Sunday, September 8, 2024
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अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ की कहानी – नई सुबह

सोते-सोते अचानक ऐसा लगा जैसे कुछ रेंग रहा है बदन पर, कीड़ा होगा सोचते हुए, नींद ही नींद में हाथ से उसे झटककर फिर से सो गई थी वह। थोड़ी ही देर बाद अचानक अपनी छाती पर दबाव सा महसूस करते ही, उसकी आँखें खुलीं तो दो आँखों को अपनी ओर गड़ता देखा। अपनी तरफ़ झुकती लाल आँखें…..लगातार समीप आते वहशी ओंठ और गर्म साँसे, विश्वास ही नहीं हुआ कि यह उसका मौसेरा भाई …. नहीं नहीं सपना होगा, पर वह सपना नहीं अनचाही – अनसोची हकीकत था। वह उसे धक्का देना चाहती थी, ताकत जवाब दे गई। उसे हल्के बादलों से घिरी वह रात उस काली नागिन सी लगी जिसका ज़हर सिर से पाँव तक उसे सुन्न किए जा रहा था, सितारों की रोशनी आँखों में चुभती सी महसूस हुई।
गले में अटकी चीख बाहर का रास्ता ही तय नहीं कर पाई…हथेलियों के दब से वहीं घुट कर रह गई। यह सपना नहीं था, दुस्साहस था, छत पर सोए अपने बाकी चार भाइयों और एक बहन को देखा, पर सब गहरी नींद में थे। चीखना चाहती थी पर वो चीख पेट से घुमड़ती हुई कहीं किसी गहरे कुएँ में विलुप्त होती सी दिल में असह्य दर्द पैदा कर गले में रुकी रही। चार दिन पहले ही तो सब आए थे हमारे पास, मौसा-मौसी उनके दो बेटे एक बेटी और यह बड़ी मौसी का लड़का जो उनके साथ आया था। विभु भैया कहते सब उसके आगे पीछे डोलते थे, उसके बेसिर पैर के चुटकुलों पर हँसते … पर यह क्या कर रहा है वह …. दिमाग जैसे एक अंधेरे कुएँ में तब्दील हो, भैया.. भैया…भैया … जैसे हथौड़े की चोट से लहूलुहान था।
एक झटके में उठ कर बैठ तो गई पर अपनी जगह से हिलने की शक्ति भी जैसे छिन गई थी, दोनों पैर कई-कई मन के हो गए थे। कितनी विवश, डर के मारे काँपती वह जागती रही और उन दोनों आँखों को अपनी देह से आर पार होते देख पानी पानी होती रही। विभु, उसके मौसेरे भाई के चेहरे पर ऐसी घिनौनी मुस्कुराहट थी जिसे देख कर उबकाई सी आने लगी, साथ ही पेट के निचले हिस्से में तेज दर्द से छटपटाने लगी वह। घुटने से पैर को मोड़ पेट को अंदर दबा बैठ गई वह, आँखें चुराती जैसे कि गलती उसने की हो। शरीर पर जोंक की तरह लिपटी विभु की निगाहें उसकी शिराओं से रक्त चूस कर विषैला करती जा रही थीं।
अचानक हल्की सी बौछार शुरू हुई और उसकी जान में जान आई , सब उठ खड़े हुए नीचे जाने को तैयार …. अपनी चादर में ख़ुद को कस कर लपेटे वह गठरी बनी सिकुड़ी सी बैठी रही। आँखें पनियाई हुईं, कुछ देखने में नाकाम , तभी उसकी बहन ने लगभग खींचते हुए उसे उठाया और वह किसी तरह पैर घसीटते सीढ़ियों से नीचे उतरी …. पर विभु की धूर्त आँखों की तपिश अपनी पीठ पर उसे लगातार महसूस होती रही, ख़बरदार करती हुई, “किसी को बताना नहीं, बताया तो देखना मैं और क्या कर सकता हूँ।” माँ के पास थोड़ी सी जगह देख उनसे चिपट कर सोने की नाकाम कोशिश में ही सुबह हो गई … एक उदास सलेटी सी सुबह ….।
डरी सहमी सी ऋतु गुमसुम सी माँ का हाथ बंटाती रही।  कुछ चिपचिपाहट सी महसूस हुई और कुछ लाल-काले से  दाग-धब्बे से भी, बार-बार बाथरूम जाती और वापस आ जाती। माँ उसे देख रही थी, लगातार … उनकी आँखों में प्रश्न था। उसकी बेचैनी वे महसूस कर पा रही थीं, पर दो कमरों का छोटा सा घर, उस पर मेहमान….उनका ध्यान बंटा हुआ था।
माँ ने तब तक कुछ बताया नहीं था…। अचानक उसे याद आया कि सरिता में एक लेख छपा था जो माँ ने पढ़ने को दिया था, और ये हिदायत भी कि , ” जब भी कुछ ऐसा लगे तो बताना मुझे, किसी और से कुछ मत कहना।”
वो कुछ कहे उससे पहले ही उसका उतरा चेहरा देख माँ ने मौका निकाल पूछा, “क्या हुआ, तबियत ठीक है न तेरी ? देख रही हूँ बार बार बाथरूम जा रही है, चेहरा भी उतरा हुआ है, उदास सी है ?”
