Tuesday, September 17, 2024
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सूर्यनाथ सिंह की कलम से – रचनाकार को रचना की तरह पढ़ते हुए

साहित्य मनीषियों की अद्भुत दास्तानेः प्रकाश मनु;
डायमंड बुक्स (प्रा) लि., एक्स-30, ओखला इंडस्ट्रियाल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली; 495 रुपए।
हर रचना में थोड़ा रचनाकार भी होता है। ठीक इसी तरह हर रचनाकार में उसकी रचना भी होती है। मगर रचना को पढ़कर तो रचनाकार के व्यक्तित्व का कुछ आभास, कुछ अंदाजा लगा सकते हैं, रचनाकार को पढ़कर उसकी रचना का आनंद लेना मुश्किल काम है। फिर जरूरी नहीं कि रचना में जो रचनाकार है, वास्तविक जीवन में भी वही हो। कई बार रचना के रचनाकार और दुनिया में चलते-फिरते रचनाकार के बीच विरोधाभास नजर आ सकता है। आता ही है। इसलिए रचनाकार को एक रचना की तरह पढ़ लेना कठिन काम होता है। मगर प्रकाश मनु रचनाकार को भी रचना की तरह पढ़ने में सिद्धहस्त हैं। वे रचनाकार के पास कुछ इस तरह जाते हैं, उसके जीवन के सफे कुछ इस तरह खोलते हैं कि वह खुद एक रचना बन जाता है, एक रचना की तरह उसमें से आनंद झरने लगता है। 
साहित्य मनीषियों की अद्भुत दास्तानें उनकी ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें रचनाकारों को बहुत बारीकी से पढ़ने की कोशिश की गई है। इसमें कुल इक्कीस रचनाकारों पर टिप्पणियां हैं। वे रचनाकार हैं- देवेंद्र सत्यार्थी, विष्णु प्रभाकर, रामविलास शर्मा, बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन, भीष्म साहनी, रामदरश मिश्र, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, श्यामाचरण दुबे, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, शैलेश मटियानी, कन्हैयालाल नंदन, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, लाखन सिंह भदौरिया, शेरजंग गर्ग, बालस्वरूप राही, हरिपाल त्यागी, विष्णु खरे और बल्लभ सिद्धार्थ। 
हालांकि मनु जी ने इस किताब में संकलित टिप्पणियों को संस्मरणात्मक जीवनियां कहा है, कुछ लोग इसे संस्मरण भी कह सकते हैं। कुछ लोग इनमें रेखाचित्र और कहानी का मिला-जुला आस्वाद पा सकते हैं। साक्षात्कार की बेबाक बानगी और समीक्षात्मक विश्लेषण भी इनमें साथ-साथ चलता रहता है। दरअसल, इन टिप्पणियों में इन सभी विधाओं का मिला-जुला रसायन है। इस तरह ये टिप्पणियां अन्य संस्मरणों, जीवनियों, रेखाचित्रों से भिन्न बन पड़ी हैं। 

मनु जी मूलतः कथाकार हैं। उनका लोगों को देखने का ढंग अलग है। हर चीज, हर व्यक्ति उनके लिए कहानी का पात्र हो सकता है। फिर जब वह रचना के रूप में उतरता है, तो स्वतः उसमें कथा की बुनावट उतर आती है। कथा का वितान, बुनावट, कथा की चमक और फिनिश नजर आने लगती है। इन टिप्पणियों में इसीलिए भरपूर कथा-रस है। आप इन्हें पढ़ते हुए उस रचनाकार के साथ हो लेते हैं, जिसके साथ मनु जी चल रहे होते हैं। इस तरह वह रचनाकार आपको एक रचना की तरह बहाए ले जाता है। वह केवल मनु जी का चुना हुआ रचनाकार नहीं रह जाता, वह आपका हो जाता है। 
