास मिश्र जी पर लिखे गए संस्मरण में उनकी कुछ टिप्पणियाँ आश्चर्यजनक रूप से कठोर लगती हैं। ऐसे ही नामवर जी की पर्याप्त इज्जत करते हुए भी उनके आलोचक की सीमाएँ दरशाने में वे पीछे नहीं रहते। और परमानंद श्रीवास्तव के लेखन के बारे में उनकी यह टीप ही काफी है कि जो भी नई पुरानी-पत्रिका पलटिए, उसमें आपमें परमानंद श्रीवास्तव विराजमान मिल जाएँगे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब उनके लिए लेखन के क्या मानी हो चुके हैं!
यों इन संस्मरणों में कुछ ही पंक्तियों में अपनी पूरी बात कह देना, और बगैर अशालीन हुए कह देनाबगैर उत्तेजना और तल्खी के कह देना, विश्वनाथप्रसाद तिवारी की एक बड़ी शक्ति ही मानी जाएगी। और यह चीज उनके यहाँ बार-बार ध्यान खींचती है।
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फिर तिवारी जी के दो बड़े चर्चित और ऐतिहासिक महत्त्व के संपादकीयों पर बात न की जाए, तो बात अधूरी ही रहेगी, क्योंकि उनकी साहित्यिक शख्सियत का मर्मऔर ताकत इनमें छिपी हुई है। इन दो संपादकीयों में से पहला उन्होंने राजेंद्र यादव को लेकर लिखा और दूसरा नामवर सिंह का लेकर। ये दोनों ही हिंदी की ऐसी बड़ी शख्सियत हैं जिनके बारे में कुछ कहने से पहले लोग दस बार सोचते हैं। पर आश्चर्य, तिवारी जी ने बड़ी हिम्मत और दृढ़ता के साथऔर आश्चर्यजनक निर्भयता सेउन पर लिखा है। 
राजेंद्र यादव अपने लंबे संपादकीयों में खुद को स्त्रियों के सबसे बड़े हिमायती के रूप में पेश करते हैं, पर विश्वनाथप्रसाद तिवारी मन्नू भंडारी की कुछ बेहद तल्ख और बेधक टिप्पणियों का साक्ष्य लेकर और खुद राजेंद्र यादव के समय-समय पर लिखे गए लेखों के आधार पर, अपने एक लंबे संपादकीय लेख में इसी की पोल खोलते हैं। तिवारी जी बड़ी स्पष्टता से और हिम्मत के साथ दिखाते हैं कि स्त्री को लेकर राजेंद्र यादव का दृष्टिकोण कितना मर्दवादी, सामंती किस्म का तथा खोखला है। वे स्त्री की देह से मुक्ति का जो नारा लगाते हैं, उसके पीछे पुरुष की कैसी लपलपाती इच्छाओं के नागपाश हैं और स्त्री की मुक्ति नहीं, वरन स्त्री को एक दूसरे ही जाल में फाँसने का जतन है। खास बात यह है कि तिवारी जी बहुत करीने से यह बात सामने रखते हैं और इसे खुद राजेंद्र यादव के कथनों में छिपे विरोधाभासों के जरिए उभारते और उधेड़ते हैं।
इसी तरह नामवर सिंह की रामविलास शर्मा-ग्रंथि को वे इस कदर बेनकाब करते हैं कि नामवर जी का पूरा आलोचकीय व्यक्तित्व ही जैसे भरभराकर ढहने लगता है। और मजे की बात यह है कि इसके लिए तिवारी जी को अपनी ओर से कुछ विशेष कहने या कुछ करने की जरूरत नहीं होती, बल्कि वे नामवर जी के तबऔर अबके दो लेखों को आमने-सामने रख देते हैं। आज से कोई चार दशक पहले नामवर सिंह रामविलास जी की प्रशस्ति में क्या कुछ कह गए थे और बाद में रामविलास जी के आँख मूदते ही कैसे विष और कटाक्षपूर्ण तीर छोड़ने लगे और अपनी ही बातों को पलटते चले गए। तिवारी जी ने नामवर जी को ही बार-बार उद्धृत करते हुए यह बताया है। रामविलास जी की जिस-जिस बात के लिए नामवर तारीफ करते थे, बाद में वे उसी-उसी बात को प्रकारांतर से ध्वस्त करने में लग गए। इससे नामवर सिंह रामविलास जी को तो ध्वस्त कर नहीं पाए, हाँ, अपने आलोचक रूप को उन्होंने अविश्वसनीय जरूर साबित कर लिया। 
