Sunday, September 8, 2024
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कैलाश बनवासी की कहानी – प्रेम-अप्रेम

दीपावली की छुट्टियों के बाद मैं गाँव वापस लौट रहा था,अपना स्कूल ज्वाइन करने।ये मेरी नौकरी के नये-नये दिन थे।पिछले ही साल मेरी बी.एस-सी पूरी हुई और दिसम्बर में शिक्षकों की भर्तियों के विज्ञापन निकले थे। मैंने भर दिया था। और संयोग से तब जिले में सांइस ग्रेजुएट इतने नहीं थे, और मुझको ये सरकारी नौकरी मिल गई। इस नौकरी के चलते ही मुझ शहरी लड़के को गाँव में किराए की एक खोली लेकर रहना पड़ रहा था। क्योंकि रोज इतनी दूर –56 किलोमीटर- आना-जाना संभव नहीं था। फरवरी में मैंने ज्वाइन किया है और अभी नवम्बर है,मतलब  यहाँ रहते आठ महीने हो गए थे।और अपने शहरी दोस्तों की नजर में मैं भविष्य का एक देहाती मास्टर होने जा रहा था,जो धोती-कुरता पहनता है,संटी पकड़े दिन भर बच्चों को बरजते रहता है,बेहुदे तरीके से हमेशा मुँह में पान चुभलाता रहता है…।कि कुछ बरस बाद मैं भी इनके संग रहते रहते इनके जैसे ही देहाती हो जाने वाला था…। दुर्ग से तब गाँव निपानी के लिए बस एक ही बस चला करती थी-कामगार रोडवेज सर्विस की। निहायत खटारा बस।बस की हालत भी गाँव के दशा के समान थी,पुराना,पिछड़ा और उपेक्षित।मैं देहाती नहीं बनने,अपना शहरीपना बचा लेने की खातिर  परिवार और दोस्तों से मिलने  लगभग हर शनिवार को मैं अपने घर लौट आता था और रविवार की शाम वापस फिर रवाना।
और आज भी रविवार था।
दीवाली की छुट्टियाँ इस बार पंद्रह दिनों की थी। इन पंद्रह दिनों में ही मानो देह में एक अजब आलस ने घर कर लिया था जो मुझे लौटने में अनमना बना रहा था। छुट्टियों का भी अपना एक खुमार होता है जो सरकारी लोगों पर चढ़ता तो जल्दी है पर है उतरने में वक्त लगता है।जैसे भांग का नशा।बस में,जैसा कि सफर में हमेशा होता था, मेरे आसपास ज्यादातर देहाती ही थे।भला गाँव कौन जाता है?वहीं के रहनेवाले,जिनका कुछ न कुछ काम शहर में अटका पड़ा होता है-कोर्ट-कचहरी का या अस्पताल का, जिसे सुलटाने या कुछ पारिवारिक काम के लिए उन्हें मजबूरीवश आना ही होता है। मेरे इर्द-गिर्द देहाती स्त्री पुरूष या बच्चे। देहाती लोग जिनकी अपनी कोई अलग गंध होती है,पसीने से भरी चिपचिपी गंध, जो उनकी देहों और कपड़ों से फूटती रहती है और हम शहरियों को इनसे दूर रहना ही ठीक लगता है।चूँकि मैं शहर का हूँ,चार अक्षर पढ़ लिया हूँ, इसलिए मेरे भीतर श्रेष्ठताभाव का साँप हमेशा फन काढ़े बैठा रहता था।अपने-आप।ऊपर से मैं नौकरीदार आदमी हूँ इस बात का गर्व इसमें और जुड़ जाता है।करेला वह भी नीम चढ़ा! गाँव में ही रहकर नौकरी करने,वहीं का दाना-पानी पाने के बावजूद यह अहम मेरे भीतर बना रहता है। बल्कि मैंने पाया है,देहात में काम करनेवाले जितने भी शहराती हैं,सबमें खुद को इनसे हर स्तर पर श्रेष्ठ समझने का भाव या अहंकार हमेशा मौजूद रहता है,वह व्यक्ति चाहे आदमियों का डॉक्टर हो या जानवरों का, चाहे कृषि विस्तार अधिकारी हो या ग्राम सचिव,या पटवारी,यह बात न जाने कब से जैसे किसी रवायत की तरह चली आती है जिसके चलते ग्रामीणजन हमसे हीनतर महसूस करते हुए हमसे नफरत करते हैं। और हम इनसे।इसीलिए मैंने इन लोगों को अक्सर कहते सुना है- सरकारी नौकरी माने घर बइठे छेना(कंडे) थापो!हर महीना बइठे-बइठे  तनखा पाओ! तुम्हरे मन के मजा हे!