साहित्य में एक लंबा विवाद रहा है कि किसी रचना का मूल्यांकन करते समय रचनाकार के व्यक्तित्व, उसकी वैचारिक बनावट को आधार बनाना चाहिए या नहीं। कई लोग इसे लेकर बड़े सख्त हैं कि रचना का मूल्यांकन स्वतंत्र रूप से, एक रचना के रूप में ही होना चाहिए। पाठ से अलग मूल्यांकन की सामग्री नहीं तलाशी जानी चाहिए। मगर यह कसौटी अकसर अपर्याप्त साबित होती है। रचनाकार को साथ लेकर चलें, तो रचना ठीक से अपने अर्थ खोलने लगती है। इसलिए बहुत सारे लोग रचना के साथ रचनाकार के अध्ययन पर भी बल देते हैं। इसलिए कि रचना में रचनाकार का समय भी बोलता है, उसका वातावरण और परिस्थितियां भी बोलती हैं। उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता तो रचना की दिशा तय करती ही है। इस दृष्टि से मनु जी की ये टिप्पणियां संबंधित रचनाकारों के रचनात्मक पक्ष को खोलने में प्राणाणिक सहायक सामग्री की तरह भी हैं। 
हालांकि मनु जी ने अपनी पुरखा पीढ़ी के रचनाकारों पर कृतज्ञता के भाव से लिखा है और खूब डूबकर लिखा। उन्हें यह बात सदा सालती रहती है कि जिन रचनाकारों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बहुत कुछ नया दिया, उन्हें भुला दिया गया या उन्हें उनका समुचित दाय नहीं मिला। इसलिए यह अकारण नहीं कि मनु जी के दायरे में वे रचनाकार आए ही नहीं, जो खाए-पिए अघाए, जीवन भर अफसरी रोब में तने-अकड़े रहे, साहित्य को तो उन्होंने एक साइड बिजनेस की तरह ही चुना, पर उसके कारोबार को चलाने-बढ़ाने के लिए तरह-तरह के तिकड़म करते रहे, खूब ढिंढोरा पीटते, नए-नए वाद-विवाद छेड़ते-चलाते और उनके केंद्र में बने रहकर अपनी प्रासंगिकता साबित करते रहे। 
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मनु जी को वही रचनाकार मोहते-प्रभावित करते रहे हैं, जिन्होंने जीवन भर साहित्य के लिए ही तपस्या की। साहित्य को ही जीते रहे। उनके जीवन के केंद्र में साहित्य के अलावा कुछ और रहा ही नहीं। खुद अभावों में रहकर भी साहित्य को खूब-खूब समृद्ध किया। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं–
मेरी झोली बड़ी थी, बहुत बड़ी। उसके जल्दी भर जाने का तो सवाल ही न था। फिर मेरे भीतर अतृप्ति गहरी थी, बहुत गहरी। लेखक को भीतर-बाहर से जानने की जिज्ञासा तो उससे भी कहीं ज्यादा। जैसे युग-युग से प्यासा कोई पंथी हो, और उसे किसी दुर्गम पहाड़ी पर अवस्थित झरने का मीठा, अनछुआ जल पीने को मिल जाए। लिहाजा जिस साहित्यकार से मिलने गया, इंटरव्यू के उन निर्मल पल-छिनों में तो मैं मानो उसी का होकर रह गया। और यह मुलाकात कुछ घंटों की नहीं, बल्कि कई बार तो पूरे-पूरे दिन चली। और यहाँ तक कि कई-कई दिनों तक भी चलती रही।
आगे वे साहित्य और लेखकों के प्रति अपनी अलमस्त दीवानगी की चर्चा करते हैं—
