Sunday, September 8, 2024
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अंजू शर्मा की कहानी – द हैप्पी बड्डे ऑफ़ सुमन चौधरी

कुछ कहानियाँ जीवन से जन्मती हैं और उसी के खट्टे-मीठे अनुभवों की आंच में धीमे-धीमे पकती हैं। आप इसे कहानी माने या महज एक किस्सा, ये आपकी मर्जी पर है लेकिन कथाकार का दावा है कि यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है।  उस रात हुआ यूँ कि बड़े चौधरी के चेहरे पर विचित्र से असमंजस की छाया डोल रही थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या और कैसी प्रतिक्रिया दें। अब जबकि वे स्वयं तय नहीं कर पाए तो उन्होंने उसी स्थिति में बिचले चौधरी की ओर देखा और बिचले चौधरी ने अपनी दृष्टि छोटे चौधरी के चेहरे पर गड़ा दी। छोटे चौधरी के लिए ये सबसे गंभीर स्थिति थी क्योंकि उन्हें न बड़े चौधरी की प्रतिक्रिया का भान था और न बिचले चौधरी की तो वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि खुद क्या कहें। अमूमन उनका काम बहुत सरल था। उन्हें निन्यानवे प्रतिशत मामलों में सिर्फ दोनों बड़े चौधरियों से सहमति जताने भर की ही सुविधा थी।
ये प्रतिक्रिया जताने या फैसला लेने जैसे कार्य उस घर में बड़े चौधरी ही किया करते थे और छोटे चौधरी की महत्ता तभी सिद्ध होती थी जब कोई काम शैक्षिक या तकनीकी जानकारी के अभाव में अटक जाये क्योंकि एकमात्र छोटे चौधरी ही उस घर के स्नातक सदस्य थे जिसे लेकर वे खासा गर्व भी महसूस करते थे।  जब कुछ न सूझा तो छोटे चौधरी ने भी अपनी दृष्टि परिवार की अगली पीढ़ी यानि चार भतीजों पर टिका दी और राहत की साँस ली कि गेंद अब उनके भी पाले से बाहर थी।
“सुणो हो जी, सुमन इबके अपना जनमदिन मनाना चहावै है…वो के कहवैं हैं जी ….हैप्पी बड्डे …”  सिर पर रखा पल्ला सम्भालती चौधराइन के मुँह से निकला, यही एक वाक्य था जो उस आलीशान, सजावटी ड्राइंग रूम में कुछ इस तरह गूंजा जैसे कोई कबूतर किसी आलीशान हालनुमा कमरे में गलती से घुसकर इधर उधर फड़फड़ाता हुआ डोलता है। बड़े चौधरी चाहते तो हमेशा की तरह अपने दबंग स्वर की राइफल से एक मिनट में उस कबूतर का शिकार कर सकते थे पर पेंच यहाँ फंस गया था कि सुमन चौधरी का विवाह तय हो चुका था और वे इस घर में चंद महीनों की मेहमान थीं। लिहाजा अनायास ही इन दिनों उनकी महत्ता उस घर में कुछ बढ़ गई थी। सुमन की इस अटपटी ख़्वाहिश पर कोई प्रतिक्रिया देने का दबाव बड़े चौधरी को भीतर ही भीतर मथ रहा था लेकिन उन्हें कुछ न कुछ तो कहना ही था। और कुछ क्षण बाद ही सही पर उनकी प्रतिक्रिया बाकायदा आई भी।
“बावली सै छोरी…अरे के चहिये उसने…मंगाकर दे दे… और के होवे सै ये हैप्पी बड्डे….”