लेकिन उस दिन गुंडरदेही बस-स्टैंड पर मैं कुछ अलग ही अनुभव करने लगा था जब एक लड़की मेरे बाजू की सीट पर बैठ गई थी।
अभी मैं अपने सफर के आधे पर था। गुंडरदेही दुर्ग-बालोद मार्ग के बीच में पड़ने वाला एक बड़ा कस्बा है।बस यहाँ बीस-पच्चीस मिनट के लिए रूकती है ताकि वे सवारी जिन्हें बेलौदी, निपानी या करहीभदर जाना है इसमें बैठ जाएं।बस के रूकते ही हमेशा की तरह मूँगफली बेचनेवाले लड़के चढ़ आए थे और‘‘ले टाइम-पास खारी गरम!!चिल्ला रहे थे। कभी-कभी सवारियों की प्रतीक्षा आधे घंटे से भी अधिक खींच जाती है। सब ड्राइवर-कंडक्टर की मर्जी पर निर्भर।
वह सांवली लड़की अपनी किसी महिला रिश्तेदार के साथ बस में चढ़ी थी। लड़की ने हाथ से दो बरस की बच्ची को संभाला था।बच्ची को उसने मेरे बाजू बिठाकर खुद भी बैठ गई थी।लड़की की महिला रिश्तेदार मेरे दो सीट पीछे की खाली जगह पर बैठ गई थी।जरूर वह इस बच्ची की माँ होगी। मुझे खुशी इस बात की थी कि लड़की ने मेरे बगल में बैठने की हिम्मत दिखाई थी!अन्यथा छत्तीसगढ़ में उन दिनों कोई किशोरी किसी नवयुवक के बाजू में बैठने में हमेशा हिचकती थीं।बल्कि अगर बैठ भी जाएं तो पूरे वक्त खुद को सिकोड़ने-समेटने में लगी रहतीं,जैसे आप जरूर उसके साथ बीच रास्ते में कुछ गड़बड़ करने वाले हो,जिसे देखकर खुद-ब-खुद आपके भीतर एक संकोच जाग जाता है और आप अस्वाभाविक हो जाते।ऐसा भाव हमेशा आपको एक नैतिक सवाल के सामने खड़ा कर देता है।
शुक्र था कि इस लड़की के आने के बाद मेरे मन में ऐसा कोई सवाल नहीं जागा था। मैं बस की खिड़की के पास बैठा था।जब बस चली तो सवा सात बज चुके थे। बाहर शाम का गहराता अंधेरा थ। आसमान में तारे थे।  खिड़की से नवम्बर के सांझ की ठंडी हवा आती थी जो इस समय भली लग रही थी,बीच-बीच में जरूर इसकी सुइयां चुभ जाती थीं।
बगल में लड़की हो तो मेरी उमर का कोई भी लड़का कुछ और नहीं सोच सकता। मैं भी इसी के बारे में सोच रहा था,और मेरा खयाल है वह भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी। मैं बीच-बीच में उसे देख लेता कुछ पूछती-सी निगाहों से,किंतु उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी। मुझे लगता है लड़कियाँ कितनी अंतरमुखी होती हैं,बाहर घटते सबकुछ को वो चुपचाप देर तक ताकती रह सकती हैं,अपनी प्रतिक्रिया को एकदम छुपाए। वह एक सांवली लड़की थी,सत्रह-अठारह बरस की।चेहरे पर एक देहाती सलोनापन जो सिर्फ इनकी एकमात्र पूँजी होती है।अच्छा यह लगा वह सलवार सूट पहने थी।यह उन दिनों की देहाती लड़कियों का आम पहनावा नहीं था।