मेरी गहरी—बहुत गहरी इच्छा थी कि कई तरह के उतार-चढ़ाव और विभिन्न मोड़ों से गुजरी किसी लेखक की समूची जीवन-कथा को मैं उसकी तमाम मुश्किलों, भीतरी द्वंद्व और कशमकश के साथ जान लूँ, और उसके पूरे जीवन का मर्म अपने शब्दों में ढाल लूँ। और एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर कुछ भी जैसे मेरे बस में न रहा। मैं साहित्य के उस अजस्र बहते सोते में डूबा तो बस, डूबता ही चला गया। कहाँ, कोई किनारा मिलेगा, न मिलेगा। मैं नहीं जानता था। कब तक यह सिलसिला चलना है, मैं यह भी नहीं जानता था। मैं तो बस बह रहा था, और हाथ-पैर छोड़कर बस बहता ही चला जा रहा था।
मनु जी द्वारा लिए गए इंटरव्यूज साहित्यिक बतकही जैसे थे, इसलिए उनकी एक अलग पहचान बनी—
फिर पता नहीं, कब, कैसे मैं जमीन पर आया। कैसे ये लंबे, विलक्षण और एक मानी में अद्वितीय इंटरव्यू लिखे गए। कुछ भी मैं कह पाने की हालत में नहीं हूँ। जैसे सब कुछ साहित्य के एक गहरे नशे और बेसुधी में होता चला गया। लेकिन हाँ, जब पहल सरीखी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकों में ये इंटरव्यू छपे, तो पूरे हिंदी साहित्य संसार का ध्यान इन पर गया। और कहना न होगा, इन इंटरव्यूज की खासी धूम मची। यों ये प्रचलित अर्थ में इंटरव्यू भी न थे। कुछ अलग सी साहित्यिक बतकही आप कह सकते हैं, जो हिंदी साहित्य में एक निराली सी चीज थी।
इस पुस्तक के ज्यादातर संस्मरण भी इसी साहित्यिक बतकही से निकलकर सामने आते हैं, और फिर समय के साथ-साथ आगे चलते हुए, उनमें बहुत कुछ जुड़ता भी गया। इसलिए वे एक साथ नहीं, कई-कई बैठकों में लिखे गए हैं।
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देवेंद्र सत्यार्थी के प्रति प्रकाश मनु सबसे अधिक अनुरक्त हैं, तो इसीलिए कि उनमें एक अजब सी फक्कड़ी और दीवानगी थी। सत्यार्थी जी पर तो वे एक बड़ी किताब लिख चुके, जगह-जगह उन पर लेख लिखते रहे हैं, उनके लंबे-लंबे साक्षात्कार लिए हैं। उनके साथ मनु जी की बतकही की एक पुस्तिका ही है। लंबे समय तक उनके साथ उठना-बैठना, बतियाना रहा है। इस तरह इस पुस्तक में संकलित देवेंद्र सत्यार्थी पर उनका संस्मरण इतने लंबे अनुभव का अंशमात्र ही कहा जा सकता है। मगर सत्यार्थी जी इसमें पूरी तरह आ सके हैं। उनका पूरा व्यक्तित्व, उनका पूरा रचनात्मक चरित्र सिमट आया है। बीच-बीच में उनकी विचित्र आदतें और दरवेशपने के किस्से मोहते हैं। मसलन, लिखते समय पन्ने पर सत्यार्थी जी का बीच-बीच में लेई से चेपियां चिपकाना। कई बार समझाने के बावजूद अपनी वह आदत न छोड़ना। हैरानी होती है कि इस तरह भी कोई लिख सकता है। ऐसे अनेक प्रसंग, अनेक किस्से हंसाते-गुदगुदाते और हैरान करते हैं। 
प्रकाश मनु सत्यार्थी जी पर लिखते हैं तो मानो पूरा हृदय खोल देते हैं—
सत्यार्थी जी पर कुछ लिखने का जतन बहुत दिनों से कर रहा हूँ, पर पता नहीं क्यों, शब्द साथ नहीं देते। बार-बार लगता है कि क्या मैं सचमुच लिख पाऊँगा उस शख्स के बारे में, जो दिल्ली में मुझे किसी फरिश्ते की तरह मिला था। और मेरा सारा जीवन ही बदल गया। 
उनसे मिलकर मुझे लगा था, जैसे मेरी आत्मा निर्मल और उजली हो गई है, और काम करने की अऩंत राहें मेरे आगे खुल गई हैं। लिखना क्या होता है, यह मैंने पहलेपहल उनके पास बैठकर जाना था।