बड़े चौधरी ने हॉल के बाहर निकलकर दरवाजे के बायीं साइड में, गलियारे में लगे वाशबेसिन पर हाथ धोते हुए जोर से  ये कहकर ठहाका लाया और तौलिए से हाथ पौंछने लगे। कहना न होगा उनके ठहाके ने माहौल की बोझिलता को कुछ हद तक कम कर दिया और जल्दी ही हाल सबके ठहाकों से गूंजने लगा। इतनी जोर के इस ठहाके की आवाज़ रसोई में कान लगाये खड़ी परिवार की बाकी स्त्रियों और सुमन चौधरी तक भी पहुँच गई।
अस्सी का दशक अपनी अधेड़ावस्था में पहुँच चुका था। “म्हारी छोरियाँ छोरां से कम है के” जैसे जुमले तब दूर-दूर तक अस्तित्व में नहीं थे। हरियाणा के राजस्थान से लगे बागड़ क्षेत्र से आकर राजधानी में बसी ये उनके कुनबे की पहली ही पीढ़ी थी। हरियाणा जब अपने शैशवकाल में था तो बिजली पानी की खासी दिक्कत थी। उन दिनों बागड़ में आने जाने के लिए कच्चे रास्तों पर ऊंट की सवारी काम आती थी। भिवानी से सिरसा तक हवा के साथ बदलते राजस्थानी टीलों के गुबार पूरे भूभाग को अपनी आगोश में ले लेते। उन हालात में आम जन के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी भारी पड़ जाता था। जैसे-तैसे दो जून की रोटी जुटती वह भी ‘मोटे नाज’ यानि बाजरे की। कभी लाल मिर्च कूटकर उससे खा लिया तो कभी प्याज़ से काम चला लिया। गेहूँ की रोटी, गुड़ और खांड का स्वाद तो घरों में बटेऊ (दामाद) के आने पर ही चखने को मिलता था। चौधरी साहब का परिवार भी गाँव का सामान्य-सा परिवार था पर उनके सपनों का विस्तार आकाश तक था और ये सपने उन्हें ज्यादा दिन उस पिछड़े हुए  गाँव में रोक न सके। अपने इर्द-गिर्द दिखते ऐसे कष्टकारी जीवन से निकलने का निश्चय करके बड़े चौधरी ने फ़ौज का रुख किया।
परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ और सुधरी तो कुछ वर्ष बाद, वे फ़ौज की नौकरी छोड़कर एक रिश्तेदार के सहारे पर दिल्ली में दिल्ली में आ बसे। शुरू में कुछ वक़्त ज़रूर लगा उन्हें बड़े शहर की चकाचौंध से उबरने में पर उन्हें जल्दी ही समझ आ गया कि जिसकी लाठी होती है, भैंस भी दरअसल उसी की होती है। तो इस कहावत पर बाकायदा अमल करते हुए और इसे जीवन का मूलमंत्र मानते हुए, बड़े चौधरी ने लट्ठ के बल को आजमाते हुए सबसे पहले एक बड़े से प्लाट पर कब्जा जमाया और वहाँ अपनी भैंस बाँधनी शुरू कर दीं जो जल्दी ही बहुवचन में बदल गईं।
दूसरे नंबर के भाई को उन्होंने गाँव की घर-जमीन की रखवाली के लिए वहीं बसा दिया और उनका अनुसरण करते हुए बाकी दो भाई भी दिल्ली चले आये। कुछ बाहुबल का सहारा था और कुछ उनकी दूरंदेशी तथा मेहनती और बेधड़क स्वभाव, कि तीनों भाइयों ने ढाई दशक में डेयरी फार्मिंग, पशुपालन से आगे बढ़कर ट्रांसपोर्ट कम्पनी खोलने के बाद नई पीढ़ी के सक्रिय होने पर कन्स्ट्रक्शन के काम में भी पैंठ बना ली और बाकायदा बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई करने के काम की शुरुआत कर दी। लक्ष्मी की कृपा इतनी हुई कि धन-धान्य की बारिश से निहाल था चौधरी परिवार। जल्दी ही आजू-बाजू के अन्य दो प्लाट भी उन्होंने खरीद लिए जहाँ उनके ट्रक खड़े होने लगे और कुछ कोठरियां उनके यहाँ काम करने वाले मजदूरों और नौकरों के लिए बना दी गईं। तब तक उनके परिवार में एक नई पीढ़ी का भी आगमन हो चुका था।
