Tuesday, September 17, 2024
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शिवानी की लघुकथा – रईस ग्राहक

बड़ी सी चौमंजिला इमारत। इमारत की पहली मंजिल पर छोटे छोटे सीलन भरे कमरों की एक कतार और उसके बाहर एक लंबा गलियारा। जिसे लोहे की जाली से कवर किया गया था। हर कमरे के दरवाजे पर एक  चीकट सा पर्दा पड़ा था और दरवाज़ों पर अलग-अलग नम्बर छपे थे। गलियारे के अंतिम छोर पर बनी सीढियां। नीचे से ऊपर जाने के लिए बनी सीढियां इतनी पतली थी कि मुश्किल से दो शख्स साथ आ जा सकते थे। ऐसे ही एक छोटे से तंग कमरे में सुग्गी शाम की तैयारियों में लगी थी। ग्राहकों के आने से पहले उसे खुद को तैयार करने के साथ-साथ कमरे को भी व्यवस्थित कर लेना था। वो अपने गीले बालों को सुलझाने के लिए गलियारे में आई कि तभी उसने गलियारे के जाल से नीचे झांका। बाहर की चहल पहल बता रही थी कि लोगों के आने-जाने का सिलसिला शुरू हो चुका था। अंधेरा होते-होते उस बेशर्म गली की गंदगी को रोशनी से छुपाया जा जा चुका था।
सुग्गी अपनी कोठरी में जाने को पलटी ही थी कि सीढ़ियों की तरफ से आती बूटों की आवाज़ ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचा।  उसकी नज़र ऊपर की सीढ़ियों पर जाते हुए एक गोर-चिट्ठे शख्स पर पड़ी। सुग्गी ने उसे एक ही झलक देखा और देखती ही रह गयी। गोरा रंग, लंबा भरा हुआ बदन, आँखों पर महँगा चश्मा…। जब तक वो उसे और निहार पाती तब तक वो उसकी आँखों से ओझल हो चुका था। वैसे भी ऊपर की मंजिल की रौनक ही अलग थी। जैसी खूबसूरत लड़कियाँ वैसे ही रईस उनके ग्राहक..!
आईने के सामने खड़ी सुग्गी खुद को देख रही थी लेकिन देखने लायक तो उसमें कुछ था ही नहीं। गहरा रंग, रूखे बाल , शरीर के नाम पर न कोई भरावट, न ही कोई आकर्षण…! वो हंसती, तो ऊपर की पंक्तियों का उजड़ा हुआ एक दाँत, उसे हंसने से भी रोक देता। शरीर के साथ-साथ उसका मन भी बेजान हो चुका था, फिर उसके हिस्से में क्यों आएगा इतना सुंदर आदमी…! उसके हिस्से में तो आते थे, दिन भर मजदूरी करने वाले बेरंग, पसीने की बदबू से भरे आदमी। कभी-कभी तो किसी मर्द के मुँह से शराब की ऐसी गंध आती थी कि उसे उबकाई आने लगती, तो कोई उसे देखकर ऐसे मुँह बनाता की जैसे उसे कोई हूर की परी चाहिये थी। लेकिन उन मर्दों को क्या पता कि उनके चंद नोटों में बस सुग्गी या उस जैसी ही कोई सस्ती लड़की ही उसके हिस्से में आएगी।
ऐसा नहीं था कि उस इमारत में सब सुग्गी जैसी ही थी। ऊपर की मंजिल पर एक से एक खूबसूरत लड़कियां बैठी थी जिनकी कीमत भी उनके जैसे ही थी और उनके हिस्से में आते थे उनपर पैसे लुटानेवाले अमीरजादे। उनकी कीमत जो थी वो तो थी लेकिन इसके बावजूद जिन लड़को का दिल जिस लड़की पर आ जाता उसे वो अलग से महंगे तोहफ़े से नवाज़ते। सुग्गी का भी मन करता कि कभी वो भी किसी खूबसूरत मर्द की बाहों में हो।
एक बार फिर वो उस मर्द को देखने की तड़प के साथ ऊपर की सीढ़ियां चढ़ने लगी लेकिन तभी किसी ने उसके क़दम वहीं रोक लिए।