उन्होंने अपने खास, बहुत खास अंदाज में मुझे बताया कि लिखना केवल लिखना ही नहीं, लिखना अपने आपको माँजना था, जिससे अपने भीतर और बाहर उजाला होता है। 
यह एक नई ही सोच, नई दुनिया थी, जिससे मैं अब तक अपरिचित था।
सत्यार्थी जी से मिलने के बाद मन पर पड़े प्रभाव को वे बड़े कृतज्ञ भाव से प्रकट करते हैं—
सच कहूँ तो सत्यार्थी जी ने मुझे भीतर से और बाहर से इस कदर बदला था कि सारी दुनिया मेरे लिए नई-नई हो गई। खुद को और चीजों को देखने का सारा नजरिया ही बदल गया। साहित्य और कलाओं की भी एक अलग दृष्टि उनसे मिली, जिससे मेरे भीतर अब तक बने सोच के दायरे छोटे लगने लगे।
लगा, जीवन तो एक महाकाय समंदर है जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। ऐसे ही साहित्य हो, संगीत या अन्य कलाएँ, सबसे पहले तो ये हृदय की आवाज हैं, फिर कुछ और। अपना हृदय खोलकर हम उनके निकट जाते हैं, तो हमारे भीतर से वेगभरे झरने फूट पड़ते हैं। साहित्य और कला की हर तरह की रूढ़ परिभाषाएँ तब बेमानी हो जाती हैं।
किसी पुराने उस्ताद की तरह सत्यार्थी जी बता रहे होते थे, तो मैं अवाक सा उन्हें सुनता था।
उन्हें लोकगीतों का दरवेश कहा जाता था, जिसने अपनी पूरी जिंदगी लोकगीतों के संग्रह में लगा था। पूरे देश के गाँव-गाँव, गली-कूचे, खेत और पगडंडियों की न जाने कितनी बार परिक्रमा। लोकगीतों का अनहद नाद उनके भीतर गूँजता था। वही उन्हें यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ ले जाता था। न भाषा इसमें कोई दीवार बनती थी और न प्रांतों की सरहदें। इसलिए कि वह एक ऐसा शख्स था, जो पूरे देश की आत्मा से एकाकार हो चुका था।
विष्णु खरे पर भी मनु जी एक भारी-भरकम किताब लिख चुके हैं। उनके साथ उनका लंबा संग-साथ रहा है। विष्णु खरे को हिंदी साहित्य के ज्यादातर लोग एक अक्खड़, झगड़ालू व्यक्ति के रूप में ही जानते-पहचानते रहे हैं। मगर मनु जी की यह टिप्पणी पढ़कर बहुत सारे लोग पहली बार जान पाएंगे कि वे भीतर से कितने भावुक, सहृदय और नरमदिल आदमी थे। मनु जी के सामने कई बार उनकी आंखें नम हो उठीं, वे रोए भी, यह बहुत सारे लोगों के लिए एक नई बात हो सकती है। विष्णु खरे पर लिखे गए संस्मरण की शुरुआत ही इन पंक्तियों से होती है—
विष्णु खरे पर कुछ लिखने बैठा हूँ, तो स्मृतियों का एक रेला है, जो उमड़ता चला आता है। कभी एकाएक भावबिद्ध सा हो उठता हूँ तो कभी मूक और अवाक सा, यादों की एक पूरी फिल्म को अपनी आँखों के आगे चलता महसूस करता हूँ। और लगता है, विष्णु खरे कहीं गए नहीं। वे तो आसपास ही हैं, मेरे भीतर हैं, हर जगह हैं और मैं जब चाहूँ उन्हें छू सकता हूँ। देश-दुनिया के हर विषय पर उनसे बतिया सकता हूँ। उनके भीतर चल रहे प्रचंड झंझावातों से परच सकता हूँ और अपना हर सुख-दुख साझा कर सकता हूँ।
औरों के लिए जो बहुत सख्त और खुरदरे कवि और कुछ-कुछ अबूझ इनसान थे, मैंने उन्हें कितने ही आर्द्र और भावुक क्षणों में डब-डब आँखें लिए, और कभी-कभी तो बातें करते-करते एकाएक आँसुओं से भीग गए चेहरे को पोंछते हुए देखा है, बताऊँ तो भला कितने लोग यकीन करेंगे?