इसी परिवार के मुखिया यानि बड़े चौधरी, चौधरी बिशम्भर सिंह की इकलौती कन्या थीं सुमन चौधरी जिनकी हैप्पी बड्डे मनाने की अटपटी और अनोखी ख़्वाहिश ने परिवार को दुविधा में डाल दिया था। अब क्योंकि उस धनाढ्य और सम्पन्न संयुक्त परिवार की इकलौती कन्या होने का गौरव सुमन चौधरी को प्राप्त था तो पूरे परिवार की लाडली होने के वजह से किंचित सिरचढ़ी और जिद्दी हो जाने का नाहक सा भ्रम पाल बैठी थीं। उनकी माँ यानि चौधराइन बिमला देवी ने सुमन की परवरिश बड़े एहतियात से की थी। वे उन्हें उड़ान के लिए ‘पर’ तो देती थीं पर उन्हें समय-समय पर करीने से कतरती भी रहती थीं। अब लाड़ली सुमन चौधरी की उड़ान के लिए एक बंधा हुआ आकाश था पर वे उस पतंग की तरह मनचाही उड़ान भरती थीं जिसकी डोर चौधराइन के हाथों में थीं।
यूँ सुमन को परिवार में खूब लाड़-प्यार मिलता था पर “चाहे बेटी कितनी भी प्यारी हो, उसे सर पे चढ़ाना ना चहिये” जैसे लोकगीत में इस परिवार का पूरा यकीन था तो तयशुदा आचार-संहिताओं के बीच लता-सी बढ़ती हुई सुमन चौधरी अपनी हदों को जानते हुए अपने सपनों को बचा ले जाने का हुनर सीखने लगी थीं।
घर में कई नौकर चाकर होने के बावजूद, सुमन को चौधराइन ने रसोई के कामकाज में निपुण बना दिया था क्योंकि उनके हिसाब से अंततः चौका-बासन हर औरत की नियति है जिसे समय से सीख-समझ ले तो बेहतर। माहौल का असर था कि पढ़ाई जैसे वाहियात और बोरिंग काम में सुमन का मन शुरू से ख़ास लगता नहीं था और वे सातवीं में एक साल डुबकी भी लगा चुकी थीं पर चौधराइन को छोड़कर किसी को इसकी खास चिंता भी नहीं थी।
“पढ्डे-लिक्खे छोरे, आजकल छोरी भी पढ्डी-लिक्खी चहावैं सैं।  इसका तै जी कती पढाई में नी लागता। बारमी (बारहवीं) तै कर ले फेर आग्गे देखी जागी।”  वे अक्सर कहतीं ताकि सुमन की पढ़ाई जारी रहे। वैसे भी पढ़े-लिखे चौधरियों के घर की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ अगर कभी आगे कदम बढ़ातीं भी तो उनके लिए दो ही रास्ते थे, या तो अमरावती से ट्रेनिंग लेकर किसी सरकारी स्कूल में पी.टी.आई. बन जाओ या फिर टीचर ट्रेनिंग कर नगर निगम के किसी प्राथमिक सरकारी स्कूल की नौकरी में खप जाओ।
इस परिवार में शिक्षा, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा को लेकर कोई ख़ास जागृति नहीं आयी थी और सुमन खुद नौकरी के जंजाल में जी खपाने को कतई उत्सुक नहीं थीं तो वे पढ़ाई को रस्म अदायगी से ज्यादा भाव कभी देती भी नहीं थी। यूँ तो माँ की कुशल गृहिणी बनने की ट्रेनिंग भी उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी पर वहाँ बचाव का कोई रास्ता वे लाख चाहकर भी ढूंढ नहीं पाती थीं।
वैसे उनका मन पढ़ाई कुछ दिन लगा था जब घर में नए ट्यूशन सर पढ़ाने आने लगे थे। ये सिंगापुर से चौधरी साहब द्वारा लाये वीसीआर पर देखी गईं खूब सारी फिल्मों का असर था कि नये ट्यूशन सर सुमन चौधरी के सपने में आकर उसके साथ डुएट गाने लगे थे।  एक दो बार तो सपने में बात गर्मजोशी से भरे आलिंगन-चुंबन तक भी पहुँच गई थी। वो तो ट्यूशन के पहले उन्हें बार-बार घड़ी देखकर, विशेष रूप से सजते-संवरते देख और उनका मन एकाएक पढ़ाई में “कुछ ज्यादा” ही लगते देख चौधराइन की अनुभवी आँखों ने मामला भांप लिया और बाकायदा तीन महीनों की फ़ीस देकर नये ट्यूशन सर की छुट्टी करके फिर से मास्टर हवासिंह की ट्यूशन लगा दी गई इस ताकीद के साथ कि पहले की तरह छुट्टियाँ ज्यादा न किया करें।
