आज मुद्दतों बाद
बचपन की दहलीज बेसाख्ता याद आ गई
मां पुकारती अरे लड़की ,
क्यों तू हरदम खेलती लड़कों वाले खेल
कंचे, सितोलिया, कबड्डी, गिल्ली डंडा
क्यों तुझे रास नहीं आते गुड्डे गुड़ियों के खेल ?
घर-घर खेलने वाला मजेदार खेल
जिसमें छोटे-छोटे बरतन
कभी एल्युमिनियम के, कभी प्लास्टिक के,
कभी लकड़ी के, रंग बिरंगी पॉलिश किए हुए
तेरे लिए ही तो लाती हूं
तू उन्हें डाल देती है पुरानी प्लास्टिक की बाल्टी में
जहां कई पुराने, कुछ टूटे खिलौने मौजूद हैं
और दौड़ पड़ती है घर से बाहर
वही कंचे, सितौलिया, कबड्डी , गिल्ली डंडा खेलने .
बारिश आती तो सखियों संग
घर से बाहर इकट्ठे हुए पानी में
छपाक करते , कागज की नाव चलाते,
वीर बहूटी को माचिस की डिब्बी में समेटते
तितलियों के पीछे दौड़ते
मेंढकों की टर्र- टर्र की नकल करते
भीगे कपड़ों संग घर लौटते
और मां की डांट डपट खाते
मौसम निकल जाता.
फिर यौवन का हसीं दौर आया
अपने शारीरिक परिवर्तन के आकर्षण से
वह खुद ही चमत्कृत होने लगी
अब मां का सारा ध्यान
उसकी गतिविधियों पर टिक गया.
ऐसे मत बैठो, ऐसे मत चलो, इधर-उधर मत देखो
इतनी जोर से नहीं हंसो, तुम लड़की हो .
कुछ ऊंच-नीच हो गया तो
समाज जीने नहीं देगा
सबकी निगाहें तुम पर होंगी
फूंक फूंक कर कदम रखना होगा.
इन्हीं बंदिशों को स्वीकारते
उनका पालन करते
अदब और सलीके की घुट्टी पीकर
लड़की परिपक्व युवती बन गई.
अल्हड़ लड़की का बचपन याद कर
परिपक्व युवती निर्णय लेती है
वह अपनी लड़की को आजाद परिंदा बनाएगी
दुनिया को समझाएगी
न नोंचो पंख लड़कियों के
उन्हें भी हक है उड़ान भरने का
मत दबाव डालो उन पर बंधनों का
विश्वास रखो उसकी प्रतिभा का.
उसमें कूवत है
आकाश की बुलंदियां छूने की
नारी से दुर्गा बनने की
हर सफलता हासिल करने की
अंधियारों को उजालों में बदलने की
असंभव को संभव बना लेने की
एक बार उसे अपने खुले आकाश में
उड़ान तो भरने दो
फिर मान लोगे लोहा
ईश्वर की इस अमोल कृति का .
काफी अच्छी और प्रेरणास्पद कविता है आपकी नरेंद्र जी! हम लड़कियों को जागरूक बनाएँ। उन्हें स्वतंत्रता दें, उनके पंखों को उड़ान दें,साथ ही उन्हें स्वतंत्रता और स्वछंदता का अर्थ जरूर बताएं क्योंकि स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंदता नहीं होता। बधाई आपको इस कविता के लिये।
छाबड़ा मैडम बहुत अच्छी कविता है आपको बधाई।