Tuesday, September 17, 2024
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डॉ स्वाति तिवारी की कहानी – आवाजें

एक दिन शाम के धुंधलके में किसी पक्षी की आवाज़ सुनाई दी । जिज्ञासा मुझे बगीचे तक खींच ले गई। यह आवाज़ आज दूसरी बार सुनने में आई थी। एक दिन पहले भी इसी वक्त यह आवाज़ आई थी, पर मैंने आवाज़ की उपेक्षा कर दी थी । जाकर देखा, तो मेरे घर के पीछे आजकल हर रोज़ हार्न बिल (धनेश पक्षी) का जोड़ा आता है । पहले भी आता रहा है, देखा भी था, फ़ोटो भी खींची, पर उनका संवाद कभी नहीं सुनाई दिया। यह आवाज़ इसी जोड़े की है जिसके बोलने से लगा कि वे संवाद कर रहे हैं। कम पत्तियों वाले पेड़ पर वे दोनों बैठे थे । एक आवाज़ निकालता, फिर दूसरे की तरफ़ देखता। थोड़ी देर में दूसरा भी बोलता … । आनंद आ रहा था उनकी इस गुफ़्तगू में । पुराने लोग कहते हैं कि यदि लगातार किसी दृश्य को देखो तो ध्वनी के कम्पन और उनकी बॉडी लेंग्वेज कुछ देर में आप समझने लग जाते है। दोनों दुनिया से बेख़बर अपनी ही दुनिया में मस्त लगातार अपनी लम्बी गर्दन और लंबी पूँछ हिला रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे एक ने कहाहवा साफ़ चल रही है। गर्मी के बावजूद मौसम खुशनुमा है । है ना! शुद्ध हवा तो जैसे सपना हो गई थी।” “हाँ! अचानक शहर से सब गायब हो गए ? कहाँ चले गए सब ? ‘एकांत-पार्कवीरान दिखाई दे रहा है। नंदन कानन तो आजकल पक्षी – विहार हो गया है ।
ओखला पक्षी-विहार में पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा और एनसीआर के शहरों के पॉर्कों से गायब तोते और दूसरी चिड़ियों की आमद शुरू हो गई । हरिद्वार में बताया गया कि राजाजी नेशनल पार्क से आया हाथी हर की पौड़ी के नज़दीक गंगा में स्नान कर रहा है। गंगा भी बिल्कुल निर्मल हो गई हैं।
अच्छा, ये ओखला की ख़बर तुम्हें भोपाल में कैसे मिली?”
कल शाहपुरा तालाब के पास जो आम का पेड़ है ना! मैं वहाँ चली गई थी, खट्टा आम खाने का मन था। वहाँ कुछ बगुले मिले थे। बता रहे थे, आसमान साफ़ है, कोई प्लेन नहीं उड़ रहा है चार दिन ओखला तक तफ़रीह कर आये । बड़ा आनंद आया ।
ओह! हम भी चलें क्या?”
मुझे भी कल चार इमली के नंदन कानन में मयूर नृत्य करते दिखे तो मैं बैठ गया देखने। मोर मोरनी से कह रहा था, “धरती कितनी सुन्दर है ! कैसी हरी-भरी लग रही है ! नंदन कानन इतना खूबसूरत होगा यह कल्पना नहीं थी मुझे ।मोरनी बोली, “होगा क्यों नहीं! प्रदेश भर के वीआईपी इस इलाके में बसे हैं । कानन उनके लिए बना है। इसका मेंटेनेस बजट भी उस हिसाब से आता है। यह बात और है कि इस बगीचे पर चार इमली के चारों तरफ बसा दिये गए वोट बैंक, स्लम वाले बच्चे, किशोर लडके-लडकियाँ, बंगलों के सर्वेंट क्वार्टर की बाइयों ने शाम के पहले से ही कब्ज़ा जमाना शुरू करके बंगलों की मेम साब और साहबों को ये सन्देश दे दिया है कि वॉक सड़क पर ही कर लें। यहाँ तो हम एक साथ कमरों की ऊब निकालने इकट्ठी होती हैं ।
हाँ, ये है तो बड़ा सुन्दर । मनुष्यों और वाहनों की आवाजाही भी बंद है, तो हरियाली और ताज़गी भी ज़्यादा ही है । सुना है, कल इंदौर के डेली कॉलेज परिसरमें खूब हमारे जाति-भाई उतर आये थे, तोते … मैना… थे सड़कों पर … । लोगों ने खूब फ़ोटो वीडिओ डाले हैं फ़ेसबुक पर ।
 “अच्छा! तुम फेसबुक पर कब से ?” 