“ये लड़की तू इधर क्या कर रही हैं, तुझे पता नहीं क्या तुमलोगों को इस टेम ऊपर आना मना है।”
“जाने दो न बड़े भाई, सलमा बी से थोड़ा काम है..!” सुग्गी इधर-उधर देखते हुए बोली।
“तुझे पता नहीं क्या कि सलमा बी इस वखत अपने ग्राहकों के साथ लेनदेन करती है। तेरा भी इस वखत धंधे का टेम है। अभी चल इधर से…”
“एक बार बड़े भाई बस एक बार…” सुग्गी आगे कुछ बोलती कि उससे पहले उस गार्ड ने दहाड़ते हुए उसे नीचे जाने का इशारा किया।
“साला..! हमपर रौब झाड़ने चला है..” बड़बड़ाती हुई सुग्गी नीचे उतर आई।
“ये सुग्गी..! ये ऊपर-नीचे क्या कर रही है। पता नहीं तुझे कि इस टेम हमारा ऊपर जाना मना है।” बगल की कोठरी के बाहर खड़ी उसी जैसी एक लड़की ने कहा।
“हाँ-हाँ जानती हूँ। ये टेम ऊपर जाने का नहीं है।” कहकर उसने भड़ से अपना दरवाजा बंद कर लिया। जिसकी तेज आवाज से दीवारों पर चिपकाए गए हसके मनपसंद हीरोज  की फोटो फड़फड़ाने लगी। उसने अपने बेड की चादर झाड़ी फिर आईने के चारो ओर बिजली की एक लड़ी को जला दिया जो कहीं से कहीं से बुझी हुई थी। मरे मरे से चलने वाले पंखे की स्पीड उसने थोड़ी बढ़ाई जो कि असल में बढ़ी नहीं थी लेकिन उसे दिलासा मिल जाता था।
होठों पर लाल-लाल लिपिस्टिक रगड़ते हुए सुग्गी ने बार फिर से खुद को ऊपर से नीचे तक देखा।  कहीं से भी तो वो आकर्षण नहीं थी फिर क्यों उसे इसे इस धंधे में आना पड़ा। आज उसने सोच लिया था कि किसी मैले-कुचैले ग्राहक को वो हाथ नहीं लगाएगी। उसका मन खट्टा हो चुका था और वो वापिस जाकर चारपाई पर झूल गयी।
ठीक पंद्रह साल पहले जब वो यहाँ अपने चाचा के साथ इस सलमा बीबी के हुस्न की मंजिल में आई थी तो कहाँ पता था कि वो एक बेहतरीन ज़िन्दगी की तलाश में किस नरक में जा रही है। देखने-सुनने में वो जरा भी आकर्षक न थी जिस कारण धंधे की मालकिन ने भी उसे रखने से ही इनकार कर दिया और हंसते हुए बोली थी कि ये क्या कमाकर देगी उल्टा इसे संवारने में हमारे ही पैसे खर्च हो जाएंगे। लेकिन उसके शराबी चाचा उसको अपने साथ रखना नहीं चाहता था इसलिए जो कुछ भी मिला उतने में ही उसे यहाँ छोड़ गया।
इस जगह की हकीकत से अनजान सुग्गी ने भी ज्यादा ऐतराज न किया क्योंकि चाची की मार और चाचा की गालियों से बेहतर उसे ये जगह लग रही थी। उसकी हम उम्र लड़कियां भी थी। उसे लगा कि जल्द ही उसकी सहेलियाँ बन जाएंगी।
उसके लिए तो सब कुछ नया-नया था। उसे तो ये तक खबर नहीं थी रोज शाम ये लड़कियां इतना सज-धज कर बाहर क्यों खड़ी हो जाती है। उसे तो सलमा बी ने अपने काम के लिए रख लिया था। सुबह की चाय से लेकर रात को उनके पैर दबाने तक का सारा काम उसी के हिस्से में था। उनमें से कुछ लड़कियाँ जो अभी तक इस धंधे को स्वीकार नहीं कर पाई थी वो सुग्गी की बदसूरती के कारण उसकी किस्मत को खूबसूरत मानने लगी थी। पर ये किस्मत की खूबसूरती का साथ उसके साथ ज्यादा दिन न ठहरा..!
