Tuesday, September 17, 2024
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डॉ. रमेश यादव की कहानी – राजू इंजीनियर

मेरे लिए वास्तव में यह आश्चर्य का ही विषय था। पिछले तीन बरसों से मातहत के रूप में पेश आनेवाले मॅनेजर साहब आज इतने कैसे मेहरबान हो गए कि आधे घंटे में चपरासी को तीसरी बार भेज दिया मुझे बुलाने के लिए और वह भी कब, जब कांउटर पर ग्राहकों की भीड़ लगी हुए थी। 
       आखिर में पहली मंज़िल से उतरकर उनके केबिन में मुझे जाना ही पडा़। जाते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मजबूरी भला क्या न करवाती! जैसे ही मैं पहुँचा उन्होने बड़े ही स्नेह भाव से सामने की कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा, 
“येस मि. दिग्विजय प्लीज सीट ’’ 
“येस सर” कहते हुए संकोच में बैठ गया और सवालिया नजर से उनकी ओर देखने लगा। कुछ देर पश्चात उन्होंने अपनी दराज से ब्लॅकबेरी का अपना मोबाइल निकाला और मेरे सामने रख दिया।  
      बोले, “यार क्या ज़माना आ गया है! साला, सबसे ज्यादा प्राब्लेम में तो कस्टमर ही है। पैसा हाथ में लेके जाओ तब भी ब्रांडों के बीच में बैठते हुए डर बना रहता है, कि जिस चीज पर हजारों रुपए खर्च कर रहे हैं वो पता नहीं कैसी निकलेगी! वेरी बॅड यार, अब देखो ना साल भर पहले ये आईफोन लिया और साली अब तो इसकी आवाज ही गायब हो गई है। कंपनी के पास गया तो टाल – मटोल करने लगे। कंम्लेंट पर कंम्लेंट की। तब तक वारंटी पीरिय़ेड बीत गया। अब वही कंपनी वाले इसे ठीक करने के लिए तीन हजार रुपए मांग रहे हैं। बताओ क्या जमाना आ गया है बाजा़रवाद का !’’  
     उन्होंने मेरी तरफ यूँ देखा गोया मुझसे अपनी तकलीफ पर मरहम चाहते हों। लेकिन मैं क्या बोलता ! फिर भी मेरे मुँह से निकल गया – “हाँ सर आप ठीक कह रहे हैं ।”   
    जैसे कुंठा से भरी हुई किसी दुखी आत्मा को सहानुभूति के दो शब्द रुई के विशाल फाए की तरह आराम पहुँचाते हैं वैसा ही मॅनेजर साहब को मेरी हुंकारी से लगा।  
 “बताओ हम लोगों ने क्या सोचा था कि प्राइवेटाय़जेशन हम लोगों के जीवन को आसान बनाएगा, मल्टीनेशनल कंपनियां हमें गुणवत्तापूर्ण प्रॉडक्ट और सेवाएं प्रदान करेँगी।लेकिन जैसे-जैसे इस नए आर्थिक बाजार का जाल फैलते जा रहा है, निराशा होने लगी है। ये कंपनियां तो सेवा को बिल्कुल किनारे लगाती नजर आ रही हैं। ग्राहकों को पकड़ने के लिए प्रारंभ में तमाम राहत भरी सस्ती सेवाओं के साथ दस्तक देती हैं और हमें एडिक्ट बनाती हैं, फिर धीरे–धीरे अपनी मूल जाति पर उतर आती हैं और प्रॉडक्ट के दाम बढ़ा देती हैं, सेवाओं से मुंह मोड़ लेती हैं। सचमुच तब होने लगती हमें देश की चिंता, कहीं हम आर्थिक गुलामी का शिकार तो नहीं हो रहे हैं! खैर छोड़ो इन बातों को, यार दिग्विजय याद है तुमको वह राजू इंजीनियर जो हमारे बैंक में कुछ महीने पहले लोन लेने आया था। तुम्ही तो ले आए थे ना उसे ! चलो आज शाम उसके पास चलते हैं। इस आईफोन का इलाज जो करवाना है !” “जी सर ” कहते हुए मैं वहां से उठा और अपने काउंटर की ओर बढ़ गया। मेरा मन काटने को दौड़ा, कैसे न याद रहता ! उसकी याद आते ही याद आ जाती है – जीवन की पाठशाला जो आदमी को किताबों की तुलना में कुछ ज्यादा सिखाती हैं। मेरी आँखों के सामने उस राजू नामक नौजवान का चेहरा नाचने लगा जो ज़िंदगी की विषम परिस्थितियों से गुजरते हुए शायद सफलता के आसमान को नहीं छू पाया।  पर मेरा मन कहता है उसके पास हुनर है, आज नहीं तो कल वह जरूर बुलंदी को अपनी मु्ट्ठी में बंद कर लेगा।  