“मम्मी पेट में बहुत दर्द है और ….”
इतना सुनते ही एक नरम कपड़ा दिया माँ ने , “लगा ले इसे और ज्यादा उछल कूद मत करना, पहली बार है बस ध्यान रखना, मैं बाद में बात करती हूँ तुझसे ।”
घर में आए मेहमानों की आवभगत की व्यस्तता के बीच मम्मी और कुछ समझा नहीं पाई। रुआंसी सी वह जैसे तैसे कपड़ा रख कर बाहर निकली और फ़िर अपनी माँ के पास आ कर रसोई में खड़ी हो गई। माँ के हाथ बँटाने के बहाने से वह उनके पास से हिलना नहीं चाहती थी, उन चुभती आँखों और घिनौने चेहरे को देखना नहीं चाहती थी … अपने अस्तित्व को ही जैसे नकार देना चाहती हो।  माँ के बार-बार बाहर जाकर भाई बहनों के साथ समय बिताने के लिए कहने और छोटे मोटे काम के मध्य चलते हुए कब वो कपड़ा फिसल कर नीचे गिर पड़ा उसे पता ही न चला, अपने पैरों पर कुछ गिरा हुआ महसूस होने पर देखा तो बहुत दयनीय स्थिति में पाया ख़ुद को। कपड़ा उठाने झुकी तो वो दो आँखे लगातार अपने ऊपर गड़ती महसूस होती रहीं ।
बदहवास सी वह, उसे तो कपड़ा भी रखना भी नहीं सिखाया मम्मी ने, शर्म-क्षोभ से तार-तार वह कपड़ा छुपा कर फिर दौड़ पड़ी वाशरूम की तरफ। वह दिन सुरसा के मुँह की तरह जैसे बढ़ता ही चला जा रहा था ….कब रात आए, और कब वह माँ से चिपक कर सोए…यही बात उसके मस्तिष्क पर हावी थी।
ये तो अच्छा था कि अगले ही दिन सब चले गए पर वो आँखें हर जगह उगती रहीं, दीवार पर, खिड़की पर, किताब के भीतर, पर नहीं कह पाई कुछ भी अपनी मम्मी को, पापा को, भाईयों को….। क्योंकि हर बार तो उसने यही कहते सुना था सबको, ” हर ग़लती का दोष लड़कियों के सिर मढ़ दिया जाता है, बहुत ध्यान से रहना पड़ता है इस समाज में…।” भीतर ही भीतर बेतरह घुलती ऋतु पढ़ाई में पिछड़ती चली गई, किसी को अपना दर्द नहीं बता पाई कभी…।
कहाँ तो नौंवी कक्षा में पढ़ रही पतली दुबली सी लड़की,  गोरे रंग, भूरी आँखों, कान तक कटे काले रेशमी बालों वाली, नाज़ुक सी दिखती ऋतु अपनी कक्षा की सबसे होशियार लड़की थी। अच्छा व्यवहार उसे शिक्षकों और सहपाठियों में लोकप्रिय बनाता था। सबकी परवाह करती, हमेशा मुस्कुराती ऋतु अब सदमे में थी, सुन्न सी…यहाँ तक कि बारहवीं में वह अपने सबसे प्रिय विषय जीवविज्ञान में अनुत्तीर्ण हो गई। उसके डॉक्टर बनने के सपने को जंग लग गया, और वह पंख जिनके भरोसे उसने उड़ना सीखा था वो बेरंग हो कर तिनकों की तरह बिखर गए थे।
