छुक-छुक करती रेलगाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थी। हम गाँव से जबलपुर आ रहे थे, मेरी बगल वाली सीट पर माँ बैठी थीं। मैं बहुत ही खुश थी क्योंकि माँ अब मेरे साथ रहेगीं, हम दोनों गुमसुम थे अपने-अपने विचारों में। माँ बहुत उदास थीं। अजीब ताल-मेल था, मैं बहुत खुश और माँ बहुत उदास। उनकी उदासी का कारण था अपने गाँव के पुश्तैनी मकान को छोड़ कर आना, जिसमें वह बहू बनकर आईं, अपने तीनों बच्चों को उस घर में पलते-बढ़ते देखा, बाबूजी के साथ जीवन के सारे सुख-दुख बाँटे और बच्चों का विवाह भी उसी पुश्तैनी मकान से सम्पन्न हुआ। किंतु परिस्थितियां ऐसी बनी की मजबूरी में बेटी के साथ आना पड़ा रहा था।
बाबूजी के जाने के बाद दोनों भाइयों ने माँ से दूरी बना ली थी, अब माँ उनके लिए कबाड़ के समान हो गई थीं। माँ को वह मात्र ऐसी बुढ़िया मानने लगे थे जो उनके ऊपर बोझ है। भाभियाँ भी माँ को ताने देने लगी थीं। माँ को सब की उपेक्षा से ऐसा लगने लगा था कि अब उनका जीवन व्यर्थ है, वह धीरे-धीरे टूटती जा रही थीं। माँ की ऐसी स्थिति देखकर पड़ोस में रहने वाली चाचीजी ने मुझे खबर दी और इधर मैं निकल पड़ी माँ को लेने। माँ परंपराओं से बँधी थीं, उन्हें बेटी के साथ उसके घर पर रहना पसंद नहीं आ रहा था। लेकिन भाग्य में यही लिखा था। चाहकर भी माँ, बेटी को मना नहीं कर पाईं और उसके साथ चल पड़ी उसकी दुनिया में।
सोचते-विचारते जबलपुर स्टेशन आ गया। हम दोनों को लेने मेरे पति विवेक स्वयं कार लेकर स्टेशन आए थे। माँ हमारे साथ रहेगीं, इस बात से विवेक भी बहुत खुश थे। आधे घण्टे में हम तीनों घर पहुँच गए। हाथ-मुँह धोकर मैंने दोनों के लिए चाय बनाई और लेकर माँ के पास बैठ गई। माँ की आँखों में आँसू थे। मैंने माँ को समझाया, बाबूजी के जाने के बाद मेरा कर्तव्य है कि मैं आपकी देखभाल करूँ। माँ रोते हुए बोलीं- ‘यह कर्तव्य तेरा नहीं मेरे दोनों बेटों का है।’ मैंने माँ को बीच में रोकते हुए कहा- ‘मैं बेटी हूँ तो क्या मेरा कोई कर्तव्य नहीं, आपने और बाबूजी ने मुझे भी तो पाल पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया और इस लायक बनाया कि, मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकी। बेटों ने आपसे दूरी बना ली तो क्या मैं भी यह सोच कर कि मैं बेटी हूँ दूरी बना लूँ? मुझसे यह नहीं होगा। आपको अपनी परंपराओं से निकलकर यह स्वीकार करना होगा कि बेटी भी आपकी देखभाल कर सकती है। माँ मैं आपकी ही छवि हूँ; आपके संस्कार-विचार ही तो मेरे अंदर हैं।’ मैंने माँ के झुर्रीदार हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा- ‘माँ आज आप मेरी जगह होतीं तो क्या करतीं?’ यह प्रश्न छोड़कर मैं अपने कमरे में सोने चली गई। सुबह कुछ आहट सुनकर आँख खुली तो माँ हाथ में चाय का कप लिए मेरे बिस्तर के पास खड़ी थीं। मेरे सिर पर हाथ रख कर माँ ने कहा- ‘मैं तेरी जगह होती तो यही करती’ और मुस्कुराकर चली गई पूजा के कमरे में…
डॉ. राधा दुबे, जबलपुर, मध्य प्रदेश
आप साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी हैं। आपने शिक्षा एम. ए. हिंदी व राजनीति शास्त्र (बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल, म.प्र.) पी-एच.डी., बैचलर ऑफ जर्नलिज्म एण्ड कम्युनिकेशन, (रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर, म.प्र.) ग्रहण की है। इनके शोधपत्र राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में डायरी विधा एवं अन्य विषय पर प्रकाशित हो चुके हैं।
