Tuesday, September 17, 2024
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डॉ. आरती स्मित की कहानी – रहिमन धागा प्रेम का

सुनहरी डोरियाँ छोटी होती हुईं वापस क्षितिज पर टिके  लालिम- सुनहरे गोले में समाती जा रही थीं| आसमान ऊन के सुनहरे गोले को लपेटते हुए ख़ुद को भी नीरव पलों से घिरा महसूस करने लगा | धरा पर बिछी सारी डोरियाँ एक-एककर सिमटती गईं| हर बार की तरह पलों का यकायक ठहर जाना  बोझिल-सा लगा तो उन्होंने निगाहें क्षितिज पर टिका दीं, अभी-अभी जहाँ वह सुनहरा गोला डूबा था और डूबने के बाद भी अपनी आभा से क्षितिज पर लालिम रेखा खींच दी थी|
   “कहाँ खो गईं आप?” 
कई मिनटों तक गुमसुम और पश्चिम दिशा की ओर दिवस के अवसान को टकटकी लगाए देखती कुहू जी को मैंने टोका| कुहू—कुहू श्रीवास्तव| जानी मानी रचनाकार और समाजसेवी| हम दोनों के बीच परिचय का तार कोई बहुत पुराना नहीं था| उम्र में भी काफ़ी बड़ी थीं| लगभग पंद्रह-सोलह साल| शुरू में फोन पर हुई बातचीत से मैंने उनके खुलेपन का  गलत मतलब निकाला और लंबे समय तक उन्हें गलत समझते हुए बिता दिए थे
     ‘कितना गलत था मैं! क्या-क्या वहम पाले बैठा था| उनसे हुई चंद मुलाक़ातों ने  मेरी संकीर्ण सोच को आइना दिखा दिया| मैं इक्कीसवीं सदी का मैच्योर्ड इंजीनियर/ संवेदनशील शायर! मगर स्त्री को व्यक्ति न मानने के पूर्वाग्रह से बँधा …. ’  उनके  साथ गंगातट पर बैठा मैं देर तक सोचता रहा, जब वे क्षितिज को और मैं उन्हें देख रहा था… चुपचाप|
    “अंss कहीं नहीं| आपने कभी महसूस किया है, गोधूलि अपने पग बढ़ाती है तो चलते हुए रंगीन पलों के पग जड़ हो जाते हैं| वक़्त ठिठक जाता है| एक उदासी व्याप जाती है| साँझ की उदासी| वे अब भी क्षितिज पर गहराते स्याह रंग को देख रही थीं| एकटक! मगर उनके चेहरे पर उदासी की हल्की छाया भी नहीं थी| वे शांत थीं| स्वर शांत था| झील की गहराई से उभरा हुआ-सा| मुझे  कुछ ज़वाब न सूझा
पहले भी उनकी बातों का सतही अर्थ निकालने की भूल कर चुका हूँ| नहीं, अब नहीं|’      
       मैं चुप रहा| बिलकुल चुप| स्याह रंग अब गंगा तट पर भी बिछने लगा| लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी| संध्या आरती का समय हो चला था|
चलें?”
जी, ज़रूर|”
     ज़वाब देता हुआ मैं उठ खड़ा हुआजी में आया, हाथ बढ़ाकर उन्हें उठने में सहयोग दूँ, मगर सकुचा गया| कुहू जी अपने पैर सीधी करती, फिर मोड़ती हुई उठ खड़ी हुईं| कंधे पर वही छोटा बैग—हमेशा की तरह|
  “सुयश! आप चाहें तो घर निकल जाएँ| मैं संजय को फोन कर देती हूँ|… या ऑटो मिल जाए तो लेकर चली जाऊँगी|”
  “मैं साथ चलता हूँ…” मेरे स्वर में हिचक बनी रही|
  “साथ! मेरी सहजता पहले भी ज़ख़्मी हुई है| नहीं?” वे मुस्कुराईं|
शायद शायर लोग स्त्री-पुरुष के संबंध को संकुचित परिधि में ही देखते हों!” वे फिर मुस्कुराईं| मेरी नज़र अपने क़दम तले बिछी मिट्टी पर टिकी रही| उन्होंने बात आगे बढ़ाई|
संबंध के दो ही ठोस आधार हैं—प्रेम और नफ़रत| मेरे भीतर नकारात्मक भावों के लिए कोई जगह नहीं| प्रेम और केवल प्रेम… हर एक के लिए… बेशक उसके रूप में भिन्नता होती है| आसक्ति प्रेम नहीं है| प्रेम देह के प्रति नहीं पनपता| उसका उजास तो कण-कण को अंधेरे से मुक्त करने में समर्थ ईश्वरीय देन है|”      
      वे क़दम बढ़ाती हुई कहती रहीं| शायद, हर उस बात का उत्तर दे देना चाहती थीं, हर उस छींटे का ज़वाब जो मेरे शब्दों ने शालीनता से उड़ाए थे|  
      ‘मैंने उनके स्नेह को आसक्ति समझने भूल की थी| मेरे शब्द मर्यादित थे, किंतु  भाव कटाक्ष भरे| ओह! ये मैंने क्या कर दिया! कम से कम एक बार मिल लेता, उन्हें जान-समझ लेता| सिर्फ़ चैटिंग से ही ….’