इसके बाद तो सुमन चौधरी का दिल पढ़ाई से बिल्कुल उचट गया। अधेड़ हवासिंह की गंजी खोपड़ी, हद से ज्यादा लम्बी नाक और धोती कुरते में फंसे सींकिया शरीर से मिलकर बनी मोटू-पतलू के पतलू से मेल खाती छवि ने उनके रोमांस के पटाखे को फुस्स कर दिया था। उन्होंने कुछ दिनों के लिए अपना ध्यान छत से दिखाई देने वाले, सामने की बड़ी-सी कोठी के छत पर बने कमरे पर केन्द्रित कर दिया था जहाँ विनेश कुमार रहता था।  सुमन ने सोचकर देखा कि खाली रहने से अच्छा है मामला विनेश पर ही सेट कर लिया जाये। ख्याल सचमुच बुरा नहीं था। बोरियत से बचने और रोमांटिक सपने देखने के लिए उन्हें कोई तो चेहरा चाहिए ही था। आखिर वे कब तक ऋषि कपूर और विनोद खन्ना से काम चलातीं। लिहाजा वे शाम का करीब एक घण्टा छत पर पढ़ाई के बहाने विनेश कुमार से एकतरफ़ा नैन-मटक्के में गुजारने लगीं।
सुमन पिछले बरस अठारह पार कर चुकी थी और उनका रिश्ता भी तय हो चुका था तो इस साल बारहवीं के पेपर देने के बाद उन्हें पढ़ाई से सदा के लिए छुट्टी मिल जाना भी लगभग तय था।  ख़ास बात यह थी कि अब उनके सपनों के लिए उधार के चेहरों की जरूरत नहीं थी क्योंकि एक स्थायी चेहरा भी उन्हें मिल चुका था जिसकी तस्वीर वे अपनी हिस्ट्री की नोटबुक में छुपाकर रखती थीं, उनका मंगेतर अनूपसिंह चौधरी। विनेश छत पर नज़र आता तो वे यूँ ही थोड़ी बहुत देर नज़र सेंक लेती थीं पर सच यही था कि उन्हें अब विनेश में ख़ास रूचि नहीं रह गई थी।
उन्हें कुशल गृहिणी बनाने की दिशा में अगला कदम सिलाई सेंटर में दिलाया गया जबरन दाखिला था। अब उनकी कहें तो सिलाई-कढ़ाई से कहीं ज्यादा रोचक काम उन्हें फिल्मी पत्रिकाओं से मनपसंद नायकों की तस्वीरें काटकर जमा करना लगता था।  कुछ महिला-पत्रिकाओं में मनचाही ड्रेस ढूंढने में भी उनका मन खूब लगता था। शुरू में उन्हें सिलाई सेंटर जाते कोफ्त होती थी पर बाद में उन्होंने इसे भी ‘तफ़री’ का जरिया मानकर सरंडर कर दिया। उन्हें बाकायदा एक गाड़ी मिली हुई थी जिस में बैठकर वे ड्राइवर के साथ ‘सिलाई सीखने’ सिलाई सेंटर जाती थीं। वहाँ उनकी कुछ नई सहेलियाँ भी बन गईं जो ‘सोसाइटी सिनेमा’ के ठीक सामने के पॉश एरिया में रहती थीं।
वहीं एक दिन सुमन को एक आलीशान कोठी में रहने वाली सहेली श्वेता के जन्मदिन का न्यौता मिला जो उसी सिलाई सेंटर में ऑयल पेंटिंग सीखने आती थी और सुमन से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी।  वैसे भी ये पॉश एरिया में रहने वाली स्टाइलिश लड़कियाँ सुमन को बहुत आकर्षित करती थीं। उन नई सहेलियों के संग-साथ से सुमन के सपनों को नई दिशा मिली। उन्हें लगा वे तो अब तक कुएँ का मेढ़क भर थीं। यहीं सुमन चौधरी के ‘ज्ञान’ में कई इजाफ़े हुए। जैसे यहीं उन्होंने जाना था कि परदे पर दिखाई देने वाली हीरोइन का खूबसूरत चेहरा और घुंघराले बाल दरअसल प्राकृतिक नहीं बल्कि ब्यूटी पार्लर में ब्यूटीशियन की घंटा भर की मेहनत का नतीजा होते हैं जिसे कोई भी हासिल कर सकता है। इस खुलासे से तो सुमन की आँखें खुली की खुली रह गई थीं।  वे तो खामख्वाह फिल्म हीरोइनों के मुकाबले अपने सामान्य चेहरे और सीधे सपाट बालों को देखकर हीनभावना से भरी रहती थीं।