लगातार पिछड़ते जाने की टीस, सपनों का औंधे मुँह गिरना, ख़ुद से सवाल जवाब, मन के अन्दर कितनी परतें थीं जो माँ और पापा के आगे खोलना चाहती थी….पर अपनी नाकामियों से परेशान मानसिक रूप से घुलती ऋतु का दर्द कोई देख नहीं पा रहा था। उसके पढ़ाई में पिछड़ते जाने को, एक ही वाक्य में खत्म कर दिया जाता कि इसका पढ़ने में मन ही नहीं लगता , इसकी शादी कर देते हैं और उसे ग्रेजुएशन होते ही शादी के बंधन में बाँध दिया गया। वह अक्सर सोचती क्यों एक लड़की का मन पढ़ने में अपने ही नाकाम हो जाते हैं … क्यों हर बात का ठीकरा एक लड़की के सिर पर फोड़ दिया जाता है… सुन्दर हो तब भी, सामान्य हो तब भी … क्यों खुले आकाश में उड़ने का हौसला देने की जगह उसे जज किया जाता है…? थोड़ी सी ज़मीन ही तो चाहिए होती है उड़ान भरने के लिए, उसमें भी अपना ही घर परिवार नाकाम हो जाता है।
टेलीविज़न पर आज अपनी बेटी के साथ एक सीरियल देखते हुए उसे अपने उस उदास समय की याद ऐसे लगी जैसे वह एक बार फिर शोलों पर चल रही है। कोई काँटा फिर से फाँस बन चुभने लगा उसे । अपनी इस बेचैनी को छुपाने, पानी पीने के लिए ऋतु उठने लगी तो उसकी तेरह साल की बेटी टीना बोल उठी, “मम्मा कहाँ जा रही हो आप?  मुझे न, आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है …. थोड़ी देर बैठो न मेरे पास।”
पानी पीकर ऋतु अपनी बेटी के पास आकर बैठी तो टीना ने बताना शुरू किया, “मम्मा, ईशा है न मेरी दोस्त …. याद है न आपको ….. उसकी ज्वाइंट फैमिली है, दादा दादी, चाचा चाची, उसके दो बेटे जो ईशा की उम्र के हैं वो भी साथ ही रहते हैं। दो फ्लैट को जोड़कर एक किया हुआ है, आपको बताया था न मैंने, याद आया।”
“मम्मा पता है ईशा बता रही थी कि उसकी पढ़ते पढ़ते आँख लग गई और उसका चचेरा भाई भी जो वहीं पढ़ रहा था वह भी उसके पास ही सो गया। जब वह उठी तो उसके भाई का हाथ उसकी छाती पर था…..”
ऋतु अन्दर ही अन्दर दर्द से कराह उठी … शादी के बाद अपने पति के साथ मुम्बई शिफ्ट हुई ऋतु यहाँ के माहौल में ख़ुद को इतने सालों में भी एडजस्ट नहीं कर पाई थी। महानगरीय माहौल में लोगों के चेहरों पर पुते हुए बेगाने रंग उसे आज भी परेशान ही करते हैं। उसने उलझन भरे स्वर में टीना से पूछा “बेटा तूने उसे कहा नहीं कि उसे अपनी मम्मी को बताना चाहिए…. अभी इसी वक्त…”
“कहा था मम्मा, पर ईशा ने कहा मेरे पापा उसका खून कर देंगे, हमारी पूरी फ़ैमिली अलग-अलग हो जाएगी, तहस-नहस हो जाएगी, मुझे भी डाँट पड़ेगी, मुझे भी ग़लत समझेंगे सब …..बहुत रो रही थी, मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ…इतना गुस्सा चढ़ रहा है क्या बताऊँ। मम्मा, भाई है न वह ईशा का, ऐसा कैसे कर सकता है…?”
