Sunday, September 8, 2024
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अजय कुमार पाण्डेय की कविता – रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा

चल रही धरती गगन अरु चल रही पुरवा सुहानी,
चल रहे हैं चांद तारे खिल रही है रात रानी।
जब प्रकृति के गीत सुंदर मन में हो फिर क्षोभ कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
है वही जीवन समर्पित स्वयं की जो भूल समझे,
पंथ के हर कंटकों को पंथ का ही फूल समझे।
जो विकल हो कंटकों से पंथ पर फिर क्रोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
दे रहे यदि पुष्प जग को स्वयं फिर अधिकार कैसा,
स्वार्थ पोषित पंक्तियों में सत्य का प्रतिकार कैसा।
जो मिथक है ये जगत तो सत्य पर अवरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
हैं सभी की भावनाएं और सबकी ज़िदगानी,
लिख रहे हैं पंक्तियों में पृष्ठ पर अपनी कहानी।
यदि कथानक क्षुब्ध है तो अन्य से अनुरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
प्रात किरणें नित हृदय में चेतना संचार करतीं,
पल्लवित नव आस देतीं क्षोभ का निस्तार करतीं।
भोर है जब हर निशा का रात्रि फिर गतिरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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2 टिप्पणी

  1. बहुत-बहुत-बहुत ही सुंदर कविता है आपकी अजय जी! वैसे तो यह कविता नहीं गीत है।
    शीर्षक पंक्ति को अगर छोड़ दें तो हर पद की तीसरी पंक्ति महत्वपूर्ण है। कवि-मन के अंतर का सौंदर्य और आनंद गीत में प्रतिभासित हुआ है। बेहद खामोशी से अंतर का आल्हाद बाहर प्रसारित होकर किसी कुण्ठित को सहला रहा है कि हमें हार मानकर अपने पथ पर बढ़ते हुए कदमों को रोकना नहीं चाहिये। अगर तुमने ऐसा किया तो फिर तुम्हारा लक्ष्य अधूरा ही रह जाएगा।
    ज्ञान के मार्ग पर बढ़ते हुए तुम्हारे कदम अगर रुक गये तो तुम्हारा ज्ञान अधूरा ही रह जाएगा और तुम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाओगे। वैसे तो पूरा गीत ही बहुत अच्छा है फिर भी जिस पद में अधिक प्रभाव छोड़ा-
    *है वही जीवन समर्पित स्वयं की जो भूल समझे,*
    *पंथ के हर कंटकों को पंथ का ही फूल समझे।*
    *जो विकल हो कंटकों से पंथ पर फिर क्रोध कैसा*,
    *रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।*
    लाजवाब गीत के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

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