बगल में बच्ची, जो लाल स्वेटर पहने थी, चुप थी। और मैं सोचता था चलो वक्त काटने के लिए बातचीत की जाए। पर तब मेरे भीतर भी संकोच का पहाड़ बहुत ऊँचा हुआ करता था,जिसे मैं अपने कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में भी नहीं लांघ पाया था। वजह कि अपने बी. एस-सी. मैथ्स सेक्शन में  लड़कियाँ ही नहीं थीं। दूसरे, मेरी सारी पढ़ाई लड़कों के स्कूल में हुई थी।फिर अभी स्कूल में भी हमारी कोई महिला स्टाफ नहीं थी।इसलिए मेरे लिए इस पहाड़ को लांघना खासा मुश्किल सिद्ध हो रहा था। मैं खाली मन ही मन में अपनी संभावित बातचीत का अनुमान लगा रहा था।यहाँ तक कि मैं कई बार उससे उसका नाम पूछ चुका था और उसका गाँव,यह भी कि वह कहाँ तक पढ़ी है। 
मुझे समझ आ रहा था किसी लड़की से बातचीत करना गणित के किसी टेढ़े सवाल को हल करने से भी ज्यादा कठिन है।लगता था,आपके बातचीत शुरू करते ही लड़कियां भांप लेती हैं कि आप किस मतलब से बात कर रहे हो।उनसे कुछ भी नहीं छुपता।खासकर वह बात तो बिल्कुल भी नहीं जो आप उनसे खासतौर पर छुपाना चाहते हो।
जब ठंडी हवा कुछ ज्यादा ही चुभने लगी तब बस की खिड़की मैंने बंद कर दी।मुझे लगा था शायद मेरे इस कदम को लेकर उसकी कोई प्रतिक्रिया मिलेगी। पर कुछ नहीं। लड़कियाँ शायद इनकी अभ्यस्त होती हैं।जब कहीं से बात बनती नहीं दिखाई पड़ी तो मुझे हथियार डाल देने पड़े। और आखिर काफी हिम्मत के बाद मैंने उससे पूछा था-‘‘कहाँ उतरना है?’’
‘‘निपानी।’’ उसने क्षण भर मेरी तरफ देखा फिर आँखें झुका लीं।मैं देख चुका था, उसकी आँखें बहुत सुन्दर हैं-साफ,पारदर्शी और गहरी। 
निपानी सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया!मुझे वह सिरा मिल गया था जिसे मैं तलाश रहा था,जिससे बातचीत को कुछ आगे तक ले जाया जा सके।आखिर निपानी में रहते हुए मुझे सात-आठ महीने हो गए थे और गाँव से मैं काफी-कुछ परिचित हो चुका था।निपानी का मड़ई अंचल में देव मड़ई माना जाता है। यानी इसी मड़ई के साथ अंचल के गाँव-गाँव में मड़ई मनाने का सिलसिला शुरू होता है।मड़ई यानी छत्तीसगढ़ के गाँवों का सबसे बड़ा उत्सव! बाजार, मेला,नाचा! अब मेरे पास धीरज नहीं था।मैंने खुश होकर हल्के-सेे हँसकर कहा,‘‘अच्छा! तो आपको मड़ई देखना है!’’ 
वह इस पर खुश होकर मेरी तरफ देखते हुए बोली,‘‘और आपको कहाँ उतरना है?’’
‘‘वहीं।’’ मैंने मुस्कुराकर कहा। 
अब वह इतना तो जान चुकी थी कि यह सहयात्री भी वहीं का है,या वहाँ नौकरी करता है। मैंने निपानी के लोगों को बहुत अच्छी तरह से जानने का अपना दावा पेश करते हुए बड़े आत्मविश्वास से पूछा,‘‘वहाँ किसके घर जाना है?’’ 
‘‘भरतलाल के घर।’’
वह मुझे आशा भरी नजरों से देख रही थी कि मैं जरूर इस नाम के व्यक्ति को जानता होऊँगा,पर मैं असमंजस में। मैंने याद करने की काफी कोशिश की पर यह नाम याद नहीं आया। मैंने अभी हिम्मत नहीं हारी। पूछा,‘‘अच्छा,वहाँ आपकी कोई सहेली है,या दोस्त…कोई लड़का …?’’
