Sunday, September 8, 2024
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बिमल सहगल का व्यंग्य – छप जाने का सुख

महान संत, गुरु नानक कह गए हैं,नानक दुखिया सब संसार  इक्कीसवीं सदी की इस दुनिया के माडर्नवासी भी, जिन्होंने भौतिक सुखों की अपनी ही एक मायानगरी का निर्माण कर रखा है, इस शाश्व्त सत्य को झुठला नहीं पा रहे हैं कि दुखसुख की रस्साकशी में दुख का ही पलड़ा सदेव भारी पड़ा है।  फिर भी इंसान ने बहुत से सच्चेझूठे सुख सँजोये हैं और उन्हें भोगा है।  हर कोई सुखों की अपनी परिभाषा अनुरूप उनकी प्राप्ति की ओर  कार्यरत है। कहीं कोई भीमअनुयाई अच्छी सेहत का दीवाना हो सुबह-शाम जिम के चक्कर लगा रहा है, कोई बाणप्रस्थ आश्रम के द्वार पहुँच अभी सरस्वती पूजा में ही लीन हो कालेज-विश्वविद्यालय के गलियारों में जमा है, किसी के लिए जिव्हास्वाद ही सब कुछ है और हर समय  व्यंजनों के ही सपने लेता मुंह में पानी भरता है, कोई रूपसज्जा की ओर आकर्षित हो रंग-बिरंगे कपड़े पहन चेहरे को पाउडर-क्रीम से चमका रहा है, किन्ही माँबाप के लिए औलाद सुख ही सब से बड़ा सुख है तो कोई सस्ते में अपनी लंबी जुबान लपलपाते लोकनिंदा का ही सुख लूट रहा है।  
इन्हीं आम प्रचलित सुखों की किसी श्रेणी में आ छुपा है हमारा यह विशेष छप जाने का सुख अन्य क्षणभंगुर सुखों की अपेक्षा यह सुख चिर काल तक साथ देता है और इस सुख के जन्मदाता की काबलियतअनुसार इस सुख को उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती हैं   
यह सुख छापाखाने के ईज़ाद के साथ इस धरती पर कुछ सदियों पहले ही आया। क्योंकि छप जाने के सुख को बटोरने वालों के साथसाथ इसने सरस्वती के अमृत पान करने वालों की एक बड़ी श्रेणी का भी विकास किया, छापाखाने की कला की अनूठी प्रगति हुई।  इसी के साथ रचनाकारों की उत्पति हुई जो छप जाने के सुख के भागीदार हुये। और फिर इस सुख की उसके भाग्यशाली हकदारों में उचित बांट को नियमित करने के लिए संपादक नाम की एक विशिष्ट श्रेणी का भी आविष्कार हुआ जिसकी निर्विवाद ज्येष्ठता को रचनाकारों नें सहर्ष स्वीकारा।   हालांकि पिछले कुछ दशकों में तकनीकी विज्ञान से छेड़छाड़ के चलते हुई गड़बड़ी के कारण छापाखाने के डी.एन.. में म्यूटेशन से ब्लॉग, टविटर, फेसबूक, इन्सटागराम, व्हाट्सप जैसी समांतर धाराओं में भी उसकी काली स्याही का प्रवाह चल निकला और छपास के प्यासे इन में ही अहंकार-संतुष्टि की द्रुतगति प्राप्ति के साधन ढूंढनें लगे,  पर कहते हैं ना जो वस्तु आसानी से मिल जाये  उसकी इतनी  कदर नहीं होती, इसीलिए हम विषय-वस्तु से कहीं अधिक दूरी तक नहीं भटकेंगे और अपना पूरा ध्यान छप जाने के मूल सुख पर ही केन्द्रित रखेंगे।  
पीड़ा और तृप्ति के कालचक्र का अनुभव किसी नवजीवन रचने वाली नारी के मातृत्व अनुभव से कहीं कम नहीं, यह कोई मुक्तभोगी ही समझ सकता है।  नए रचनाकार के लिए उसकी पहली रचना से शोभित पत्रिका के ताजे अंक को हाथों में लेने का सुख चिरवांछित पुत्ररत्न को हृदय से लगाने के सुख जैसा ही है।  इसमें से छापाखाने की ताजी स्याही की महक दुनिया भर के इत्रों से ज़्यादा मादक महसूस होती है।  लेखक रचना को बारबार पढ़ता है और अपनी ही कृति में नयेनये सन्दर्भ और खूबियों की खोज करता हुआ आनंदविभोर कृतार्थ होता है। छप गया, बेचेन लेखक अपने अंदर अपार सुख के उमड़ते ज्वार की प्रचंड लहरों की सभी सीमाएं तोड़ते हुए उनकी बौछार से सभी जान-पहचान वालों को भिगो उन्हें भी इस सुख के प्रसाद से बिना विलंब कृतार्थ करना चाहता है। 
