Tuesday, October 22, 2024
होमकहानीदेवी नागरानी की कहानी - कमली

देवी नागरानी की कहानी – कमली

‘अरी ओ कमली, मेरा हुक्का तो भर दे. दो चार कश लगा लूं, तो धांय धांय करता दिमाग कुछ शांत हो.’ – नानी ने हिदायती सुर में कुछ इस तरह आवाज़ दी कि आंगन से होता हुआ उनका सन्देश रसोई घर में उसके कानों तक आ पहुंचा.
‘अम्मी बस अभी आई कि आई’, वहीं से आवाज़ देते हुए कमली ने कहा.
‘अरी मुर्दार तू मेरे काम के लिए कभी भी फारिग नहीं होती. टालती रहती है, नखरे भी तो कोई कम नहीं है तेरे, आए दिन बढ़ते ही जा रहे हैं. अब तू कमली से फिर कमसिन जो हो गई है.’
‘नानी बस दो चार बर्तन और हैं, मांज कर आती हूँ.’ कमली की आवाज़ रसोई घर से बाहर नानी के कानों तक आई.
‘तेरी आवाज तो बाहर आ सकती है, पर तू नहीं आती. बर्तन करने का दावा करती है. खाना खाती है तो बर्तन भी करेगी. कहकर क्यों सुनाती है? क्या खाना सुना कर खाती है? जाने क्या हुआ है आजकल के ज़माने को. बच्चे तो बच्चे, नौकरों की भी ज़बान चलने लगी है.’
‘देवकी, ओ देवकी तू ही आकर हुक्का बनादे, इसे तो फुर्सत ही नहीं मिलती मेरे काम के लिए. ज़रा देखना तो, रसोई में कोयले तो नहीं बुझ गए.’
‘आई नानी….!’ मैं अपने किताब बिस्तर पर ही छोड़ कर बाहर आ गई. तुरंत न आने का नतीजा जानती थी.
‘तू भी बहरी हो गई है. मैं तो हिंदुस्तान में आकर ज्यादा परेशान हो गई हूँ.’
‘हों गई होंगी, ज़रूर हुई होंगी. सिंध में चार चार नौकर-चाकर जो तुम्हारे आगे पीछे घूमा करते थे. यहाँ तो बिचारी यह अकेली ही है, किस काम को देखे….किस काम को छोड़े!’ सोचा, पर कह न पाई. शामत को दावत देना किसे भला लगता है.
मेरी बात मेरे मुंह में ही रह गई. नानी की रोबदार आवाज तो थी ही, पर नाराज़गी में उसमें से कुछ और ही स्वर निकलते थे. कुछ और सुनूं इससे पहले हुक्का उठाकर हौदी की ओर चल पड़ी. पुराना पानी गिराया, ताजा पानी भरा, टोपी को उंडेलकर राख निकाली, फिर अंगार डालने के लिए रसोई घर में गई.
कमली ने आंखें उठाकर मेरी ओर देखा – लगा वह बहुत ही निर्बल हो गई थी… शायद काम का बोझ उससे उठाया नहीं जा रहा था, और ऊपर से इन वज़नदार शब्दों की बौछार! कमली मेरी हम उम्र थी, नानी की नातिन मैं भी थी, और वह भी. पर फर्क था. मैं सेज पर सोती, वह मेहनतकशी की चक्की में पिसती रहती. मैं पढ़ाई के लिए स्कूल जाती, वह रसोईघर का काम संभालती.
अपनी पीठ पर मेरे हाथ का स्पर्श महसूस करके उसकी आँखें गीली हो गई. लगा पुराने ज़ख्मों से कुछ रिस रहा हो. पर वह चुप थी. खामोशी भी कितनी अजीब होती है. अपनी ही भाषा में कितनी दास्तानें एक ही बार मैं बोल जाती है. हां यह और बात है, कि कोई समझे, कोई ना समझे, कोई महसूस करें, कोई ना करे.  
‘कमली  तुम बर्तन मांज कर रखती जाओ, मैं धोती जाती हूँ. इस तरह काम जल्दी ख़त्म होगा. फिर तुम जाकर थोड़ा आराम कर लेना.  
‘नहीं बीबी, मैं कर लूंगी. आप नानी का हुक्का भर दीजिये….’. और उसकी नाक की सूं …सूं…ने बहुत कुछ बहने से रोक लिया!’  इतना तो मेरे बाल मन ने जान लिया था.