घर से जन्मदिन पर तो जाने की परमिशन मिलना मुश्किल था तो उस दिन शाम को सिलाई सेंटर की छुट्टी कर सुमन ने श्वेता के जन्मदिन की पार्टी में हिस्सेदारी की। श्वेता के पिता एक बड़े सरकारी ओहदे पर थे। उनके पढ़े-लिखे परिवार का माहौल सुमन चौधरी के कुनबे के माहौल से बिल्कुल अलग था। ये दुनिया एकदम अलग थी। यहाँ गज भर घूंघट करने वाली महिलाएँ और बैठक में रहने वाले खंखारकर घर में घुसने वाले पुरुष नहीं थे।  ऊँची आवाज में बात करते दबंग पुरुष और उनके सामने नीची आवाज़ में बात करते सिर झुकाए रखनेवाली ‘जी-जी’ करतीं, सहमी हुई महिलाएँ यहाँ लगभग गायब थीं। सब कुछ इतना अलग था कि सुमन चौधरी मंत्रमुग्ध सब देखती रह गईं।  सुमन के यहाँ भौतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं थी जो पैसे के बल पर देखा देखी जुटा लिए गए थे पर ये घर, ये समाज, यहाँ के लोग अलग थे। महज आर्थिक सम्पन्नता और शिक्षित परिवेश की आधुनिक जीवन शैली के बीच का फर्क आज वे बारीकी से देख पा रही थीं।
केक कटिंग सेरेमनी से लेकर ढेर सारे तोहफों की आमद और बढ़िया खाने, कोल्ड ड्रिंक्स के साथ डांस पार्टी का आयोजन किया गया था।  इससे पहले ऐसे ‘हैप्पी बड्डे’ मनते सुमन ने फिल्मों में जरूर देखा था पर किसी जवान लड़की का जन्मदिन इस तरह भी मनाया जाता है यह सुमन के लिए बिल्कुल नई जानकारी थी।
इधर दो साल से सबसे छोटे भाई और भतीजे के जन्मदिन पर उनके घर में सतनारायण की पूजा और शाम को केक जरूर काटना शुरू हो गया था पर सुमन चौधरी का जन्मदिन कब आता और कब चला जाता किसी को मालूम ही नहीं चलता था। हाँ चौधराइन उनके जन्मदिन पर हलवा बनाकर और सबकी ओर से उन्हें कोई महंगा और सुंदर सा सूट दिलाकर इस दिन को खास बना देतीं। एक बार कानों की लेटेस्ट डिज़ाइन की सोने की बालियाँ बनवाई थीं और दसवीं पास करने वाले जन्मदिन पर एक सोने की चेन बनवा दी थी। कुछ साल से उनकी चाचियाँ उन्हें जन्मदिन की शुभकामनायें और भाभी कभी-कभी कोई तोहफा देने लगी थीं पर इसके अतिरिक्त अपने जन्मदिन से जुड़ी कोई विशेष याद उनके खाते में नहीं थी।
श्वेता की जन्मदिन पार्टी वाले दिन जो कौतूहल आँखों के रास्ते सुमन के मन में प्रविष्ट हुआ था वह एक नया ही आकार लेने लगा था।  इधर कुछ दिन से एक ख़्वाहिश उनके मन में जोरों से अंगड़ाई लेने लगी थी, एक बार, बस एक बार, धूमधाम से अपना ‘हैप्पी बड्डे’ मनाने की ख्मासूम से ख़्वाहिश। ठीक श्वेता की तरह केक कटिंग, खाना-पीना और सहेलियों के साथ तेज़ म्यूजिक पर डांस पार्टी।  इतना सब तो होना ही चाहिए।  इससे कम पर वे बिल्कुल समझौता नहीं करेंगी सुमन यह तय कर चुकी थीं।  चौधराइन ने हमेशा के विपरीत उनकी इस बात को ध्यान देकर सुना तो उनका हौसला बढ़ गया था। ये इस घर में उनका आखिरी जन्मदिन था जिसे वे यादगार बना देना चाहती थीं। उन्हें इसमें भाभी और चाचियों का भी पूरा समर्थन मिला, आखिर वे जल्दी ही विदा जो हो जाने वाली थीं।
“छोरी का जनमदिन?” बड़े चौधरी ने पहली बार में इस बात को ठहाके में उड़ाते हुए बाहर का रुख किया था पर पीछा अभी छूटा नहीं था। दूसरी बार भी उन्होंने फालतू की बात बताकर साफ़ इंकार कर दिया। लेकिन तीसरी बार ये बात लेकर खुद सुमन भी चौधराइन के साथ खड़ी थी। दरवाजे पर घूंघट में कनखियों से देखती बाकी महिलाओं को देखकर बड़े चौधरी को उन सबकी एकता और मूक समर्थन का अंदाज़ा हो चला था। उन्होंने भाइयों पर दृष्टि डाली तो उनके चेहरों पर भी समर्थन ही डोल रहा था।  बेटों ने तो आगे बढ़कर सुमन का साथ ये कहकर दिया कि