अपनी बेटी को किस तरह समझाती ऋतु कि न चाहते हुए भी यह वास्तविकता है, बहुत मामूली बात है…. घर की चारदीवारी के भीतर से ही अधिकतर इस उत्पीड़न की शुरुआत होती है। समाज तो परिवार से ही विस्तार पाता है। सबसे पहले अपने सबसे नज़दीकी लोग ही फ़ायदा उठाना चाहते हैं, कभी प्यार की आड़ में, कभी हँसी मजाक की आड़ में, कभी लाड़ की आड़ में… अधिकांश लड़कियाँ गुजरती हैं इन सबसे पर कह नहीं पाती….। इसके लिए कोई कचहरी नहीं होती …. अपने ही सवाल, अपने ही जवाब….अपनी ही घुटन, आँसू … सब अपने ही होते हैं।
किसी तरह से उसे समझा बुझा कर सुलाया पर पचास की उम्र में वो पीड़ा एक बार फिर से बिजली की भाँति उस पर गिरी और वह रात भर उस असह्य पीड़ा से एक बार फ़िर गुजरती रही। गुज़री हुई बातें गुजरती कहाँ हैं, लौट कर वापस ज़ख्मों की परतें उघाड़ कर रख देती हैं,  आसानी से पीछा कहाँ छूटता है……। पीड़ा रिसती रहती है सदियों तक…बार-बार बीतता हुआ कल कभी नहीं बीतता….। ऋतु चाहते हुए भी कहाँ बता पाई थी अपने घर में किसी को, बार-बार  शादी ब्याह के मौकों पर जब भी सब रिश्तेदार मिलते और विभु से सामना होता वह इधर उधर छुपती रहती डर के मारे…..पर अब भी वही बातें, वही डर। उसे याद आता है कि विभु की पत्नी मीता जो ख़ुद भी उसकी दूर की रिश्तेदार थी ने कई बार ऋतु से पूछा था, तू सबसे बात करती है पर विभु से नहीं करती … क्यों? और यह भी कि तू मुझे दीदी बोलती है भाभी नहीं, ऋतु कह उठती आप मेरी भाभी नहीं हो सकतीं हाँ विभु ज़रूर जीजा हो सकते हैं … और बात को टाल देती थी। करवट बदलते हुए रात गुजरी पर ख़ुद से भागते रहने का सपना उसके पीछे पड़ा रहा……..एक बेचैन रात जिसमें तेज़ कदमों से घर ढूँढा, सुकून चाहा ….पर घर और सुकून कहाँ नसीब था….पता नहीं कब पीछा छूटेगा इस सपने से। सुबह उठी तो सिर दर्द से दोहरा हुआ जा रहा था।
“मम्मा आज फिर ईशा का फ़ोन आया था, रात को खिड़की पर बार बार उसका भाई खट खट करता रहा और डर के मारे ईशा सो नहीं पाई। दरअसल दो घरों को जोड़ने के कारण बालकनी जुड़ी हुई है, वहीं से कूदकर वह उसकी बालकनी में आ गया था।”
“मैं भी रात को नहीं सो पाई बेटा, ईशा के बारे सोच कर मुझे भी नींद नहीं आई।”
“आप ही कुछ करो न मम्मा, ये तो बहुत ग़लत बात है, कोई भी भाई ऐसा कैसे कर सकता है?”
“बहुत कम खुशनसीब लड़कियाँ होती हैं जिनके सगे भाई के अलावा भी भाई, भाई की तरह ही रहें। ये दुनिया ऐसी ही है बेटा, बस खुद को चौकन्ना रहना चाहिए। और एक बात हमेशा याद रखना यह शरीर, यह मन तेरा है…सिर्फ़ तेरा। तेरी अनुमति के बिना किसी को हक़ नहीं कि वह उसे छू सके … नहीं का मतलब नहीं ही होता है।”
इतना बोल वह अपने कमरे में आई, पर बेटी की बातें उसका पीछा करती रही, ” मम्मा आप ही कुछ करो”। फ़िर अपना अतीत…पढ़ाई में पिछड़ना, आत्मविश्वास ख़त्म होना भी स्मृति पटल पर बेतरह उभरने लगा….नहीं वह ऐसा कुछ नहीं होने दे सकती, और फ़िर बेटी को भी तो  इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना सिखाना है। पापा आज तक उसे डॉक्टर न बन पाने का उलाहना दे ही देते हैं। किसी रोबोट की तरह उसने अल्मारी खोली, कपड़े उलटते पुलटते अचानक हाथ थमे, उसने अपने कपड़े निकाले, कुछ निश्चय किया उसने।
ईशा की माँ को फ़ोन घुमा कर उसने इतना ही कहा था, “मैं आपसे ईशा के बारे में एक ज़रूरी बात करना चाहती हूँ, इनॉर्बिट मॉल में मिल सकते हैं क्या? प्लीज़ ईशा को साथ ले कर आइएगा।”
यह एक संयोग ही था कि ईशा की माँ का ऑफिस इनॉर्बिट मॉल के पास ही था, तय हुआ कि ऑफिस का काम ख़त्म होने के बाद मिलते हैं। अलमारी से कपड़े निकालते उसने अपनी बेटी को आवाज़ लगाई,”जल्दी तैयार हो, हमें ईशा और उसकी मम्मी से मिलने जाना है……..।”
थोड़े इंतज़ार के बाद ईशा अपनी मम्मी के साथ आती दिखी। एक कोना तलाश चारों वहाँ बैठे। समय की कमी से जूझती ईशा की मम्मी आज भी ईशा के चेहरे के उड़े हुए रंग पहचान नहीं पा रही थी। ऋतु ने ही बात शरू की, ” कैसा चल रहा है ऑफिस और घर…. ईशा की पढ़ाई?”