         मैं गत स्म्रृतियों में खोता चला गया। यादों के इस उजाले पर मीलों तक दुख और पछतावे की काई नजर आ रही थी। रोज की तरह उस दिन भी दौड़ते – हांफते मैं बैंक पहुँचा। मेरे पहुंचने से पहले ग्राहक काउंटर पर खडे़ थे हमेशा की तरह। कमबख़्त मुंबई का ये आपाधापी भरा जीवन और तमाम पीडा़ओं से भरा लोकल ट्रेन का सफर ! पोर–पोर टूट जाता है इस सफर में। अति आवश्यक प्रक्रियाओं को निपटाते हुए मैं ग्राहकों की सेवा में जुट गया। कुछ देर बाद भीड़ हल्की हुई, और मैं राहत की सांस छोड़ते हुए इत्मीनान के साथ बगलवाली खिड़की से बाहर झांकने लगा।  
       उस कॉलेज के गेट पर लगा एटीएम  सेंटर मुझे सुकून दे रहा था। भला हो उस इंसान का और उस व्यवस्था का जिसने इस मशीन को बनाया और आज ग्राहकों के साथ–साथ हम जैसे बैंक कर्मियों के भी कष्टों का निवारण कर गया। कितना परिवर्तन आ गया है आजकल की बैंकिंग में, सचमुच जमाना बदल गया है ना !
      अचानक आई नमस्कार, की आवाज ने मेरी मग्नता को भंग किया। सामने देखा तो राजू इंजीनियर खड़ा था। इशारे से मैंने उसे सामने वाले सोफे पर बैठने के लिए कहा, और कुछ आरटीजीएस के स्लीप पोस्ट करने लगा। फुरसत पाते ही मैंने बगल के सहकर्मी मित्र से इजाजत ली और अपने काउंटर की जिम्मेदारी उसे सौपते हुए राजू को लेकर मैं सीनियर मॅनेजर के.वी.एस.आर. वेणुगोपाल के केबिन में गया। इतने लंबे नाम से लोग हैरान हो जाते हैं, पर हमें तो अब आदत पड़ चुकी थी। साहब फाइलें निपटाने में लगे थे। मुझे देखते ही पूछा –
   “येस मि. दिग्विजय क्या बात है! हॅव अ सीट प्लीज और ये साथ में कौन हैं? प्लील वेलकम।’’
“सर ये राजू इंजीनियर है, आपसे मिलना चाह रहा था, आगे हनुमान गली के नुक्कड़ पर इसका करोबार है।  दरअसल लोन के सिलसिले में यह आपसे कुछ बात करना चाहता है, इसलिए इसे लेकर आपके पास आया हूँ। ” मेरे इस कथन पर कुछ प्रश्नार्थक होते हुए मॅनेजर साहब बोले, “अच्छा तो आप इंजीनियर हैं, क्या करोबार है आपका और ये हमारे दिग्विजय जी को कैसे जानते हैं आप?’’ जब भी कोई कर्मचारी किसी ग्राहक को लोन के सिलसिले में मॅनेजर के पास ले जाता है तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से फेंका जाता है, जिसकी मुझे अपेक्षा थी। 
        “ नहीं सर, मैं वो वाला इंजीनियर नहीं, मैं सिर्फ नाम का इंजीनियर हूँ, मेरा नाम राजू श्रीवास्तव है और मैं इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों की रिपेरींग करता हूँ, इसलिए  प्यार से लोग मुझे राजू इंजीनियर कहते हैं।  ये भाई साहब मेरे पुराने ग्राहक हैं, और अब एक अच्छे मित्र भी हैं। हाल ही में जब मुझे पता चला कि ये बैंक में साहब हैं, तो मैं इनके पीछे पड़ गया आपके पास ले आने के लिए।  ” 
    “ अच्छा बताओ मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?’’   