नामवर जी पर इतना सटीक लेख शायद आज तक दूसरा नहीं लिखा गया। मैंने खुद नामवर जी पर एक लंबा लेख लिखा था, नामवर ही नामवर के सबसे बड़े दुश्मन हैंऔर इसमें उनकी असाधारण प्रतिभा के साथ ही तमाम सीमाएँ और विरोधाभास सामने रखे थे। मगर विश्वनाथप्रसाद तिवारी जी की एक बड़ी खासियत यह है कि बगैर किसी उत्तेजना के और बगैर अशालीन हुए वे गहरी चोट करते हैं। एक बड़े लेखक की यह पहचान और ताकत है। यह ऐसा विलक्षण गुण और गुर है, जो मैं उनसे यकीनन सीखना चाहूँगा।
तिवारी जी ने राजेंद्र यादव और नामवर सिंह पर ये दो लंबे और ऐतिहासिक महत्त्व के लेख लिखकर दिखा दिया कि बगैर उत्तेजना के ज्यादा मार की जा सकती है। उसमें भी उत्तेजना होती तो है, पर वह छलकती नहीं फिरती और एक आंतरिक शक्ति बनकर फूट पड़ती है। तिवारी जी से बेशक यह बात मैं और मेरी पीढ़ी के लोग सीख सकते हैं।
अलबत्ता तिवारी जी की यही रचनात्मक ऊर्जा साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल में दिखाई पड़ी, जिसमें उन्होंने अकादेमी को एक प्रजातांत्रिक विन्यास देने की भरसक कोशिश की। इस संबंध में उनके उत्साह, उदारता और खुलेपन को बहुतों ने देखा और सराहा भी। मुझ सरीखे बहुत से लेखकों के लिए यह एक चकित कर देने वाला अनुभव था। दूसरी बातें छोड़ भी दें, तो तिवारी जी के प्रयत्नों से एकदम अलग लीक पर चलने वाले वे साहित्यकार जो बरसों से साहित्य अकादेमी से कुछ दूर-दूर से थे, उतने दूर नहीं रह गए थे और उत्साह से अकादेमी के आयोजनों में शिरकत करते देखे जा सकते थे। यह परिवर्तन कम से कम गौर करने लायक है।
और फिर एक बड़े जीवट वाले कवि-लेखक के रूप में तिवारी जी की अनवरत यात्राएँ! उनके पास हर क्षण बड़ी योजनाएँ और बड़े-बड़े काम रहते हैं, जिनकी चर्चा वे अकसर बड़ी सादगी से करते हैं। अकसर उन्हें सामने देखकर मुझे उनकी ग्राम्य सादगी के बावजूद, खुद उन्हीं की एक कविता याद आती है, सड़क पर एक लंबा आदमी। वह लंबा आदमी सबसे बेपरवाह अपनी विनम्र चाल में चलता जा रहा है…और लोग जिन्होंने उसे देखा है, बड़े आश्चर्य चकित होकर बात कर रहे हैं कि, ‘ओह, कैसा एक लंबा आदमी चलता चला जा रहा है सड़क पर…! यह पूरी कविता उद्धृत करने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आप भी पढ़ें यह कविता—
आज अचानक दीख गया
सड़क पर एक लंबा आदमी
लोग अपनी-अपनी दुकानों से
उचक-उचक कर घूर रहे थे उसे
बच्चे नाच रहे थे तालियाँ बजाकर
हवलदार फुसफुसा रहा था—
‘हुजूर, हवालात के दरवाजे से भी
ऊँचा है यह आदमी।’
मसखरे हिनहिना रहे थे
जहाँपनाह, आप की कुर्सी से भी
बड़ा है यह आदमी
चौराहे का सिपाही आँखें फाड़े देख रहा था
बाप रे, सड़क पर इतना लंबा आदमी!
