Tuesday, September 17, 2024
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रश्मि विभा त्रिपाठी की तीन कविताएँ

1 – चिनार की छतरी

क्या याद है तुम्हें
वह चिनार?
सावन की एक शाम
हम उस चिनार की छतरी के नीचे थे
बहुत तेज बरसात में
जब
हमारे मन बादलों ने सींचे थे
हमारे भीतर उगा था
तब
एक नेह का पौधा
जिसपर
खिले थे
अहसास के फूल
हम महक उठे थे
चहक उठे थे
देखकर मुस्कानों की तितलियाँ
मँडराते खुशी के भँवरे
सपने सँवरे,
उस बीते जमाने का
तुम्हारे जाने का
गवाह
पत्ता- पत्ता
चिनार के सीने से
लिपटा हुआ
जिसने हमें दी थी
खिलने की दुआ
पतझड़ में भी
खिलखिलाता
बहार के गीत गुनगुनाता
शाख पर बैठा
जब उधर से गुज़रूँ
तब
मुझसे पूछता है-
मुझपर ही
उदासी का ज़र्द पीला रंग
क्यूँ उड़ेल गया है
विरह का बेदर्द मौसम?
आओ देखो
मनमीत!
मुरझा न जाए
कहीं हमारी प्रीत
रोज आँसू से सींचती हूँ तभी
लेकिन इस फ़िक्र में
महसूस करो आकर कभी
कि
कतरा- कतरा झर रही हूँ मैं
तुम बिन हर पल मर रही हूँ मैं।
-0-

2 – राज
राज जो सीने में है
दिल, दिमाग, धमनियों में है
वो है
तो है आसानी जीने में
उसे मैं क्यों जाने दूँ
दिल से बाहर
उसे रखूँगी मैं
छुपाकर ताउम्र सीने में
धड़कता धड़कनों के संग-संग
उसी से ज़िन्दगी में रंग
जो मेरे लबों पर
थरथराता है
मेरी रग-रग में
अपना जादू चलाता है
जो मुझे छूकर पिघलाता है
अपनी आँच से
और कभी तपने लगूँ
तो मेरे भीतर बन जाता है
ज्यों एक बर्फ का टुकड़ा शराब में
जिसे महसूस करूँ
तो हो उठती है सिहरन
रूह में,
जिस्म में बिजली दौड़ जाती है
जिसे सोचते हुए
दिन निकल जाता है
मैं सबकुछ भूल जाती हूँ
जब- जब ख़याल में
आता है
वो मखमली अहसास
भाता है
दूर होकर भी पास
मुझमें समाया
मेरा सरमाया
वो
ढलती शाम में उगता सूरज
मुझे क्या गरज
कि बताऊँ किसी को-
मेरी रातों में
क्यूँ ये उजाले हैं?
वो मेरी इकतरफा मुहब्बत है
जिसके ख़्वाब मैंने आँखों में पाले हैं।
-0-
3 – क्या इतना दे पाओगे?
और मुझे कुछ नहीं चाहिए
प्रिय इतना मुझे सहारा दो
मेरी साँसें थम ना जाएँ
जीने का कुछ चारा दो
मेरा नीरव खंड- खंड हो
यों मुझको हरकारा दो
होठों पे जो हास बिखेरे
गीत मुझे वह प्यारा दो
मैं इक मरुथल हूँ प्रियवर
तुम मुझको जलधारा दो
अगर नहीं गंगा- जमुना तो
कोई सागर खारा दो
मेरी नैया कागज की है
या तो मुझे शिकारा दो
बीच भँवर से कैसे निकलूँ
या तो मुझे किनारा दो
घोर अँधेरे मिट जाएँ
ऐसा इक लश्कारा दो
मेरी पूनम की रातें हों
कोई चंदा, तारा दो
तुम सूरज बन मेरे पथ पे
संग चलो, उजियारा दो
मंज़िल जिधर मुड़ूँ, मिल जाए
मोड़ मुझे वह न्यारा दो
गहकर मेरा हाथ विरह को
एक जबाव करारा दो
मुझको बाँहों में कसकरके
तन्हाई से छुटकारा दो
क्या इतना दे पाओगे तुम
मुझको सिर्फ इशारा दो
मैं कब कहती हूँ तुमसे ये
तुम मुझको जग सारा दो।
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2 टिप्पणी

  1. तीनों ही कविताएं वियोग श्रंगार की हैं। एकतरफा प्रेम के वियोग की पीड़ा महसूस हुई रश्मि जी!
    भावपक्ष को कलात्मकता से उकेरा आपने।

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