Tuesday, September 17, 2024
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डॉ पद्मावती की कहानी – कार क्रय यज्ञ

हुआ यूँ कि जब जानकी दास जी ने अपनी कई  वर्षों की  अंतहीन दुर्भर प्रतीक्षा के बाद यह निर्णय लिया कि  अब समय आ गया है कि हमें  भी एक  चौपहिया वाहन खरीद लेना ही चाहिए । दरअसल बचपन से  अब तक उन्हें   किसी भी वाहन को चलाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था । स्मृति कोश के डिब्बे को खंगालने पर  भी कभी कोई वाहन चलाने का अनुभव  स्मरण में नहीं आता था  । इसके पीछे एक रहस्य  था और  वह यह कि उनके पूज्य पिताश्री जी को किसी ज्योतिषी  ने आगाह कर दिया था कि उनके इकलौते बेटे यानि कि जानकी दास  को वाहन से खतरा उपस्थित हो सकता है  और चालीस साल पहुँचने तक यह दुर्घटना कभी भी हो सकती है । 
तो पिता जी ने दुर्घटना के भय से  बचपन में तिपहिया साइकिल भी खरीद कर नहीं दी थी जिस कारण  वे  अपने  दोस्तों की साइकिलों पर  ही अपना बचपन और लड़कपन  गुजार चुके थे । अब उम्र के इस दौर पर उस विश्वास की सीमा पार कर चुकने के पश्चात  उस ओर से तो वे  निश्चिंत  हो गये  थे लेकिन अब इससे भी बडी अड़चन उनके  रास्ते में आ रही थी और वह थी  उनकी आजीविका से प्राप्त होने वाली कमसिन नाजुक सी उनकी ‘मासिक आय’ । 
शापग्रस्त विंध्याचल की तरह कभी न बढने का प्रण लिए हुए हर परिस्थिति में निर्विकार सी बनी रहने वाली  उनकी आमदनी  के साथ यह ज्यादती ही होती कि वे अपनी आय का  एक मोटा हिस्सा वाहन ऋण की किस्तों की भेंट चढा देते  लेकिन  हमेशा यह दुख उन्हें खाए जाता था  कि अब और कब दिन फिरेंगे ,कब तक इच्छाओं  का दमन करते जीएंगे, कब तक इस पापी मन को समझाते रहेंगे ,  चिलचिलाती धूप में  पसीने में नहाए आवागमन के लिए  कब तक बसों के धक्के  खाते रहेंगे ?
लेकिन जवाब शून्य! 
 इस बात का रंज तो था उन्हें कि उनके  पास कोई वाहन नहीं है लेकिन यह पीडा तो और भी असहनीय बन जाती जब  उनके ही ऑफिस में किसी दूसरे अनुभाग में कार्यरत  एक पायदान नीचे का कनिष्ठ सहयोगी मि.शर्मा, जो दुर्भाग्य से अब उनका पडौसी था, अपनी हाल ही में खरीदी गाडी को सुबह सुबह  गर्व से धोते  चमकाते  एक अपमानजनक मुस्कान  उनकी ओर फेंक कर रोज हाथ हिलाता हुआ उनका अभिनंदन करता था  । 
       वह भाग्यशाली था , उसका परिवार छोटा था इसीलिए  सुखी  था और वहीं इनका  भाग्य देखिए , इनके परिवार में सदस्यों की संख्या पाँच ..ये महाशय,  , इनकी अर्धांगिनी और दहेज में अपने साथ लाई दो निकम्मे मुशटंडे शरणार्थी भाई जिन्हें  उनके घरवालों ने नौकरी की तलाश में यहाँ भेज दिया था लेकिन उन्हें  न नौकरी  ही  मिली न विवाह ही हुआ , अब तो यहीं स्थाई रूप से जम कर बैठ गए थे । और उनके अलावा इनका  नाम रोशन करने वाला  एक सपूत  ।  तो  पाँच  प्राणियों का खर्चा इनकी इकलौती आमदनी उठा रही थी ।
   लेकिन दिल पर आरियाँ तो तब चलती थी   जब शाम को  जानकी दास जी ऑफिस के बाद थके हारे बस स्टॉप पर खडे होकर आती जाती बसों के नंबर ढूँढ़ रहे होते और मि. शर्मा अपनी वातानुकूलित  गाडी में फुर से उनके  सामने से निकल जाता । बदतमीज को इतना भी नहीं ध्यान कि रुक कर उन्हें  बुला ले , एक आध बार ही सही उन्हें भी अपनी गाडी में बिठा कर घर छोड दे । न । बिल्कुल नहीं । 
जानकी जी  गुस्से और अपमान में भुन जाते और मन ही मन ईश्वर से कुडते हुए गुहार लगाते कि ….हे भगवान ! इस शर्मा नामधारी जीव को आपने  इस ग्रह पर क्यों पैदा किया और अगर किया तो क्यों हमारे ही ऑफिस में लगाया, अगर लगाया तो क्यों हमारा पड़ोसी बनाया, अगर बनाया तो क्यों उससे कार खरीदवाई ? 