    “ दरअसल इस समय मुझे दस लाख रुपयों के लोन की सख्त़ जरूरत है, यहीं पास में ही मेरी गुमटीनुमा दुकान है, जो मैंने किराये पर ली है, उसका एग्रीमेंट पूरा हो गया है, और उसका मालिक अब इसे आगे बढा़ना नहीं चाहता है, वैसे अब ये जगह मुझे छोटी पड़ने लगी है। मैं भी नई जगह की तलाश में था, प्रभु की कृपा से बगल में ही दूसरी दुकान मिल रही है, जो मुझे पसंद है। इसे लेने में कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं सर, लोन देकर यदि इस समय आप मेरी मदद कर देंगे तो ज़िंदगी भर मैं आपके इस एहसान को नहीं भूलूँगा।  आपकी इस कृपा से मेरा कारोबार बढ़ जायेगा, ग्राहकों के कीमती सरो-सामान भी हिफाज़त से रख पाऊंगा।  आप यकीन मानें मैं लोन को समय पर चुका दूँगा, शिकायत का कोई मौका नहीं दूँगा। मैं पढ़ा- लिखा हूँ, डिप्लोमा किया है मैंने। इस समय अच्छा खासा कमा रहा हूँ मैं सर ! बस आपके सहारे की जरूरत है, बड़ी आशा से आया हूँ आपके पास !”  
       राजू की आँखो में एक सपना था, एक आत्मविश्वास था, जो इस समय साफ-साफ नजर आ रहा था, कुछ उम्मीद भरी नजरों से मैंने साहब की आँखो में झाँकने का प्रयास किया और अपनी बात रखी –
       “ सर राजू बड़ा ही होनहार और ईमानदार कारीगर है, इसके हाथों मे वो हुनर है जो किसी काबिल इंजीनियर के पास भी नहीं होगा। इस बात को मैंने खुद आजमाया है। पिछ्ले साल मैं अपने लॅपटॉप की रिपेंयरींग को लेकर बड़ा परेशान था, कई लोगों को दिखाया, पर संतुष्टि नहीं हुई, अंत में निराश होकर राजू के पास आया। इसे देखा तो मुझे लगा ये भी कुछ नहीं कर पाएगा। मगर साहब क्या बताऊँ महज एक घंटे में इसने उसे ठीक कर दिया, वह भी मामूली दाम पर। तब से मैं इसका मुरीद बन चुका हूँ। मेरे इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों का डॉक्टर अब यही है। ”  
      “ ओह दॅटस इट ! फाइन- फाइन। ”  
       अचानक किसी का फोन आ गया।  साहब फोन पर बिजी हो गए। कुछ देर बाद जब उन्हें हमारा ख्याल आया तो पुन: हमसे मुखातिब होते हुए बोले –
       “ तुम्हारे पास कोई पहचान पत्र, लाइसेंस, डिग्री, बैंक में खाता, आई.टी. रिटर्न फाइल, पॅन कार्ड, दुकान का एग्रीमेंट इत्यादि है क्या ? विजय तुम जरा सब चेक कर लो और इन्हे लोन का फॉर्म दे दो, साथ ही इनका खाता भी अपने बैंक में खोल दो, प्रस्ताव को सर्कल ऑफीस भेजना होगा। मैं कोशिश करता हूँ।”
       साहब के प्यार भरे शब्दों ने आशा की एक उम्मीद जगाई। एक मुस्कान आंखों में तैर गई। वह सपनों के रथ पर सवार हो चुका था। खुशी- खुशी हम दोनो केबिन से बाहर आए। मैंने राजू को चाय पिलाई और उसे सारे डाक्यूमेंट के साथ दूसरे दिन बैंक में बुलाया। 
      दो दिन बाद राजू तमाम कागजा़त के साथ सुबह-सुबह आ गया। अपने बैंक में खाता खोलने की प्रक्रिया मैंने अपने इंट्रोडक्शन के साथ पूरी कर दी।  फिर दूसरे दिन शाम को उसे बुलाया। वह समय पर आया।  मैंने सारे पेपर्स जांच कर लोन अनुभाग के अधिकारी नायर जी से बात करके लोन प्रपोजल का आवश्यक फार्म भर दिया। किसी दूसरे बैंक में उसका पचास हजार रुपयों का फिक्स डिपॉजिट था। राशन कार्ड ,पॅन कार्ड, डिप्लोमा सर्टिफिकेट, पुराने दुकान का एग्रीमेंट, फोन बिल, गुमास्ता लाइसेंस, गांव का वोटिंग कार्ड इत्यादि काफी कुछ था उसके पास।  नई वाली दुकान उसे पाँच साल के लिए ‘ लीव एन्ड लाइसेंस ’ पर लेनी थी, जिसके लिए पाँच लाख रुपए डिपाजिट देना था और पाँच लाख रुपए मशीनरी, औजार, फर्नीचर, वर्किंग कॅपिटल आदि के लिए चाहिए था। इस बात का जिक्र प्रपोजल में कर दिया।  आवश्यक कागजों में उसके पास नई दुकान का एग्रीमेँट और आई.टी. रिटर्न नहीं था। आवश्यकतानुसार इस बात का भी उल्लेख फार्म में कर दिया।   
