Sunday, September 8, 2024
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दामिनी यादव की दो कविताएँ

1 – युद्ध-शिविर में मृत देह से जन्मे बच्चे के नाम
मुझे नहीं जानना
उन शौर्यगाथाओं के बारे में
जिनकी ध्वजाओं पर
रक्त के छींटे हैं,
वे युद्ध भी मेरे लिए
सिवाय युद्ध के और कुछ भी नहीं
जिनसे की गई ‘धर्म’ की रक्षा,
मेरी दृष्टि केवल उन पर है
जो शव बनकर बिछे हैं,
मेरे पास नहीं हैं उस चिकित्सक के लिए
बधाई और प्रशंसा के शब्द
जो किसी युद्ध-शिविर में
एक मृत माँ की देह से निकाल
उस नवजात को संसार में लाया है,
वह नहीं जानता कि अगली समर-भूमि के लिए
उसने किसी गोली के लिए ये सीना सजाया है,
मुझमें नहीं हो रहा कोई विचलन
उन दृश्यों को देख लेने के बाद भी
जहां विरोधियों पर पाई जा चुकी विजय
तब तक संतुष्टि नहीं दे पाई
जब तक ठोकरों में नहीं उड़ाई गई
धराशायी हुए घरों के अवशेषों की धूल,
ऊँचाई पर लहरा रही विजय-पताकायें
कितनी नीची लग रही थीं तब तक,
जब तक विजय का इतिहास
मृत महिलाओं तक की देह को
रौंदकर न लिखा गया हो,
अपनी विजय पर तब तक संदेह होता है,
जब तक उनमें अस्पताल और स्कूलों का मलबा भी
मिला नहीं होता है,
ये सब अब कितना सहज लगता है,
मनुष्य से दिखते चेहरों में भी मनुष्य नहीं दिखता है,
आश्चर्य नहीं, क्यों मैं भी भावशून्य सपाट हूँ,
कल फिर नए विवरण आ जायेंगे,
हम पुरातन इतिहास से अब तक चले आ रहे विध्वंस भूल
नवीन मंगलाचरण गायेंगे,
हम लेते रहेंगे अंतिम श्वास तक यूँ ही श्वास नयी,
धरती भी घूमती रहेगी अनंतकाल तक,
नहीं छोड़ेगी अपनी धुरी…
2 – न किए गए प्रेम की गाथा  
उधार में मिली प्रेम कहानियों को
मैंने कभी नहीं अपना माना
जो सच मैंने जिया
सिर्फ़ उसी को सच जाना।
मुझे कभी नहीं आया
किसी को अपनी तरफ़ देखता पाकर निगाहों को झुकाना,
लेकिन न जाने क्या रंग होता था तुम्हारी आंखों में
कि मामूली बातों पर भी मुश्किल हो जाता था
कितनी ही बार तुम्हारी तरफ़ देख पाना।
हमेशा आँखों में आँखें डालकर
मैंने कई सच कहे भी हैं, कई सच सुने भी हैं,
कभी नहीं आया सकपकाना या अटपटा जाना,
लेकिन निष्पाप आँखों का मौन भी एक भाषा होता है
जिसे पढ़कर आसान नहीं होता अनपढ़ बना रह पाना।
इन हाथों ने थामी है कमान
समय के बिगड़ैल घोड़ों तक की,
न ये काँपे, न थरथराये
भार हो चाहे जितना, जैसा, जो भी,
फिर भी कुछ थमाते या थामते
अनजाने में छू गए हाथ जब भी तुम्हारे
नहीं था जिनमें कभी कोई प्रयास बलात छू जाने, छू लेने का
जाने क्यों काँपता रहा देर तक भीतर कुछ
जाने क्यों डोलती रही भीतर तक मैं भी।
पदचिह्नों पर चलना मुझे जूठन चखने जैसा लगता है,
साफ़ बनी राहों में ही सबसे ज़्यादा कुछ गड़ता है
अपने हिस्से की पथरीली राहों पर चलने का
सुख ही कुछ और होता है,
जिन पैरों में लगाया नहीं कभी आलता,
उन लहूलुहान पैरों के आगे
हर रंग फीका होता है,
पर जब कभी तुम्हारे पैरों के बने हुए निशान पर
रखकर अपना पैर नापा है,
न मंज़िल जुटाई हुई लगी, न सफ़र से हटी कोई बाधा है।
बराबरी पर चलते कंधे देखा है अक़्सर टकराते हैं,
पर तुम्हारे लंबे कद के कंधे मेरे साथ चलते हुए
टकराते नहीं, हमजोली बन जाते थे।
तुम्हारा ऊँचा कद साथ और बराबरी से नहीं घबराता था,
न मेरे नाम के पीछे से पहचान आने पर
तुम्हारा वज़ूद बौना या आहत हो जाता था।
समेटा हुआ नहीं, सहेजा हुआ पाया था
अपनी धार को तुम्हारे मौन प्रेम की म्यान में,
लेकिन चाहे जितनी सुरक्षित हो या हो आरामदायक,
म्यान में रहे, नहीं तलवार का काम ये।
प्रेम के रंग बड़े कच्चे होते हैं,
छूते ही उंगलियों से चिपक जाते हैं,
छुड़ाने की कोशिश में उंगलियाँ हो जाती हैं घायल
और छूट जाने पर बाक़ी सभी रंग बदरंग हो जाते हैं,
इसीलिए नहीं लगा पाई प्रेम की चाशनी कभी होंठों पर,
सिर्फ़ अनकही वफ़ादारी का खारापन ही जुटाया है,
ख़ामोशी से जाने दिया तुम्हें तुम्हारी राह
और अपनी राह पर पल-भर को ठिठक गए पैरों को
फिर से पूरी मज़बूती से जमाया है,
आज तुम्हारे नाम का चमकता सितारा मैंने सिर्फ़ यादों में
मन के अंधेरे-एकांत कोने में चमकाया है,
तुम्हारे नाम का एक आँसू मैंने आज
समंदर पर नहीं, समंदर में गिराया है,
विशाल खारेपन को विशाल खारापन ही समेट सकता है,
क्या जाने किसने किसको समेटा है,
क्या जाने किसने किसको डुबाया है… 
दामिनी यादव
संपर्क – [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. पुरवाई व्यापक स्तर पर पाठकों के लिए एक बौद्धिक मंच उपलब्ध करवा रहा है,इसके लिए संपादकीय टीम बधाई की पात्र है।