  
 “ऑटो!” अचानक  उनकी आवाज़ सुनकर मैं सोच की गिरफ़्त से बाहर निकला|
आपके लिए यह शहर नया है| आपको परेशानी होगी|”
कोई बात नहीं| लेखक का पर्स छीनकर चोर कलम ही पा सकता है और कागज़ खरीदने के पैसे|” 
हम दूसरा ऑटो ले लें…प्लीज़!” 
वे मान गईं| हमारे रुके क़दम बढ़ चले|
    “नई जगहों पर घुमाने के लिए मेज़बान या परिचित साथ होते हैं| आप आने वाले थे, इसलिए संजय को जाने दिया|” अनायास उनके चेहरे पर कुछ जटिल लकीरें उभर आईं| फिर बुदबुदाते स्वर फूटे, “आशा है, मेरे कहे का कुछ अलग अर्थ नहीं लेंगे|”
मैं… मैं अपने पुराने व्यवहार पर सचमुच शर्मिंदा हूँ|” मैं हकलाने लगा|
जानते हैं सुयश…. “ वे  अचानक चुप हो गईं| उनका गला रूँध गया| मैं अवाक् उन्हें देखता रहा|
प्रेम की व्याप्ति शिवत्व या कहें अखंड सत्य की प्राप्ति का द्वार खोलती है| निःस्वार्थ, निष्काम प्रेम की दिव्यता परमात्मा से मिलाती है| जब हम किसी दूसरे प्राणी से ही प्रेम नहीं कर पाएँगे तो परमात्मा से कैसे करेंगे? यह अनुभूति है जहाँ शब्द खो जाते हैं| शब्दों में इतनी ताक़त ही नहीं, वह उस दिव्य अनुभूति को अपने भीतर समा सके|” 
      वे मौन हुईं| चेहरा शांत! शांति के गर्भ से वैसा ही शोर उभरता रहा, जैसा कि सूरज के भीतर या जैसा कि अंतरिक्ष में…मैं चुपचाप सुनता, साथ-साथ चलता रहा
    “आत्मिक संबंध में यह सोच पनपती  ही नहीं कि प्रिय पात्र स्त्री है या पुरुष ; वह बच्चा है या युवा या कि बूढ़ा| क्योंकि वहाँ स्पर्श का एहसास अंतर्मन को होता है| यदि स्पर्श की अनुभूति से दैहिक इन्द्रियाँ संवेदनशील होती हैं तो फिर वह प्रेम नहीं, आसक्ति है | विडंबना यह है कि दुनिया आत्मिक संबंध को भी काले चश्मे से देखती है|”
    वे ख़ामोश हुईं| आगे बढ़ने को उठे क़दम ठिठके| फिर, सीधा सवाल दागा, “आपने भी तो मेरे स्नेह को इसी चश्मे से देखा था?”
मैं… मैं….”
आपने कभी पूछा, जिस तरह आपसे बात होती है, किसी और से होती है या नहीं? क्यों आपकी आवाज़ को सुकून भरा कहा ? कई बार क्यों कुछ लिखकर डिलीट किया?….  बस मान लिया कि ये हरकतें अमर्यादित हैं|”
मैं सॉरी बोलने के योग्य भी नहीं…”
सुयश! भूल मेरी थी, मैंने आपको भीड़ से अलग समझा| आप अलग तो हैं, मगर स्त्री को पुरुष समाज द्वारा  बनाए खाँचे से बाहर निकलते देखना आपको भी गँवारा नहीं| उसे व्यक्ति-मात्र समझना आपसे भी नहीं हो पाता जबकि आप हमारी पीढ़ी के लगभग अंतिम पायदान पर हैं| हमारी पीढ़ी की सचेत स्त्रियों ने अपने अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ी है| विचार और व्यवहार का खुलापन हमेशा अधोगति की ओर इशारा नहीं करता
     ‘लोग क्या कहेंगे’ सोचकर चलनेवाले लोग समाज को दृष्टि नहीं दे सकते| आप कलमकार हैं| इतनी समझ तो रखते ही होंगे कि सच्चा इन्सान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने आपसे नज़र मिला सकने योग्य बना रहना चाहता है|” 
    उन्होंने चलना शुरू किया| साथ ही कहना भी, “दिल से जुड़े संबंध सहज होते हैं| वहाँ इंसान बिना गार्डेड हुए खुलकर जीता है| जो गीत मुझे प्रिय लगे, उनमें से जो कुछ आपको भेजे, वे सुप्रिया, संजय और तिवारी सर को भी| और हाँ, कनु को भी|एक ही गीत अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग भावलोक में ले जाता है| क्या नहीं?”    