सीधा तना चल रहा था वह
राजपथ पर दृढ़
विनम्र और बेपरवाह
शहर में आग की तरह फैल गई थी
यह खबर
निकल पड़े थे अपने-अपने घरों से
बौने लोग
चौकन्ने हो गए थे अखबार
सेना कर दी गई थी सतर्क
मंत्रिपरिषद में चल रहा था विचार
एक बुढ़िया
अपने पोते-पोतियों को जुटाकर
दिखा रही थी
कि सतयुग में होते थे
ऐसे ही लंबे आदमी।
पता नहीं क्यों, जब-जब इस कविता को पढ़ता हूँ तो सड़क पर चलते इस लंबे आदमी में मुझे विश्वनाथप्रसाद तिवारी का चेहरा दिखाई देने लगता है। वे जमीन से जुड़े ऐसे लेखक हैं, जो बड़े से बड़े पदों पर रहे हैं और साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष पद को भी उन्होंने सुशोभित किया है। इस समय वे साहित्य अकादेमी के महत्तर सदस्य या फेलो हैं, और निरंतर अपने सृजन में जुटे हैं। पर आश्चर्य, आज भी वे पहले की तरह सीधे-सहज हैं और उनकी सादगी मुग्ध करने वाली है।
तो इस लंबे और वाकई लंबे, सादा और इकसार आदमी को मेरा सलाम! वे आगे, बहुत आगे जाएँ और अपनी मंजिल-दर-मंजिल हासिल करें, मेरी शुभ कामनाएँ! हाँ, वे कितने ही आगे क्यों न बढ़ जाएँ, हमारे तो वही प्यारे-प्यारे से और कुछ-कुछ गँवई ढब के तिवारी जी बने रहें, इसकी कामना और उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं।
प्रकाश मनु
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. 09810602327
ईमेल – prakashmanu334@gmail.com


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4 टिप्पणी

  1. जिसने विश्वनाथप्रसाद तिवारी जी के साहित्य का एक अक्षर भी न पढ़ा हो, वह इस संस्मरणात्मक आलेख को पढ़कर ही उनका चाहने वाला बन जाएगा। प्रकाश मनु, तिवारी जी का न केवल व्यक्तित्व अपितु उनके विचार, भाव, संवेदनाएँ, सरोकार, साहित्य आदि सब कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि विश्वनाथप्रसाद तिवारी पढ़ने वाले के मानस में अंकित हो कर रह जाते हैं।

    मनु जी की लेखनी इसी तरह हमें नवाज़ती रहे!

  2. संस्मरण के रूप में श्री विश्वनाथप्रसाद तिवारी जी के बारे में आदरणीय प्रकाश मनु जी की लेखनी से बहुत कुछ जानने को मिला। तिवारी जी के विराट व्यक्तित्व को जानना सुखद था। आपके संस्मरण , आपके आलेख खूब-खूब लंबे होते हैं। परंतु आप इतनी तरलता के साथ लिखते हैं कि पाठक बीच में पुस्तक को रख ही नहीं पता। आपकी रचना खुद को पढ़वा ही ले जाती है। यह आपकी वर्षों की साधना का ही परिणाम है।

  3. आपका लंबा लेकिन रोचक संस्मरण पढ़ा सर!पढ़ते हुए अपने समय के ग्रामीण किसान का चित्र खिंच गया। लाल बहादुर शास्त्री भी याद आए। लगभग ऐसा ही सीधा सरल चरित्र और वेशभूषा भी। आदरणीय विश्वप्रसाद तिवारी जी से बिना मिले भी आपके संस्मरण के माध्यम से उनको जानना कठिन नहीं रहा। बल्कि जितना आपके इस संस्मरण के माध्यम से उन्हें जान पाए, उतना उनसे मिलकर नहीं जान पाते।
    आपके संस्मरण को पढ़कर एक बात तो महसूस हुई कि कुछ लोग ऐसे रहते हैं जिन पर बाहरी आबोहवा का कोई असर नहीं होता। वे अपने परिवेश से, परिवार से,संस्कार शिक्षा व ज्ञान से जो अच्छा, श्रेष्ठ व सकारात्मक एक बार सीख लेते हैं, वह उनके अंदर इतनी गहराई से बैठ जाता है जिसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रहती। दरअसल ऐसे ही लोग अच्छे और बुरे के अंतर को बेहतर पहचान पाते हैं और यह बात दृढ़ रहती है कि जो अच्छा है वह हर हाल में अच्छा है ।