  2. स्नेही दामिनी
    तुम्हारी दोनों ही कविताओं ने हमें प्रभावित किया। युद्ध कविता ने तो हिला ही दिया है। हो सकता है तुम बड़ी साहित्यकार हो, हम तो नहीं हैं यह जानते हैं , लेकिन फिर भी तुम्हें नाम से ही संबोधित करने का मन हुआ।

    युद्ध-शिविर में मृत देह से जन्मे बच्चे के नाम

    वास्तव में युद्ध घृणा का ही विषय है। युद्ध करने वाले बस नफरत करना नहीं छोड़ पाते।अपने स्वार्थ के यज्ञ में निर्दोषों के प्राणों की आहुति देते हुए उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता। कितने भी विकसित देश के लोग हों, कितना भी विकसित दिमाग हो, लेकिन यह नहीं जान पाए कि कुछ भी साथ नहीं जाएगा।मरने के बाद भी 6 फीट लंबी जमीन में नीचे दफन होकर धरती पर बोझ की तरह ही रहना होगा। पहली ही पंक्ति ने दिल दहला दिया। कितना अकल्पित लगता है यह मंजर और कितना डरावना!
    निर्दोषों की जान लेते हुए भी जिसके हाथों में कंपन न हो,दिल न पसीजे, वह सिर्फ और सिर्फ राक्षस या दानव हो सकते हैं, पिशाच हो सकते हैं, पर इंसान तो बिल्कुल भी नहीं। कुछ पंक्तियों ने अंतर्मन को बेहद उद्वेलित किया। ऐसा लगता है पता नहीं क्या-क्या कर डालो!

    *-“शिविर में मृत देह से जन्मे बच्चे के नाम”*
    यह संभवत: युद्ध शीर्षक के साथ ही जुड़ा हुआ है। यही वह पंक्ति है जिसको पढ़कर पूरे बदन में से सिहरन हो उठी।

    महत्वपूर्ण पंक्तियाँ
    *ऊँचाई पर लहरा रही विजय-पताकायें*
    *कितनी नीची लग रही थीं तब तक,*
    *जब तक विजय का इतिहास*
    *मृत महिलाओं तक की देह को*
    *रौंदकर न लिखा गया हो,*
    *अपनी विजय पर तब तक संदेह होता है,*
    *जब तक उनमें अस्पताल और स्कूलों का मलबा भी*
    *मिला नहीं होता है,*
    *ये सब अब कितना* *सहज लगता है,*
    *मनुष्य से दिखते चेहरों में भी मनुष्य नहीं दिखता है!*

    2 – न किए गए प्रेम की गाथा

    यह कविता अपनी वैचारिक क्षमता,दृढ़ सोच व सटीक निर्णय की परिचायक लगी।

    *जो सच मैंने जिया*
    *सिर्फ़ उसी को सच* *जाना।*
    *मुझे कभी नहीं आया*
    *किसी को अपनी तरफ़ देखता पाकर निगाहों को झुकाना*
    कितनी दृढ़ता और आत्मविश्वास है इन पंक्तियों में।

    कुछ पंक्तियाँ जो अच्छी लगीं-
    *हमेशा आँखों में आँखें डालकर*
    *मैंने कई सच कहे भी हैं, कई सच सुने भी हैं,*
    *कभी नहीं आया* *सकपकाना या अटपटा जाना*
    *लेकिन निष्पाप आँखों का मौन भी एक भाषा होता है*

    (भाषा शब्द क्योंकि स्त्रीलिंग में आता है इसलिए यहाँ पर *”भाषा होती है”* सही होगा, अगर *होता* शब्द को ही हटा दो तो कोई बात नहीं, कोई परिवर्तन नहीं होगा)
    *जिसे पढ़कर आसान नहीं होता अनपढ़ बना रह पाना।*

    *पदचिह्नों पर चलना मुझे जूठन चखने जैसा लगता है,*
    *साफ़ बनी राहों में ही सबसे ज़्यादा कुछ गड़ता है*
    *अपने हिस्से की पथरीली राहों पर चलने का*
    *सुख ही कुछ और होता है,*

    *जिन पैरों में लगाया नहीं कभी आलता,*
    *उन लहूलुहान पैरों के आगे*
    *हर रंग फीका होता है,*

    *बराबरी पर चलते कंधे देखा है अक़्सर टकराते हैं*,

    *लेकिन चाहे जितनी सुरक्षित हो या हो आरामदायक,*
    *म्यान में रहे, नहीं तलवार का काम ये।*
    *प्रेम के रंग बड़े कच्चे होते हैं,*

    *तुम्हारे नाम का एक आँसू मैंने आज*
    *समंदर पर नहीं, समंदर में गिराया है,*
    *विशाल खारेपन को विशाल खारापन ही समेट सकता है,*
    *क्या जाने किसने किसको समेटा है,*
    *क्या जाने किसने किसको डुबाया है…*

    आग और पीड़ा से भरी इन लाजवाब कविताओं के लिये बहुत-बहुत बधाइयाँ दामिनी!
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया तो बनता ही है और पुरवाई का आभार भी!

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