Sunday, September 8, 2024
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पंकज मिश्र ‘अटल’ की कविता – कुछ देर और बैठ जाएं

आओ
बैठते हैं कुछ देर
याद करते हैं वे शामें,
मन के उछलने के दिन,
उठती है गंध कहीं अंदर से,
आओ बांट लें
मिट्टी की गंध के साथ- साथ
मन के छंद,
आओ मिट्टी हो जाएं,
कुछ देर और बैठ जाएं।
फ़िर साफ
दिखता है आकाश
महसूस होती है ललक
दिशाओं में
समेट लेने को विस्तार,
बाहें फैलाएं
छुएं तितलियों को
पत्तियों, कलियों और फूलों को,
पी लें खुशबुओं को
कर लें अनुबंध महक से,
आओ चंचलता में नदी की
हो जाएं चंचल
टूट जाएं तटबंध
और फिर से नदी हो जाएं,
कुछ देर और बैठ जाएं।
बुला रहे हैं जंगल,
पेड़ और नए पौधे
करने को परिचय
नहीं मिले कई वर्षों से
दूर के रिश्तेदारों की तरह,
लौटें घरों में अपने,
घोंसलों में,
फैलाएं अपनापन
झांके नज़रों में
छुएं कलकल
जी जाएं मरते संबंध,
सब कुछ दोहराएं
फिर से अपनों में लौट जाएं,
कुछ देर और बैठ जाएं।
कुछ देर के लिए ही
झांके कमरों से बाहर
छप्पर पर बैठे गौरैयों के जोड़े
खेलते धूप की गेंदों से,
फैलती खेतों से
सरसों की गंध में
नहाते लोकगीत,
कच्ची सड़कें
पकड़ कर उंगली
साथ- साथ ले जाएं
बच्चों को उनके घर,
बैठ जाएं नीम, जामुन,
पीपल और बरगद के साथ,
दोहराएं यादें,
भीगे कोरें आंखों की
मन से फिर यादें लिपट जाएं,
मन को भी भिगो जाएं,
आओ कुछ देर और बैठ जाएं।
सांझ होते ही
उतर आए
रोशनी आलों में दियों की,
पड़ जाए अंधेरे की गति मंद
आओ मिल आएं
खेतों से, चूल्हों से,
पहली बारिश के बाद उठती गंध से,
जंगली फूलों, अल्हड़ नदी के
पागलपन से,
उन पत्थरों से
फेंकते थे जिनको रोज़ ही
नदी में किसी जरूरी काम की तरह,
उनको तनिक छू आएं
कुछ देर तो रुक जाएं,
छूट गया है दूर जो कुछ भी
समेट लाएं,
आंखों में, बाहों में, मन में
पास में बैठें,
इस ठहरी हुई शाम के
संग भी तो थोड़ा बतियाएं
आओ कुछ देर और बैठ जाएं।
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