पता नहीं, मुझमें उन्होंने क्या देख लिया था कि मेरे आगे वे खुद को पूरी तरह खोल देना चाहते थे। जैसे जानते हों कि उनका एक-एक शब्द कहीं न कहीं दर्ज होगा, जिससे जाने गए विष्णु खरे के साथ ही न जाने गए विष्णु खरे को कभी लोग जानेंगे, और भीतर से पहचानेंगे—उनकी पूरी संवेदना, ताप और मुकम्मल सच्चाई के साथ!
उनसे अनंत मुलाकातें हैं। हर मुलाकात अपने में अलग और विशिष्ट। ज्यादातर इतनी लंबी और बृहत् मुलाकातें कि उनमें हमारा समय, समाज, साहित्य जगत और दिनोंदिन क्रूर होते जीवन यथार्थ से जुड़े बेहद तीखे और धारदार सवाल खुद-ब-खुद चले आते थे। साथ ही खुद विष्णु जी की जीवन कथा के कई अजाने पन्ने खुलने लगते थे। लिहाजा हर बातचीत में विष्णु जी का एक नया ही रूप सामने आता था। और इन्हीं बातों, मुलाकातों और अजस्र संवाद में न जाने कब मैं उनका परिवारी सदस्य हो गया, मुझे पता ही नहीं चला। 
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रामदरश मिश्र और हरिपाल त्यागी से तो मनु जी के घरऊ संबंध रहे हैं। परिवार के सदस्य जैसा। इस तरह इन दोनों के प्रति मनु जी न केवल आदर भाव या रचनाकार के नाते पड़े प्रभाव के कारण जुड़े हुए हैं, बल्कि कई स्तरों पर सखा भाव भी है। हरिपाल त्यागी पर तो उनके संस्मरणों का एक शीर्षक ही था- सुजन सखा हरिपाल। रामदरश जी पर उनकी स्मृतियों के कई रंग खुलते हैं। उनमें उनके गंवई व्यक्तित्व और मनुष्यता के प्रति अटूट लगाव के प्रसंग हैं, तो रचनात्मक गहराई की थाह भी। 
रामदरश मिश्र ने कोई अस्सी बरस पहले लिखना शुरू किया था। अपनी उम्र के सौवें बरस में भी वे खूब सक्रिय हैं और लिख-पढ़ रहे हैं। पुस्तक में उनके शालीन व्यक्तित्व की एक झलक पेश करते हुए मनु जी लिखते हैं—
तब से साहित्य में तमाम आंदोलन आए, गए। बहुत सितारे चमके, बुझे। बहुतों के लेखन की धार बहुत थोड़े समय में ही कुंद पड़ती नजर आई। पर साथ ही हर बार कुछ लेखक अपनी नई रंगत और ताजगी के साथ सामने आए और धीरे-धीरे स्थापित होते दिखे। रामदरश जी ने सबको पढ़ा, संवाद किया, बहुतों को अपना स्नेह और आत्मीयता दी, और सहज कदमों से आगे बढ़ते गए। बगैर किसी हड़बड़ी के, एक धीरज भरी चाल। उन्हें अपने आप और अपनी कलम पर विश्वास था। और अपने विश्वासों पर भी विश्वास। लिहाजा वे सहज भाव से आगे बढ़ते गए और आम आदमी के दुख-दर्द, करुणा और संवेदना की एक अकथ कहानी भी उनके साथ चलती गई, जिसे व्यक्त करने की उनकी प्यास कभी बुझी नहीं और कोई अस्सी बरस से निरंतर चलती आ रही उनकी कलम ने अभी तक रुकना पसंद नहीं किया। इसलिए कि उन्हें अभी बहुत कुछ कहना है, अपनी तरह से कहना है और उन्हें यकीन है कि उसे वे ही कह सकते हैं।