          मॅनेजर साहब से पुन: बात हुई उन्होंने आश्वासन दिया कि वादा तो नहीं करता पर कोशिश जरूर करेंगे – जैसे कोई नेता चुनाव जीतने के बाद बोल रहा हो। इस जवाब को सुनकर राजू का चेहरा गिर गया। मैं उसकी भावनाओं को समझ रहा था पर मैं भी तो मजबूर था, जो करना था वो सब कुछ साहब को ही करना था। उन्हीं के रिकमंडेशन पर सब कुछ निर्भर था। अंचल कार्यालय के लोग इसी रिकमंडेशन पर काम करते हैं। खैर अब इंतजार के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। दरअसल ये      स्व-रोज़गार की योजना का प्रस्ताव था, जिसके तहत तमाम योजनाएं सरकार द्वारा घोषित की गई हैं।  इस वर्ग को बढ़ावा देकर सरकार देश की प्रगति में इन्हें शामिल करना चाहती है।
        इसके बाद लगभग चार महीनों तक राजू बैंक के चक्कर लगाता रहा। कभी स्टाफ नहीं, कभी साहब नहीं, कभी हड़ताल, कभी काम का लोड़ ज्यादा है, कभी भारत बंद, तो कभी बॅंलेस शीट का काम चल रहा है इत्यादि इत्यादि।  तमाम तरह के रोने और बहाने को सुनते – सुनते राजू के साथ मैं भी पक गया था। मगर क्या करता, अपने ही दांत और अपने ही होंठ थे, किसे दोष देता और किसका पक्ष लेता! मैं खुद एक चक्रवात में फंस गया था। इसी का नाम तो सरकारीकरण है।  अंचल कार्यालय में काम करनेवाले लोग अपने को जनरल मॅनेजर से कम नहीं समझते फोन करना भी गुनाह था।  यदि मैं अधिक फॉलोअप करता तो लोग समझते कि इनका कुछ पर्सनल इंटरेस्ट है। ले- देकर मैं राजू को भरोसा दिलाने का काम करता, यह सबसे आसान था। 
        राजू को लोन की जल्दी नहीं थी। नई दुकान का मालिक डिपॉजिट की रकम के लिए पीछे पड़ गया था।  इस बीच राजू ने अपना फिक्स डिपॉजिट तोड़कर उसे पचास हजार का बयाना दे दिया।  मगर इस दुकान के मालिक आगे-पीछे दो और पार्टियां नगद लेकर घूम रही थीं। व्यापार में तो इस तरह की सौदेबाजी होती ही रहती है। मेन बाजार में वह भी मौके की जगह, इस पर तो कइयों की नज़र गड़ी रहती है।
        पहली दुकान को लेकर भी ऐसा ही मामला था। कोई अन्य व्यापारी राजू से अधिक किराया और डिपॉजिट देने को तैयार था। राजू ने अधिक किराया देने से इनकार कर दिया था, और इस बात को लेकर उन दोनों में कुछ अनबन हो गई थी। अत: महीने– दो महीने के भीतेर जगह छोड़ने की नौबत आ गई थी।  इधर नए दुकान मालिक सरफराज़ खान ने अब तो अल्टीमेटम दे दिया था कि बीस दिन के भीतर यदि राजू एग्रीमेंट नहीं करता है तो वह किसी और से बात तय कर लेगा और बयाने की रकम भी नहीं लौटाएगा। दिन प्रति दिन राजू की मुसीबत बढ़ती ही जा रही थी।  इसका असर उसके रोज के रोज़गार पर हो रहा था।  अब वह विचलित हो चुका था।  अंदर से पूरी तरह टूट चुका था।  मैंने उसे समझाया कि मुसीबतें जब आती हैं तो एक साथ आती हैं, वह भी हर तरफ से।  इन सबको शांति से झेलते हुए आगे बढ़ना ही जीवन होता है।
        राजू की निगाह मेरे चेहरे को टटोल रही थी। आंतरिक तौर पर उसकी इच्छा थी कि मैं किसी तरह उसकी मदद करूं। या तो लोन जल्दी पास करवाऊँ या उसे कुछ उधार दे दूँ या फिर नए दुकान मालिक सरफराज़ खान से समझौता करवाऊँ।  इस बात को सिर्फ मैं समझ रहा था या फिर राजू। 
         साहब को एक दो बार मैंने समझाने की कोशिश की पर वो तो नियम पर उंगली रख कर बैठे थे। एक बार तो उन्होंने मुझे कह दिया कि बैंक भावनाओं पर नहीं पेपर पर चलती है। मैं शहर में नया आया हूँ और मुझे लोगों के बारे में विशेष जानकारी भी नहीं है।  तुम्हारे कहने पर ही मैंने इस प्रपोजल की स्वीकार किया है अब उसकी किस्मत जानें ! अंचल कार्यालय से मंजूरी पत्र आ जाता है तो हम आगे बढ़ेंगे।  
