Tuesday, September 17, 2024
होमकहानीअनिता रश्मि की कहानी - वात्सल्य रस

अनिता रश्मि की कहानी – वात्सल्य रस

“डाडी माँ, तुम्हारी हथेली कितना हॉट है। मैं उस पर सर रख कर सो जाऊँ?”
उज्ज्वल के इतना कहते ही पार्वती गदगद! उस अनजाने शहर के उस बड़े से कमरे में एकाएक बहुत ही सुकून का एहसास होने लगा।
“हाँ! बेटे, सो जा।”
कितने दिनों से किसी बच्चे को थपकी देने के लिए मेरी हथेलियाँ तरस गईं। पार्वती ने सोचा।
अपनी दोनों हथेलियों के बीच उज्ज्वल के ललहुन, कोमल कपोलों को खरगोश के बच्चे सा छिपा लिया। उनके चेहरे से एक स्निग्ध तरलता टपक रही थी। पूरा वातावरण गवाही दे रहा था।
जैसे ही रामप्रसाद कमरे में आए, उन्हें बहुत संतोष का अनुभव हुआ। बहुत दिनों बाद उन्होंने पत्नी की आँखों, चेहरे के भाव, यहाँ तक कि शरीर की भाषा में भी बहती हुई तरलता देखी थी। विभोर हो कहा,
“पार्वती, तुम तो यहाँ फिर से बीस-पच्चीस की हो गई। लोहित का बचपन याद आ रहा है न?”
“हाँ जी ! लग रहा है, हथेलियों के बीच लोहित सो रहा है।”
वह बिना हिले-डुले बोली।
“अब मेरे मन को शांति मिली। उतना बड़ा लोहित अब ऐसे सोएगा?”
“अफसोस कर रही है?”
“नहीं! अफसोस कैसा, आप जानते हैं न, मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है।”
पार्वती उज्ज्वल को धीमे-धीमे थपकी देती रही।
लोहित के विदेश जाने, फिर वापस आकर अलग शहर में बसने के कारण आँखों में जो सूनापन छा गया था, वह हटता सा लगा। पार्वती अब उन्हें बीच मंझदार में छोड़कर नहीं जाएगी। उसके जीने के लिए यह बहाना काफी है, कुछ दिनों से वह यही सोच रही थी।
*****
रामप्रसाद पार्वती की तड़पन को देख-देख बहुत घबरा गए थे। तुलसी के पौधे को नित्य सींचते हुए, संध्या दिखलाते हुए वह मन ही मन प्रार्थना में डूबी रहती। उत्साहहीन चेहरे में कभी चमक नहीं आ पाती। इन दस सालों में उसकी छोटी सी मुस्कान के लिए वे तरस गए थे।
 परसों लोहित की चिर-प्रतीक्षित चिट्ठी लेकर डाकिया आया था। वह डाकिये को देख अंदर की ओर मुड़ गई थी। वैसे डाकिये के आने के टाइम पर उसे बाहर का ही काम रहता था।
परसों भी बाहर का दालान झाड़ रही थी। रामप्रसाद ने ही पत्र लिया था।
“लो, आ गई, बेटे की चिट्ठी। बुलाहट। मैं कहता था न, लोहित हमें भूल नहीं सकता।”
 उनका खिला-खिला व्यवहार भी पार्वती को हर्षित न कर सका। वह चौंकी। फिर आम के बिखरे पत्तों को पूर्ववत झाडू से हटाते हुए पूछा,
“लोहित की चिट्ठी?’
वे आँगन में आम के पेड़ के नीचे बिछी खाट पर बैठते हुए बोले,
“हम दोनों को बुलाया है। लिखा है, आप दोनों के बिना घर एकदम सूना है। आपका पोता भी आपको याद करता है। उसे देखने नहीं आइएगा? और लिखा है…।”
“…आने के लिए लिखा उसने। अब सुध आई?”
