Sunday, September 8, 2024
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सपना चंद्रा की लघुकथा – आत्मबल

सात महीने की गर्भवती नैना कुलियों को नदारद पाकर एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म तक जाने के लिए अपना सामान खुद उठाए सीढ़ियों पर बहुत मुश्किल से चढ़ पा रही थी।
दोनों हाथों में सामान थामे सीढ़ियों पर चढ़ना मुश्किल हो रहा था। आते-जाते लोग देख रहे थे मगर मदद को कोई आगे नहीं आया ….उसके कहने पर भी …जैसे सब जल्दी में थे । ट्रेन के आने की घोषणा हो चुकी थी । वह जल्दी से प्लेटफॉर्म पर पहुंचना चाहती थी।  तभी  एक बुजुर्ग की नजर नैना और उसकी बेबस हालत पर पड़ी ….  उसने नैना को रुकने को कहा।
मैले कुचैले कपड़ों में बैठे वृद्ध के इशारे और आवाज से वह सहम गई  कि ….कहीं ये पागल तो नहीं है।
तभी बुजुर्ग ने नैना का सामान अपने सिर पर रखा , पीछे आने का इशारा किया और बोला -“बेटी! मैं कब से तुम्हें परेशानी से जूझते देख रहा था , पर संकोचवश नहीं आ रहा था। अपनापन अब बचा नहीं है।”
“नहीं,  बाबा! इसी दुनिया में आप जैसे लोग भी तो हैं , जो अजाने ही बेटी भी कहते हैं, और मदद भी करते हैं ।”
“भले उन्हें कोई पिता नही दिखा …..पर मैं हूँ …. ताकत कम हो गई तो क्या ….पिता होने का आत्मबल तो बचा है।”
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