     उन्होंने सवाल दागा| मैं बहुत कहना चाहता था, मगर जीभ मानो तालू से चिपक गई हो या होंठ सिल गए हों| सिर हिलाने के सिवा मैं कुछ न कर सका| वे बोलती रहीं…
मेरी, नज़दीक की दृष्टि अधिक कमज़ोर है| बिना चश्मे के कई बार मैसेज गलत टाइप हो जाते हैंतो डिलीट करना होता है या भूलवश भेज दिया हो तो भी, जैसे कि मैं बच्चों/बड़ों को ज़वाबी इमोजी भेजती हूँमगर आपको नहीं भेज सकती क्योंकि आप इसका सीधा-सहज मतलब नहीं निकालेंगे, इतना अनुमान था|”
     वे  ख़ामोश हुईं मगर वह ख़ामोशी मुझसे बतियाती-सी लगी| मैं उनकी तरफ़ देखता रहा| इंतज़ार करता रहा उस बाँध के टूटने का जिसने बहुत सारा खारा जल रोक रखा था, मगर उन्होंने बाँध टूटने नहीं दिया| मेरी तरफ़ देखा, होंठ हिले, स्वर फूटे,
 “जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं – होने चाहिए जहाँ इंसान खुलकर जी सके, बात-बेबात खिलखिलाकर हँस सके; जहाँ वह ख़ुद को सहज अनुभव कर और करा सके| इसका यह अर्थ कतई नहीं होता कि वह विचारवान नहीं, संवेदनशील नहीं, प्रज्ञाविहीन सतही व्यक्ति है| इसका यह भी अर्थ नहीं कि दृष्टिकोण के विस्तार में संकुचन आ गया| एक व्यक्ति जीवन के विशेष पड़ाव पार करता हुआ आगे बढ़ता है और हर पड़ाव तक पहुँचने से पहले हज़ारों पगडंडियों, झाड़-झंखाड़ भरे रास्तों और सड़कों से गुज़रता और अनुभव समेटे चलता है| वह जीता सिर्फ़ आत्मिक पलों को है, शेष को या तो ढोता है या बिसराकर उस बोझ से मुक्त हो जाता है|”  वे मुस्कुराईं
     साथ-साथ क़दम बढ़ाता मैं देखता-सुनता रहा– ध्वनि की टकराहट से उत्पन्न प्रतिध्वनि और उसकी अनुगूँज भी|
           हम चलते-चलते सड़क पर आ गए| उन्होंने हाथ से इशारा कर, ऑटो रोका और जा बैठीं| मैं और अनायास बोल पड़ा, “रुकिए|” वे चौंकी|
मैं… मैं साथ चलूँगा, प्लीज़!”
      कुहू जी ने हैरानी से  देखा, फिर एक ओर खिसककर खाली जगह की ओर इशारा किया| ऑटो चल पड़ा|
   “रास्ता लंबा नहीं है| वन वे के कारण लंबा हो जाता है| मैंने बातचीत का सिरा पकड़ा, मगर उन्होंने सिर हिलाकर हामी भर दी, कुछ कहा नहीं तो वह सिरा भी खो गया| अज़ीब झंझावात में घिरा मैं ख़ुद को तलाशने लगा| ऑटो अपनी गति से आगे बढ़ता रहा| एकबारगी  लगा, कुहू जी चुप हैं| अज़नबी की तरह! नहीं, बस परिचित की तरह
क्या फोन पर वह बेतकल्लुफ़ी, वो ठहाके इसी महिला के थे? सचमुच? ऐसा कैसे हो सकता है? इनका यह रूप असली है या वह रूप?’ मैं संदेह से घिरा रहा| ‘ओह! सोचों ने तो मेरी विचार-शक्ति को ही ध्वस्त कर दिया है| कैसे पूछूँ … क्या करूँ….?’
    गाड़ी के पहिए और सोच की गति एक साथ झटके से थमी जब मद्धम स्वर उभरा, “भैया! वो सामने फुटपाथ के पास ज़रा रोकना|”
    ऑटो रुक गया| मैं उतर गया| वे नहीं उतरीं| एक लड़का आगे बढ़कर ऑटो के पास आ खड़ा हुआ| उन्होंने परिचय दिया, “यह संजय है| इसी के घर रुकी हूँ| आपके घर के विपरीत राह पर| संजय ऑटो में खाली जगह पर जा बैठा| मैं उधेड़बुन में रहा, ‘क्या कहूँ? हाथ जोड़कर विदा लूँ ? फिर मिलने का समय माँगूँ… क्या कहूँ?’ कुछ समझ न आया तो बुत बना रहा| कुहू जी ने हाथ हिलाया तो  बमुश्किल स्वर फूटे, “क्या फिर मुलाक़ात होगी?”
आप अपने सवाल, अपने संदेह – सब नोट करके रखें, सबके ज़वाब देकर ही यह शहर छोड़ूँगी|” वे  खिलखिलाईं| “क्यों संजय!”
हाँ, मासी!” वह भी हँस पड़ा|
ऑटो आगे बढ़ गया| मैं टिमटिमाते तारों के चँदोवा तले खड़ा रहा या फुटपाथ की समतल ज़मीन ने  जकड़ लिया, कुछ  समझ न आया| किसी की फटकार ने जमे पैर हिलाए—“भाई ! फुटपाथ चलने के लिए है| दार्शनिक की तरह खड़े रहने के लिए नहीं|
    ‘यह हँसी! यह हँसी तो वही पहले वाली हँसी है| उन्मुक्त|’ दिमाग बौखलाया| क़दम मुड़े और चल पड़े अतीत में उछाले गए अपने ही पत्थरों की चुभन सहते , ज़ख़्मी होते… घर दूर नहीं था, मगर रास्ता लंबा लगने लगा और तारों भरी रात अँधेरी, मायूस-सी|
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आज सुबह-सुबह! ऑफिस नहीं है?”
