तुम शायद फिर आओ हम फिर नदी के किनारे बैठ मौन ही सही , शब्द बंधन से मुक्त कुछ साझा करेंगे, जिसे हमारे अंतर मन ही समझ पाए वेदना , पीड़ा , सुख , आनंद ये तो प्रवाह है तरंग है जो तुम से निकल मुझ में प्रविष्ठ हो पुनः तुम तक पहुंचने को आतुर अब तुम ही कहो संसार की कौन सी भाषा का शब्द संसार इसे व्यक्त कर पाएगा जो तुम्हारे मौन से संतृप्त है अंतर मेरे छू कर जाता है शब्दहीन किंतु वृहत रच जाता है मनन चिंतन में समाहित हो एकरस हो जाता है शायद आदि ब्रह्म ने इस शब्दहीन अंतर वार्ता को हम दोनो के लिए ही रचा
इस एकांत की अपनी गरिमा है शब्द , प्रहार बन इसकी मर्यादा तोड़ेंगे जो तुम्हे मुझे स्वीकार नहीं ये आशा नहीं स्वप्न नही विश्वास है फिर तुम्हारे सानिध्य बैठ शब्दहीन अंतर प्रवाह से बाते करेंगे ,सर्वत्र फैले मौन को नमन करते आनंद के चरम को अंतर धारण करेंगे धैर्य की गागर न छलके प्रतीक्षा हो न अंतहीन नदी तट पर पसरे मौन से पूछता हु , मन को ढांढस देता हु सुनो ये मेरा स्वप्न नही व्योम में गुंजायमान आकाशवाणी है विश्वास है , अनंत तप का तेज है तुम्हे फिर आना है तुम्हे फिर आना है…..
2 – जाने की बेला
अब न करो मनुहार प्रिये ये जाने की बेला है चाहो मुझे रोकना कर पाओगी ये कैसे दूर व्योम मे अनजान पुकाराता निरंतर मुझे ये सजल नेत्र कहते तुम्हारे रुक कर आलिंगन करो मेरा तुम ही कहो अब न बस मेरे ये देह भी चाहती विदा कहती थक गयी मै अब त्याग कर मुझे मुक्त करो, समाहित करो मेरा हुआ निर्माण जिस मे जीवन के झंझवात मे बहुत सहा साथ तुम्हारे यश-अपयश, हर्ष-क्षेम शैशव से जर्ज़र होने तक साथ रही अब तक
तुम्हारे अभिमान प्रपंचो का बोझ मौन सहती रही अब अग्नि स्नान कर चाहती मुक्ति किन्तु प्रिय तुम्हारा अनन्य प्रेम बहता बन अश्रु चक्षु तुम्हारे तुम अडिग बन चाहती रोकना पर सुनो प्रिये सृष्टि चक्र रुका है कभी ये यात्रा है ऐसी न साथ जाता कोई विस्मृत तुम कभी न हो ये प्रण है संकल्प है अब दृण कर मन करो विदा मुझे सप्त जन्मो का बंधन है फिर मिलन की बेला होंगी संकुचाते कर स्पर्श मेरा धड़कते ह्रदय से निकट आओगी न करो संशय
वचन मेरा अडिग आनंद उत्सव मधुमास होगा नवजीवन अंकुरित होगा सानिध्य प्रिय तुम्हारा पुनः धरा पर स्वर्ग सम होगा