मैंने हुक्का लाकर नानी की खाट पर रख दिया और अपने कमरे की ओर जाने के लिए कदम बढ़ाया ही था कि सामने नानू जान आँगन में आते हुए दिखाई दिए.
‘सलाम नानू जान,,!’ मैंने भागकर अपनी बाहें उनके इर्द गिर्द लपेटते हुए कहा.
‘सलाम बेटा, खुश रहो! कहो पढ़ाई ठीक-ठाक चल रही है ना?’ नानू ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए पूछा.
‘हाँ नानू, बिलकुल ठीक चल रही है.’  कहकर में चलने लगी, पर मेरे पाँव रुक गए.
‘लड़कियों को पढ़ाना बेकार है. दिमाग खराब हो जाता है उनका……’ नानी ने एक बड़ा कश लेते हुए बिन मांगी अपनी राय सामने रखी.
‘क्यों न पढ़ें? ज़माना भी तो बदला है कि नहीं? मैं तो कहता हूँ कि कमली को भी इसके स्कूल में दाखिल करवा दो. दोनों का साथ भी हो जायेगा और पढ़ाई भी.’
‘अब चुप भी करो, ज्यादा दिमाग खराब मत करो उसका. वह भी पढ़ेगी तो घर का काम कौन संभालेगा? मैं तो बोल कर फंस गई.’  और नानी की बड़बड़ाहट  मेरे कानों तक रेंगती हुई पहुंची, जिसमें कुछ कड़वे, कुछ कसैले शब्द थे जो पिघले डामर की तरह मेरे कानों में तैरते रहे.
‘अब बात को आगे मत बढ़ाओ !’ नानू ने अपने कमरे की ओर रुख करते हुए कहा.
‘ कमतर जात के लोग हैं…. कितना भी भला करो भुला देते हैं. ज़माना ही बदल गया है.  न वे लोग रहे हैं, न ही वह खुशबू बाकी रही है किसी में.’
‘अरी भाग्यवान अब घड़ी पल चुप भी हो जाओ. बिचारी दोनों लड़कियां क्या कुछ नहीं करतीं? तुम्हारी हर फरमाइश तो पूरी करती हैं, पल दो पल देरी तो हो ही जाती है. तुमने तो उम्र काटी है, इनके सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी है. मुझे तुम्हारी ये बातें बिल्कुल नहीं भाती, और न ही तुम्हें ऐसा करना शोभा देता है.
‘ नहीं अच्छी लगती तो……!….
अभी नानी की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि नानू ने रोबदार आवाज में कहा-’अपने ही घर में आदमी कुछ पल सुकून के बैठे, ऐसा तो मौसम ही नहीं रहा. काम से लौटकर घर आओ तो घर-घर लगना चाहिए. यहां तो हरदम तुम्हारी शिकायतों की दुकान खुली रहती है!’
‘हां हां अब यह मेरी दुकान हो गई, और वह तुम्हारी… यही कहना चाहते हो न?’
‘अब बस भी करो. मैं जाकर लेट रहा हूँ!’
‘खाना तो खालो. क्या यूं ही भूखे पेट लेट जाओगे?… ‘कमली, अरी ओ कमली अपने नानू को खाना तो देना, जल्दी हाथ पाँव चला.’ नानी की बुलंद आवाज़ सुनने में आई.
‘जी आई नानी, अभी आई. तवे से रोटी उतार कर लाती हूँ.’
मैं इतनी बड़ी तो न थी, पर न जाने क्यों नानी की तंज़ भरी आवाज़ में कही बातें मेरे भीतर तीर समान चुभ जातीं. अमीरी गरीबी की दीवार नाज़ुक नहीं, ईंटों से भी ज्यादा मज़बूत होती है. लाराकाणे में ज़मीनदारी थी, बड़ी हवेली थी, बग्गी थी, चार चार दासियां दिन रात उनके आगे पीछे फिरा करतीं. एक दिन भर घर की सफाई करती,  बिस्तर बिछाती, कपड़े धोती,  उन्हें सुखाकर इस्त्री करके रख देती. दूसरी चाय पानी नाश्ता, दो समय के खाने का पूरी व्यवस्था करती. तीसरी घर की ज़रुरतों के हर चीज़ को बाज़ार से ले आती और समूचे घर की देखभाल करती. और चौथी यह ‘कमली’ जो दस साल की उम्र से नानी की सेवा में लगी हुई है – नानी की हर आवाज़ पर हाज़िर हो जाती, फिर चाहे किसी भी समय, किसी भी चीज़ की मांग हो.