मेरी बात पर वह मुस्कुरायी ‘‘नहीं।’’ शायद मेरी चालाकी …बातचीत बनाए रखने की मेरी कोशिश को वह भांप गई थी। लड़कियाँ पुरूषों के मन का सबकुछ भांप जाती हैं,बहुत आसानी से। इसलिए कि सब उनको दिख जाता है किसी अदृश्य आँख से।
इधर मैं यह बातचीत खत्म नहीं करना चाहता था। मुझे अच्छा लग रहा था। एक रोमांच। और इसकी हल्की मीठी-मीठी सिहरन। और इतनी बातचीत से ही मैं खुद को ज्यादा आत्मविश्वासी पा रहा था। क्या यह किसी अनजान लड़की से पहले-पहल बात करने का रोमांच था? और इसी बात से मुझमें थोड़ी बेफिकरी आ गई थी और बहुत आराम मिल रहा था। 
‘‘वहाँ पहले भी गए हो?…या पहली बार जाना हो रहा है निपानी?’’ मैं सचमुच जानना चाहता था।
‘‘हम लोग दो-ढाई महीना पहले गए थे…बोवाई के टाइम।’’
‘‘अच्छा।’’ मैंने किंचित आश्चर्य जाहिर किया। आखिर इस लड़की को मैं पहले कैसे नहीं देख पाया,वरना तो…।
छोटी बच्ची को अब नींद आ गई थी,और उसने अपना सिर मेरी गोद में डाल दिया था। मैंने उसके सिर को अपनी गोद में अच्छी तरह से एडजस्ट किया,उसके लिए आरामदेह स्थिति में।इसे देखकर उसके मन में एक स्वाभाविक कोमलता आ गई थी जो उसके चेहरे से झलक गया।बच्ची के पैरों को उसने अपनी गोद में सेट किया। 
लड़की ने अब मुझसे पूछा,‘‘श्रवण को जानते हैं?’’
‘‘श्रवण..? अच्छा, वही जो गाँव के नाच पार्टी में है?’’मुझे याद आ गया,श्रवण गाँव की नाच मंडली का प्रमुख कलाकार। वो नाच में ‘परी’ बनता है। माने लड़की। कहा,‘‘हाँ जानता हूँ, जिसका बड़ा भाई ग्राम-सेवक है….?’’ 
‘‘अरमरी गाँव में।’’ उसने मेरे कहने से पहले ही वाक्य पूरा कर दिया।उसे मेरे यह जानने से खुशी मिली थी।
‘‘अच्छा, तो आपको उनके घर जाना है!’’मैं खुश हुआ कि चलो परिचय का कोई सिरा तो मिला। इतना बहुत है बात बढ़ाने के लिए।
‘‘हाँ। मेरी बड़ी बहन गयी है उनके लिए।’’
अच्छा। यानी ये भरतलाल की साली है। मैंने भरत को नहीं देखा है,लेकिन उससे थोड़ी ईष्र्या हुई।मैंने पूछा,‘‘ तो आप लोगों का घर  गुंडरदेही में है?’’ गुंडरदेही मैने इसलिए क्योंकि ये लोग वहीं से बस में चढ़े थे।
‘‘नहीं। कलंगपुर में।’’ उसने बताया।
कलंगपुर गाँव तब मैं ठीक तरह से नहीं जानता था। यह गुंडरदेही से धमतरी रोड में सात किलोमीटर दूरी पर है।निपानी के लिए इन्हें अपने गाँव से सीधी बस नहीं मिलती,इसलिए गुंडरदेही से चढ़े थे। जो मैंने कलंगपुर के बारे में सुना था,उससे कहा,‘‘शायद वहाँ बहुत पुराना हाई स्कूल है?’’
‘‘हाँ।’’ उसने कहा।
मुझे ध्यान आया कि मेरे स्कूल के हेड-मास्टर तीरथ राम इसी स्कूल से पढ़े हैं और जब-तब इसका जिक्र बड़े गर्व भाव से करते रहते हैं।मैं बोला,‘‘हमारे गाँव के पुराने लोग उस स्कूल में पढ़े हैं,इसलिए जानता हूँ।अच्छा, तो वहाँ घर है आप लोगों का।अभी कौन-सी कक्षा में हो?’’