“अरे कहाँ, ऑफिस के कामों से फुर्सत ही नहीं मिलती … अपनी पढ़ाई , अपनी हर चीज ईशा ही हैंडल करती है … मैं उसे समय ही नहीं दे पाती।”
“महानगर ऐसा ही होता है, समय नहीं देता .. अपने लिए, अपने सबसे कीमती रिश्तों के लिए। फैशनबल कपड़े, हॉटेल में चलते शॉट्स, सिगरेट का धुआँ, या फिर लिपटना चिपटना फैशनबल होने की एकमात्र निशानी है यहाँ । घर के अन्दर क्या चल रहा है … न पहले पता चलता था, न अब …?”
“कहना क्या चाहती हैं आप, खुल कर कहिए न … मुझे लगता है यहाँ कुछ पर्सनल हो रहा है ?”
” मुझे एक बात बताइए, आपने ईशा को अपने पास बैठाकर आखिरी बार कब बात की थी ?”
इतना सुनते ही ईशा के चेहरे की रंगत उड़ने लगी … शायद उसे लगा कि उसकी मम्मा नाराज़ होगी, घर की बात को दूसरे को बताने पर उसे माफ़ नहीं करेंगी । उसने टीना से कहा, “टीना प्लीज अपनी मम्मा को मना कर न…।” टीना ने ईशा का हाथ अपने हाथ में ले हौले से दबाया, जैसे कि कह रही हो ” चिंता मत कर मम्मा सब संभाल लेंगी…।”
ईशा की माँ के पास कोई उत्तर नहीं था, वो बारी – बारी तीनों का मुँह देख रही थी …. ऋतु ने फिर कहना शुरू किया…” यही बात है अपनी उलझनों में आपने कभी ईशा को समय नहीं दिया, आपको पता है आपकी चारदीवारी के भीतर क्या चल रहा है ? ईशा नहीं बता पाएगी आपको….. मैं बताती हूँ “
ऋतु ने सिलसिलेवार हर बात उसे बताई …. टीना की माँ के चेहरे पर कुछ ही समय में अनगिनत रंग आए और गए। पर हर किसी की एक ईगो होती है …. हर कोई यह मान लेता है कि उसके घर में यह नहीं हो सकता और शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुँह छिपाता फिरता है। वह कह उठी, “ऐसा नहीं हो सकता ….. नहीं हो सकता ऐसा। पसीने से तर बतर जैसे जान समझकर अनजान बनना चाहती हो, या शायद जो जीवन उसने चुना था अपनी महत्वाकांक्षाओं से भरा उस पर यह सीधा आक्षेप था।
ऋतु यह समझ गई थी, उसने एक सीधा सा सवाल किया, ” क्या आप के साथ कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ….सच बोलिएगा। मैं बताऊँ तो मैं इससे अछूती नहीं रही… इसलिए मैंने सोचा आपको बताया जाए, क्योंकि इसकी शुरुआत सबसे पहले घर से होनी चाहिए। बेटियाँ सबकी साँझी होती हैं …. यह हमें समझना पड़ेगा और हमारी बच्चियों के मानसिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी हमारी है । जो बात मैं अपने मम्मी पापा को नहीं बता पाई …. मैं नहीं चाहती कि टीना या ईशा अपने माँ- बाबा से न कर पाएँ”
ईशा की आँखों से टपकते आँसुओ ने उसकी माँ को सब कुछ बता दिया था …. उसके आँखों में ठहरे दर्द ने सारा हाल बयान कर दिया था ….. उसका गुमसुम रहना अब वह महसूस कर पा रही थी … अपने साथ होने वाले हादसे शायद उसे अभी कुछ बोलने नहीं दे रहे थे … पर उसकी आँखों में एक निश्चय था….ईशा का हाथ अपने हाथ में ले उसकी माँ ने प्यार से हौले से दबाया … उसे अपने पास बुला गले से लगाया।
ऋतु के गले लगने के बाद ईशा का हाथ पकड़ वह घर की ओर एक निश्चय के साथ चल पड़ी। उसे पता था इस आवाज़ के विरूद्ध और कितनी आवाज़ें उठेंगी, पर वह अपनी बेटी के साथ यह नहीं होने दे सकती। कई संयुक्त परिवारों में घूँघट होने के बावजूद क्या क्या घटता है इससे अनजान नहीं थी वह, बहुत सारी कहानियाँ सुन रखी थीं उसने ….. पर अपने घर में यह होना उसकी बरदाश्त के बाहर था।