इसी तरह रामविलास शर्मा के प्रति मनु जी का आकर्षण भी इसी वजह से हुआ कि वे साहित्यिक खेमेबाजी से दूर रह कर बस साहित्य के होकर रहे। पूरी निष्ठा और लगन के साथ। इसी राजधानी में जब साहित्यिक खेमेबंदियां एक-दूसरे को उखाड़ने-पछाड़ने में लगी रहती हैं, रामविलास शर्मा अपनी कोठरी में साहित्य की दुनिया बसाए रहे। मनु जी बड़े सम्मान से उनकी चर्चा करते हैं—
रामविलास शर्मा हिंदी के बड़े आलोचक थे, संस्कृति चिंतक और सभ्यता विचारक भी। वे हिंदी के ऐसे गौरव शिखर थे, जिन पर पूरे हिंदी जगत को नाज था। पर इसके साथ ही उनके व्यक्तित्व में एक सम्मोहक खुलापन भी था। निर्मल सच्चाई की आब उनके चेहरे पर हमेशा झिलमिलाती थी। संवाद प्रारंभ होते ही वे सच को थाहने के लिए जैसे हमारी उँगली पकड़कर आगे चल देते थे। इसलिए जहाँ पहले अँधेरा ही अँधेरा हमें लगता था, वहाँ अब कुछ उम्मीद की रोशनी हमें झिलमिलाती नजर आ जाती थी। ये बड़े सुकून के पल होते थे। जीवन, साहित्य और संस्कृति के एक नए साक्षात्कार सरीखे। साथ ही यह हमारे लिए पुनर्नवा होने जैसा अनुभव होता। लगता, मन और आत्मा से हम रिचार्ज्ड हो गए हैं। यही रामविलास जी की शक्ति थी, यही उनके व्यक्तित्व का आकर्षण था, जिसके कारण वे दूर से ही खींचते थे। एक बार मिलने के बाद फिर-फिर उनसे मिलने का मन होता था।
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आप अपनी अंतरंगता में जिन्हें चुनते हैं, उनमें खुद भी थोड़ा-सा शामिल होते हैं। इस तरह मनु जी ने जिन रचनाकारों के साथ अंतरंगता महसूस की या वे जिनके अंतरंग हुए, उन सबमें थोड़े से वे खुद भी थे। देखें, तो इन साहित्य मनीषियों के व्यक्तित्व में मनु जी का व्यक्तित्व भी झलकता है। इसीलिए तो वे शैलेश मटियानी के निकट पहुंचते हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य के लोग उनके जीते-जी लगभग भुला बैठे या धकियाकर बाहर कर चुके थे। इसलिए कि मटियानी जी भी खरे जी की तरह ही खरे और कुछ खुर्रांट थे। किसी की लल्लो-चप्पो नहीं की, जो गलत लगा, उसके मुंह पर कह दिया। विकट अभावों में रहकर भी साहित्य पर से भरोसा नहीं खोया। उनके अक्खड़पन के कई प्रसंग इस संस्मरण में हैं। अंत में मटियानी जी को ट्रिब्यूट देते हुए मनु जी लिखते हैं—
मटियानी उन लेखकों में से थे, जिन्हें समय ने साबित किया है। उन्हें आलोचकों ने नहीं, पाठकों ने बनाया है और वे हैं तो इसलिए कि हिंदी के पाठकों ने लंबे अरसे से उन्हें अपने दिल में जगह दी है। मटियानी जी को यहाँ जो प्यार और सम्मान मिला है, वह शायद ही हिंदी के किसी और लेखक को मिला हो। सारे विरोधों के बावजूद मटियानी जी का होना यह साबित करने के लिए काफी है कि कथा-साहित्य में अब भी पाठककी सत्ता आलोचकसे कहीं बड़ी है। और अंतत: समय की लंबी दौड़ में लेखक वही जिएगा, पाठक जिसे चाहेंगे और प्यार करेंगे। और कहना न होगा, यहाँ मटियानी जी को जो जगह हासिल है, वह आगे के बरसों में शायद ही किसी और हिंदी लेखक को हासिल हो सकेगी।