किसी को देखकर, सुनकर या समय को देखकर ,अपना जो अच्छा है उसको हमें नहीं छोड़ना है। अपने संस्कारों को भूलते नहीं। ऐसे लोग बहुत सहृदय और संवेदनशील होते हैं उनकी अपनी अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं होतीं और ना ही वह दूसरों से कोई अपेक्षाएँ करते हैं। ऐसे लोग अपने स्वभाव और अपने कर्म दोनों के प्रति ही बहुत दृढ़ होते हैं। जो सरल हृदय होते हैं वह बहुत सहजता से किसी से भी जुड़ जाते हैं। कहानियों पर लंबे लेख के लिये आपने जो परिश्रम किया वह काबिले तारीफ है सर! हम कल्पना नहीं कर सकते के लिखने के लिये कोई -कोई (हम जानते हैं कि सब नहीं कर सकते) लेखक इतनी अधिक मेहनत करते हैं। अगर हम लिखने की बात सोचें तो शायद हम अपने आपको पहली कक्षा में ही पाएँगे। निश्चित ही तिवारी जी के प्रति हमारी श्रद्धा इस बात से और बढ़ी कि वे एक अच्छे संपादक हैं।आजकल अच्छे संपादक देखने से भी नहीं मिलते। महावीर प्रसाद द्विवेदी की आत्मकथा को पढ़ते हुए वे हमारे लिए एक बेहतरीन संपादक की छवि रखते हैं। आज आपके संस्मरण को पढ़ने के बाद लगा कि ऐसे लोग समुद्र में मोती की तरह ढूँढने से नजर आ ही जाते हैं।
    ज्ञान जी का नाम बहुत सुना है और ‘पहल’ से भी परिचित हैं। पर आपके साथ हुए हादसे को पढ़कर दुख हुआ। हालांकि हमारा उनसे कोई परिचय नहीं है और ना ही हम उन्हें ज्यादा जानते हैं। नाम बहुत सुना है। आप काम सौंपें भी और मेहनत करने के बाद उसे नकार दें यह तो वाकई तकलीफदेह और हताश कर देने जैसी बात है। इंसान निराश होकर नकारात्मकता में डूब सकता है। जबकि आपने उसके लिए भारी मेहनत की हो। सौ- डेढ़ सौ कहानी संग्रह को पढ़ना और उससे चयन करके अपना श्रेष्ठतम लिखना यह सरल नहीं है। यहाँ तिवारी जी की सकारात्मक सोच नजर आती है। जो श्रेष्ठ है वह पाठक के सामने आना ही चाहिये। निश्चित रूप से यह संपादक की दृढ़ता की मिसाल थी कि उन्होंने उसे भले ही दो भागों में, लेकिन आपका लेख छापा। किसी अन्य को प्रसन्न करने के लिये या सिर्फ इसलिए कि कोई खास नाराज ना हो जाए, सच्चाई से नहीं फिरना चाहिये। तिवारी जी के व्यक्तित्व को प्रणाम पत्रिका चाहे कोई सी भी हो लेकिन वही अच्छी है जो लेखकों की पत्रिका हो, संपादक की नहीं। आपके लेख के लिये जिस तरह तिवारी जी ने आपको आश्वस्त किया वह काबिले तारीफ है किसी संपादक से इस तरह का आश्वासन मिलना बहुत बहुत बड़ी बात है कि,” आपने जैसा लिखा है, बिल्कुल वैसा का वैसा बिना काट- छाँट के छप जाएगा।”
    इंटरव्यू के माध्यम से तिवारी जी के गाँव से शहर की ओर तथा किसानी से अध्यापन की ओर का इतिहास और सलीके से पता चला ।

    कुछ लोगों का ऐसा स्वभाव या कहें बौद्धिक क्षमता रहती है कि जो भी एक बार देखते हैं, सुनते हैं, या पढ़ते हैं, वह उन्हें एक बार में ही याद हो जाता है। और किसी-किसी की कोशिश भी रहती है कि जो कुछ पढ़ा जा रहा है वह एक ही बार में समझ लिया जाए। इस मामले में वे गंभीर रहते हैं ।
    संवेदनशीलता और सह्रदयता की यह विशेषता होती है कि वह वेदना, पीड़ा या दुख, फिर चाहे वह किसी की भी क्यों ना हो; बहुत जल्दी द्रवित हो जाती है। अपने दुख से तो सभी दुखी होते हैं लेकिन एक सहृदय लेखक हर पीड़ा से अपने को जुड़ा महसूस करता है। यह मानवीय गुण का प्रतीक है। वरना अपने लिए तो सभी जीते हैं और अपने लिए ही सोचते हैं। सारी दुनिया ऐसे लोगों से ही भरी पड़ी है।
    तिवारी जी की इस बात से तो हम भी सहमत हैं कि जब कोई इंसान अत्याचार का विरोध करने के लिए शस्त्र उठाने में असमर्थ हो तो फिर वह कलम को ही शस्त्र बनाकर अपने विरोध को दर्शाता है।
    माँ के बारे में तिवारी जी ने जो भी कहा वह हिस्सा बड़ा ही मार्मिक लगा।
    हम सोचते हैं कि समझदारी और शिक्षा दोनों अलग-अलग चीज हैं। यह जरूरी है कि शिक्षा से समझदारी विकसित होती है और प्रखर भी। अपने बचपन में नंदन में हमने घनश्याम दास बिरला जी का एक प्रसंग पढ़ा था ।ऐसा याद आ रहा है कि वह भी बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन फिर भी देखिये कि उनका नाम किताबों में तब भी था और संस्मरण भी थे जो दूसरों के लिए प्रेरणा थे।
    बाबा के प्रसंग ने भी द्रवित किया।