“अगले साल इसका जो जी आये करे, अगले मालिक, इस साल मना लेण दो जी, हरजा ही के है।”
ये भला कैसे हो सकता है। छोरी का जनमदिन?? जितनी लग रही थी, बड़े चौधरी के लिए ये बात उतनी सहज नहीं थी। बेटी का केक काटकर जन्मदिन मनाने जैसी अजीबोगरीब बात उस कुनबे के लिए ‘न भूतो न भविष्यति’ की श्रेणी में आती थी। इस बात पर अमल से बिरादरी में जगहँसाई से लेकर फालतू छूट देने को लेकर रिश्तेदारों की नाराज़गी तक मोल लेने का खतरा जुड़ा था कि कल को उनकी छोरियाँ भी ‘डिमांड’ करना सीखेंगी। पर वे चारों ओर से घिर चुके थे। उस पर तुर्रा ये कि नये रिश्तेदारों को भी खबर देनी होगी।
बड़े चौधरी ने सौ तर्क दिये पर जब पूरा परिवार मुक़ाबिल था, ऊपर से सुमन के पराए घर चले जाने की भावुक दलील, उनके सामने जब कोई चारा नहीं बचा तो..
“थारा जो जी आये करो पर कोई फालतू तमासा नहीं चहिए मन्ने, सुणी?”
कहकर हथियार डालते हुए उन्होंने बैठक का रुख किया और उनके पीछे दोनों चौधरी भी सिर हिलाते हुए निकल गए। हरी झंडी मिलने की देर थी कि हैप्पी बड्डे की तैयारियों में भाई-भाभियों ने कोई कोर कसर नहीं उठा रखी। बाकायदा हॉल को गुब्बारों और कागज़ की झंडियों से सजाने की पूरी तैयारी की गई। बड़ा सा केक आर्डर किया गया। ढेर सा खाने पीने का सामान और हाँ, पहली बार घर की बनी लस्सी की जगह तीन रंग के कोल्ड ड्रिंक भी मंगाए गए। एक बड़ा सा म्यूजिक सिस्टम और सुमन चौधरी की पसंद की ढेर सारी कैसेट्स का भी इंतजाम किया गया।
सुमन चौधरी ने फोन पर श्वेता सहित सब सहेलियों को ठसक से “इनवाइट” किया था। अड़ोस-पड़ोस की हमउम्र सहेलियों को भी न्यौता गया। चौधरी साहब की खास ताकीद के अनुसार रिश्तदारों को इस आयोजन से दूर ही रखा गया पर नई पीढ़ी की जिद पर नये रिश्तेदारों के यहाँ फोन कर अनूपसिंह को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया। और एक बड़ा सा गिफ्ट पैक लेकर वे आये भी।
सुमन चौधरी ने लाल और काले रंग का लेटेस्ट काट का नया सलवार सूट पहना। दो गली पीछे के ब्यूटी पार्लर में संवारी हुई भौंहों, हल्का सा मेकअप और कर्ल कराये हुए बालों से उनका चेहरा और हेयर स्टाइल भी आज किसी सिने तारिका से कम प्रतीत नहीं हो रहा था। वे बार-बार आदमकद आईने में खुद को अनूपसिंह की निगाहों से निहारते हुए खुद पर ही मोहित हुए जा रही थीं। जैसा कि अनुमान था सुमन चौधरी के इस जन्मदिन समारोह में घर के तीनों चौधरियों में से कोई भी शामिल नहीं हुआ क्योकि ‘बच्चों का चोंचला’ घोषित किये हुए इस दिन पर सबको कोई न कोई ख़ास काम निकल आया था।
उन्नीस के अंक को दर्शाती एक और नौ अंकों की दो जलती मोमबत्तियों को बुझाने के बाद, बाकायदा ‘हैप्पी… बर्थडे… टू …यू…” की स्वर लहरियों के साथ सुमन ने बड़ा सा बिना अंडे का चॉकलेट केक काटा तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। उनकी कुछ लजीली, कुछ गर्वीली नजरें अनूप के चेहरे पर थीं जो ताली बजाकर बड्डे का गीत गुनगुना रहे थे। धीमी मुस्कुराहट से सराबोर सुमन चौधरी का चेहरा पवित्र ख़ुशी की चमक से दमक रहा था।  ये मन की सबसे बड़ी ख्वाहिश के पूरा होने का दिन था। उसके अस्तित्व के एक व्यक्ति के तौर पर इस पुरुषसत्तात्मक कुनबे में स्वीकृत हो जाने का दिन।