       मैं भी निराश हो चुका था। हजार–दो हजार की बात होती तो उधार दे भी देता पर यहां तो मामला लाखों का था। दुकान की सौदेबाजी में भला मैं कैसे पड़ सकता था! मुझे तो इस बारे में कोई जानकारी भी नहीं थी। मान लो मैं चला भी जाता हूँ और यदि खान मुझसे ये कहता है कि आप तो बैंक में हैं, और दोस्त भी, तो आप उधार पैसे क्यों नहीं दे देते! बैंकवालों को भला क्या कमी है! रोज पैसों से ही तो खेलते हैं, मेरा नुकसान क्यों करवा रहे हैं ? इन संभावित सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था।  अब मैं भी राजू से कन्नी काटने लगा था। उसे बैंक में देखता तो सीट छोड़कर कहीं बाहर चला जाता।  उसका चेहरा मुझसे देखा नहीं जा रहा था। ऐसे ही एक दिन वह आया और उसे देखकर मैं बाहर चाय पीने निकल गया।  चाय पीकर जैसे ही पैसे देने के लिए आगे हाथ बढ़ाया, किसी ने मेरा हाथ थाम लिया। देखा तो राजू था- “ सर मैं पैसे दे देता हूँ। ” कहते हुए उसने पैसे दे दिए और मुझे एक किनारे ले जाकर मेरे हाथ पर नोटों की एक गड्डी रखते हुए बोला,
      “ सर ये पांच हजार हैं, कम हो तो बताएं और दे दूंगा मगर मेरा लोन पास करवा दें, जिसको भी देना हो दे दें, मगर मुझे बर्बाद होने से बचा लें, मैं कहीं का नहीं रहूंगा, प्लीज सर अब मेरा भविष्य आप लोगों के हाथ में है। ” 
       मेरी आँखें नम हो गई थीं। पैसों की गड्डी उसे वापस करते हुए मैंने कहा, “ राजू तुम मुझे गलत समझ रहे हो, हम लोग वैसे नहीं हैं, बैंक में इस तरह का काम नहीं होता है। अगर नियम में बैठता है तो किसी के भी पांव छूने की जरूरत नहीं है। मेरा दिल कह रहा है कि तुम्हारा काम हो जाएगा।  हां देर हो रही है, ये बात सच है, मगर क्या करें हालत ही कुछ ऐसे हैं। एक तो त्योहारों का मौसम इसलिए छुट्टियां अधिक थीं, ऊपर से स्टाफ भी बहुत छुट्टी पर चल रहे हैं। मुझे लगता है एक दो दिन में तुम्हारा सॅंक्शन लेटर आ जाएगा। ” 
        अंतत: वह दिन भी आया जब साहब ने उसे बुलाकर कह दिया कि उसका लोन पास नहीं हो सकता क्योंकि अंचल कार्यालय ने इस प्रस्ताव को यह कहकर नकार दिया है कि उसके पास तीन वर्षों की इन्कमटैक्स रिटर्न फाइल नहीं है, और उसका हमारे बैंक में पास्ट बैंकिंग रेकॉर्ड नहीं है।  
        राजू का धैर्य टूट गया, वहीं बैंक में सबके सामने रो पड़ा।  उसकी चीख कातर थी।  हाथ जोड़कर वह कह रहा था, “ साहब मेरी मदद कर दें, मैं बर्बाद हो जाऊंगा, आप लोगों के भरोसे पर मैं इतने दिनों तक इंतजार करता रहा, मेरा बयाना डूब जाएगा सर, मैं सड़क पर आ जाऊंगा, अगर कहें तो मैं फर्जी पेपेर भी बनवा लूंगा, आप लोगों को पार्टी भी दूंगा, मगर मुझ पर रहम करें सर…”
        साहब ने उसे समझाते हुए कहा, “ आई एम सॉरी लेकिन इस मामले में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। ” 
      मैं राजू के चेहरे पर उभरी महीन से महीन भावनाओं को पढ़ने की कोशिश कर रहा था। आँखों को पोंछते हुए राजू बिजली की तरह सरपट मेरे सामने से गुजर गया।  मानों सारी दुनिया से आज विश्वास उठ गया हो।  उसकी उम्मीदों की चादर आज तार– तार हो गई थी।  
        मुझे अपने साहब पर गुस्सा आ रहा था, पर मैं भला क्या कर सकता था! मन ही मन मैं सोच रहा था कि बेरोजगारों के लिए स्व–रोजगार की कई योजनाएं सरकार घोषित करती है, मगर इस तरह छोटे- छोटे तकनीकी कारणों से यदि लोन के प्रस्ताव अस्वीकृत होते रहेंगे तो इस देश के गरीब, जरूरतमंद, होनहार युवाओं को आगे बढ़ने का मौका कैसे मिलेगा ?”   
       अनुभाग में जाकर मैंने लोन अधिकारी नायर से बात की तो उसने बताया कि राजू का लोन साहब के पावर के अंदर ही आता है, पर पिछली शाखा में कुछ फ्रॉड हो गया था, इसलिए साहब को चार्ज़शीट दी गई है, और उसकी जांच अभी चल रही है, इसलिए साहब किसी भी तरह की जोखिम से कतराते हैं।  
         अक्सर मैंने देखा है कि दूसरे राज्यों से तबादले के तहत आए अधिकारी प्राय: रिस्क लेने से कतराते हैं। आते ही वे लोग वापस जाने के लिए दिन गिनने लगते हैं। उनके सामने कई तरह की समस्याएं होती हैं, काम तो ये लोग मजबूरी में करते हैं। मुझे कोफ़्त हुई कि तबादले का यदि इतना ही डर लगता है तो ऐसे लोग प्रमोशन लेते ही क्यों हैं? इसमें आम ग्राहक की क्या गलती है? उसे तो उसका हक मिलना ही चाहिए।  
         नायर पेपरों में खो गया। साहब की ओर देखे बिना मैं अपने काउंटर की ओर बढ़ गया।  मन में बार – बार ख्याल आ रहा था कि साहब चाहते तो राजू का लोन पास हो जाता, मगर उनकी इच्छा ही नहीं थी मदद करने की। मेरा मन काम में लग नहीं रहा था। थकी पलकें शीघ्र ही यादों के झील में तैरने लगी।  
        मेरी आँखों के सामने वह दृश्य दौड़ गया जब एक साल पहले मैं अपने लॅपटॉप की रिपेयरिंग को लेकर परेशान था। सर्विसिंग सेंटर और कंपनी वाले इतना दाम बता रहे थे कि मैं पचा नहीं पा रहा था।  आखिर कुछ दिन पहले तक तो लॅपटॉप ठीक से काम कर रहा था। अचानक रोलिंग स्क्रोलर जाम हो गया और डिस्प्ले में कुछ खराबी आ गई थी।  इतनी-सी बात के लिए ये लोग तीन हजार रुपये मांग रहे थे, ऊपर से एक सप्ताह तक रखने की बात कर रहे थे, जो मैं कर नहीं सकता था। क्योंकि उसमें कुछ बहुत ही जरूरी डाटा स्टोर था।  कुछ गोपनीय मॅटर भी था। मुझे पूरा यकीन था कि खराबी ज़्यादा नहीं है, पर इन कंपनी वालों ने आम आदमी को लूटने का धंधा जो खोल रखा है। हैरान होकर मैं इधर- उधर घूमते हुए पान की दुकान पर पहुँचा। पान खाते हुए पान वाले से अपनी परेशानी का ज़िक्र किया।  पानवाले ने तुरंत सामने की गली की ओर इशारा किया और मुझे राजू इलेक्ट्रॉनिक्स जाने को कहा। कुछ आगे जाते ही हनुमान गली के नुक्कड़ पर मुझे वह साइन बोर्ड दिखाई दिया। मैं उसके पास पहुँचा और अपना लॅपटॉप दिखाया, ऊपर- नीचे देखते हुए उसने कहा कि मैं इसे ठीक कर दूंगा पर घंटे भर का वक्त लगेगा।  मेरी आँखें अविश्वास से फटी जा रही थी।  मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि साधारण– सा दिखने वाला यह 25-30 साल का युवक इसे ठीक कर देगा !मैंने चार्ज पूछा, तो उसने बताया कि खोलकर देखने के बाद ही बता पाएगा। चूंकि मरी नजरों के सामने काम करने वाला था इसलिए मैंने उसे इज़ाजत दे दी।  
         बड़े आत्मविश्वास के साथ उसने लॅपटॉप को खोला और देख परखकर दो पुरजे बदल दिए।  स्क्रोलर के वाल बेयरिंग को ठीक करते हुए उसने डिस्प्ले की जांच की। मुझे पूछकर एक और पार्ट बदल दिया और बड़े इत्मीनान के साथ उसने मुझसे कहा, “सर, अब आप इसे चेक कर लें और कुछ परेशानी हो तो मुझे बताएं – डॉक्टर सेवा के लिए हाजिर है। ”मैंने चेक किया – सारी परेशानी दूर हो गई थी।  मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।  मैंने चार्ज पूछा तो बोला, “आठ सौ रुपए सर।” मैं दंग रह गया – सिर्फ आठ सौ रुपए…अरे ये सोलह सौ भी मांगता तो दे देता। जो काम कंपनी वाले करने से कतरा रहे थे उसे इस बंदे ने चुटकी बजाते हुए कर दिया। अब मैं राहत की सांस ले रहा था। मैंने तहे दिल से उसे शुक्रिया कहा और जंग जीतनेवाली खुशी के साथ घर की ओर रुख किया।  
         मैं सोच रहा था कि दुनिया के किसी महान टेक्नॉलॉजिस्ट ने शायद इस मशीन की खोज की होगी और किसी एम.एन.सी. ने इसे लॉंन्च किया होगा, पर एक मामूली भारतीय कारीगर ने इसे चंद मिनटों में रिपेयर कर दिया। देश के इस भविष्य पर मैं फ़ख्र महसूस कर रहा था। मन ही मन उसे लाखों दुवाएं भी दे रहा था। उसकी ईमानदारी और काबिलियत को मैं अंदर से सलाम कर रहा था।  
       इसके बाद तो मैं राजू का फॅन बन गया। धीरे–धीरे मेरी पहचान उससे और बढ़ती गई। मैं बैंक में नौकरी करता हूँ इस बात की जानकारी के बाद तो वह पहले की अपेक्षा मुझे और इज़्जत देने लगा।  मैं भी हर किसी से उसका ज़िक्र करने लगा। जो भी कोई इलेक्ट्रॉनिक्स सामान की समस्या का ज़िक्र मुझसे करता मैं उसे राजू के पास भेज देता। इस बीच ना जाने कितने ग्राहक मैंने उसके पास भेजें।  किसी का मोबाइल तो किसी का कंप्यूटर, किसी का टेप तो किसी का आई–पॉड सबकी सर्विंसिंग उसने की। सभी लोग उससे प्रभावित थे। वास्तव में उसके हाथों में एक प्रकार की जादूगरी थी। कैसे भी खराबी हो राजू उसे ठीक कर देता था।  
      अचानक आयी किसी आवाज ने मुझे वर्तमान में लौटने के लिए मजबूर कर दिया। सामने देखा तो एक कस्टमर फिक्स डिपॉजिट की रसीद मांग रहा था। मैं पुन: अपने काम में लग गया। दरअसल शर्मिंदगी के कारण मैंने भी कई दिनों से राजू को फोन नहीं किया था, राजू भी उस दिन के बाद बैंक में नजर नहीं आया था।  
      शाम के पांच बज रहे थे। बैंक के लोग घर जाने की तैयारी कर रहे थे। मैंने सामने देखा मॅनेजर साहब हाथ में आई फोन  थामे मेरी प्रतिक्षा कर रहे थे। सुबह का वादा मुझे याद था। साहब को राजू के पास मोबाइल रिपेयरिंग के सिलसिले में जाना था तो मुझे इसी बहाने उसकी खोज खबर लेनी थी।  
      पैदल चलते हुए कुछ ही मिनटों में हम लोग हनुमान गली की नुक्कड़ पर पहुँच गए। मगर हमें ना तो वह साइन बोर्ड नजर आया, न ही राजू। पूछताछ करने पर पता चला कि इस गुमटी का एग्रीमेंट पूरा हो चुका था और गुमटी का मालिक राजू से पुन: करारनामा करने को तैयार नहीं था। पड़ोस की गुमटी वाले ने बताया कि राजू कारोबार बंद करके मुंबई से सदा के लिए अपने गांव चला गया था।  उसने बताया कि पैसों को लेकर खान से उसकी काफी कहा सुनी भी हो गई थी। मामला पुलिस तक चला गया था। आगे की बात दुकानदार नहीं जनता था, पर मुझे समझने में देर नहीं लगी।  
        यह सुनकर मेरे पैरों तले की ज़मीन खिसक गई, मॅनेजर साहब का चेहरा भी गिर गया था।  नि:शब्द होकर हम एक- दूसरे को निहारने लगे। नहीं चाहते हुए भी घुमड़ती पीड़ा की गठरी खुल ही गई थी।  चुप्पी तोड़ते हुए साहब बोले, “ यार दिग्विजय, मुझसे बड़ी भूल हो गई, आई एम सॉरी फ्रेंड। काश! उस समय मैं राजू की मदद कर देता तो आज उसके उजड़ने की नौबत नहीं आती। अपने टेंशन में मैंने राजू के प्रस्ताव पर ठीक से गौर नहीं किया। छोटी–सी रिस्क लेकर अगर राजू के प्रस्ताव पर पॉजिटिव रिमार्क्स दे देता तो राजू का लोन पास हो जाता और मुझे एक होनहार कारीगर को मदद करने का सुख मिल जाता। बड़े लोन के चक्कर में कई बार हम छोटे प्रस्तावों पर ध्यान नहीं देते। नाऊ आई एम फीलिंग गिल्टी। क्या राजू फिर लौट के आएगा!”