अब उनके  इस अगर- क्यों का जवाब उस ईश्वर के शब्दकोश  में  तो था नहीं , वे निरुत्तर हो गए थे । शायद उन्हें अपनी गलती का अहसास भी हुआ हो । अब ‘उन्हें’ अपराध बोध से बचाने का एक ही मार्ग था जानकी दास जी के सामने-और वह यह  कि  अपने  लिए तत्काल एक नई चकाचक कार खरीदने की व्यवस्था करना  !
तो आरंभ हुआ उनका ‘कार क्रय यज्ञ’ । 
जमा घटा हिसाब लगाने की प्रक्रिया आरंभ हुई  । पूँजियों को खंगाला गया । तपेदिक ग्रस्त रोगी समान  दिखने वाली उनकी भविष्य निधि की दुबली पतली रकम  मुँह चिड़ा रही थी । उससे कुछ बनने वाला तो नहीं था । अंततः  बहुत सोच विचार कर वाहन ऋण  लेने का निश्चय किया गया । बजट याचिका  तैयार की गई  । समीकरण बिठाए गए । आगामी वर्षों में गृहस्थी में होने वाली कटौतियों को रेखांकित किया गया । संभावित अनावश्यक खर्चो पर कडे प्रतिबंधों का विधान रचा गया । और इस प्रकार ‘कार क्रय यज्ञ’  में परिवार के हर सदस्य ने अपनी  अवांछित इच्छाओं और आकांक्षाओं की आहूति देने की प्रतिज्ञाएं  लीं । तब जाकर जानकी दास जी ने  सब औपचारिकताओं की पूर्ति की । कार का चयन हुआ । राशि भरी गई । और कार घर लाने का शुभ मुहूर्त देख पंद्रह दिन के बाद की तिथि निर्धारित कर दी  गई । 
अब उनके  सामने एक नई समस्या आई ड्राइविंग सीखने की । अब तक तो कभी साइकिल भी न चलाई थी । तो पेशेवर स्कूल जाना ही उचित समझा ।वे  निकले ड्राइविंग स्कूल की तलाश में । एक नुक्कड़ पर ‘जेड ड्राइविंग स्कूल’  का बोर्ड देखकर पांव ठिठक गए । लेकिन उसके ठीक नीचे कोष्ठकों में लिखा था, ‘यहाँ शव-वाहन की व्यवस्था  भी उपलब्ध है’ । बोर्ड उन्हें बड़ा अटपटा सा लगा । अंदर जाने की सोची और सामने लगे  काँच के दरवाजे को  धकेल कर  वे अंदर घुसे । उनके अंदर आते ही वहाँ बैठे सज्जन मुसकुराए और बोले, ‘कहिए श्रीमान आप क्या चाहते है’? 
उन्होंने कमरे का मुआयना करते गंभीर स्वर  में  पूछा   …, ‘यह क्या बेहूदगी है साहब, यह ड्राइविंग स्कूल है या नही? यह बाहर बोर्ड पर क्या लिखा है?’