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नहीं-नहीं, मैं कहाँ फ़ेसबुक पर ! वो तो आम वाले बगीचे वाली मेम साहब हैं ना! वो गार्डन में बैठी देख रही थी और साहब को दिखा रही थी। मैंने भी झाँक लिया। बड़ा मनोहारी दृश्य था । तो हम भी एक बार कहीं चलते है ना?”
हाँ हाँ, चलेंगे ।
‘’एक बात बताओ …….मैं अचरज में हूँ।‘’ 
क्या हुआ ?”
ये सब चले कहाँ गए?”
अरे, सब को सरकारों ने घरों में कैद कर दिया है। कहते हैं, कोई वाइरस आया है दुनिया में – कोरोना। देखते ही चिपट लेता है।‘’
अरे बाप रे! फिर ?”
फिर क्या! लोग अपने-अपने घरों में ताले लगा कर बंद हैं, भयभीत से । इनको कई बार वैज्ञानिकों ने धरती के खतरे को लेकर अलर्ट किया मगर ये नहीं बदले। उसी चाल से चलते रहे, जिससे धरती को नुकसान हो रहा था। देखो ना, हम सब उजड़े जंगलों में कैसे संकट में रह रहे थे पर धरती और प्रकृति अपना चक्र चला ही देती है । चला दिया उसने सुदर्शन चक्र | दुनिया भर में वह घूम रहा है कोरोना बन कर। आदमी की ग़लतियों की देन है महामारी। मगर आज धरती को बचाने का काम इंसानों से पहले एक वायरस ने कर दिया। दुनिया भर में लगे लॉकडाउन ने धरती का इलाज किया है। अब वो पहले से कहीं ज़्यादा सेहतमंद हो गई है। लॉकडाउन धरती के लिए वरदान साबित हुआ है। अब इसको सँभाले रखने के लिए यह देखना ज़रूरी है कि आख़िर इससे फ़ायदा क्या हुआ ? एक्सपर्ट्स का कहना है कि लॉकडाउन के कारण धरती की ऊपरी सतह पर कंपन कम हुए हैं। वहीं दुनिया भर में रोज़ाना होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भी 17 फ़ीसदी की कमी आई है। और तो और, सुनने में आ रहा है कि भूकंप वैज्ञानिकों यानि सीस्मोलॉजिस्ट्स को धरती केसीस्मिक नॉयजऔर कंपन में कमी देखने को मिली है।
सीस्मिक नॉयजवह शोर है जो धरती की बाहरी सतह यानी क्रस्ट पर होने वाले कंपन के कारण धरती के भीतर एक शोर के रूप में सुनाई देता है।
अरे धनेश! तुम तो विज्ञान की बातें करने लगे! ये कहाँ सुन कर आये?”
पीपल वाला पेड़ है ना? इस बार उस पर जब खूब फल आये थे, तब मैं और छोटा बसंता (कॉपर स्मिथ) सुबह-सुबह उसी पर बैठे रहते थे। अभी अप्रैल की तो बात है । तभी पता चला उस बंगले में पर्यावरण वाले कोई साहब रहते हैं ।
तुम्हें कैसे पता?”
उनकी श्रीमती जी उन्हें सनकी- साइंटिस्ट जो कहती है ? हाहाह ! जब वो कुछ काम करते हैं, ख़ास कर नेचर क्लाइमेट चेंजमैग्जीन पढ़ते हैं या उसमें लिखते हैं, तब मैडम उन्हेंसनकी साहबकहकर छेड़ती है । उस दिन वो एक रिपोर्ट सुना रहे थे। अपने मित्र को फोन पर वॉक करते-करते बता रहे थे कि जहाँ अमेरिका ने कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में करीब एक तिहाई की कटौती की, वहीं दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश चीन ने फ़रवरी में इसमें एक चौथाई की कटौती की। भारत में जहाँ उत्सर्जन 26 फीसदी कम हुआ तो वहीं 
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यूरोप में 27 फीसदी की कमी देखी गई। नदियाँ साफ़, और आसमान नीला हो गया है धरती हरी दिखने लगी है। बाग़-बगीचे खिलखिला उठे हैं। पॉलीथिन कम फेंका गया। बचा खाना कचरे में सड़ने नहीं डाला लोगों ने । जीव-जंतुओं को खिलाने का ख्याल तो किया!
हाँ, ये तो मैंने भी देखा ।अब धनेशी को भी अपना आँखों-देखा याद आने लगा ।
इस बार घर में खाना नौकरों ने नहीं, घर के लोगों ने बनाया नाप-तौल कर । खुद करने लगे तो वेल्‍यू समझ में आने लगी। हाथ धोने में साबुन तो लगा होगा, पर बार-बार वाशिंग मशीन नहीं चलाई लोगों ने। पानी भी बचा और साबुन का कठोर पानी ज़मीन में कम गया।” 
दोनों धीरे-धीरे पास आने लगे ।
सुनो! चलोएकांत-पार्कचलते हैं। सच कहूँ, वह सच में अब एकांत हुआ हमारे लिए। एकांत-पार्कका कोई बड़ा सा पेड़ देखकर तुम्हें क्वारेंटाइन किया जायेगा।
उसकी ज़रूरत नहीं । उधर देखो ! सामने जहाँ बहुत से पेड़ हैं, और वो बीच वाला पेड़ है ना, इमली का पुराना पेड़ ! दिखा…? उसमें ऊपर वाली डाली में कोटर है। बस, मुझे अपने प्रेम के निशान इसी कोटर में रखने हैं। सामने तालाब भी है। गीली मिट्टी तुम आसानी से ले आना।
पक्षी – भाषा आने से मैं आज उनकी बातों को सुन सकी।
तो प्रेम की निशानी लाने के लिए प्रेम करना होगा ना ! चलो एकांत – पार्कचलते हैं । 
नहीं – नहीं ! वहाँ उलटे लटकते चमगादड़ नहीं देखे क्या ?”
चमगादड़ तो सालों-साल से उस जगह उलटे लटके हैं। तो क्या हुआ?”
अरे मेरे प्यारे धनु! ये जो दुनिया घर में घुस गई है ना! वो इस चमगादड़ की ही देन है । कल को वाइरस का हम पर असर हो गया तो!!! अभी तो हमारा घर भी नहीं बसा है।
तो चलो घर बसा लेते हैं!धनेशकेलिकरने लगा।
रात का अन्धेरा छा रहा था, अब मैं भी अन्दर चली गई। उनके प्रणय प्रसंग को छोड़ कर। धनेश पक्षी ने अनजाने ही मेरे चिंतन को प्रभावित कर दिया था। हो सकता है यह उनका संवाद ना हो, पर मैं उनकी गुफ़्तगू का यह अर्थ लगा रही थी। सोच रही थी कि सच में कुछ बातें ध्यान रखी जाएँ ताकि धरती को भी साँसें लेने का, नदियों को निर्मल प्रवाह का, पंछियों को आज़ाद स्वच्छ आसमान में उड़ान भरने का मौका मिल सके | इस बात को वॉर्निंग के तौर पर लिया जाए और अपने कारोबार में ऐसे ही परिवर्तन किए जाएँ जैसे लॉकडाउन ने करवा दिए।
जलवायु-आपातकाल की घोषणा पर दस्तखत करने वाले वैज्ञानिकों ने हालात सुधारने के लिए कुछ टिप्स दिए थे, जिन पर अब भी अमल किया जाना चाहिए।
एक दिन वाहन बंद कर दिए जाएँ। एक दिन कुछ घंटे बिजली बंद कर दी जाए। क्या फ़र्क पड़ेगा! बिजली की जगह सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कीजिए । बारिश के पानी को सहेजकर रखिए । साफ़-सफाई का ख़्याल रखिए। ये वो सबक हैं जिन पर खुद तो अमल करना ही चाहिए, बच्चों को भी संस्कार के रूप में दिए जाने चाहिए। क्योंकि ये सबक, ये संस्कार लोक-संस्कारहोकर भी वैज्ञानिक – संस्कारहोंगे, जिन्हें लोग अंधविश्वास नहीं कहेंगे।
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बात आई-गई हो गई। धनेश भी फिर नहीं दिखे। एक दिन फिर वही आवाज़ आई। मेरी नज़रें खोजने लगी। धनेश चोंच से गीली मिटटी ला रहा था और कोटर को धनेशी बंद करती जा रही थी । ओह! तो प्रेम-लीला के बाद अब घर बसा लिया! बड़ा रोचक दृश्य था और बेहद भावुक करने वाला भाव। धनेश उस उठती दिवार को विह्वल हो देख रहा था; जैसे कि लम्बे अंतराल तक वे अब मिल नहीं सकेंगे। अपनी गर्भवती धनेशी को वह क्वारेंटाइन-सेंटर में जाते देख रहा था। हाँ, सुरक्षित प्रसव तक वह दुनिया के इन्फ़ेक्शन और ख़तरों से बची रहेगी इसीलिए। लेकिन धनेशी भी उदास थी शायद यह सोच कर कि मेरे बगैर यह अकेला कैसे रहेगा… मेरे लिए भोजन का संघर्ष अब यह अकेला करेगा…।
अपनी प्रजाति बचाने का यह कितना बड़ा सन्देश है। समाज को कमज़ोर इम्यून वाली प्रसूता और उसकी पहली संतति को जन्म देने वाली गर्भवती को तालाबंदीमें सुरक्षित कर देने की यह प्राकृतिक व्यवस्था कितनी अनूठी है!
मादा हॉर्नबिल पक्षी पेड़ के खोखले तने में घोंसला बनाती है। अंडे देने के बाद वह घोंसले को अन्दर से बंद कर लेती है तथा केवल एक छोटा-सा छेद ही खुला रखती है। अंडे सेने के दौरान मादा इस घोंसले में ही बंद रहती है । इस दौरान नर खाने का प्रबंध करता है और छोटे-से छेद में से मादा को खाना देता रहता है । एक बार में मादा केवल एक से दो ही अंडे देती है। इन अंडों से बच्चे 30 से 40 दिनों में निकलते हैं।
यह चालीस दिन का एकांत वास एक प्रजाति को अगली पीढ़ियों में सुरक्षित करता जाता हैं। सवाल उठा, चालीस दिन हम भी तो रखते हैं?
मैं धनेश को रोज़ देखती सेवा करते । सोचती उनके लिए, जिन्हें कोरोना काल में एकांतवास मिला है। उन्हें भी इसी इन्तज़ार और सेवा-भाव की ज़रूरत है। जीने की इच्छा सकारात्मक तब होती है, जब बाहर कोई बेसब्री से आपके लौटने का इन्तज़ार कर रहा हो ।
मुझे लगा कहानी अब यहीं पूर्ण हो गई है। लेकिन कहानी तो कहानी होती है, वह पूर्ण कहाँ होती है! उसके आगे फिर कहानी शुरू होती है । इसका मतलब धनेश – धनेशी की कथा अभी शेष है? मैं सब काम छोड़ फिर उस जगह गयी । यह देखने कि अब कौन – सी कहानी शेष है।
धनेश गीली मिट्टी की आखिरी खेप लेकर आया था। प्रेम के बीच एक दीवार के आखिरी खुलेपन को भरने के लिए। मेरे मन में फ़िल्म का वह दृश्य आकर रुक गया जब अनारकली को शहंशाह ने दीवार से चुनवा दिया था और अभी केवल एक ईंट की जगह बची थी, जहाँ से वो खूबसूरत आँखें दुनिया की सुन्दरता को आखरी बार देख रही थी। फिर कभी नहीं देख सकने की विवशता के बाद भी उनमें एक चमक थी… जितनी देखी, वह मोहब्बत की खूबसूरत दुनिया है।
सामने था आज का अख़बार, जिसमें लिखा है- कोविड-19 के एक पेशेंट को सरकारी वाहन लेने आया है। बेबस नवब्याहता पत्नी दूर खड़ी देख रही है। आँखों में वही बेबसी है दोनों की।
क्या पता फिर तुम्हें देख सकूँगा या नहीं…, मर भी गया तो बक्से में बंद रखा एक ताबूत हो जाऊँगा । तुम्हें छूने की इजाज़त नहीं रहेगी। दिखाया जाऊँगा एक पोस्टर बना कर । अभी तो तुम्हें ठीक से प्यार भी नहीं किया । मुझे माफ़ कर देना…।
स्त्री के चेहरे के भाव दर्द की इन्तहा लिए हैं। जैसे कोई उसके शरीर से प्राण खींच रहा है । कोई आगे आकर रोकने वाला नहीं । अख़बार ने लिखा है- लड़की अपनी जान की परवाह किये बिना एक बार उसे गले लगाना चाहती है पर उसे पकड़ रखा है।
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नहीं, तुम्हें अनुमति नहीं है।मुझे लगा वह कहना चाहती है- अनुमति तो मुझे इस विधर्मी से विवाह की भी नहीं मिली थी। पर मैंने किया ना! तो जीने-मरने के बीच अब ये लक्ष्मण-रेखा क्यों ? वह चाहता था एक बार प्यार की पहल मैं करूँ । तो ना करूँगी तो भी इस गिल्ट से मर जाऊँगी। तो करके मरूँ ना ……. दु:ख तो नहीं होगा! 
पुलिस वाली कांस्टेबल बहुत प्यार से माँ बनकर गले लगा रही है।
वो ठीक होकर आयेगा तुम उसे कमज़ोर मत करो, हिम्मत दो ।
नज़रें अख़बार से फिर धनेश के बंद कोटर पर चली गईं। अभी धनेशी की एक आँख दिख रही है। वह ज़ोर से चिल्लाती है कोक – कोक ! ! !
जैसे… धनेश की आँख से बूँद टपकी और मेरी आँख में उतर गई ।
धुंधलाते हुए देखा, मुझे सुनाई दिया – तुम घबराना नहीं । तुम धरती पर जीवन की वास्तविक यात्रा पर हो। अभी हमारा मिलन बाकी है। तुम जीवन की सकारात्मक व्याख्याएँ करती रहना। याद रखना, जीवन सिर्फ खुशियाँ नहीं होता। उसमें दुःख की कसौटियाँ भी होती हैं। पर उनसे निकलने के बाद फिर खुशियों का मोलअनमोलहो जाता है । यह तुम्हरे लिए और मेरे लिए जागृति-संकल्प का, सृष्टि और दृष्टि के रूपांतरण का समय है। बस याद रखना, बाहर मैं सिर्फ तुम्हारे इन्तज़ार में जिंदा रहूँगा। मुझे अपने बीज और धरती में उसके प्रस्फुटन का सौंदर्य देखना है ।
धनेशी ने निर्ममता से वह स्थान बंद कर दिया और चोंच बाहर निकालने के लिए एक नया छेद बनाया । धरती का सन्देश देने के लिए सदियों से स्त्री संतान उत्पन्न करती है और पुरुष पालन करने का दायित्व लेता है।
कथा 40 बाद फिर शुरू होगी। जब धनेशी दीवार तोड़ धनेश से मिलेगी … । और एक कथा उस नए ब्याहे जोड़े की भी शुरू होगी । ईश्वर करे, वह लौट कर जल्दी घर आये और पत्नी जीवन की वास्तविक सृजन यात्रा पर जाए ।
धनेश की आवाज़ के साथ कितनी आवाज़ें अब मैं सुन सकती हूँ… । इस वायरस ने मेरे अन्दर कई कान लगा दिए हैं जो हर दर्द को सुन रहे हैं। प्रार्थनारत हूँ धनेश – धनेशी… और, उन सबकी मंगल कामना करती हुई, जो बेवजह बिछड़ गए…।

डॉ स्वाति तिवारी
संपर्क – [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. आदरणीय स्वाति जी!
    अच्छी कहानी है! कोरोना काल में जब चारों तरफ मनुष्य घरों में बंद थे तब पशु-पक्षी भी निर्भय और आजाद थे जंगली पशुओं को भी सड़कों पर देखा गया था। पर्यावरण वास्तव में शुद्ध हो गया था।
    पक्षियों की बातचीत को अपने ढंग से समझ कर आपने जिस तरह से कहानी का सृजन किया है वह बहुत अच्छा लगा।
    इतना भोगने के बाद भी पर्यावरण की ओर से अगर मनुष्य न सुधरा सचेत न हो पाया तो फिर क्या कहा जाए।
    अच्छी कहानी है।
    तेजेन्द्र जी का शुक्रिया पुरवाई का आभार।।

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