मेरा अनुमान था शायद बारहवीं..।पर उसने इस सवाल पर थोड़ा झिझकते हुए कहा,‘‘अभी मैं नहीं पढ़ रही हूँ।दसवीं तक पढ़ी हूँ।फिर पढ़ाई छोड़ दी ।’’
यह सुनकर मुझे भी थोड़ी निराशा हुई।मेरे मुँह से बरबस निकला,‘‘अरे, आपको आगे पढ़ना चाहिए था।पढ़ाई तो बहुत जरूरी है आगे बढ़ने के लिए…।’’
‘‘असल में दसवीं में सप्लीमेंट्री आ गई थी। पास नहीं कर सकी तो छोड़ दी…।’’
सहसा बस  रूक गई थी ।सिकोसा आ गया था।कंडक्टर ड्राइवर यहाँ कुछ सवारी मिलने का इंतजार करते हैं,क्योंकि यहाँ से बस को अब मुख्य सड़क छोड़,बाँए मुड़कर भीतर धुर देहात के कच्चे रस्ते में जाना है। आगे का रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़ है। बस एकदम हिचकोले ले-लेके आगे बढ़ती है। कुछेक बार मुझे इसके चलते उल्टियां भी हो गई हैं। और इधर जाते हुए मन हमेशा उल्टी हो जाने के भय से आशंकित रहता है।पर आज ऐसा कोई भय नहीं था।
कंडक्टर नीचे एक पान ठेले पर खड़ा था। मेरे पीछे बैठे किसी युवक ने कुछ गुस्से से कहा-‘‘अरे चलो न यार, और कितनी देर खड़े रखोगे?पौने आठ तो यहीं हो गया है!’’ तो दूसरे यात्री भी कुड़कुड़ाए।पर मुझे आज कोई जल्दी नहीं थी।बल्कि लग रहा था बस को ये और जितनी देर रोक लें या जितना धीरे ले चलें उतना ही अच्छा!और मुझे न जाने क्यों एक भीतरी खुशी हो रही थी,मन पुलक रहा था,हवा में उड़ने-उड़ने को हो रहा था,सिर्फ इसी बात पर कि मैंने आज किसी लड़की से बात कर ली!माने बहुत बड़ा तीर मार लिया! जबकि मेरे दोस्तों के पास लड़कियों से जुड़े न जाने कितने किस्से हैं,जिसे वे बहुत गर्व से बताते हैं!मैं अब तक उनको सुनता आया था,और सुनते हुए हमेशा खुद को इस मामले में कच्चा पाता था। पर अब कल को बताने के लिए मेरे पास भी एक कहानी होगी!अब उन सालों को बताना है,बेटा, देख अपन को भी!
इस बीच मैं उससे और-और बातें करता रहा। न जाने क्या-क्या।क्योंकि मुझे लग रहा था,पता नहीं ऐसा अवसर आगे जाने कब मिले।वह भी मुझसे बात करती रही,धीमे-धीमे।उसने बताया कि वह अपनी भाभी के साथ निपानी जा रही है। यह बच्ची उसकी भतीजी है।कि दो-चार दिन में लौट आना होगा।
मैंने उससे कहा,‘‘अरे आपकी हिन्दी तो बहुत अच्छी है!वरना इधर के लड़के-लड़कियों को तो ठीक से बातचीत करनी भी नहीं आती!’’ और यह सुखद सच था। क्योंकि इधर के पढ़े-लिखे लोग,यहाँ तक कि हिन्दी के शिक्षक भी अच्छी हिन्दी नहीं बोल पाते,टोन में छत्तीसगढ़ी का असर रहता ही है। 
 वह मुस्कुरायी।पूछा,‘‘आपका खास घर कहाँ है?’’
मैं छूट पड़ा एकदम चार्ज किए खिलौने गाड़ी की तरह।बताने लगा अपने बारे में ढेर सारी बातें।कि दुर्ग शहर का रहने वाला हूँ।वहीं पढ़ा-लिखा।अब नौकरी के चक्कर में इधर आना पड़ा है।अपनी बी.एस-सी. तक की पढ़ाई(अपनी पढ़ाई के बारे में बताते हुए साला इतना गर्व आज तक कभी नहीं हुआ!),अपनी नौकरी,पोस्ट…। 
उधर उसे मैं अपने बारे में जोर-शोर से बता रहा था और इधर खुद को ढेर सारी मीठी गालियाँ दे रहा था-वाह बेटा!अच्छा तरीका सीख रहे हो छोकरी पटाने का!और खुद को समझा भी रहा था,अरे यार, कोई बुरी बात नहीं है! सफर में नहीं सीखोगे तो फिर कहाँ सीखोगे?भला इसकी कोई क्लासरूम होती है क्या?और जरूरी है व्यावहारिक होना भी। लड़कियों से भी बात करनी आनी चाहिए।फिर यह लड़की भी तो कितने अच्छे-से बात कर रही है! बुराई क्या है?