वह चाहती थी कि परिवार के लोग इस हकीकत को जाने, घर पँहुचने के पहले ही फ़ोन कर उसने सबको लिविंग एरिया में इकट्ठा होने के लिए कह दिया था। ईशा की झुकी हुई गर्दन को उसने ऊपर उठाया, हाथ से स्माइली का इशारा करते हुए कस कर ईशा का हाथ पकड़े वह घर में घुसी … उसे पता था उसे क्या करना है, कैसे करना है….। अपनी बेटी के आत्मसम्मान को फिर से जीवित करना अब उसकी जिम्मेदारी है … उसकी उदासी को चिड़िया की चहचहाहट में बदलना उसका अरमान।
आज इतने बरसों से जमा मवाद जैसे बह निकला था… थोड़ी देर टीना का हाथ पकड़ ऋतु वहीं बैठी रही। टीना की आँखों में अपने लिए गर्व के भाव ने ऋतु का होना जैसे सार्थक कर दिया था। “मैं आती हूँ मम्मा , बस दो मिनट”, कह कर टीना किसी से फ़ोन पर बात करने लगी। फ़िर, “चलो मम्मा घर चलते हैं” कह उसका हाथ इस तरह पकड़ लिया जैसे ऋतु एक बच्ची और टीना उसकी मम्मा हो। ऑटो में वापस घर जाते हुए एक हलचल थी अभी भी मन में, कोई सुप्त ज्वालामुखी जैसे अभी भी मुँह खोल कर बह जाने को तैयार था। घर पँहुचते ही शेखर ने दरवाजा खोला तो वह उससे लिपट कर फूट फूट कर रो पड़ी। शायद अभी भी कोई काँटा अटका सा था गले में …. शेखर को टीना सब बता चुकी थी, उसे ऋतु के अपने खोल में सिमटे रहने का राज आज पता चला था। उन्मुक्त स्वभाव, सरल हृदय वाला शेखर ऋतु को बार – बार कहता रहा इतने सालों, “थोड़ा खुला करो लोगों से, हँसा करो थोड़ा….” आज ऋतु को असल में देख पा रहा था … वह आज ऋतु को पूरा पा  चुका था। टीना को भी यह अहसास हो गया था कि मम्मा इतना प्रोटेक्टिव क्यों है  उसे लेकर।
यह एक सुहानी शाम थी, रंग भरी अगली सुबह की आस लिए…एक नई जगमगाती सुबह । इतने वर्षों की जमी धूल साफ़ कर आईने में ख़ुद को ऋतु साफ़ नज़र आ रही थी गुनगुनाती हुई … आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन, मेरा मन गाती हुई…. बरसों पहले वाली ऋतु…!!!

अमनदीप गुजराल  ‘विम्मी’
उत्तरप्रदेश (शाहजहाँ पुर ) में जन्मीं  अमनदीप गुजराल ” विम्मी ” वर्तमान में नवी-मुंबई में निवासरत हैं। छत्तीसगढ़ के एक छोटे शहर बालको में  छात्र जीवन से ही विद्यालय, महाविद्यालय पत्रिकाओं तथा विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से लिखने का शौक जागृत हुआ।  ततपश्चात  उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान एवम अन्य पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से उत्साह वर्धन हुआ। अपनी जमीन तलाशने में लगीं अमनदीप सहज, सरल व अन्तर्मुखी स्वभाव की हैं। पढ़ना , पढ़ाना, लिखना व संगीत सुनना इनकी रुचियों में शामिल है।
पोषम पा, हिंदीनामा, अश्रुतपूर्वा पोर्टल पर प्रकाशन।
आगमन समूह की विहंगिनी ( साझा काव्य संकलन ) एवम ‘काव्य-दस्तक’ की पहल – प्रारम्भ में प्रकाशन।
काव्य संग्रह – ” ठहरना ज़रूरी है प्रेम में’ , (2022), बोधि प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी, उड़िया और पंजाबी में अनुवाद।
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