वह रोष में डूबी झाडू चलाती रही। कान तो उनकी ओर ही थे।  फिर अचानक कह उठी
 “हमारा पोता…हमारा पोता! वह हमें याद करता होगा? कितना लंबा हो गया होगा न? सुनते हैं, बहू गोरी है, वह भी गोरा…।”
“…हाँ, होगा क्यों नहीं? उसकी दादी जो इतनी गोरी है।”
वे इतना कह उसकी चमकती आँखों में झाँकने लगे। वह झाड़ू फेंक कर उनकी बात सुन रही थी। फिर से उठा झट सूखे पत्तों को बुहारती कहने लगी,
 “कौन होती हूँ मैं, जो मेरा रंग-रूप लेगा?”
चेहरा निष्प्रभ! पतझड़ के दिन! उसके चेहरे पर भी पतझड़  छा गया।
कभी बेटे लोहित के द्वारा उसके जन्मदिन पर लगाया गया बिरवा आज विशाल वृक्ष बन आधे आँगन को घेरे हुए था। मिट्टी के बाॅउंडी वाॅल पर पेड़ झुक आया था। अपनी डालियों को जबरन घर के अंदर घुसेड़ रखा था। उसकी एक भी डाल वह काटने नहीं देती।
दिन भर में तीन बार पतझड़ी पत्तों को बुहारती, बेटे की याद संजोती। घंटों बीत जाते, उसका मन उसकी छाया से हटने नहीं देता। दोनों अक्सर वहीं बीत गए दिनों को मोती-सा चुगते रहते। मानस पुत्र था वह विशाल आम्र वृक्ष। उसे लगाया भी तो था लोहित ने। उसका दसवाँ जन्मदिन था।
बहुत शौक से कलमी आम का एक नन्हां पौधा लेकर रामप्रसाद आए थे। आनन-फानन में आँगन के बीचोंबीच गड्ढा खोद कर, उसमें गोबर की खाद डाल मिट्टी को एकसार किया था पिता-पुत्र ने। एक किनारे खड़ी पार्वती भी हँसे जा रही थी।
जैसे वे हटे, पार्वती ने लोहित के पास आकर पौधा लगवाया था और मिट्टी गड्ढे में भर दी थी। कांसे के लोटे में रखे पानी को लोहित से ही हौले-हौले डलवाया था।
उसने उस बार लोहित को रेडिमेड  धोती-कुर्ता पहनाकर, सर पर पगड़ी बाँध, मोर मुकुट लगा, माथे  पर तिलक कर कृष्ण की तरह सजाया था। वह कान्हा के बाल रूप पर वारी-वारी जा रही थी। उसी आम के पौधे के चारों ओर देर तक लोहित मगन हो नाचता रहा था।
  बाद में उसी जगह पर काॅपी-किताब लेकर बैठ जाता। आम का पेड़ और लोहित साथ-साथ बढ़ रहे थे। दोनों पति-पत्नी के दिल में एक साध पल रही थी। बेटे को डॉक्टर बनाना और यहीं के नए बने अस्पताल में पदस्थापित करना।
रामप्रसाद शिक्षक थे। गाँव के स्कूल में ही अपनी सेवाएँ दे रहे थे। दो वर्ष पहले ही पंचायत के चुनाव में जीते थे। मन में था, बहुत काम कर लिया, अब गाँव की सेवा करनी चाहिए। अब तो शिक्षकों की स्कूल में कमी भी नहीं।
बहुत काम किया था। अस्पताल का निर्माण भी उनकी लिस्ट में था। दसवीं पास पार्वती भी उनके सपनों के साथ थी।
  लेकिन बड़े हो गए लोहित की इच्छाएँ और थीं। वह विशाल आम्र वृक्ष की ऊँचाई की तरह हाथ में नहीं आ रहा था। पिछले दस सालों से वह उसकी परछाईं पकड़ने के लिए भागती रही थी, परछाईं हाथ नहीं आ रही थी।
उन दस वर्षों ने रामप्रसाद के साँवले हाथों, गालों में झुर्रियांँ भर दीं। गोरी, मासूम, कोमल, दुबली-पतली पार्वती झुर्रियों से अब भी अछूती थी। हाँ, मुँह इतना सा निकल आया था।
“चलो, अब झाड़ू-बुहारू छोड़कर कपड़े सहेजना शुरू करो। कल सवेरे ही चल देंगे।”
पार्वती ने सर उठाकर हौले से उनके उत्साह को देखा। वे कहते रहे,
“चौदह-पंद्रह घंटे का रास्ता है। लोहित का ड्राइवर रात तक गाड़ी लेकर पहुँच जाएगा।”
वे फिर से वर्त्तमान में आ गए। पार्वती जैसे सुन ही नहीं पाई।
“यहाँ भी तो सब समेट रखना होगा न…देर करना ठीक नहीं।”
  वे उठ खड़े हुए। उन्हें बेटे के पास पहुँचने की जल्दी थी।
“मैं नहीं जाती।”
आत्मदर्प से पार्वती का चेहरा तप गया। श्रम एवं अभिमान से गोरा चेहरा लाल हो उठा।
“आप हो आइए। उज्ज्वल को आँखों में बसा कर ले आइएगा।”
“लो, तुम्हें अब मान हो गया। इतने दिनों से सब से मिलने की रट लगाए थी। आज क्या हो गया?”