सुमन चौधरी जानती हैं वे एक परिवार से दूसरे ऐसे ही परिवार में चली जाएँगी जहाँ लड़कियों का हैप्पी बड्डे फालतू की बात है। वे नहीं जानती कि कल भविष्य में उनके साथ क्या होने वाला है पर वे आज अपने वर्तमान के उस अनोखे सुख को महसूसने का कोई मौका पीछे नहीं छोड़ना चाहतीं जिसके सपने खुली आँखों से देखने में उन्होंने इतने दिन गुजारे।
चौधराइन इस पूरी कवायद पर नज़र गढ़ाए थीं। कोई भी बात उनके तयशुदा खांचे से बाहर न चली जाए इसे लेकर वे बाहर से सख़्ती दिखाकर, विशेष रूप से सावधान रहने की कोशिश कर रही थीं पर इस बार डोर उनके हाथ से बार बार छूट जाती थी।  ख़ास बात ये थी कि इस डोर के छूट जाने पर अपने मन का आह्लाद और ख़ुशी वे चुपके से मन में छुपा लेती थीं।
तो जी लब्बोलुआब ये कि सोनोग्राफी की तकनीक के विकसित होने के साथ छोरियों की लगातार घटती आमद वाले ऐसे प्रदेश की एक लड़की आज धूमधाम से अपना हैप्पी बड्डे मना रही थी जहाँ छोरियों को जन्मते ही गले में गूंठा (अंगूठा) दे देने तक के किस्से अतीत में अपनी जगह आज भी बनाए हुए थे।  जहाँ बेटी, बेटी नहीं डिक्री कहलाती थी जिसका जन्म उसके जन्मदाता का सिर पूरे कुनबे सहित झुका देता था।
ऐसा परिवेश जहाँ बेटे के जन्म पर कांसे की थाली बजाकर पूरे गाँव में सुखद घोषणा कर देने का रिवाज़ था और नाम धरे पर आधी रात तक चलने वाली जोरदार ‘लाडू’ की दावत का रिवाज़ था, वहीं बेटी का जन्म, पिता और पूरे खानदान पर टूट पड़ी आफत के प्रति अफ़सोस जताने लायक घटना से अधिक नहीं माना जाता था, ऐसे गाँव-घर-कुनबे की छोरी आज अपने पैदा होने के दिन का जश्न मना रही थी।
ख़ास बात तो थी कि पितृसत्ता की धमक से बाहर यह पहली आवाज़ थी जो इस कुनबे में सुनी गई। बाहर वसंत की यह शाम गहरा रही थी और सामने हॉल में जोर से म्यूजिक के स्वर गूंज रहे थे और सुमन चौधरी ‘सुन साहिबा सुन’ गाने पर अपनी सहेलियों के साथ ठुमका लगा रही थीं।
उस शाम सुमन चौधरी का उस घर में धूमधाम से मनाया गया आखिरी जन्मदिन यानि हैप्पी बड्डे वाकई उस पूरे कुनबे के लिए यादगार दिन बन गया। उसके बाद फिर कभी सुमन चौधरी का हैप्पी बड्डे मनाया गया या नहीं, ये कथाकार की जानकारी में नहीं है पर उसने इतना जरूर सुना कि शिक्षा और स्त्री अस्मिता का महत्व जान चुकी सुमन चौधरी ने अपनी पढ़ाई शादी के बाद भी जारी रखी और अपनी बेटी का हैप्पी बड्डे अपने परिवार और रिश्तेदारों की मौजूदगी में वे हर साल बड़ी धूमधाम से मनाती हैं, ठीक उसी तरह जैसे कभी उनका मनाया गया था।
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14 टिप्पणी

    • बहुत बहुत धन्यवाद वन्दना जी। आप जैसी संवेदनशील कथाकार मित्र यदि कहानी को पसंद करे तो यह उपलब्धि से कम नहीं।

  1. भले ही यह सत्य घटना पर आधारित कहानी थी, लेकिन आपकी शैली से निखर कर रुचिकर बन गई।अंत तक पढ़ते चले गए।
    कहानी तत्कालीन चौधरीयत को ही नहीं अपितु उस काल के पारिवारिक व सामाजिक परिवेश को भी दर्शा रही है।