जी नहीं| दूसरे और चौथे शनिवार को छुट्टी होती है|… आप रोज़ आती हैं?”
हम्म! लगभग| जब से यहाँ हूँ|” गंगा तट पर हौले-हौले  टहलती हुई कुहू जी  बोलीं|
 “नौका सवारी के लिए मल्लाह से बात करूँ? आपको लहरों से बात करना पसंद है न?” 
हम्म! है तो, मगर…”
मगर क्या, इसी बहाने आपसे थोड़ी देर और बात भी हो जाएगी और गंगा-यमुना जलधारा का स्पर्श भी|” 
   मैंने कहने का साहस जुटाया| उनकी हामी पाकर मैं अच्छी नाव और भाड़ा के तोल-मोल में लग गया| स्थानीय होने का लाभ मिला| रिजर्व नाव मिली| नाविक को समझाया, “मैडम परदेस से आई हैं| ज़रा अच्छी तरह घुमा दो कि जाकर भी तुमको याद रखें|” 
      उनके पास लौटा तो समझ नहीं पाया कि वे वहीं खड़ी-खड़ी मेरा आना-जाना देख रही थीं या कहीं खोई थीं, क्योंकि उन्हें देखकर ऐसा लगा मानो मेरी आवाज़ पाकर नींद से जगी हों|
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नाविक भैया, ज़रा हाथ देना|”
लाइए, मुझे अपना हाथ दीजिए|” मैं आगे बढ़कर बोला|
आपको??”
    इस एक शब्द के पीछे से छोड़े गए सैंकड़ों तीर मुझे आ लगे| ये तीर मेरे  ही द्वारा चलाए गए तीर का ज़वाब थे, जिन्हें मुझे सहना ही था|
विश्वास रखें|”
रखा ही तो था…” आगे के शब्दों को चबाती हुईं वे मेरा हाथ थामकर नाव पर चढ़ गईं| हम नाविक के निर्देश के अनुसार नाव के बीच में आमने-सामने बैठ गए| अब मैं उनको ठीक-ठीक देख पा रहा था| पूरी तरह| उजाले में| मगर वे मेरी तरफ़ चेहरा न कर चप्पू के चोट से हिचकोले खातीं लहरों की तरफ़ देखती रहीं| सफ़ेद सलवार-कुरते पर कंधे से टँका, टिका ख़ूबसूरत ब्लू दुपट्टा हवा के साथ लहराने लगता तो वे उसे समेटकर हाथ से पकड़ लेतीं| नाविक की चप्पू के साथ-साथ उनका गुनगुनाता स्वर लहरों से जा मिला|
गाइए न प्लीज़!”
मैं गाती नहीं| गा नहीं सकती| वह आवाज़ अब नहीं रही|”
आवाज़ तो अब भी मधुर है|”
मधुरता ही सब कुछ नहीं होती| मेरा वोकल कॉर्ड अब स्वर को लय-ताल के साथ चलने की इजाज़त नहीं देता|” वे क्षणभर को रुककर बोलीं,  “इसलिए जिनके पास यह ईश्वरीय उपहार देखती हूँ, उन्हें उसका बेहतर उपयोग करने कहती हूँ|”
       मुझे याद आया| उन्होंने मुझे भी कहा था, ‘तुम्हें ईश्वर ने इतना अच्छा स्वर दिया है| तुम्हें गायकी के क्षेत्र में जाना चाहिए|’ और मैंने विनम्रतापूर्वक नकार दिया था
एक बात पूछूँ?”
दो पूछिए|” वे फिर मुस्कुराईं|
आपने मुझमें क्या देखा जो बिना मिले क़रीब आने दिया| मेरा मतलब वो अधिकार जो अपनों को मिलते हैं|”
संस्कारी पवित्र, जो सहज स्नेह का पात्र था|” 
 “मगर मैं तो बेहद सामान्य और बहुत छोटा भी हूँ|”
स्नेहिल संबंध की कोई उम्र नहीं होती| मुझसे तीन-चार दशक बड़े भी मुझसे सहज संबंध जोड़कर ख़ुश  रहे| उनकी सहजता मैने कभी नापने की कोशिश नहीं की| सहज व्यवहार बंद परतों को खोलता है और अनायास नहीं, धीरे-धीरे दुनिया को देखने–समझने की परिपक्वता बढ़ जाती है क्योंकि वहाँ खुलकर तर्क की गुंजाइश रहती है| किसी बिंदु पर बहस और विमर्श अलग-अलग कोण से विषय को देखने–समझने के लायक दृष्टि को विस्तार देता है| वे छोटी-छोटी बातें जो बड़ों के लिए सामान्य होती हैं, हमारे लिए सीख बन जाती हैं| खैर, यह मेरा मानना है| अंतरंग संबंध आसमान हो जाता है—स्वच्छ, पारदर्शी और निष्कलुष| बशर्ते यह अंतरंगता एकतरफ़ा न हो|” 
        कुहू जी की दृष्टि आसमान पर जा टिकी|
आपको याद होगा, आपने मुझमें अभिभावक और मित्र – दोनों देखना चाहा था, मगर न इस अभिभावक की डाँट सह सके, न मित्र का-सा  सहज व्यवहार|” कुछ क्षण चुप्पी साधने के बाद वे फिर बोलीं
मेरे बेटे आरव की आवाज़ और बोलने का अंदाज़ और स्वभाव का एक हिस्सा आपसे मिलता है| यह भी जुड़ाव का एक कारण है| आरव मुझसे तीन दशक छोटा है, मगर  मेरा अनकहा भी कुछ-कुछ समझ लेता है; उसके साथ किसी विषय पर खुलकर बात की जा सकती हैइससे इक्कीसवीं सदी में जीवन के बदलते तेवर को समझने में मदद मिली| हमारी परवरिश में भी अंतर है और स्वभाव में भी| हम एक-दूसरे के स्पेस में घुसपैठ नहीं करते| हाँ, उसके  स्वास्थ्य को लेकर सजग हूँ तो उस बिंदु पर ‘माँ’ अधिक बन जाती हूँ, | शायद, आपकी अस्वस्थता पर भी मेरी ममता हावी हो गई थी जिसे मर्यादित रूप में तिरस्कार मिला| |”
ममता को नहीं… समग्र संवाद से निकले भावों ने मुझे भ्रमित किया था|” न चाहते हुए भी मैं टोकने पर विवश हो गया|
जैसे कि…..?”