“सुन रही मेरी बात? कहाँ खो गई?”
“इतने साल बाद उसे होश आया कि गाँव की गलियों में बूढ़े माँ-बाप उसका बाट जोह रहे हैं? मैं नहीं जाती। तुम जा सकते…।”
“…मैंने मन को समझा लिया है। तुम भी समझा लो ना पार्वती।”
   वे झाड़ू छीनते हुए बोले। पार्वती झाड़ू को कसकर पकड़े रही। एक तिरछी निगाह उन पर डाली। ऊपर सर उठा, गौर से गाछ की ऊँची फुनगी को देखा। फुनगी पर चंद कोमल ललहुन पत्ते और हरियाये पत्ते लहरा रहे थे। गहरे हरे पत्तों से होते हुए जड़ तक उसने गहरी निगाह डाली। फिर सर झुका लिया।
एक अस्फुष्ट स्वर, “मैं समझना नहीं चाहती।”
“बैठो, पहले शांत हो लो।”
उन्होंने गहरी साॅंस ली।
“मैं भी सोचता हूँ, इतने साल उसे हमारी सुध न आई? कभी देखने नहीं आया। बस, दो जोड़ी कपड़े और महीने में दस हजार भेज समझता  रहा कि हमारी जरूरतें पूरी हो गईं। बुढ़ापे में बस पैसे और कपड़े हमारी जरूरत है?…बस, पैसे और कपड़े?”
वे भावुक होने लगे।
“हमारी भावना, हमारा अकेलापन, हमारा जुड़ाव कब आज के बच्चे समझेंगे?”
पार्वती उनकी भावुकता देख बेचैन हो गई। झाड़ू पटक उनके निकट आ गई।
वे कहते रहे थे, “आज वे कहाँ समझ पाते हैं कि उनकी उपलब्धि, पैसे के परे भी उनका जीवन है। जहाँ उनकी नींव पड़ी, वहाँ कोई उनका इंतज़ार कर रहा है। नींव के पत्थरों को कितनी जल्दी भूलने लगे आज के बच्चे।”
   पार्वती ने उनकी आवाज में नमी महसूस की।
“हमारी आँखें पथरा गईं। न खुद आया, न…। बस, शादी की खबर भेज दी।”
 उनकी आवाज के गीलेपन को पेड़ की जड़ों ने भी महसूस किया।
“न पोते के जन्म का ही समाचार दिया। सारी खबरें बाद में मालूम पड़तीं रहीं।”
वे खाँसने लगे। वे आहत। पार्वती समझ गई, भावनाओं के उठे ज्वार में उन्हें सॅंभालना जरूरी। उनके हाथ-पैर देर तक सहलाती रही थी। कभी घर पर ही ट्यूशन पढ़ानेवाली पार्वती उनकी इस जिद्दी खाँसी को अच्छी तरह पहचानती है। बच्चों की तरह उन्हें  सॅंभालती है।
****
अमेरिकी मूल की बहू बेटे को ऑस्ट्रेलिया में मिली थी। दोनों उस समय साथ पढ़ रहे थे। लोहित को  विदेश भेजने के लिए उन्होंने कई खेत बेच दिए थे।
लोहित पढ़ाई खत्म कर वहीं नौकरी करने लगा था।
पाँच साल रहा होगा कि वैश्विक होते समय में ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय लोगों पर हमले होने लगे। और बीच में ही अपनी फैमिली के साथ वह लौट आया था। कहना चाहिए लौट जाना पड़ा था। उसकी पत्नी और साल भर का लोहित साथ में था।
“अपने को तो देखते नहीं। आप ही बोलते थे न, कभी मुँह मत दिखाना। कैसे आता भला…।”