बस में भीतर जीरो पाॅवर के कुछ बल्ब  जल रहे थे । इस हल्की रोशनी में ,जब कभी वह इधर-उधर देख रही होती मैं नजर बचाकर उसे देख लेता।उसके चेहरे में कोमलता के साथ एक गंभीरता थी,और आँखों में एक ठहराव। वह अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों की तरह अधिक चंचल नहीं थी। कम से कम इस वक्त।गाँव का कच्चा रास्ता खासा ऊबड़-खाबड़ था,बस के हिचकोलों के साथ हमारे कंधे टकरा जाते।तब मुझे असहज लगता।दिखाने की कोशिश यही करता कि ये बस की वजह से हो रहा है। चैथी-पाँचवी बार जब हमारे कंधे आपस में जब कुछ अधिक ही गति से टकरा गए तो हम दोनों हँस पड़े थे। इसका मतलब था कि तुम कितना भी बचाने की कोशिश करो इसका कुछ नहीं किया जा सकता। मैं मन ही मन रास्ते को और बस ड्राइवर को धन्यवाद दे रहा था।
      ‘‘तो अब पढ़ाई बंद..,क्यों?’’ आगे मैंने उससे पूछा।
      जवाब में वह कुछ नहीं बोली। केवल मुस्कुरा दी। और मैं देख रहा था,उसकी मुस्कान मोहक है। मुस्कुराते हुए वह बहुत अच्छी लगती है।
     जब उसने नहीं कहा कुछ तो मैंने ही कहा,‘‘तो अब घर-वर संभालो…आगे ऐसा है क्या?’’ गाँव-देहात में  लड़कियों की शादी जल्दी हो जाती है,मुझको पता था।
    मैंने कहा तो लड़की शरमा गयी। सिर झुका कर मुस्कुराने लगी।
    मैं फिर इधर-उधर की हाँकने लगा। न जाने क्या-क्या। मुझे अपने इतना बोलने पर खुद आश्चर्य हो रहा था कि आज क्या हो गया है!और जब कभी वह मुस्कुरा देती, मैं सिरफिरा-सा हो जाता। एकबारगी इच्छा हो जाती कि उसे अपनी बाहों में समेट लूँ, कि उसका प्यारा चेहरा चूम लूँ…।पर यह मेरे सपने ही थे! पर उससे बात करते रहना ही मेरे लिए बहुत था! लग रहा था कि मैं बिल्कुल फूल-सा हल्का हो गया हूँ….कि रूई बनकर हवा में उड़ने लगा हूँ…।
     बेलौदी आ गया। निपानी अब लगभग पाँच किलोमीटर दूर रह गया था। बाहर अंधेरा बढ़ गया था और इसी के साथ ठंड भी।बेलौदी से कोई महिला चढ़ी थी बस में जो उसकी परिचित निकली। वह लड़की के दाँयें बाजू बैठ गई और दोनों बात करने लगे।हमारी बातचीत को विराम लग गया। वे दोनेां निपानी के आते तक आपस में बातें करते रहे।इस बीच जब कभी मैं उसे देख लेता,वह अपरिचित-सी ही देखती।मैं समझ रहा था जरूर वह उसकी कोई नजदीकी रिश्तेदार होगी जिसके सामने वह खुलकर-विशेषकर किसी लड़के से-बोल-बता नहीं सकती।मैं उसका नाम पूछना चाहता था,पर लड़की को यों बातों में लगी देखकर मुझे झल्लाहट होने लगी।मन मसोसकर रह गया। फिर क्षणिक इगो से भर उठा,जब उसे कोई दिलचस्पी नहीं,तब तुम ही क्यों पीछे पड़े हो?
    निपानी में वह वैसे ही उतर गयी। बिना मुझसे कुछ कहे। मैं भी उससे कुछ नहीं कह सका।पता नहीं क्या हो गया था। जाने क्यों मन डूबने-सा लगा था। सोच रहा था,अब आगे उससे मिलना होगा या नहीं
     लेकिन दूसरे दिन मड़ई में वह चमत्कारिक ढंग से मिल गई!