वो सुकून वाली बात| आँखें बंद कर मुझे महसूस करते हुए  बार-बार मेरी रेकॉर्डेड आवाज़ सुनना|”
व्यक्ति जब मंदिर/दरगाह –कहीं भी जाता है तो हाथ जुड़ते ही आँखें बंद हो जाती हैं| और वह कुछ देर यों ही शांत और अकेला रहना चाहता है| क्यों?”
ईश्वर से आतंरिक रूप से जुड़ने और स्थिरता के लिए| कह सकते हैं कि भीतर प्रवाहित तरंग को महसूस करने के लिए…|”
यानी सुकून और आनंद महसूस करने के लिए|”
जी!”
मगर जब मॉल, सिनेमाघर या दोस्तों के साथ रेस्तराँ जाता है, तब ऐसा क्यों नहीं करता?”
तब वैसा वातावरण नहीं होता तो मन की गति भी वैसी नहीं होती|”
यानी तब आप आत्मरूप में किसी से जुड़ाव की अनुभूति के स्तर पर नहीं होते|”
जी बिलकुल|”
फिर आपको नहीं लगता कि इस बिंदु पर आपकी समझ चूक गई?”
     अब मैं चौंका| मैं समझा नहीं|
 “ ईश्वर के प्रति समर्पण का बीज अखंड विश्वास या आस्था में होता है | ईश्वर के प्रतीक के सामने हम बिलकुल सहज होते हैं; बिना गार्डेड हुए, बिना सजगता और नाप-तोल के अपनी प्रार्थना के दीप जलाते हैं… जबकि देखा उन्हें भी नहीं है| माता-पिता, भाई-बहन, स्कूल-कॉलेज के मुट्ठी भर दोस्तों के साथ भी ऐसा ही संबंध होता है| जीवन संबंध की सुगंध को यहीं क़ैद नहीं करता| इस राह पर कुछ राहगीर कुछ समय के लिए मिलकर भी हमेशा के लिए दिल में अपनी जगह बना लेते हैं|“
मैं निःशब्द रहा| वे कहती रहीं
आरव जब फोन करता है तो प्राय: आँखें बंद करके ही उससे बात करती हूँ और उसका मुस्कुराता चेहरा मेरी आँखों में बसा रहता हैइस तरह, उस पल के साथ को, उस  ठहराव को भीतर भर लेती हूँ| जब हम किसी को बिना शर्त, निःस्वार्थ भाव से प्रेम करते हैं तो उसका रूप ईश्वरीय प्रेम जैसा ही होता है| आप तो संवेदनशील शायर हैं| आपने कैसे नहीं समझा?”
    उन्होंने मुझ पर सवालिया निगाह डाली| मैं ख़ामोश रहा
    “आपके वॉइस मैसेज को कई बार सुना और खुले मन से आपको बता भी दिया कि इस आवाज़ में सुकून है| यह आपके मित्र के कहे शब्द थे| जब डॉक्टर को दिखाने के लिए आपको डाँटा था, तब एक माँ की संवेदना बह रही थी| मैं किसी भी क़रीबी को थोड़ी तकलीफ़ में भी नहीं देख सकती | मैं ख़ुद को जानती हूँ| संवेदनशील हूँ, कमज़ोर नहीं| हजारों मील दूर होकर भी आरव मेरे पास, मेरे साथ है और मैं उसके| हम दोनों एक-दूसरे की ऊर्जा बने अपने-अपने कर्मक्षेत्र में डटे हैं| कुछ नायाब रिश्ते भी हैं| तो…. मुझे किसी कंधे की तलाश न थी, न है| हाँ, मैं बहुतों की मित्र हूँ| उनकी परेशानी में साथ खड़ी|” 
वे मौन हुईं, फिर सीधे मुझे भेदती हुई पूछ बैठीं,  “क्या मैंने अपनी कोई परेशानी या चिंता आपसे साझा की है?”
