Sunday, September 8, 2024
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रेखा श्रीवास्तव की लघुकथाएँ

1 – अहम्!

शानू हमेशा गुमसुम रहता था । उसकी टीचर और वार्डन ने बहुत कोशिश की लेकिन शानू क्लास के बाद अकेले रहना पसंद करता ।
मम्मी-पापा के बीच बढ़ती दूरियाँ कहीं उसे न छू लें क्योंकि बच्चे संवेदनशील होते हैं वह अपने आस पास की आहटों को पहचान लेते हैं । इसीलिए उसे हास्टल में रखा गया था।वह एक भावनात्मक चक्रव्यूह में फंसा हुआ था। 
वार्डन ने उससे उसकी खामोशी का कारण जानना चाहा, लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला । हॉस्टल में कभी पापा मिलने आते तो कभी मम्मी, दोनों एक साथ कभी न आये ।
वह हॉस्टल जरूर आ गया था लेकिन वह मम्मी पापा की लड़ाई में ख़ुद को कहीं नहीं पाता था । उनकी अपने अहंकार की लड़ाई थी और जब उनके कमरे से गलत शब्दों की आवाज़ें कान में पड़ती तो वह कान में अँगुली ठूँस कर लेटा रहता। उस बाल मन को कोई रास्ता न सूझ रहा था ।
स्कूल की काउंसलर ने शानू के पास आकर बात की और फिर उसको बताये बिना ही उसके माता पिता को बुलाकर काउंसलिंग की और कहा – “इस बाल जीवन की अपने अपने ईगो में बलि न चढ़ायें । साथ रहें या न रहें लेकिन इसके जीवन सँवरने तक यहाँ साथ आयें और मिलें । छुट्टियों में उसके घर होने पर साथ जरूर रहें । बस किशोर वय निकलने तक।”
मम्मी पापा को साथ आया देख कर उसकी आँखों में चमक दिखाई दी , जो एक नयी आशा से भरी थीं । वह अपने मन के चक्रव्यूह को भेदने से खुश था।
2 – ऑटो बॉयोग्राफी!
संयुक्त परिवार की चक्की में पिसते हुए निशा की जिंदगी निकल गयी । हालातों के चलते पैरों पर खड़े होना भी जरूरी था।
एक गुण वह सबसे अलग लेकर पैदा हुई थी – कलम चलाने का हुनर। वह लिखती थी और डायरी दबा कर रख देती। सारे जीवन के संघर्षों के साक्षी परिजन थे, लेकिन साथ कोई देने वाला नहीं। हाँ मौके बेमौके कटाक्ष करने से कोई चूकता भी नहीं था ।
आज जब वह ऑफिस से लौटी तो बड़े ननदोई जी पतिदेव के साथ बैठे उसकी वही डायरी पलट रहे थे। देखते ही उसका पारा एकदम चढ़ गया, क्योंकि उसकी डायरी तो उसके पति भी कभी नहीं छूते थे । अपनी डायरी उनके हाथ में देखकर वह बोली – “ये डायरी आपको कहाँ से मिली?”
उसे जीजाजी की ये आदत बिल्कुल भी पसंद नहीं थी । वह जब भी आते चुपचाप सबकी अल्मारियाँ खोलकर तलाशी लिया करते। इसके पहले कि वह कुछ और बोलती जीजाजी बोल पड़े –   “निशा इतना अच्छा लिखती हो तो अपनी ऑटो बॉयोग्राफी लिख डालो ।”
“लिख तो डालूँ लेकिन बड़े-बड़े बेनकाब हो जायेंगे जीजाजी।”
“होने दो न, क्या मैं नहीं जानता कि क्या क्या हुआ तुम्हारे साथ।”
वह मन ही मन बुदबुदायी – “जीजाजी फिर बचेंगे आप भी नहीं।”
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9 टिप्पणी

  1. रेखा जी की दोनों कथाएं यथार्थ के धरातल पर खरी उतरती हैं। बधाई।

  2. आपकी दोनों ही लघु कथाएँ अच्छी लगीं।विशेष तौर से पहली। माता-पिता के झगड़े में बच्चे के पिस जाते हैं।
    बहुत-बहुत बधाइयां आपको।

  3. अहम लघुकथा एक बच्चे के कोमल भावों को पढ़ती सशक्त रचना है।जो समाज को संदेश देती है। ऑटो बायोग्राफी ,परिवार के भीतर की विद्रूपताओं को उकेरने में सक्षम है। दोनो ही लघुकथाएं ,अच्छी है।साधुवाद आपको

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