वह जब विदेश में शादी कर आने की अनुमति माॅंग रहा था, रामप्रसाद ने गालियों भरा खत लिखकर आने से मना कर दिया था। उस समय मुँह देखते उनका।
दुर्वासा मुनि को मात कर रहे थे। क्रोध ही ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा। कौन कहता, वे लोहित के पिता थे। दुश्मन से भी बड़ा दुश्मन बन बैठा था अपना जाया। खबर भिजवा दी थी,
“खबरदार, जो मुँह दिखलाया। जहर खा लूँगा।”
नोएडा में रहने लगा, तब भी वही गुस्सा। कितने दिन बाद सेटल हो पाया, कोई खोज-खबर नहीं ली। उबलते-पकते रहे।
उन्होंने एक ही बंदिश तो डाली थी,  “सब करना, बस, मेम से ब्याह न करना।”
ये वह समय था, जब माता-पिता के अंदर उदारता नहीं आई थी। मेम एकदम त्याज्य।
वे सर हिलाने लगे। उनके घुटनों पर हाथ रख पार्वती बोल पड़ी,
“तुम्हारे गुस्से से डर गया होगा।”
रामप्रसाद हँसने लगे। देर तक हँसते रहे।
“अब ऐसे मत हँसो।”
“किसे समझाती है रे पगली! अपने को या मुझे? बचपन में मारकर घर से बाहर कर देता था, तब तो नहीं डरा वह। हाथ-पैर दबा घंटों चिरौरी करता। अब ऐसे नहीं कर सकता क्या? इतनाऽ बड़ा हो गया?”
पार्वती का आत्माभिमान कभी खिसक कर रामप्रसाद के पास चला जाता, कभी उसी के पास रहता। ऐसे भावुक क्षणों में दोनों एक-दूसरे को भरपूर समझाते। वे क्षण हर दूसरे-तीसरे दिन आ ही जाते। भरपूर जिद्दी क्षण।
रात होते ही गाड़ी ले, ड्राइवर सुरेश आ पहुँचा।
एक कमरे से बारी में जाने का रास्ता था। पतले गलियारे से तो था ही। पार्वती कमरे में थी। आगे आँगन में जाने के बदले वह पीछे बारी में जाकर कुएँ की जगत पर जा बैठी। सामने पुदीना लहरा रहा था। चारों ओर उसकी भीनी-भीनी सुगंध तैर रही थी। उसका ध्यान नहीं गया।
रामप्रसाद मनाने आए, तो साफ कह दिया, “मैं अभी नहीं जा पाऊँगी, जिद नहीं करो।”
अपने साफ-सुथरे आँचल को कमर के गिर्द लपेटते हुए दूसरी ओर मुड़ गई।
“मैं भी नहीं जाता, जा।”
सवेरे अंततः गाडी लौट गई।
एक हफ्ते बाद फिर गाड़ी हाज़िर।   पार्वती का मान स्थिर न रह सका,  जब उसने पाँच वर्षीय बच्चे को उतरते देखा। कुएँ से तुरंत निकाली गई बाल्टी पटकती चीखी थी,
“लोहित!…एकदम लोहित!!”
उज्ज्वल को पेट से चिपका कितने चुंबन जड़े, गिनती नहीं। अंदर कोठरी में बैठे रामप्रसाद भी निकल आए।
“लोहित आया?”
चिर प्रतीक्षा में लीन आँखें अनहोनी देख रही थी। हतप्रभ हो गई वाणी उनकी। वात्सल्य रस से पार्वती का चेहरा उद्भाषित!
वे समझ गए, अब पार्वती का इंकार दम तोड़ देगा।
“मैं कहता था न, यह तुम्हारे रंग-रूप का होगा। लोहित ने भी तो तुम्हारा ही रंग चुराया था। है न पार्वती…?”