  सवाल खड़ा कर, वे मुस्कुराईं| उनकी मुस्कान में सच्चाई थी, इत्मीनान था| मैं फिर ‘ना’ में  सिर हिलाकर रह गया| सच तो यह था कि इस बिंदु पर मैंने कभी गौर किया ही नहीं|
तो इसका मतलब आप समझते ही होंगे| कोई और सवाल?”
नहीं… अं…हाँ, एक छोटा-सा सवाल|”
सवाल सवाल होता है| उसके आकार से कोई अंतर नहीं पड़ता| पूछिए|”
मैंने आपको समझने में बड़ी भूल की| मेरे ओछे ज़वाब पर आपकी प्रतिक्रिया क्या हुई होगी, उसकी कल्पना नहीं कर पा रहा हूँ क्योंकि जब आप  पहली बार मिलीं तो ऐसे मिलीं मानो कोई संताप आपको छू न पाया हो|”
हम्म!” उन्होंने साँस भरी| “ऐसा नहीं है कि संताप नहीं उपजाउसकी झुलसन से इसलिए बच गई क्योंकि स्वामी विवेकानंद के स्वर कानों में गूँजते रहे—तरंग को बह जाने दो| और मैंने संताप को बह जाने दिया| फिर वह प्रसंग याद आया जब पहली बार दक्षिणेश्वर जाने पर नरेन अपने प्रति परमहंस जी  के व्यवहार से चकित होकर उन्हें उन्मत्त समझ बैठा था| वह उन्हें जानता न था, मगर ठाकुर तो  पहचान चुके थे कि नरेन वही मुक्तात्मा है जो उनके विचारों को विश्व में फैलाएगा||
      सार यही है कि मैंने आप में पात्रता देखी और सहज संबंध के अधिकार सौंपे थे|आपने गलत समझाइससे मेरी भावना कहाँ अपवित्र हुई? थोड़ी देर ज्वार-भाटे का नर्तन चला, फिर तूफ़ान गुज़र गया| मैं जो कल थी, वही आज हूँ|…. कोई और सवाल?”
नहीं|”
वैसे जब मैं प्रकृति के क़रीब होती हूँ तो केवल उसे जीना पसंद करती हूँ| जैसे कि नदी की धारा के साथ बहना, लहरों से बातें करना| बादलों को उतर आने को कहना और आसमान को बाँहों में भर लेना….”
माफ़ी चाहूँगा|”
कोई बात नहीं| आपने मुझे सच उजागर करने का अवसर दिया| आपका शुक्रिया!” वे फिर मुस्कुराईं| एक गंभीर मुस्कान|
आप मुझे ‘आप-आप’ क्यों कह रही हैं? पहले तो आप ‘तुम’ कहती थीं| यों भी आपसे बहुत छोटा हूँ|”
आपको ‘तुम’ कहूँ, अब भीतर से ऐसी आवाज़ नहीं आती|
       उनकी मुस्कान में गंभीरता बनी रही| मैं चुप हो गया| सवालों का जखीरा खाली हो चुका तो वहीं छोड़ दिया| नाव लौट चली
     सूरज पहली सीढ़ी चढ़ चुका तो दूर तक उसकी दस्तक सुनाई देने लगी| लहरों का आ-आकर टकराना उन्हें अच्छा लग रहा था| वे पूरी तरह मुड़ गईं और पाँव जल में उतार दिया| छपाछप करती हुईं वे ख़ुश थीं, अपनी दुनिया में मगन| मैं साथ होकर भी उनकी दुनिया में कहीं नहीं था… दूर-दूर तक नहीं|नाव हिचकोले खाती, चलती-चलती तट पर आ लगी| दो युवा  हाथ हिलाते हुए आगे बढ़े| मैं कुछ समझ पाऊँ कि चहकती आवाज़ सुनाई दी|
अरे कनु! तुम यहाँ?” 
    आवाज़ में ख़ुशी की तरंगें उठ रही थीं| यह उनकी ही आवाज़ थी| मैं चौंका| वही सहजता, वही खुलापन|
ओय, हाथ दे, हाथ दे|”
      संजय ने आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया| उन्होंने हाथ थामा और उतर गईं| हम थोड़ी देर कुछ क़दम साथ-साथ बढ़े| सूखी रेत पर आकर वे रुकीं, फिर मुझसे मुख़ातिब हुईं
      “नौका यात्रा के लिए तहे दिल से शुक्रिया! देखिए मेरे दो-दो गार्जियन हाज़िर हैं | संजय से तो आप मिल ही चुके हैं| यह कनु है, मेरी स्टूडेंट| स्टूडेंट तो चार महीने रही, बेटी हमेशा के लिए … तो अब मैं इनके हवाले हूँ|” कहती हुईं वे कनु से लिपट गईं| कनु भी बाँहों का घेरा बनाकर उन्हें प्यार से कसते हुए बोली, “बिलकुल| और एक नहीं, तीन-तीन|”
तीसरा कौन?”
