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दिविक रमेश
1- कविता पृथ्वी होती है
जहां से शुरू होती है
खत्म भी वही होती है एक अच्छी कविता।
कविता पृथ्वी जो होती है
जिसका एक छोर
मिला होता है हमेशा
दूसरे छोर से।
कितने ही
बांटना चाहते हैं पृथ्वी को
कितने ही खींचते रहते हैं लकीरें
डालते रहते हैं दरारें
लेकिन नहीं कर पाते अलग
पृथ्वी के एक छोर को
दूसरे से।
लहुलुहान हो कर भी जैसे
कविता, कविता रहती है आत्मा सी।
कहां बांट पाते हैं उसे
बारूद
बन्दूकें
तोपें
तलवारें
तीर
या चाकू
दुनिया भर के।
बांटने वाले
खुद बंट कर रह जाते हैं।
यह पृथ्वी ही है
जो टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी
पृथ्वी ही रहती है।
ठीक वैसे ही
जैसे कविता
हर हाल कविता होती है।
कविता जहां से शुरू होती है
खत्म भी वहीं होती है।
उसमें
घर जो होता है
हर उत्कृष्ट इंसान का।
ठीक वैसे ही
जैसे पृथ्वी
अन्ततः घर होती है
हर उत्कृष्ट इंसान का ही।