छप जाने से इंसान को सहसा अपने वजूद पर मान होता है और वह अन्य न-छपे तुच्छ प्राणियों से ऊपर उठ जाता है।  चाहे किसी ने मोहल्ले की सफाई के बारे में ही संपादक के नाम पत्र छपवाया हो वह अपने आप को शेक्सपियर या टैगोर की श्रेणी के लेखकों में स्थापित पाता है। ऐसे अखबार की काफी प्रतियाँ खरीदी जाती हैं और रिश्तेदारों, मित्रगणों और मोहल्लेदारों में प्रचार व प्रसार हेतु  मुफ्त बांटी जाती हैं।  ऐसी प्रतियाँ बासी होने पर भी लेखक की बैठक में ताजे समाचारपत्र के ऊपर रखी मिलती हैं। लेखक अक्सर स्क्रैपबुक में अपनी रचनाओं को काट कर चिपकाते हैं और यह बुक मिलने आने वालों पर चायपानी से पहले चिपका दी जाती है।  प्रशंसा के कुछ बोल पाकर लेखक पत्नी को माननीय मेहमान के लिए एक कप और चाय परोसने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। 
यहाँ सोशल मीडिया के दखल को नज़रअंदाज़ करना अवांछनीय होगा क्योंकि यह इतना शक्तिशाली, गतिमान और किफ़ायती माध्यम हो चुका है कि अप्रत्याशित  सफलता पाये लेखक चाहे छपी रचना की एकाधिक प्रतियाँ तो खरीदते ही रहें पर व्हाट्सप, इन्स्टाग्राम  जैसी मुफ्त मैसेंजर सेवाओं का फायदा उठा अपनी रचना को वहाँ ही छाप उसे अपनी पूरी-की-पूरी कांटैक्ट लिस्ट पर वितरण करते हुए चाय-पानी, मिठाई और मेजबानी का खर्चा तो बचा ही लेते हैं, साथ में मिनटों में पृसिद्धि और वाहवाही भी बटोर दूसरे आसमान में पहुँच जाते हैं। जितना नौसिखिया खिलाड़ी, उसे छप जाने का सुख उतनी ही गहनता और मात्रा में प्राप्त होता है और वो उसका वितरण भी उसी अनुपात में शीघ्रता और उत्साह से दूर-दूर तक करता है। साथ में यह अनुरोध तो  रहता ही है  कि उसके पोस्ट को अधिक से अधिक आगे भेज कर वाइरल किया  जाए।  छप जाने के सुख का भोगी उसका मेडल छाती पे चस्पा अपने जानने वालों के सर्कल में उसे चौड़ी कर चलता है और हर बात में अपनी इस छप-छपाती सफलता का ढोल पीटने का सन्दर्भ खोज ही निकालता है। 
छप जाने का सुख रुकरुक कर रचनाओं की अस्वीकृतियों के असहनीय दुख के पश्चात ही मिल पाता है।  इसलिए यह मिलने पर दोगुना हो जाता है।  अक्सर रचनाएँ संपादक की क्रूर, अभिवादन खेद सहित स्लिपों के साथ लौट आती हैं।  लेखक का डाकिया भी जानता है कि जिन लिफाफों का वज़न ज़्यादा है वह लेखक की छाती के बोझ को और बड़ा जाते हैं।  इसीलिए ऐसे लिफाफे आँगन में फेंकते समय साइकिल की  घंटी कुछ ज़ोर से ही बजाता है, जैसे कि संपादकीय षडयंत्र  में वह भी शामिल हो।   लेकिन लेखक जात को अगर किसी का सबसे ज़्यादा इंतज़ार रहता है तो वह भी सिर्फ डाकिये का।  होलीदिवाली पर उसे भी छप जाने के सुख में थोड़ाबहुत शामिल किया जाता है।  ज़रा ठहरें; बाहर घंटी बजी है।  शायद मेरा डाकिया है। मैं अभी आता हूँ।
बिमल सहगल
बिमल सहगल
नवंबर 1954 में दिल्ली में जन्मे बिमल सहगल, आई एफ एस (सेवानिवृत्त) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य में ऑनर्स के साथ स्नातक होने के बाद, वह विदेश मंत्रालय में मुख्यालय और विदेशों में स्तिथ विभिन्न भारतीय राजदूतवासों में एक राजनयिक के रूप में सेवा करने के लिए शामिल हो गए। ओमान में भारत के उप राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने जुलाई, 2021 तक विदेश मंत्रालय को परामर्श सेवाएं प्रदान करना जारी रखा। कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से, उन्होंने 1973-74 में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स में शामिल होकर ‘मुक्ता’ नामक पत्रिका में 'विश्वविद्यालयों के प्रांगण से' कॉलम के लिए रिपोर्टिंग की। अखबारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशन गृहों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भारत व विदेशों में उनकी सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। अंत में, 2014-17 के दौरान ओमान ऑब्जर्वर अखबार के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। संपर्क - [email protected]
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