      मड़ई के चलते स्कूल में नाम के दो पीरियड बाद ही बच्चों को छुट्टी दे दी गई थी। और दोपहर बाद जब मड़ई में खूब भीड़ और रौनक होती है, मैं चल पड़ा था। मड़ई गाँव के पश्चिमी खार में,बड़े मैदान में भरता है।जहाँ एक विशाल पीपल के नीचे छोटा-सा साधारण मंदिर है बैगिनगुड़ी दाई का। मंदिर में आज के दिन पूजा करने वालों की दिन भर लाइन लगी रहती है। इलाके का पहला मड़ई होने के कारण आसपास के गाँवों से बहुत लोग आते हैं।वहीं प्रायःहर घर में मेहमान पहुँचे होते हैं। लोग मेला घूमते हैं,खरीदारी करते हैं,मिलना-जुलना होता है।और शाम को पीना-खाना।और रात को नाचा-गम्मत।लोग नाचा देखने रात भर डटे रहते हैंअपना कंबल-कथरी ओढ़ के।
     मड़ई में अपने स्टाफ के हिरदेराम गुरूजी मिल गए थे। मैं उन्हीं के साथ घूम रहा था यों ही। वह पास के गाँव में रहते हैं । हिरदेराम गुरूजी भीड़ में अपनी पत्नी और बच्चों को ढूँढ रहे थे,कि उनको घर की चाबी देनी है क्योंकि घर में वह ताला लगाकर आ गए हैं। और हम उन्हें उधर ही ढूँढ रहे थे जिधर स्त्रियों के चूड़ी फीते क्लिप इत्यादि की दुकाने सजी थीं। महिलाओं- लड़कियों की भीड़ इसी भाग में सबसे अधिक होती है जिसके चलते नयी उमर के लड़के भी इधर ही मंडराते रहते हैं चालू फैशन के नये-नये कपड़े पहने।
    संयोग से वह दिख गयी। अपनी हमउम्र एक लड़की के साथ।मैं इसे जानता हूँ, श्रवण की छोटी बहन है। लड़की मुझे देखकर  मुस्कुरायी।पर उसने जरूर श्रवण की छोटी बहन को मेरे बारे में कुछ बता दिया था जिसके कारण वह मुड़-मुड़ के मुझे देखती और फिक्क से हँस पड़ती थी। अच्छा ये हो रहा था कि हिरदेराम गुरूजी जिधर-जिधर अपनी पत्नी को ढूँढने जाते,ये दोनों वहीं आसपास नजर आ जातीं। मुझे लगने लगा था,जरूर सोच रही होंगी कि हमारे पीछे पड़े हैं और इस बात की प्रसन्नतता न केवल उनके चेहरों से जाहिर था,बलिक उनकी चाल में भी एक इठलाहट आ गयी थी।उनकी मस्ती से मुझे खुशी होनी स्वाभाविक थी।
   थोड़ी देर बाद जब हम एक सब्जीवाली के पास भिंडी ले रहे थे कि उसकी आवाज सुनाई पड़ी-‘‘सुनिए..।’’
    मैंने देखा वह पास में खड़ी है अपनी उसी सहेली के साथ।
       ‘‘कहिए…।’’ मैं मुस्कुराया।
       ‘‘ये आपके लिए है…हमारी तरफ से…।’’उसने आस-पास की भीड़ देखते हुए जल्दी से कहा और अपने हाथ में रोल करके रखा एक पोस्टर मुझे जल्दी से पकड़ा दिया।
        ‘‘अरे, ये क्या…।’’ मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ।
        ‘‘ये आपके लिए है…हमारी तरफ से!’’ दुबारा फिर वही बोलकर वह अपनी सहेली के साथ फुर्ती से भीड़ में गायब हो गई। 
      मैं खुश और हतप्रभ!और कुछ सकुचाया हुआ। मेरे साथ खड़े हिरदेराम गुरूजी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट।हिरदेराम गुरूजी सच में बहुत समझदार हैं जो उन्होंने मुझसे इस बारे में कुछ नहीं पूछा। अगर मानलो पूछ ही दिए होते तो मैं उन्हें क्या बताता? फिर इसके बाद जैसे उस भीड़ में भी मैं अकेला हो गया था,अपने ही खयालों में खोया हुआ।पर मजा देखिए कि मैं प्रकट में हिरदेराम गुरूजी से यहाँ-वहाँ की और-और बातें करने लगा था,और बेवजह तनिक ऊँची आवाज में। जबकि मेरा पूरा ध्यान उसके दिए पोस्टर पर था।एक अजीब सी  गुदगुदी हो रही थी, पता नहीं क्या होगा इसके भीतर?इसे उसने अभी-अभी ही खरीदा  था मेरे लिए।
    “ये आपके लिए है …हमारी तरफ से!मेरे कानों में उसकी मीठी आवाज गूँज रही थी और मेरे पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे ।
    जल्दी-जल्दी अपनी किराए की खोली में पहुँचा,सामान एक तरफ फेंका और बहुत एहतियात से उसे खोला कि जरा भी सल न आ जाए।मुझे लग रहा था, इसमें गुलाब के फूल होंगे…मेरे लिए I Love You  टाइप कोई मैसेज…या लड़की-लड़के की कोई प्रेमिल मुद्रा… 
    पर मैं खोली में हँस रहा था।अकेले।
    पोस्टर में तीन नन्हें बिलौटे थे,झक्क सफेद! एकदम क्यूट और गदबदे!एक-दूसरे से सटे हुए,अपनी चमकीली किंतु बिल्कुल मासूम आँखों से ताकते हुए।उनकी मासूमियत इस कदर कि बता पाना मुश्किल…।बस नजर पड़ते ही आप मुस्कुरा पड़ेंगे, बरबस।
      दूसरे दिन स्कूल मैं  काम ज्यादा होने के कारण मैं श्रवण के घर नहीं जा सका था।उसके अगले दिन गया। घर में श्रवण की छोटी बहन मिली। वही लड़की जो उस दिन मड़ई में उसके साथ थी। ‘‘सर,वो लोग तो आज सबेरे ही चले गए।’’ मौका मिलते ही उसने मुझे बताया। 
       ‘‘अरे, चले गए? कब? कहाँ?’’
