Wednesday, October 16, 2024
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बिमल सहगल की कविता – खंडित मूर्तियाँ

सड़क किनारे दिख जाते हैं
मौली के धागे से लिपटी मटकियाँ और घड़े
पीपल के पैरों में सभी आड़े-तिरछे, लुढ़के  पड़े
किन्हीं पूर्वजों के स्मृति चिन्ह -शायद श्राद्ध में समर्पित
वंशजों की श्रद्धांजलियाँ।
मान्यता के धागों में लिपटे, जकड़े खड़े मौन बरगद
और इन पावन पेड़ों की जड़ों को अर्पित
देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियाँ
और साथ में कुछ फ्रेम-जड़े, फटे-पुराने धार्मिक चित्र।
साथ ही में कभी दिख जाते हैं
घरेलू एल्बमों से निष्कासित या दीवारों से अवतरित
किन्हीं स्वर्गीय पितरों के स्मरण
और उनके मिटे अस्तित्व के बचे बेकार से प्रमाण।
यह सब दिखा जाते हैं बरबस बिसरी विरासत के प्रदर्श भी,
वह सब जीवित अवशेष-
घर के अंधेरे कोने में अभी बिस्तर से बंधे या
बाहर निकाले गए भगवान यूं  ही जो भटकते हैं सड़कों पर
या जिन्हें छोड़ आए वृद्धाश्रम। 
देख कौओं को बैठे
बरसाती पानी भरे उन मटकों पे चोंचे गड़ाए
दुविधा चली आती है साथ
क्या यह पूर्वज हैं उनके या वंशज ही खुद बैठे हैं
विरासत को नोचते। 
बिमल सहगल
बिमल सहगल
नवंबर 1954 में दिल्ली में जन्मे बिमल सहगल, आई एफ एस (सेवानिवृत्त) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य में ऑनर्स के साथ स्नातक होने के बाद, वह विदेश मंत्रालय में मुख्यालय और विदेशों में स्तिथ विभिन्न भारतीय राजदूतवासों में एक राजनयिक के रूप में सेवा करने के लिए शामिल हो गए। ओमान में भारत के उप राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने जुलाई, 2021 तक विदेश मंत्रालय को परामर्श सेवाएं प्रदान करना जारी रखा। कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से, उन्होंने 1973-74 में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स में शामिल होकर ‘मुक्ता’ नामक पत्रिका में 'विश्वविद्यालयों के प्रांगण से' कॉलम के लिए रिपोर्टिंग की। अखबारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशन गृहों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भारत व विदेशों में उनकी सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। अंत में, 2014-17 के दौरान ओमान ऑब्जर्वर अखबार के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। संपर्क - [email protected]
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4 टिप्पणी

  1. आपके प्रोत्साहन और अभिरूप भावनाओं के लिए धन्यवाद।विडंबना ही है कि हम सब जो छूट गया, भुला देने पर खो गया उसको तो अंधविश्वास के चलते याद करने और पूजने का दिखावा करते हैं वहीं जो धरोहर हमारे सुपुर्द है उसे सहेज पाने का वांछित प्रयास ही नहीं करते.

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