अब तो वहाँ बैठे सज्जन के  चेहरे पर भी गंभीरता उभर आई । । भोहें थोड़ी  सिकुड सी गई । लेकिन अगले ही क्षण सायास मुस्कुराहट चेहरे पर प्रदर्शित कर बोले,
‘ओह तो आप ड्राइविंग सीखने आएं है। दरअसल हम भाइयों का संयुक्त व्यापार है तो दो- दो बोर्डों पर अनावश्यक खर्च को बचाने के लिए हमने एक ही बोर्ड बनवा दिया । वैसे आपको इस बारे में परेशानी नहीं होनी चाहिए। कहिए हम आपकी क्या सेवा कर सकते है’ ? 
उन्होंने  अपनी आवश्यकता बता दी । उन्हें  ड्राइविंग  पैकेज की जानकारी दी गई जिसमें पाँच हजार रुपयों में  ड्राइविंग के साथ- साथ लाइसेंस भी देने की व्यवस्था थी । भुगतान कर दिया गया । अगली  सुबह आने का निर्देश दे दिया गया । 
अगले दिन वे  पहुँचे ड्राइविंग सीखने । उनके  साथ और भी प्रशिक्षु बैठे थे । नियत समय पर  कक्षा शुरु हुई । सर्वप्रथम सभी अभ्यर्थियों को  कार के तंत्र की व्यवस्था का परिचय दिया गया । गति वर्धक, गति अवरोधक, गति उत्प्रेरक इत्यादि पर क्लास  हुई फिर गाडी में ड्राइविंग सीट पर बैठने को कहा गया । जानकी जी की बारी आई । उन्हें स्टीयरिंग वील पर बिठाया गया । कार स्टार्ट करने का आदेश मिला । उन्होने चाबी घुमाई और गाड़ी स्टार्ट हो गई । मन गर्व से फूल गया । मन ही नहीं , पेट भी स्टीयरिंग वील को छूने लगा और अतिशय उत्सुकता से वे उसे घुमाने का अभ्यास करने लगे लेकिन कुछ ही समय में उन्हें भान हो गया कि गाडी का पूरा नियंत्रण तो बगल में बैठे प्रशिक्षक के पाँव तले है । मन को धक्का सा लगा पर फिर सोचा यह  ठीक भी था । आखिर गाडी का वह मालिक था । वे  तो बस कठपुतली समान  हाथों को ही घुमा रहे थे ।  निर्देश दिया गया था कि पहले प्रथम गियर पर आओ फिर दूसरे तीसरे और फिर चौथे पर । अब गियर के साथ गति का क्या  संबंध होता है यह तो उन्हें बहुत देर बाद समझ आया पर अब तो देरी की गुंजाइश न थी , जो कुछ सीखना था जल्दी सीखना था तो अनावश्यक उतावलापन दिखलाते वे बोल उठे,   ‘भाई साहब यह एक दो तीन  क्या चीज है, सीधा चार पर चढा दूँ गाडी? 