       ‘‘हाँ, वो लोग कमाने-खाने बाहर जा रहे हैं,सब झन!कल सबेरे दुरूग से गाड़ी बैठेंगे। इस साल बहुत अकाल पड़ गया है न, सर,इसीलिए…।’’
        अकाल? मुझे सोचने में कुछ पल लगे, क्या कह रही है ये लड़की ?फिर ध्यान आया। धीरे-धीरे सब याद आने लगा,पिछले तीन-चार महीने से जो गाँव में चल रहा है। अषाढ़, फिर सावन फिर भादो ऐसे ही बीत गया।बूँद पानी नहीं।इस साल भीषण सूखा पड़ा है।फसल एकदम चैपट! इलाके में हर तरफ सूखा।गाँव के लोग आपस में या और किसी से आजकल केवल यही बात करते हैं-ए सो (इस साल) भारी अकाल हे गा! जब्बर अकाल!कइसे करके जीव ल बचाबो, भगवान!
     इस गाँव से भी छोटे किसानों का पलायन शुरू हो चुका है।सुबह की दुर्ग जाने वाली बस में रोज इनको अपने परिवार और गृहस्थी के माल-असबाब के साथ जाते देखा जा सकता है। ये जा रहे हैं दिल्ली, कानपुर,श्रीनगर,पठानकोट,लखनऊ,जालन्धर,ग्वलियर…न जाने कहाँ-कहाँ…।
    मैं यहाँ रहते हुए भी, आँखों से देखते हुए भी जैसे सबकुछ भूला हुआ था।
    सच है, मुझ जैसों को इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है।कि मैं इन्हें जानता ही नहीं।
उस पोस्टर को मैंने अपनी खोली की दीवाल पर लगा दिया है । अक्सर गाँव की स्कूली लड़कियाँ किसी न किसी काम से घर आतीं हैं. वे तो इसे देखते ही खिलखिला पड़तीं हैं —‘‘वहा दे! सर हा तीन-तीन ठन बिलई पोसे हे!! ’’

कैलाश बनवासी
41,मुखर्जीनगर,
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ00),पिन-491001
मो0 9827993920 
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1 टिप्पणी

  1. आदरणीय कैलाश जी!
    आपकी कहानी प्रेम -अप्रेम; कहानी तो नहीं, संस्मरण लगी। क्योंकि आप की कहानी का विषय क्षेत्र दुर्ग हमारे मायके से जुड़ा था तो आपका परिचय जानने की उत्सुकता रही। और हम इसे संस्मरण मानकर ही चले। बहुत गौर से पूरा पढ़ा ,वह बात अलग है कि आपकी लेखन शैली में कहानी सी प्रभावशालिता रही। कहानी-में हास्य-व्यंग्य का पुट भी अपनी उपस्थिति दर्ज करता महसूस हुआ।
    कहानी अपने को अंत तक पहुँचा कर ठहरी।
    तीन खूबसूरत बिल्लियों वाले पोस्टर के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ देना तो बनता है।
    उसे भेंट के पीछे छिपी हुई इच्छा के धराशाई होने के लिए दुख है।
    इस बेहतरीन सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

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