सुप्रिया गाड़ी में इंतज़ार कर रही है| अब चलिए भी|” कनु दुलार से कुनमुनाई|
उम्मीद करूँ, फिर मुलाक़ात होगी?” मैं पूछे बिना न रह सका|
कल किसने देखा है? अगले पल के गर्भ में क्या है, मैं  इसे जानने का दावा बिलकुल नहीं कर सकती|आगे जो रब की मरजी हो|”
     मुस्कुराते हुए उन्होंने हाथ जोड़े | फिर, पलटकर  कनु और संजय की बाँहें थामें मस्ती में चल पड़ीं | मैं पीछे खड़ा देखता रहा| उन तीनों के बीच न उम्र की दीवार थी, न पराएपन की गंध | उनके कहकहे और माटी पर थिरकते, कूदते, मस्ती में डूबे  संग-संग बढ़ते क़दमों में एक अलग लय था| उस समय उन्हें देखकर यकीन करना कठिन था कि ये वही लेखिका हैं जिनकी रचनाएँ जीवन के परिदृश्यों को अलग-अलग कोणों से देखने-समझने और गंभीरता से सोचने पर विवश कर देती हैं
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ऑफिस से घर न जाकर सीधे गंगाघाट पर आ गया| स्कूटी खड़ी की और  बढ़ता हुआ उसी तरफ़ चला, जहाँ कुहू जी अक्सर मिल जाती थीं| कल शाम कॉफ़ी हाउस में वे  मेहमानों और प्रशंसकों से घिरी नज़र आई थीं| मैं उनके आमंत्रित मेहमानों में नहीं था, हालाँकि केक काटते समय सभी उनके इर्द-गिर्द बुला लिए गए थे| ‘क्या मुझे उनसे मिलकर लौटना था? अब, अभी शाम को गंगा तट पर मुलाक़ात होगी ही, फिर जन्मदिन और साहित्य-सम्मान दोनों की बधाई दे दूँगा| मैंने इधर-उधर देखा, फिर घड़ी पर नज़र दौड़ाई| ‘साढ़े छह बज चुके| शायद कहीं गई हों|’ मन को समझाता हुआ टहलता रहा| हर आहट चौंकाती रही| मगर कोई आहट उनकी न थी| शाम ढल गई| क्षितिज गोधूलि बेला की सूचना देने लगा| आसमान का धूसर रंग गहराने लगा| जाने क्यों, भीतर कुछ खोया-सा लगा| एक अनसुलझी बेचैनी मन को चारों तरफ़ से घेरने लगी| घड़ी ने साढ़े सात बजने की सूचना दी तो थके मन से स्कूटी की तरफ़ बढ़ा|
संजय!” उसे गाड़ी में देखहाथ हिलाकर रुकने का इशारा किया
वो कुहू जी …”
वो तो गईं| अभी एयरपोर्ट से ही लौट रहा हूँ|”
चली गईं?” मेरी हैरानी से वह हैरान हुआ|
 “बताया भी नहीं!”
सॉरी, मगर उन्होंने बताना ज़रूरी नहीं समझा होगा, तभी नहीं बताया|”
      संजय ने खुले दिल से बात कही और गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ गया|  
      कोई काँटा रह-रहकर मेरे मन के भीतरी परत में चुभने लगा| पिछले वर्ष फोन पर हुई बातें  याद आईं जब प्रयागराज से गुज़रते हुए उन्होंने  कहा था,  “मुझे लगा, तुम्हें बता दिया है तो तुम यहीं कहीं प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार कर रहे होगे| इसलिए किसी और को नहीं बताया|” 
  “जी, आप जब प्रयागराज आएँगी तो मिलूँगा ही और घुमाऊँगा भी|”  कहते हुए मैंने अपने भाव छिपाए थे
     पिछले साल वे तीन दिन रुकीं मगर मैं मिलने तक नहीं गया था| उस भूल के बाद आज यह उम्मीद पाले रखना कि संबंध पहले जैसा स्वस्थ होगा, महज़ बेवकूफ़ी है| उन्होंने कभी दिल तोड़ने वाली बात नहीं की, मगर आहत मन के भीतरी दरवाजे से बाहर धकेले जाने का एहसास दे गईं| मैं धकियाया-हारा हुआ-सा स्कूटी स्टार्ट करने लगा| दूर कहीं कवि रहीम का दोहा बज रहा था—     रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय……
संपर्क :
डॉ. आरती स्मित 
निवास : दिल्ली, भारत
मोब.    8376836119
ईमेल.  [email protected]
ब्लॉग.  https://smitarti.wordpress.com/


आरती स्मित
आरती स्मित
तीन कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, दो बाल साहित्य, दो आलोचना संग्रह, 40 से अधिक पुस्तक अनुवाद, धारावाहिक ध्वनि रूपक एवं नाटक, रंगमंच नाटक लेखन, 20 से अधिक चुनिंदा पुस्तकों में संकलित रचनाएँ, बतौर रेडियो नाटक कलाकार कई नाटकों में भूमिका. विभिन्न उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में सतत लेखन. सत्यवती कॉलेज,दिल्ली में अध्यापन. सम्पर्क - [email protected]
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8 टिप्पणी