एक रात अचानक सलमा बी ने उसे गहरी नींद के खड़बड़ा कर उठा दिया और जल्दी से उसे अपने हाथों से तैयार कर एक मद्धिम रौशनी वाले कमरे में ले गयी। जहाँ पर पहले से ही एक अधेड़ उम्र का एक आदमी नशे की हालत में सिगरेट के कश लगा रहा था। पहली बार उस आदमी को देखकर उसके शरीर में सिरहन हुई। डर से उसने सलमा बी की तरफ देखा कि जैसे कह रही हो कि मैं ही क्यों…?
तब सलमा बी ने उसके कान में फुसफुसाते हुए कहा था… ‘तगड़ा आदमी है, भर-भर के पैसे देने को तैयार बस उसी एक ही इच्छा है कि उसे कच्ची कली चाहिये, और इस वक़्त तेरे अलावा हमारे पास कोई कच्ची कली नहीं है। इतना मोटा ग्राहक हम ऐसे थोड़ी न जाने देंगे। जा कर खुश कर उसे और हाँ कमरे की बत्ती जलाने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि तेरा थोपड़ा तो वैसे भी देखने लायक नहीं है।’ उस दिन उसे सलबा बी से सख्त नफरत हो गयी थी और उन लड़कियी का दर्द भी समझ आ गया था। जब दूसरे दिन उसने सलमा बी से शिकायत की तो एक ही तमाचे ने उसके एक दांत को उसके हाथ में ला दिया था।
उस रात के बाद तो उसकी हर दूसरी रात उस अंधेरे कमरे में किसी न किसी मर्द के साथ बीतने लगी थी। बस अंतर इतना था ये मर्द कम खर्च करने वाले थे क्योंकि अब वो कच्ची कली नहीं रह गयी थी। उम्र बढ़ने के साथ-साथ सुग्गी को अब तक इस धंधे की समझ आने लगी थी और उसे वो चमकती-धमकती लड़कियाँ भी भाने लगी थी क्योंकि उसे अपनी ज़िंदगी की हकीकत भी समझ आ चुकी थी कि अब यही उसका ठौर-ठिकाना है। यहाँ रोने-धोने से कुछ न होगा।जब अपने ही अपने न रहे तो गैरों को अपना बनाना उसने सीख लिया था।
“ये सुग्गी.. ये धंधे के टेम पर ये क्या मनहूसियत फैला रखी है। खोल दरवाजा… एक ग्राहक ऊपर भेज रही हूँ।” सलमा बी की एक चमची ने दरवाजे के बाहर से ही चिल्लाते हुए कहा।
“आज मन नहीं है…” सुग्गी का मन तो किया कि ये बात कह दे, लेकिन इसका अंजाम उसे पता था। इसलिए चुपचाप उठकर उसने दरवाजा खोल दिया और कमरे के बाहर जाकर खड़ी हो गयी।
तभी उसकी नज़र सीढ़ियों से उतरते हुए उसी सुंदर से शख्स पर पड़ी जो अपने बालों को हाथों से बनाते हुए नीचे उतर रहा था और वहीं मटमैले कपड़े पहने एक दूसरा शख्स जो नीचे से ऊपर की ओर आ रहा था। दूर-दूर तक उनमें कोई बराबरी नज़र नहीं आ रही थी। सुग्गी ने गलियारे की जाली से नीचे झांका तो वह सुंदर सा आदमी अपनी बड़ी सी गाड़ी पर बैठ चुका था कि तभी पीछे से उसके दरवाजे की कुंडी खटकी… सुग्गी पलटी तो मटमैला आदमी उसके बिस्तर पर बैठा उसका इंतजार कर रहा था।
शिवानी
शांतिनिकेतन
बोलपुर पश्चिम बंगाल
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1 टिप्पणी

  1. लघु कथा की दृष्टि से लंबाई कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। इसे और थोड़ा छोटा किया जा सकता था।
    पढ़ कर दुख हुआ माता-पिता के न रहने पर किसी और पर भरोसा करना बड़ा कठिन है। चाचा-चाची ही बेच गए।
    कोठे का व्यापार ही सुंदरता के आधार पर चलता है।
    पर अच्छे की कामना तो सभी को रहती है।
    ऐसी रचनाएं बहुत तकलीफ देती हैं।
    लगता है कि किसी किसी को जीवन सिर्फ सजा भोगने के लिए ही मिलता है।

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