    एक बात जेहन ठहर गई बाबा की कि,”सोने की कुदारी से खेत नाही कोड़ल जाला।”मतलब सोने की कुदारी से खेत की गुड़ाई नहीं की जाती तिवारी जी के मामले में उनके बाबा यही सोचते थे कि वह खेती के लिए नहीं बने। तिवारी जी के यात्रा वर्णन के बारे में जिस तरह से आपने लिखा है उसे पढ़ते हुए काका कालेलकर की *दक्षिण गंगा गोदावरी* का यात्रा वृतांत याद आ गया। बेहद खूबसूरत था। विधा चाहे जो भी हो लेखन की प्रभावशीलता ही उसे श्रेष्ठ बनती है।
    आपने “एक नाव के यात्री” पुस्तक की चर्चा की है। संभव हुआ तो हम उसे पढ़ना चाहेंगे।
    राजेंद्र यादव जी और नामवर जी के बारे में आपका लिखा पढ़कर थोड़ा आश्चर्य हुआ। मन्नू भंडारी हमारी प्रिय कहानीकारों में से हैं। एक लंबे समय तक हम इस संशय में रहे कि मन्नू भंडारी मेल है कि फीमेल। तब मोबाइल का जमाना नहीं था।
    पता नहीं लोग दोहरा चरित क्यों रखते हैं वह भी शीर्ष पर बैठकर।
    बहुत अर्थपूर्ण कविता है ” सड़क पर चलता है एक लंबा आदमी” आपके लेखन में वह ताकत है कि आप जिसके बारे में लिखें उसे अमर कर दें। वह बात अलग है कि ऐसे लोगों को ढूँढने में आपकी नजर, सोच, दिल, दिमाग; सभी कुछ बहुत परिपक्व है और कलम की ताकत तो महसूस होती है। इस बेहतरीन संस्मरण के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आपका ।आदरणीय तिवारी जी को हमारा सादर चरण स्पर्श। आपको और आपकी कलम को ,दोनों को ही सादर प्रणाम प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का तहेदिल से शुक्रिया और पुरवाई का आभार तो बनता ही है।

  4. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी पर प्रकाश मनु जी का संस्मरण अच्छा लगा। उन्होंने तिवारी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पूरी ईमानदारी से लिखा है। उनके सादा जीवन को देखने का अवसर मुझे दो बार मिला है। एक बार अपनी उरई में और दूसरी बार झांसी में। वे कठिन से कठिन माहौल को हल्का-फुल्का बनाने में सिद्धहस्त हैं। झांसी के एक वाकये की बात करना चाहूंगा। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी में माननीय कुलपति महोदय सुरेन्द्र दुबे जी ने एक कार्यक्रम रखवाया था। बहुत से साहित्यकारों के साथ तिवारी जी, कथा लेखिका मैत्रेई पुष्पा जी तथा अन्य बड़े साहित्यकार शामिल थे। तिवारी जी उस समय साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष थे। स्वाभाविक है कि उस कार्यक्रम में लिखित रूप में तो वे विशिष्ट थे ही, कुछ लोगों के लिए अध्यक्ष के रूप में विशिष्ट दिख रहे थे, कुछ लोगों के लिए वे साहित्यकार और संपादक के रूप में विशिष्ट थे। बड़े हाल में कार्यक्रम चल रहा था। मैत्रेयी पुष्पा जी ने बोलना शुरू किया। बोलते बोलते वे अपने उपन्यास इदन्नमम पर आ गई। उन्होंने वहीं बैठे एक साहित्यकार का नाम लेकर बोली कि इस उपन्यास पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार इन्होंने नहीं मिलने दिया। वे साहित्यकार सामने बैठे कुर्सी से उठकर बोलने को हुए तो मैत्रेयी जी ने कहा, आप बैठ जाइए । इसका मेरे पास सबूत है। आपने बाकायदा चिट्ठी लिखी थी। वे शख्स तनफनाते हुए बैठ गए। जब बारी तिवारी जी के बोलने की आई तो उन्होंने इस बात को इस अंदाज में व्यक्त किया कि हर व्यक्ति उनकी प्रशंसा करने लगा। वे बोले कि रचनाकार पुरस्कारों से बड़ा नहीं बनता है , वह अपने लेखन से बड़ा होता है, अपने कर्म से बड़ा होता है। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी जी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। आज दुनिया सिर्फ महात्मा गांधी जी को जानती है। और जिनको नोबेल पुरस्कार मिले हैं उनके नाम कितने लोगों को पता है? उनका यह वक्तव्य ताजिंदगी नहीं भूल सकता हूं मैं।

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