प्रशिक्षक के चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई । नथुने फुलाते वे  बोले, ‘सरजी यह कलाबाजियाँ तो अपनी गाडी पर ही दिखाना । आप जैसे कुशल कलाबाजों  के कारण ही हमारे मालिक के भाई का धंधा दिन दुगुना रात चौगुना  हो  रहा है’। 
आख़िर पंद्रह दिन पूरे हुए । जानकी दास जी  तीस मार खाँ बन गए ड्राइविंग कला के और एक शुभ दिन  गाडी भी शो रूम से घर लाई गई ।
गाड़ी की पहली यात्रा में मंदिर जाना निश्चय किया गया ।   सो वे ऑफिस से जल्दी ही आ गए । देखा घर के सभी सदस्य बारातियों की वेशभूषा से सुसज्जित मिठाई, फूल चंदन रोली निम्बू हरी मिर्ची से भरी थाल लेकर उनकी  प्रतीक्षा कर रहे थे । कार को कुमकुम चंदन का टीका लगाया गया, निम्बू मिर्चों का हिंडोला बम्पर पर बांधा गया, आरती उतारी गई फिर हर एक पहिए कि नीचे निम्बू रखकर जानकी दास जी गाडी में  परिवार समेत विराजमान हुए । 
उन्होंने  गाडी स्टार्ट की , श्रीमती ने घंटावादन किया, सब लोगों ने सामूहिक स्वर में ओम की ध्वनि निकाली, लेकिन गियर तुरन्त छोड़ देने के कारण एक धचके से गाडी आगे बडी और रुक गई । सब प्रश्न सूचक दृष्टि  से उन्हें देखने लगे  लेकिन साहस बटोरकर उन्होंने अबकी बार सबको चुप रहने की हिदायत दी और मन ही मन प्रभु का ध्यान कर गाडी स्टार्ट की । गाडी स्टार्ट हुई  धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी । सबके चेहरे गर्व मिश्रित  संतोष की दमक से चमकने लगे । जानकी जी  दस बीस की गति से बढे चले जा रहे थे। गाडी मुख्य मार्ग  पर आ गई । उनकी कच्छप  गति पूरे यातायात को बाधित कर रही थी पर वे  अंजान बने अपनी ही धुन में चले जा रहे थे । कुछ वाहन चालक उन्हें गालियाँ बकते निकल रहे थे , कुछ हाथों से इशारे करते उनका  ध्यान भंग करने की कोशिश में लगे थे लेकिन वे भी एकनिष्ठ और एकाग्र होकर  केवल रोड पर ध्यान केंद्रित कर  बढे जा रहे थे , उन लोगों की  तरफ आँख उठाकर भी न देखते थे । 
आखिर एक सिगनल आया । उनसे  पहले की गाडी फुर से आगे चली गई । उन्होंने  भी आगे निकल जाने की कोशिश की पर गतिमापक पर  बीस की गति के होने के  कारण वे जब तक  सड़क के बीचों बीच पहुँचे , लाल बत्ती आ चुकी थी और तब तक चारों तरफ से गाडियाँ आवाजें  करती हुई उनके दाएं बाएं से निकली जा रही थी और वे  बीच में गाडी रोके हक्के बक्के बैठे थे । 
इतने में एक पुलिसवाला सबको नियंत्रित करता हुआ उनके  पास आया और  मार्ग दर्शक बन उन्हें सड़क के कोने में ले आया । उन्होने शीशा उतारा और पुलिस वाले की ओर प्यार भरी नज़रों से देखा । भारतीय पुलिस सेवा के प्रति उनका ह्रदय गदगद हो गया । इससे पहले वे शब्दों में अपना आभार प्रदर्शन करते ,  वर्दी धारी ने सिगनल तोड़ने के जुर्म में चालान किया,  पर्ची काटी और उनके  हाथ में धर दी । उन्होंने गाडी पर लगा  लाल चिन्ह दिखाकर अनुनय करने की नाकाम कोशिश की लेकिन सपाट सा उत्तर मिला…..