‘अरे मेरी चप्पल तो ले आना, देख मैंने कंघी कहां रख दी?, अरे चश्मा ज़रा साफ कर दे, एक कप चाय बनाकर पिला..! इस तरह के छोटे-मोटे काम कमली की जिम्मेवारी थी. लगभग मेरी उम्र की, पर सिंध में भी मैं स्कूल जाती और वह नानी की चाकरी में व्यस्त रहती. सबसे बड़ा काम था नानी का हुक्का जो दिन में दो-तीन बार भरकर नानी के सामने रखना.  यह लत घर में नानी के सिवाय किसी और को न थी. नानू बीड़ी पीते थे, और मेरे पिताजी शराब….! बाकी सब साफ़ सुथरी ज़िंदगी व्यतीत करने में प्रयासरत रहते.
आखिर मौसम बदला. बहारों में खिज़ां आने के आसार बढ़ने  लगे. हलचल बढ़ी, दंगे हुए, मारपीट हुई, जुल्म अत्याचार की तपिश नानू को लपेट ले, इससे पहले नानू अपनी इज्जत बचाने के लिए समस्त परिवार को किसी मुसलमान दोस्त की मदद से पोरबंदर की ओर रवाना करने में जुट गए. हिंदुस्तान में भी उनके रहने खाने-पीने का इंतजाम कर दिया. नानू-नानी आए, और साथ मेरे पिता, मैं और कमली भी आई. मेरी मां के लिए नानी कहती है-’ तेरी वजह से तेरी मां को अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा. न तुम पैदा होती, न वो मरती. हाय हाय मेरी मूमल रानी’  कहकर छाती पीटते हुए वह अपने बेटी का मातम मनाती थी.
कमसिन को अपने साथ सिंध से स्थानांतरण के समय नानी ने उसकी पहचान देते कहा था – ‘यह मेरी नातिन है कमली. दो साल की हुई मां मर गई. अब मैं ही इसकी मां भी हूँ और नानी भी.’ कहते हुए दुपट्टे से आंखें पोछते नानी कमली का हाथ पकड़ते हुए, लाठी की ठक ठक के साथ, गाड़ी के इंतजार में खड़ी भीड़ के बीचो-बीच लापरवाही से अपना रास्ता बना लेती. यह हुनर कोई नानी से सीखें. पराए को अपना करना, और अपने को पराया करना
मैं सोचती रही, मां मुझे जन्म देकर मर गई. कमली तो वहां की मुसलमान यतीम थी जिसने नाना की पनाह पाकर नानी की सेवादारी के लिए घर में अपनी जगह बना ली. मेरी मां तो उसकी एक ही बेटी थी जो मुझे जन्म देकर इस जहाँ से चली गई. यह कौन सी बेटी हुई जो कमली उनकी नातिन बन गई. सोचती रही, पर किसी सवाल का माकूल जवाब पाने में नाकाम रही.
खैर, सिंध छोड़कर हिन्द में आ बसे. घर बसा, दुकानदारी शुरू हुई और मेरी फिर से स्कूल में दाखिला हो गई. कमली को घर के काम की, नानी की सेवा की संपूर्ण जवाबदारी उठानी पड़ी. अपनी सेवाएं देते देते वह वक्त और माहौल के मुताबिक कभी कमली, तो कभी कमसिन बन जाती, कभी हिंदू तो कभी मुसलमान! वक़्त के चेहरे भी नकाब बदलते हैं. और अचानक एक दिन मेरे बाबा भी हार्ट अटैक में ग्रस्त होकर चल बसे. नानू इन्तहा तन्हा हो गए. हुई तो नानी भी, पर अपनी आवाज़ में खलिश भरकर बात करने में वह बहुत कुछ छुपा लिया करतीं.
===
पटसन की खाट पर लेटी नानी की टांगों पर कमली के हाथ देर तक चलते रहे, कभी ऊपर की ओर, कभी नीचे की ओर घूमते हुए देह को सुकून देते रहे. नानी का मन जाने क्यों आज बिना मां बाप की बच्ची के लिए दुखी होने लगा. अपनी बेटी के साथ साथ उसकी मां नगीना भी याद आ गई जो उनके घर में पनाह लेकर, अंत तक निभा गई. भगवान के रहस्य में कब कौन झाँक पाया है. दोनों हमजोली, हम उम्र, अपनी अपनी बेटियों को अमानत के तौर उसकी गोद में छोड़ गईं … और पल भी नहीं लगा सोचने में कि नानी ने उनको आगोश में भरकर गले लगा लिया.  पर बुरा हो इस विभाजन का जिसने धरती के साथ दिलों के भी टुकड़े टुकड़े कर दिए. हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के बैरी बन गए. सच तो यह है कि नानी का मन भी यहां और वहां की यादों के बीच में झूलता रहा.