  1. सूर्यास्त के बेहतरीन सौंदर्य वर्णन के साथ आपने कहानी का प्रारंभ किया है आरती जी!. प्रारंभ ही बेहद खूबसूरत था। फिर वही सौंदर्य क्रमश: आगे गोधूलि बेला का रहा। पंत की तरह प्रकृति के चितेरे आपको भी कहा जा सकता है इस रचना के लिये।

    कहानी में जिन बातों ने अधिक प्रभावित किया-

    *”सच्चा इन्सान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने आपसे नज़र मिला सकने योग्य बना रहना चाहता है|”*

    *”दिल से जुड़े संबंध सहज होते हैं| वहाँ इंसान बिना गार्डेड हुए खुलकर जीता है|”*

    *“जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं – होने चाहिए जहाँ इंसान खुलकर जी सके, बात- बेबात खिलखिलाकर हँस सके; जहाँ वह ख़ुद को सहज अनुभव कर और करा सके| इसका यह अर्थ कतई नहीं होता कि वह विचारवान नहीं, संवेदनशील नहीं, प्रज्ञाविहीन सतही व्यक्ति है| इसका यह भी अर्थ नहीं कि दृष्टिकोण के विस्तार में संकुचन आ गया| एक व्यक्ति जीवन के विशेष पड़ाव पार करता हुआ आगे बढ़ता है और वह जीता सिर्फ़ आत्मिक पलों को है।”*

    *स्नेहिल संबंध की कोई उम्र नहीं होती| मुझसे तीन-चार दशक बड़े भी मुझसे सहज संबंध जोड़कर ख़ुश रहे| उनकी सहजता मैने कभी नापने की कोशिश नहीं की| सहज व्यवहार बंद परतों को खोलता है और अनायास नहीं, धीरे-धीरे दुनिया को देखने–समझने की परिपक्वता बढ़ जाती है क्योंकि वहाँ खुलकर तर्क की गुंजाइश रहती है| किसी बिंदु पर बहस और विमर्श अलग-अलग कोण से विषय को देखने–समझने के लायक दृष्टि को विस्तार देता है| वे छोटी-छोटी बातें जो बड़ों के लिए सामान्य होती हैं, हमारे लिए सीख बन जाती हैं| अंतरंग संबंध आसमान हो जाता है—स्वच्छ, पारदर्शी और निष्कलुष| बशर्ते यह एकतरफ़ा न हो|”*

    *“ईश्वर के प्रति समर्पण का बीज अखंड विश्वास या आस्था में होता है | ईश्वर के प्रतीक के सामने हम बिलकुल सहज होते हैं; बिना गार्डेड हुए, बिना सजगता और नाप-तोल के अपनी प्रार्थना के दीप जलाते हैं… जबकि देखा उन्हें भी नहीं है| माता-पिता, भाई-बहन, स्कूल- कॉलेज के मुट्ठी भर दोस्तों के साथ भी ऐसा ही संबंध होता है| जीवन संबंध की सुगंध को यहीं क़ैद नहीं करता| इस राह पर कुछ राहगीर कुछ समय के लिए मिलकर भी हमेशा के लिए दिल में अपनी जगह बना लेते हैं|“*

    किसी भी कहानी के इतने उदाहरण हमने कभी टिप्पणी में नहीं रखे। पर आप की कहानी थोड़ी अलग है यहाँ जितने भी उद्धृत कथ्य हैं, यह वास्तव में समझने की बात है सभी के लिये ।
    पूरी कहानी को पढ़ने के बाद शीर्षक की महत्ता समझ में आती है कि वास्तव में *रहिमन धागा प्रेम का* शीर्षक इसके लिए बिल्कुल सटीक था।
    आपकी कहानी आपके मंतव्य की गहराई को प्रस्तुत करने में सफल रही। यह आपकी लेखिकीय बौद्धिकता और उत्कृष्ट वैचारिकता का प्रतीक है।
    एक बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ आरती जी!

  2. कमाल की कहानी है रश्मि जी । कभी-कभी ही पढ़ने को मिलती हैं ऐसी कहानियाँ। कहानी दो तरह की होती हैं। एक जमीनी धरातल पर लिखी हुई कहानी, दूसरी मानसिक धरातल पर लिखी हुई कहानी। आपकी यह कहानी दोनों धरातलों पर लिखी गई है और शायद इसीलिए इसका स्तर खुद ब खुद उठ गया है। बहुत कुछ कहती हुई समसामयिक कहानी है। अपने कहानी में संवेदना जागृत करने के लिए प्रकृति का बहुत ही सुंदर प्रयोग करा है। बधाई स्वीकारें।

  3. कमाल की कहानी है आरती स्मित जी । कभी-कभी ही पढ़ने को मिलती हैं ऐसी कहानियाँ। कहानी दो तरह की होती हैं। एक जमीनी धरातल पर लिखी हुई कहानी, दूसरी मानसिक धरातल पर लिखी हुई कहानी। आपकी यह कहानी दोनों धरातलों पर लिखी गई है और शायद इसीलिए इसका स्तर खुद ब खुद उठ गया है। बहुत कुछ कहती हुई समसामयिक कहानी है। अपने कहानी में संवेदना जागृत करने के लिए प्रकृति का बहुत ही सुंदर प्रयोग करा है। बधाई स्वीकारें।

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