“…मैं तो…।”
उसके चेहरे के रस से अभिभूत हो, वे चुप हो गए।
उस घर के आँगन, बड़े से बरामदे, दालान, बारी, कुएँ, वृक्षों, सब्जी के पौधों, तुलसी दलों, केले के पत्तों, आँवले के बीजों में अचानक बसंत आ गया। पतझड़ में गिरी पत्तियों, झरे पुष्पों, नंगे विटपों के बीच बसंत।
चौदह साल की उम्र में ब्याह कर यहाँ आई थी। उस पर वही कैशोर्य छा गया तुरंत। फिर जवानी आ गई थी। कभी चावल को सिल-बट्टे पर पीस छिलका बनाती, कभी भिगोकर अरवा चावल सुखाने के बाद, ढेकी में कूट मीठे गुड़ का अरसा तलती। क्या करे, क्या नहीं, समझ नहीं पा रही थी।
उसके घुटनों का दर्द कलाइयों की सूजन, छाती-पीठ की जकड़न, माथे की पीर और दिल के हँसते घाव सब छू मंतर! किस परी की जादुई छड़ी का कमाल?
आज तीनों के चेहरे से टपकनेवाली गर्मी वातावरण में फैली थी। कौन किसका पूरक, कहना कठिन।
****
दूसरे दिन सबेरा होते ही वे निकल पड़े। अरसा और चावल की पपरी (छिलका) साथ में बाँध ली थी। धूल भरे रास्ते पर क्रेटा आगे बढ़ रही थी। विभिन्न प्रश्नों से व्यस्त रखनेवाला उज्ज्वल निर्द्वंंद सो रहा था।
लोहित के वेल फर्निश्ड फ्लैट में घुसते ही उन्हें बहुत अपना-अपना सा लगा। दरवाजा खोला उज्जवल की आया ने।
“साहब और मेम साहब दस बजे रात को आएँगे। ऑफिस में डेलिगेट्स आए हैं। उनको छुट्टी नहीं मिली। साहब बताने को बोले।”
उज्ज्वल के कमरे में ही उनका सामान लग गया। आया ने गर्मागरम सूप पिलाया। टमाटर का सूप देख, पीकर हँसी पार्वती।
“ई बिलौती का रस है। ई सूप-दौरा क्या होता है जी?”
“अरे! इधर अब तो माॅंड़ को भी राइस सूप कहकर बड़े होटलों में बेचा जाता है।”
पार्वती गंभीर हो गई। “सच? कितने लोग केवल माॅंड़ पीकर भूख मिटाते हैं। उसको यहाँ होटल में बेचा जाता है?”
उसके आश्चर्य का ठिकाना न था।
“उसको अच्छे घर के लोग तो नाली में बहा देते हैं। राइस सूप…?”
तभी बाहर गाड़ी की आवाज आई। दोनों की आत्मा कानों में सिमट आई। वे खड़े हो गए। पार्वती के पैर काँपने लगे।
आया नीता आकर बता गई, “साहब लोग आ गए। कितना याद करते थे आप दोनों को।”
वह चली गई।
गाड़ी की आवाज कब बंद हुई, उन्होंने नहीं सुना। उन्होंने सुना, “माॅम, डैड आ गए नीता?”
“यस्स सर!”
दोनों का जी मुँह को आने लगा। ‘कैसा चेहरा हो गया होगा?…उम्र की छाप पड़ी होगी?…मोटा हुआ या…?’
मारे उत्सुकता के रामप्रसाद बाहर आ गए। तब तक वे अंदर घुसे।
पहले पिता, फिर माँ के आँसू बाँध तोड़ बह निकले। पार्वती तो बेहाल। उज्ज्वल को बेड पर छोड़, बेटे से लिपट हिचकियाँ लेती रही। पल ठहर गए। इन पलों में सारा मान, सारा गुस्सा, सारी शिकायतें बह गईं। बेटे के रूठे कपोलों को हाथों में भर लिया।
“तुम्हारी हथेलियाँ अब भी उतनी ही गर्म हैं माॅं!”
……
“इसकी जरूरत इतने सालों में कभी नहीं पड़ी। माँ-बाप से भी कभी कोई रूठता है? गाँव की वो गलियाँ कभी याद न आईं?”
उसके शब्द टूट रहे थे। पर संचित दर्द बह रहा था,
“जहाँ बचपन बीतता है, उसकी याद कभी कोई भूलता है? मैंने अब तक तुम्हारे कॅंचे, गिल्ली-डॅंडा, तुम्हारी स्लेट-पेंसिल, पहली कलम, पोतड़े-फलिया, पहले साल के सारे कपड़े सहेज रखे हैं और तुमने जीवित माँ-बाप को अपनी जिंदगी से निकाल फेंका।”
“तुम अकेले थोड़े न हो। तुम्हारे जैसे कई…।”
फिर अचानक उसे कोने में खड़ी बहू की याद आ गई। उधर मुड़ी कि मेम बहू की आवाज कानों में पड़ी,
“माॅम मेरे सन को भी आपके गर्म हठेली की नीड है।”
दोनों कंधों पर उसके हाथ पड़े। वह समझ नहीं पाई, क्या उत्तर दे।
मन कह रहा था, ‘ये लोग गाँव में नहीं रह सकते, तो क्या। हम यहीं साथ रह लेते हैं। मतलब साथ रहने से है।’
बहू का व्यवहार अच्छा था। समय नहीं दे पाते दोनों, बस यही कमी थी। सुबह सात बजे निकल नौ बजे रात तक लौट पाते। आते ही पार्वती ने घर सॅंभाल लिया। खासकर लोहित को। उसके खाने-पीने, सोने, खेलने का खूब ध्यान रखती। उसका मन भी रमा रहता।
लेकिन छह महीने में ही पार्वती का मन भर गया। उसने लोहित को सपरिवार गाँव में बसने की दावत दी। वह उसकी बात, उसकी चिरौरी नहीं टालेगा। टाल ही नहीं सकता। उसे पक्का भरोसा था। वह लोहित के कमरे की तरफ बढ़ी।
लैपटॉप खुला था और सामने लोहित बैठा था। पास में पानी के पीताभ बोतल संग खाने का सामान पड़ा था। टेबल पर एक तरफ रखी पत्नी की नारंगी मिनी स्कर्ट में तस्वीर को देखते हुए लोहित ने अचानक कहा,
 “आपसे कुछ कहना है।”
वह अवाक् रह गई, जब लोहित ने उसका हाथ थाम लिया और उत्साह से किलकते हुए कहा, “थैंक्यू माॅम !
थैंक्यू?…थैंक्यू किस बात का? तुम उज्ज्वल को सिखाते हो कि रिश्ते में नो थैंक्स, नो…।”
बात अधर में लटकी रह गई। वह बीच में बोल पड़ा,
“…आपने इतने दिन मेरे बेटे की देखभाल की। अकेले घर पर उसे छोड़ने में चिंता होती थी। स्कूल से आने के बाद देखनेवाला कोई नहीं। स्कूल भी ठीक से नहीं भेज पाते थे। मेड भी आपके कारण ही इतने दिन टिकी।”
“तुम्हारा बेटा…? उज्ज्वल सिर्फ तुम्हारा बेटा है?”
कंधे पर हाथ से सहलाते हुए लोहित अपनी धुन में बोलता रहा, “हम आपसे कब से कहना चाह रहे थे, हमें नार्वे जाना है।”
खुद को मुश्किल से सँभाला दोनों ने। देर तक चुप्पी! पार्वती ने तोड़ी,
“फिर बाहर जाने की बात क्यों ? गाँव चलो।”
“नहीं माॅम, अब वहाँ क्या रखा है!”
रामप्रसाद ने भी कहा, “अब कहीं मत जाओ। इंडिया में रहो। बहुत सारे लौट आए हैं।‌”
“डैड, नहीं। हमारे सपने कुछ और हैं। हम…हमने पासपोर्ट, वीजा सब बनवा लिया है।”
लोहित के मुँह पर शिकन नहीं, उत्साह की झलक थी।
“अगले महीने की दस तारीख को जाना है।”
“अगले महीने? बस, बीस दिन बाद? एक बार भी बताया नहीं? उज्ज्वल के बिना…।”
दोनों के मुँह खुले के खुले रह गए। पार्वती के बोल भी फूटे थोड़ी देर बाद,
“अगले महीने? पूछने या बताने की जरूरत नहीं समझी? इतना रहस्य?”