नानी के अपने रिश्तेदार, भाई, बहन ने इस दरबदर होने के दौर में बंट गए. कुछ यहां आए, कुछ वहीं रह गए. ममता की छाती पर दरारें पड़ गईं. बस एक अपनी नातिन और एक न अपनी, न पराई नगीना की बेटी कमसिन,  उन्हें संभालते संभालते अब नानी थक गई थी. उसने भी बहुत कुछ खोया था, बाकी रिश्तो की माला में बचे थे चार मोती, नानू, नानी मैं और कमली.
नानी सोच की गलियों से होती हुई अपनी पटसन वाली खाट पर लेटी लेटी, कमली की हाथों के दबाव् का आनंद लेती रही.
‘नानी, गर्मी लगती हो तो पंखा झुलाऊं.  गरम हवा भी तो बहुत है.’ –मासूम बच्ची के स्नेह भरे आवाज़ में न जाने क्या था कि नानी का ह्रदय करुणा से भर गया. अपनी टांग खींचते हुए, खाट पर उठ बैठी और प्यार से कमली के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा-’ कमली अब तू भी देवकी के कमरे में जाकर आराम कर. सारा दिन काम करती रहती है. मेरी बातों को दिल से न लगाया कर. बूढ़ी हो गई हूँ, बड़बड़ की बीमारी हो गई है. आज से तू कमसिन नहीं, बस कमली है, मेरी कमली !’
‘नानी…!’ कहकर वह कमली नानी की ममतामई गोद में समा गई.
‘कल ही तेरे नानू से कहकर देवकी के स्कूल में तेरा भी दाखिला करवाती हूँ. तू भी उसके साथ रहकर पढ़-लिख लेना.’
और दादी की आंख से दो मोती लुढ़ककर छलके. एक देवकी के लिए, एक कमली के लिए!
देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत), 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 12 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकर लेखन, हिन्दी-सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, व् मीर अली मीर पुरूस्कार, राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद व् महाराष्ट्र सिन्धी साहित्य अकादमी से पुरुसकृत। सिन्धी से हिंदी अनुदित कहानियों को सुनें @ https://nangranidevi.blogspot.com/                               
contact: [email protected]  
RELATED ARTICLES

2 टिप्पणी

  1. देवी नागरानी की कहानी ‘कमली’ भारत पाक विभाजन के उपरांत एक विस्थापित परिवार की कहानी है। इसके दो मुख्य पात्रों नानी और कमली के बीच गढ़ी गई कथा। नानी का किरदार एक बड़े घर की बड़ी बूढ़ी का है जो ऐसी विषम परिस्थिति में भी वही ऐंठ मेंठ बाकी है जो उसके अच्छे दिनों में था। परिस्थितियां कैसी भी हो पर ठसक मसक में रत्ती भर भी अंतर नहीं है। नानी बाहर से जितनी कड़वी है हृदय से उतनी ही नरम है, तभी तो दूसरे की बच्ची को अपनी नातिन बना लेती है और कल से उसे स्कूल भेजने की तैयारी कर देती है। बढ़िया कहानी लिखी। लेखिका को बहुत बहुत बधाई

  2. काफी मार्मिक कहानी लगी आपकी! बंटवारे की चोट काफी तकलीफदेह रही। जिसने उस दंश को झेला है,उस पीड़ा को वही समझ सकता है। बेचारी नन्ही सी बच्ची कमली!! भले ही देर से उसके प्रति भी नानी का दिल पसीज गया।
    दरअसल वह समय ही ऐसा था उस समय लड़कियों को ज्यादा पढ़ाते नहीं थे, जैसा कि कहानी में भी एक जगह नानी कहती हैं कि पढ़ाने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।
    जैसा की नानी ने खुद ने भी कहा,, लेकिन बात में सच्चाई भी है कि वृद्धावस्था में चिड़चिड़ापन तो वैसे ही आ जाता है किंतु विस्थापन की दशा में उस परिवर्तित परिस्थितियों के अंतर्गत चिड़चिड़ा आना स्वाभाविक ही था। पर नानी में करुणा भी थी। अंत सुखद और सकारात्मक रहा और फिर अंत भला तो सब भला। बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयां दीदी।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest