Sunday, September 8, 2024
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बालकृष्ण गुप्ता “गुरु” की कविताएँ

चौकीदारी
अपराधी, पुलिस करते चौकीदारी
एक दूसरे की
खेलते लुकाछिपी का खेल
नेता, पत्रकार निभाते अपनी भूमिका
खेलते, खाते, खिलखिलाते।
सूरज दिन में करता चौकीदारी
सो जाता रात को
जगाता रहता चौकीदार रात को
चिल्लाते जागते रहो।
दिन में खांसी थोड़ी दब जाती
उभर जाती रात में
जाने-अनजाने बुढ्ढा करता चौकीदारी
लेता बीच-बीच में भगवान का नाम।
अधमुंदी आँखों से जागती चौबीसों घंटे
बीमार बच्चे का रखती ख्याल
जागती आधी रात तक जगाये रखने के लिये
ब्रम्ह मुहूर्त में, पढ़ने जगाने के लिये।
बच्ची हो गई युवती
अनहोनी से बचाने के लिये
होती रहती चुपचाप चौकीदारी
होती है ऐसी माँ, परिवार होता साथ निभाने के लिये। 
एलबम पलटते 
उपन्यास पढ़ने से अच्छा है
अपना एलबम पलटना,
यादों के तड़के के साथ
अपनों के साथ
अपने को फिर से जानने की ख़ुशी
वह भी बिना खर्च और अनमोल,
कुंलाचे भरते कस्तूरी मृग
मृग के पीछे और मृग,
मयूर पंख लेकर उड़ते
सप्तरंगी गुब्बारे
काले एक भी नहीं,
पीछे लौटना ही नहीं,
लौटकर देखना,  खुशियों की रफ़्तार बढ़ा देती है,
सब कुछ मीठा-मीठा,  गप्प-गप्प
न कडुवा थू-थू,  न मिर्ची सू-सू।
तथाकथित अच्छा उपन्यास भी
लेता हुआ समय, बोझिल बना देता है
रंग होते हैं, तो धब्बे भी,
अपने से अलग
काल्पनिक या वास्तविक जानकर
जो कितना कम होता है
अपने को फिर से जानने से
उपन्यास के ऊपर कुछ भी लिखा हो सकता है,
उल्टा-सीधा भी
सामान्य तौर पर एलबम के ऊपर लिखा होता है
नाच ज़िंदगी नाच
गा ज़िंदगी गा
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