“इस संडे को सुरेश आप दोनों को छोड़ आएगा। हम नहीं जा पाएँगे। फिशियल फाॅर्मिलिटीज पूरी करनी है। दो दिन के लिए उज्ज्वल भी चल जा…।”
” …दो दिन में क्या मिल जाएगा ? नहीं, उसे थकाने की जरूरत नहीं।”
रात में नए वी. आई. पी. को पार्वती ने धीरे से खोल, तह किए गए कपड़ों के नीचे हाथ डाला। उसके हाथों में लोहित का बचपन आ गया। पुराने छींटदार बक्से को वेल फर्निश्ड घर से कब का बाहर फिंकवा दिया गया था।
उसने हौले से उज्ज्वल को देखा, वह बेड पर बेखबर सो रहा था।
फिर रामप्रसाद की ओर निगाहें डालीं। वे दीवार की तरफ करवट ले सोए थे। पार्वती को पता है, जगे थे।
उसने धीमे से लोहित के बचपन को उज्ज्वल के कबर्ड में उलट दिया…नन्हें-नन्हें कपड़े, हाथ के बने गुड्डे, पहली वर्षगांठ पर लोहित के सर पर बाँधा गया मोरपॅंख, छोटी मोतियों की माला, छुटपन में कमर में बाँधा गया काले धागों का डंडकडोर, कॅंचे, छोटे-छोटे रूमाल…और मासूम हँसी, किलकारी।
दूसरे दिन ही उसने जिद मचा दी। लोहित, बहू, उज्जवल एक दिन रुकने के लिए कहते रहे, वह नहीं मानी। उसके आगे किसी की चली  भी नहीं।
****
दोनों को क्रेटा छोड़ने आई। धूलभरे घर में घुसते हुए रात के नौ बज गए। सब तरफ धूल का गुब्बार। थोड़ी दूर कच्ची सड़क है। उसने उनके मुँह, कान, बाल सब धूल से भर दी। सुरेश ने घर की सफाई करनी चाही, दोनों ने मना कर दिया। सुरेश की आवश्यकता यहाँ से ज्यादा वहाँ है । बहुत सारे कार्य निपटाने है। समय कहाँ है? उसे जल्द वापस भेज दिया गया। सुरेश को रात में खाने के लिए लोहित ने पैसे दिए थे। अतः उसकी चिंता नहीं थी।
उनसे कुछ खाया-पिया नहीं गया। खाट पर मोड़ कर रखे गए बिस्तर खोल किसी तरह बिछाया रामप्रसाद ने और पड़ गए। पैताने पार्वती भी ढह गई। रात कैसे बीती, दोनों ने एक-दूसरे को नहीं बताया। वे चेहरे करुण रस से ओतप्रोत।
एकदम भोर में रामप्रसाद की आँखें झपक गईं। धूप सर चढ़ नाचनेवाली थी कि खुल भी गईं। पार्वती बिस्तर पर नहीं थी।
किसी कमरे में नहीं। रसोई में नहीं। पिछवाड़े नहीं। कुएँ में झाँका, वहाँ भी नहीं। वे बदहवास। कानों ने सुनना, आँखों ने देखना बंद कर दिया। उनकी घबराहट बढ़ी। वे घबरा कर आँगन में आ गए।
पार्वती आम के पेड़ के नीचे खड़ी थी। उसकी गर्म हथेलियों में दबी थी कुल्हाड़ी। आँगन के बीच में छोटी डालियाँ  पड़ीं थीं…ताजी कटी हुईं।
उसकी ओर देखने की उनकी हिम्मत जवाब दे गई। वे जानते थे, नौ रसों में से सबसे भयानक रस पार्वती के चेहरे को विकृत कर रहा होगा।
तभी खटाक् की ध्वनि गूँजी और एक पतली, नन्हीं डाली फिर…।
लगा उन्हें, पार्वती पेड़ को धराशायी कर के ही मानेगी।
‘दर्द को कोई भी राह मिले, निकलने दो।’
उन्होंने कमरे की ओर कदम बढ़ाकर समस्या से जैसे ऑंखें फेर लीं,
‘ऑंख ओझल, पहाड़ ओझल!’ कहावत कहते थे उनके पिता। जबकि वे जानते हैं, इतनी आसानी से ओझल नहीं होता कुछ।