        छोटी–सी एक गलती ने देश के उस भविष्य को अंधेरे में ढकेल दिया था। उस समय मैं भी मजबूर था, साहब की सोच के आगे भला मैं क्या कर सकता था ! मैंने तो अपना काम कर दिया था, पर बॉस को भला कौन समझाता? 
        विचारों की एक भरपूर नदी मेरे अंदर बही जा रही थी। मैं स्तब्ध हो गया था। साहब के माथे पर चिंता की लकीरों को पढ़ रहा था। ज़िंदगी की तेज रफ़्तार में पीछे छूट जाने के गम ने कहीं राजू को ‘ सीजोफ्रेनिक’ तो नहीं बना दिया होगा और वह निराश होकर अपने गांव लौट गया हो! 
      घुटी-घुटी-सी, दबी दबी-सी आवाज सन्नाटे को चीर रही थी। मेरा मन कह रहा था राजू जरूर लौटकर आएगा और इस शहर में अपनी नई पहचान बनाएगा। डिग्री भले ही उसके पास न हो पर अपने हुनर से वह इंजीनियर है। इस शहर में लोग अपनी कला और हुनर बेचने आते हैं। यहां रत्नों के पारखी अनेक हैं जो कला – कौशल, हुनर और काबिल इंसानों को सर- आँखों पर बिठाते हैं। राजू की भी दुनिया शायद एक दिन बदल जाएगी, बुलंदी उसकी मुट्ठी में होगी।  
        भारी कदमों से हम बैंक की ओर बढ़ रहे थे पर रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा था। मौन की एक नदी हम दोनों के बीच बह रही थी।  बीता वक्त फिर चलने लगा, हौले- हौले।  समय के खोल में दुबकी स्मृतियां जादूगर के रिबन की तरह निकलने लगीं…..सर्र….सर्र…कानों में राजू की आवाज गूंजने लगी।
        साहब मेरी मदद कर दें…मैं बर्बाद हो जाऊंगा…आप लोगों के भरोसे पर मैं इतने दिनों तक इंतजार करता रहा….मेरा बयाना डूब जाएगा सर…। 
डॉ. रमेश यादव
मुंबई. 
फोन – 9820759088


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  1. बहुत ही मार्मिक कहानी है रमेश जी! पढ़ते हुए सारा दृश्य आंखों के सामने चलचित्र की तरह नजर आ रहा था! अभी तक दिमाग में राजू इंजीनियर घूम रहा है ऐसा लग रहा है जैसे बिल्कुल सत्य घटना है। इसलिए भी क्योंकि इस तरह की स्थिति में कई लोगों को देखा है। और बैंक वालों की हकीकत भी जानते हैं कई लोग तो बड़े ही बदतमीज होते हैं।
    एक बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयां सर

  2. मर्मस्पर्शी कथा।ऐसे कितने ही राजू बैंकों की लापरवाही के भेंट चढ़ गए।
    आशा है आपकी ये कथा कुछ कर्मचारियों को नींद से जगाएगी।

  3. बेहद मार्मिक। न जाने कितने ही नौजवानों के स्वप्न इन सरकारी नीतियों के कारण के कारण धूल -धुसरित हो जाते हैं। इन नियमों के सरलीकरण की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे कि फिर किसी राजू के साथ ऐसा न हो।
    काश! बैंक कर्मियों की नींद खुले। प्रेरक कहानी के लिए साधुवाद।

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