    जहाँ तक हमारा अपना अनुभव है वह समय ऐसा ही था। जन्मदिन वगैरह तो शायद किसी का भी नहीं मनता था। घर में जन्मदिन के दिन नए कपड़े पहनना, टीका लगाना, बड़ों का आशीर्वाद लेना ,मंदिर जाना, भगवान को प्रसाद चढ़ाना। किसी के भी जन्मदिन को मनाने का यही तरीका था। वह जमाना केक का जमाना था ही नहीं।
    हमारे बच्चों के लिए भी हम ऐसा ही करते थे दीपावली रक्षाबंधन और जन्मदिन यह तीन अवसर ऐसे होते थे जब बच्चों के लिए नए कपड़े आते थे। सुबह नहा धोके टीका लगाते थे अच्छा खाना बनाते थे मीठा खिला देते और मंदिर में प्रसाद चढ़ा देना गिफ्ट का भी इतना ज्यादा चलन नहीं था पर फिर भी बच्चों को जो भी चाहिए रहता था वह हम जरूर लाकर देते थे जिसका जन्मदिन रहता था उसकी पसंद का खाना बनाते थे। यह सब तब संभव हुआ जब हम संयुक्त परिवार से अलग हुए। वरना नये कपड़े, टीका और मंदिर के प्रसाद तक सीमित
    था सब। बच्चे बड़ों को प्रणाम करते लड़के बड़ों के पैर पढ़ते और सभी बड़े आशीर्वाद के रूप में पैसे देते। लड़कियाँ प्रणाम करतीं। बच्चों के मन में पैसे मिलने का उत्साह तो रहता था और फिर वह सारे पैसे गुल्लक में डल जाते। सब बच्चों की गुल्लक उनके जन्मदिन पर टूटा करती।
    हमें तो आज भी वही अच्छा लगता है, हालांकि बच्चे एंजॉय करते हैं तो बुरा नहीं लगता, कोई एतराज भी नहीं करते, पर फिर भी जन्मदिन के पहले वाली रात पर ही केक काटना 12:00 बजे हमें पसंद नहीं। हम हमेशा सबसे मना करते हैंं। बाकी सही है कि समय के साथ बदलना पड़ता है। लकीर के फकीर नहीं होना चाहिये।
    लड़के के जन्म पर थाली बजाने का रिवाज तो हमारे मायके साइड में भी था। बल्कि रायपुर में तो अगर लड़का हुआ है तो जितने भी उसके रिश्तेदार रहते थे,घर के लोग बाजे वाले करके उनके घरों में जाकर बाजे बजवाते थे। हमारे घर में यह हुआ या नहीं इसकी हमें बिल्कुल भी जानकारी नहीं और ना ही हमने कभी जानने की कोशिश की। छोटे भाई बहनों के जन्म पर हम कभी घर में रहे ही नहीं। पर हमारे ससुराल में या इस साइड ऐसा कोई भी रिवाज नहीं है। हमारे पिताजीने अपनी लड़कियों के लिये अपने जीवित रहते कोई कसर नहीं छोड़ी।
    हमारे पिताजी ने पढ़ाई के लिए बाहर भेज कर एक क्रांतिकारी कार्य किया था।
    पढ़ाई के मामले में भी लड़कियों पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
    पर यह बात सही है कि मर्यादित जीवन था ,हर समाज की लड़कियों के मामले में। पर हमें कभी भी बुरा नहीं लगा और न ही आपत्तिजनक। पिताजी ने हम लोगों पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाये।
    कहानी बहुत अच्छी लगी। अपना समय याद आ गया।दसवीं क्लास में हमारी फ्रेंड्स लोगों ने अपनी मर्जी से हमारा जन्मदिन मनाने का प्रयास किया था जो सुपर फ्लॉप हुआ कहानी तो उसे पर भी बन सकती है पर आप जैसी शैली कहाँ से लाएँ
    आपकी चुटीली शैली ने कहानी को रोचक बना दिया।
    कई जगह पढ़ते हुए अनायास हँसी तैर गई।
    बेहतरीन कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको अंजू जी।

  2. बहुत बहुत धन्यवाद नीलिमा जी। कहानी पर आपकी इस विस्तृत प्रतिक्रिया हेतु आभार।

  3. मेरे गाँव-शहर की पितृसत्तात्मक संस्कृति को आवाज़ देती कहानी है यह। बड्डे के बहाने अनेक मुद्दों को अपने में समेटने वाली कहानी के लिए बधाई अंजू जी।

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