Tuesday, September 17, 2024
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प्रदीप गुप्ता की कविता – देश

देश नहीं सीमित है केवल
भौगोलिक सीमाओं में 
जहां जहां भी पहुँच गए हैं
अपने प्यारे भारत वासी
वहीं मिलेगी तुम को देखो
भारत की असली झांकी  
पहुँच गया है परदेसों में
देश प्रवासी की बाहों में
देश का अपनापन पाओगे
प्रांत प्रांत की भाषाओं में  
धर्म और विश्वास समाया
जन जन की आशाओं में
यह बसता है तसबीहों में
और हवन की समिधाओं में 
इसमें कत्थक की लय है
कुचिपुड़ी की कोमलता
इसमें वेद ऋचाएँ बसतीं
सूफ़ी गायन की मोहकता 
कण कण इसका प्राणवान हैं
युवा पीढ़ी की प्रतिभाओं   में 
काग़ज़ का नक़्शा मत मानो
यह जन के  मन में बसता है
धड़कन खेतों खलिहानों की
इसमें जीवन की समरसता है 
इसे समझना हो  तो झांकों
युवाजनों की आकांक्षाओं  में

प्रदीप गुप्ता
संपर्क – [email protected]
प्रदीप गुप्ता
प्रदीप गुप्ता
Freelance Media Journalists' Combine के प्रमुख हैं. संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. अच्छी कविता है आपकी प्रदीप जी !देश!!
    देश का नाम और वह कविता अच्छी ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता।आपने एक बात बहुत अच्छी कही है कि आज ऐसा समय आ गया है कि देश को सिर्फ भौगोलिक सीमाओं में ही बाँधकर नहीं रखा जा सकता हर देश के लोग दूसरे देशों में जा रहे हैं बहुत अच्छी लगी यह पंक्तियाँ

    *जहां जहां भी पहुँच गए हैं*
    *अपने प्यारे भारत वासी*
    *वहीं मिलेगी तुम को देखो*
    *भारत की असली झांकी*
    *पहुँच गया है परदेसों में*
    *देश प्रवासी की बाहों में*
    *देश का अपनापन पाओगे*
    *प्रांत प्रांत की भाषाओं में*

    यह कविता पुरवाई के लिए तो बिल्कुल फिट बैठती है।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको इस कविता के लिए।

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