‘देखिए यह लाल चिन्ह आपको सिगनल तोड़ने का विशेषाधिकार नहीं देता’ । 
खैर जान बची, जुर्माना दिया । गाडी में बैठे सदस्यों ने ढाढ़स बंधाया, आश्वासन दिया कि पहली बार यह सब सामान्य है, धीरे धीरे  वे भी अभ्यस्त हो जाएंगे  बिना फंसे  सिगनल तोड़ने के । 
अब गाडी मुख्य मार्ग  छोडकर गलियों में आ गई थी । मंदिर नजदीक था । शाम गहरा गई थी । अंधेरा हो गया था । अचानक बादल भी घिर आए और पूरे मोहल्ले की बिजली गुल हो गई । गाडी के आगे अंधेरा छा गया । जानकी दास  भौचक्के से , कुछ सूझे नहीं कि आगे कैसे बढा जाए । इतना गाढा अंधेरा …पत्नी और  साले उन्हें  फोन की टॉर्च खोल कर रास्ता दिखाने लगे । अचानक गाड़ी की दाईं  खिड़की पर आवाज हुई ,’ठुक. ठुक…। 
उन्होंने  डरते डरते देखा, कोई परछाई खिड़की का काँच नीचे उतारने का इशारा कर रही थी । 
उन्होंने  काँच उतारा तो देखा, एक सज्जन खडे मुसकुराते हुए कह रहे थे,’श्रीमान गाडी की हेडलाइट्स तो जला लीजिए. वरना आगे से या पीछे से आकर कोई ठोक देगा”  । 
जानकी दास जी की  दिमाग की बत्ती जली और पता चला क्यों गाड़ी के आगे इतना अंधेरा था। 
अपने सालों की ओर देख  गुस्से से वे गुर्राए ,… 
“सालों, हरामियों हमें टॉर्च दिखा रहे थे, हेडलाइट जलाने की याद नहीं दिला सकते थे क्या? वैसे ही तनाव से रक्तचाप बढ रहा था और तुम बदमाशी कर रहे थे’?” 
‘जीज्जा, हमें क्यों ड़ांट रहे हो? क्या आपको नहीं पता यह साइकिल नहीं ,कार है कार ! और  कार की लाइट भी होती है’। खोंखों कर  सब की हंसी फूट रही थी । 
आखर कर जानकी दास जी सपरिवार  मंदिर पहुँचे , पूजा भी हुई , सही सलामत घर भी पहुँच गए ।
******* 
अगला दिन उनके जीवन का बड़ा ही खास दिन था ।  सुबह सुबह गाडी साफ करने या कहिए  मि. शर्मा को जलाने  जानकी जी बाहर निकले तो पाया शर्मा की गाडी कहीं नहीं  थी  । अचरज हुआ । धीरे से उसके मकान की ओर चले ।  ताला लगा था । पडौसी से पूछा तो पता चला कि शर्मा का तो तबादला हो गया था रायपुर , कल शाम को ही निकल गया था । दरअसल कार के चक्कर  में कुछ दिनों से ऑफिस ही  नहीं गए थे जानकी जी इसीलिए  खबर ही नहीं रही । 
धत तेरे की …..। वे  निराश  हो गए । वो प्रतिद्वंद्वी जिसे चिढाने के लिए इतना उपक्रम किया था , उनकी  गाडी देखने से पहले ही कूच कर गया । मन कसमसा कर रह गया । भारी कदमों से  लौट आए । लेकिन अचानक अपनी  चमचमाती गाडी को देखकर आनंदातिरेक से शर्मा के प्रति उनके  मन का मैल घुलकर पिघल गया । आखिर वह ही तो उत्तरदायी  था जिसके कारण इन्होंने  इतना बड़ा साहस या चमत्कार कर लिया था और जिसके परिणाम स्वरूप  इतनी प्यारी भेंट उन्हें  मिली थी । उन्हें अपनी गाडी पर और शर्मा पर एक साथ  प्यार आ गया । ईर्ष्या द्वेष सब धुल  गए । वे मन ही मन मि.शर्मा का आभार मानने लगे । शर्मा की उपेक्षा तो उत्प्रेरक का काम कर गई थी । उन्हें अपनी मूर्खता पर लज्जा अनुभव हुई । मन ही मन मुस्कुराए  और अब हल्के होकर  गाडी पर जमी  मैल भी धोने लगे जो कल रात की बारिश से लग गई थी ।
डॉ पद्मावती
डॉ पद्मावती
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु. विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, जन कृति, अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , स्मृति लेख , साहित्यिक आलेख ,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन. राष्ट्रीय स्तर पर सी डेक पुने द्वारा आयोजित भाषाई अनुवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत. संपर्क - padma.pandyaram@ gmail.com
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1 टिप्पणी

  1. कहानी हास्य व्यंग्य के करीब है पद्मा वती जी! अंततः कार क्रय यज्ञ संपन्न हुआ!।
    बधाई आपको।

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