मनु जी के ये संस्मरण केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं। उनमें साक्षात्कार भी है, संबंधित रचनाकार को पढ़कर उभरे एक पाठक के भीतर खदबदाते सवालों के उत्तर तलाशने का प्रयास भी है। ये लंबी तैयारी के बाद किसी रचनाकार से मिलने की दास्तानें भी हैं। मनु जी किसी रचनाकार के पास यों ही औपचारिक भेंट या सतही बतकही के लिए नहीं जाते। उसके लिए पहले पूरी तैयारी करते हैं। उसकी सारी रचनाओं को अपने भीतर उतार लेते हैं। फिर जब मिलने जाते हैं, तो पूरे-पूरे दिन के लिए जाते हैं, कई-कई दिन के लिए जाते हैं। बार-बार जाते हैं। 
उनकी स्मृति ऐसी विलक्षण है कि बतकही के लिए उन्हें किसी टेपरिकार्डर की जरूरत नहीं। बतकही पूरी की पूरी उनके भीतर दर्ज हो जाती है। दर्ज रहती है। वे जब भी उस रचनाकार का पन्ना खोलें, बतकही के अंश उसमें से स्वतः बाहर निकलना शुरू कर देते हैं। 
इस तरह इन टिप्पणियों में अपने समय के पुरखा रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव होते हुए भी एक पाठक का आलोचकीय तेवर भी स्वाभाविक रूप से प्रकट होता चलता है। कई बार रचनाकार को असहज करने वाले सवाल भी बिना किसी संकोच, बिना किसी लाग-लपेट के चुपके से सरका दिए जाते हैं। कह सकते हैं कि इनमें संबंधित रचनाकार को देखने-समझने का केवल लेखक का अपना दृष्टिकोण नहीं रह जाता, वह व्यापक रूप लेकर हर पाठक का दृष्टिकोण बन जाता है। हर पाठक की जिज्ञासा उसमें उतरने लगती है।
इसलिए, जैसा कि पहले कहा, ये संस्मरण हर पाठक के भीतर उसका अपना अनुभव बनकर उतरते हैं। हर किसी को इसमें अपना कुछ मिलता है। किसी भी रचना का इससे बड़ा कोई मूल्य नहीं हो सकता कि वह हर पाठक के भीतर उसके अनुसार उतरे और पूरी तरह घेर ले। निस्संदेह साहित्य मनीषियों की अद्भुत दास्तानें अद्भुत कृति बन पड़ी है। 
………………………………………………..
सूर्यनाथ सिंह
एसोसिएट एडिटर, जनसत्ता, ए-8, सेक्टर-7, नोएडा, उत्तर प्रदेश, पिन-201301
मो. 9958044433
ईमेल – [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. सूर्यनाथ सिंहजी का पूरा समीक्षात्मक आलेख कई बार पढ़ा।
    बहुत ही प्रेरक, रोचक और ज्ञानवर्धक आलेख।
    सृजन के क्षेत्र में श्रद्धेय प्रकाश मनुजी की जादूगरी एक अलग संसार में ले जाती हैं जहाँ पहुँच कर आप एक अद्भुत ताजगी से भर जाते हैं।
    इस नई पुस्तक के प्रकाशन के लिए श्रद्धेय मनुजी को हार्दिक बधाई देता हूँ।
    सुंदर आलेख के लिए सूर्यनाथसिंह को अलग से हार्दिक बधाई।

  2. आदरणीय सूर्य नाथ जी!