बहुत अच्छी लगी कहानी और बहुत सच्ची भी । इस तरह की कहानियों को पढ़ते हुए मन में थोड़ा दुख और बहुत सी निराशा होती है। पर ऐसा हो रहा है इससे बिल्कुल इंकार नहीं।
हमारा भी स्वभाव ऐसा ही रहा कि बेटियों के यहाँ या छोटी बहनों के यहाँ जाने और रहने में हमें बड़ा ही संकोच होता था। हमें अपने लिए वीआईपी ट्रीटमेंट कभी किसी से भी पसंद नहीं आया। पर बेटियाँ भी मानती नहीं हैं ।पिता के नहीं रहने के बाद हमारे सभी बच्चे हमारे प्रति बेहद संवेदनशील हो गए हैं। झूठ में भी बीमारी की खबर हो तो सच में सब इकट्ठे हो जाते हैं। सब अलग-अलग हैं और सबको लगता है की माँ उन्हीं के पास रहे। हमें भी अपना घर छोड़ने में तकलीफ होती है।
इस बार तो हद ही हो गई है पूरा 1 साल हो गया। बच्चों के लिए बात ही छोड़ दो। बहन और भाई भी नहीं छोड़ रहे। पूरा 1 साल घूमते हुए ही हो गया अब 20 तारीख को होशंगाबाद के लिए निकलेंगे लेकिन अभी भी एक बहन छिंदवाड़ा आने के लिए पीछे पड़ी है।
हम खुश हैं हमें सभी का भरपूर प्यार मिला।
बहरहाल हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं ईश्वर सभी बच्चों को सद्बुद्धि दे कि वे अपने माता-पिता का आदर और सम्मान करें। उनके प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करें।
जहाँ संस्कार अच्छे होते हैं वहाँ बेटे भी अपने माता-पिता के प्रति समर्पित होते हैं पर कह नहीं सकते की कब किसकी सोच परिवर्तित हो जाए। विधाता रूठ जाए।
बेटियाँ तो होती ही हैं समर्पित।
अब वह समय खत्म हो गया है जहाँ बेटी और बेटियों का अंतर किया जाए। माता-पिता पर सभी का समान रूप से अधिकार रहता है।
अच्छी कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ राधा जी!
बहुत अच्छी लगी कहानी और बहुत सच्ची भी । इस तरह की कहानियों को पढ़ते हुए मन में थोड़ा दुख और बहुत सी निराशा होती है। पर ऐसा हो रहा है इससे बिल्कुल इंकार नहीं।
हमारा भी स्वभाव ऐसा ही रहा कि बेटियों के यहाँ या छोटी बहनों के यहाँ जाने और रहने में हमें बड़ा ही संकोच होता था। हमें अपने लिए वीआईपी ट्रीटमेंट कभी किसी से भी पसंद नहीं आया। पर बेटियाँ भी मानती नहीं हैं ।पिता के नहीं रहने के बाद हमारे सभी बच्चे हमारे प्रति बेहद संवेदनशील हो गए हैं। झूठ में भी बीमारी की खबर हो तो सच में सब इकट्ठे हो जाते हैं। सब अलग-अलग हैं और सबको लगता है की माँ उन्हीं के पास रहे। हमें भी अपना घर छोड़ने में तकलीफ होती है।
इस बार तो हद ही हो गई है पूरा 1 साल हो गया। बच्चों के लिए बात ही छोड़ दो। बहन और भाई भी नहीं छोड़ रहे। पूरा 1 साल घूमते हुए ही हो गया अब 20 तारीख को होशंगाबाद के लिए निकलेंगे लेकिन अभी भी एक बहन छिंदवाड़ा आने के लिए पीछे पड़ी है।
हम खुश हैं हमें सभी का भरपूर प्यार मिला।
बहरहाल हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं ईश्वर सभी बच्चों को सद्बुद्धि दे कि वे अपने माता-पिता का आदर और सम्मान करें। उनके प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करें।
जहाँ संस्कार अच्छे होते हैं वहाँ बेटे भी अपने माता-पिता के प्रति समर्पित होते हैं पर कह नहीं सकते की कब किसकी सोच परिवर्तित हो जाए। विधाता रूठ जाए।
बेटियाँ तो होती ही हैं समर्पित।
अब वह समय खत्म हो गया है जहाँ बेटी और बेटियों का अंतर किया जाए। माता-पिता पर सभी का समान रूप से अधिकार रहता है।
अच्छी कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ राधा जी!