अचानक पार्वती ने कुल्हाड़ी नीचे गिरा दी। उसका सर झुक गया था। सर झुकाए हुए ही कुल्हाड़ी को फिर उठाया। घुमाया… फिर घुमाया। जोर लगाकर दूर फेंक दी और आम गाछ को चूम, उससे लिपटकर रो पड़ी।
ऑंसू के साथ उसकी बेबसी, रोष, क्रोध सब बहने लगा। ऑंखें वात्सल्य रस से सराबोर होने लगीं।
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18 टिप्पणी

  1. बहुत अच्छी मार्मिक कहानी रश्मि जी.।हमसबकी व्यथा कथा झलकती.है.आंखें नमहो गई. सचमुच वात्सल्य रस जहां ममत्व और स्नेह की सृष्टि करता है.वहीं.मन को उद्वेलित. बेचैन और व्यथित भी करता.है.जब अपनों से मिले घाव हों।आज की नयी पीढी के सपने बहुत बडे हैं..उन्हें भावनाओ की पावन स्नेह भरी.धरती नहीं महत्वाकांक्षाओं का ऊचा आकाश चाहिए। उडान चाहिए। हार्दिक बधाई. शुभ कामनाए

  2. रश्मि जी क्या कहानी लिखी है आपने!! शानदार!! दिल को गहरे तक छू गई। वर्तमान में घट रही घटनाएं, बच्चों से हो रहा मोहभंग, बच्चों का स्वार्थ, उनकी आकांक्षाएं, परिवार को तोड़ रही हैं । सब कुछ एक ही कहानी में समा गया है।

  3. बहुत ही मार्मिक कहानीइस दुनिया में यही कुछ हो रहा हैक्या करेंआपने बहुत अच्छी लिखी आपको बधाई।

  4. रश्मि जी आपकी कहानी ने भावुक कर दिया… आजकल के बच्चे अपने सपनों को अहमियत देते हैं! नींव के पत्थर…चाहे जर्जर अवस्था में पहुँच कर भी अपलक उनकी बाट जोहते रहें
    बहुत अच्छी लगी आपकी कहानी

  5. इस समय लगभग लगातार ही तुम्हें पढ़ रहे हैं।एक साँस में पूरी कहानी पढ़ ली अनिता! वात्सल्य की बारीकियों को ,उसके मनोभावों को तुमने बहुत ही प्रभावपूर्ण तरीके से लिखा है।
    इसमें कोई दो मत नहीं कि तुम एक बेहतरीन और स्थापित कहानीकार हो। भावनाओं को इतनी बारीकी से पिरोती हो कि सीधे दिल तक पहुँचती हैं।
    कई बार लगता है कि विदेश जाकर क्या हो जाता है लोगों को???
    हालांकि विदेश की वह हवा आजकल यहाँ पर भी असर दिखाने लगी है।
    बहुत ही करुण कहानी है। श्रृंगार की तरह अब तो वात्सल्य में भी संयोग के साथ वियोग को जोड़ लेना चाहिये। वात्सल्य भी तो आजकल दोनों ही पीड़ाओं से गुजर रहा है।
    यह पीड़ा शब्दातीत है।
    स्वार्थ किस तरह से रिश्तों में जगह-जगह सेंध लगा कर छलनी कर रहा है!!!! बहुत दुख होता है।
    दुखान्त कहानी को अच्छी कहानी कहते समय हम सोच में पड़ जाते हैं। जिस कहानी ने दुख दिया उसे अच्छा कैसे कहें?पर रचनाकार वर्तमान की तस्वीर खींचता है।
    तुम्हारे जादुई लेखन के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ।
    प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का शुक्रिया।
    पुरवाई का आभार।

    • विस्तृत, उत्साहवर्धक, समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद नीलिमा जी

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