    हमारे लिए यह सुखद आश्चर्य है कि इससे पहली वाली पत्रिका में प्रकाश मनु जी ने अपने गुरु जी पर लिखा और उसे पढ़कर हम समृद्ध ही नहीं बल्कि बहुत अधिक प्रभावित भी हुए, और इस बार आपने प्रकाश मनु जी पर लिखा। पर पढ़ा तो हमने मनु जी को ही आपके मध्यम से।
    वैसे प्रकाश मनु जी को जिस तरह से हमने पढ़ा उस दृष्टि से उनके व्यक्तित्व को समझना हमारे लिए कम से कम अब तो कोई कठिन नहीं। मानव मन की संवेदनाओं को समझने में भी बड़ी बारीकी से काम लेते हैं। बेहद संवेदनशील ,निर्मल, कोमल मन और भाव है उनके। शरद पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र की निर्मल कांति की भाँति और प्रबुद्धता में सूर्य रश्मि सा विस्तार। बेहद सरल, बेहद सह्रदय।
    यह बात बिल्कुल सही है की रचना में रचनाकार तो थोड़ा ना थोड़ा होता ही है और हमारे लिए तो यह महत्वपूर्ण इस दृष्टि से भी है कि हम तो रचना में रचनाकार को ही महसूस करते हैं और कोई दुखद प्रसंग होने पर चिंतित भी हो जाते हैं ।रचनाकार को लेकर तो हमारी दृष्टि में तो रचनाकार ज्यादा होता है। रचना को पढ़कर उनकी सोच, समझ , ज्ञान और किसी हद तक स्वभाव का भी पता चलता है ।हो सकता है कि एक ही रचना पढने से समझना उचित निर्णय न हो लेकिन हम उसे अगर एक से अधिक बार पढ़ते हैं तो शब्द अपने को व्यक्त करने लगते हैं। हम तो उनकी एक ही रचना को पढ़कर उनके और उनकी लेखनी दोनों के कायल हो गए।
    यह हमें भी सही लगता है कि रचनाकार को साथ लेकर चलें, तो रचना ठीक से अपने अर्थ खोलने लगती है क्योंकि उसके काल के साथ उसका वातावरण और परिस्थितियाँ भी बोलती हैं। लेखक की वैचारिक प्रबुद्धता भाषा और शैली से पता चलती है जो रचना की दिशा तय करती है।
    रचनाकार को रचना के साथ उपस्थित रखना जरूरी है ऐसा हम सोचते हैं।
    हम इस बात से भी पूरी तरह सहमत हैं किअपनी अंतरंगता में अपन जिन्हें चुनते हैं, उनमें अपन खुद भी थोड़ा-सा शामिल होते हैं। इसका मुख्य कारण यह है हम कहीं ना कहीं उनकी सोच में, स्वभाव में, एकरूपता पाते हैं। यही कारण है कि पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह सोच हमारी सोच से काफी मिलती है। हम ऐसे लोगों के समीप रहना चाहते हैं जो हमें अपने जैसी सोच और समझ के निकट लगते हैं।
    ” मेरी झोली बड़ी थी, बहुत बड़ी। उसके जल्दी भर जाने का तो सवाल ही न था। फिर मेरे भीतर अतृप्ति गहरी थी, बहुत गहरी।”हम भी अगर कोई लेखन हमें प्रभावित करता है तो लेखक को भीतर-बाहर से जानने की जिज्ञासा तो उससे भी कहीं ज्यादा रखते हैं।पढ़ तो कल लिया था लेकिन कल लिखना नहीं हो पाया।
    इस बेहतरीन वाला जवाब समीक्षा के लिए आपका दिल की गहराइयों से शुक्रिया इस रचना के माध्यम से हम प्रकाश मनु जी को और बेहतर समझ पाए।
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी कवि अतिरिक्त शुक्रिया अदा करना चाहते हैं जो इतना अच्छा-अच्छा पढ़वा रहे हैं जिनके सारे दिल से हम दोनों दिन प्रभु हो रहे हैं लेकिन ज्ञान की भूख तृप्त नहीं होती। झोली हमारी भी बहुत बड़ी है
    पुरवाई का तो विशेष शुक्रिया जिससे जुड़ना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।

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