Tuesday, September 17, 2024
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कला जोशी की कहानी – इमदाद के मोतिया कबूतर

जैसे ही में सुबह ट्रेन से उतरा, कम्पनी के पी.आर.ओ. मिस्टर सिन्हा ने मुझे रिसीव किया और हम स्टेशन से गेस्ट हाउस की ओर रवाना हुए। रास्ते में मुझे बताया कि यह शहर पिछले तीन दिनों से दंगाग्रस्त था, और कल से ही दिन का कर्पयू हटाया गया है। प्रभावित मुख्य इलाका शहर का मध्य क्षेत्र ही रहा है मुझे गेस्ट हाउस में छोड़ते हुए मि. सिन्हा ने बताया कि अभी भी हालात को देखते हुए शायद सुबह दस बजे की मीटिंग दोपहर को मुकम्मल की जा सकती है। जिसकी सूचना वे स्वयं आकर मुझे देंगे।
मैं शीघ्र ही तैयार होकर बाहर लॉन में सुबह की गुनगनी धूप में कॉफी के साथ लोकल न्यूज पेपर देखने लगा। अभी मेरे पास दो घण्टे का समय था, और हाथ में अखबार! इसमें भी वही सब कुछ। घटना की शुरूआत से लेकर अन्त तक की जानकारी दी गई थी। प्रशासन अपने कार्य में चुस्त दुरूस्त रहा। राजनेताओं, धर्म की ध्वजा धारकों ने अपने-अपने तरीकों से घटना पर प्रकाश डाला था। पूरी घटना पढ़ने के बाद लगा शहर का मध्यक्षेत्र अभी भी धारा एक सौ चवालीस के साये में है। यही वह मध्यक्षेत्र है जिसमें मेरे बचपन के कुछ वर्ष बीते हैं। यहीं रहकर मैंने अपना प्राइमरी एजुकेशन पूरा किया। हाँ यहीं गांधीचौक है, मोतीबाजार है, सराफजी की हवेली है, राठौरों का वास है, पिंजारों की बस्ती है, मोचीपुरा है, धोबीघाट है, और है खंडहर के पास एक दरगाह जहाँ इमदाद फकीर रहता है, अपने बेदाग सफेद ‘मोतिया’ कबूतरों को बच्चों की तरह पालता है। जिसकी दो स्वच्छ आँखें आसमान की तरफ अधिकतर रहती हैं।
बचपन की कुछ यादें रटे हुए पहाड़ों की तरह उम्र भर याद रहती हैं। मुझे याद है मैं स्कूल इसी दरगाह वाले रास्ते से जाता था। कुछ देर लौटते वक्त इसी इमदाद फकीर के सफेद झक कबूतरों को देखा करता था। उनमें से कुछ मैदान में चुगा करते, कुछ छत पर बैठे रहते और कुछ आसमान में उड़ते रहते थे। उनकी गुटरगूँ की आवाज आज भी मेरे कान वैसी की वैसी सुन सकते थे। मेरी आँखोंमें आज भी उस सत्रह वर्षीय इमदाद का चित्र है, जो प्रायः बस्ती में बाबा रहमतुल्ला के साथ ही झोली लेकर आया करता था। बाबा को जो कुछ मिलता. लेकर, लोगों को दुआ देते वापस दरगाह पर पहुँच जाते थे। मुझे यह तो मालूम नहीं वह दरगाह पर कब से है? बाबा उसे कहीं से लाए थे या वह उन्हें कही मिला था। बाबा की बीमारी हालत में वहीं उनकी तीमारदारी करता था, और पास की बस्ती से उनके और अपने लिए खाने की व्यवस्था करता। मुझे याद है एक बार कड़कड़ाती ठंड में शाम को वह हमारे घर आया और दरवाजे से आवाज दी ‘शाह साहब जाड़ा लगता है” मेरे बाबूजी ने उसी वक्त एक मोटा कम्बल दिया था जिसे रहमतुल्ला ने न जाने कब तक ओढ़ा। मोहल्ला तो क्या आसपास के सभी लोग उसे जानने लगे थे और अपनों सा स्नेह देते थे।
वैसे तो मुझे यह शहर छोड़े बरसों हो गए। ऐसा भी नहीं कि इतने बरसों में मैं कभी यहाँ आया ही नहीं। दो-तीन दफे आया भी परन्तु भागमभाग भरी जिंदगी में कभी सोचने का समय ही नही मिला। आज कुछ समय मिला तो तसल्ली से पुरानी यादों में खो सा गया। पैंतालिस साल पूर्व का यह इमदाद फकीर और उसके बेदाग सफेद मोतिया कबूतर कहाँ होगे? कैसे होंगे? जानने की प्रबल इच्छा अनजाने ही होने लगी। मैने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही आँखे मूंद ली, और कितनी देर तक उन्हें बंद रखा याद नहीं। गेस्ट हाउस के केयर टेकर ने आकर मुझे बताया सर आपका फोन और उसने कार्डलेस फोन मुझे दे दिया। फोन पर मि. सिन्हा ने बताया कि आज सुबह होने वाली मीटिंग दोपहर दो बजे रखी है। अब ध्यान आया कि दस बज चुके हैं। अब मेरे पास चार घण्टे का समय था और मै उसका भरपूर उपयोग इच्छानुसार करना चाहता था। लिहाजा मैंने चौकीदार से एक ऑटो रिक्शा लाने को कहा। ऑटो वाले को गांधी चौक चलने को कहा, मैं रवाना हो गया। देखा शहर कितना बदल गया है। अब राजवाड़े के आसपास कई कालोनियां बस गई हैं। सब दूर बदलाव ही बदलाव दिखाई दिया। सड़कें चौड़ी जरूर हो गईं, परन्तु उनके किनारों पर पहले जैसी हरियाली नहीं, गहराये हुए कच्ची डालियाँ वाले लाल-लाल गुलमोहर के करीब-करीब सभी वृक्ष गायब हो गये हैं। पुराने रास्ते अब समझ में नहीं आते। खैर देखते-देखते हम चार किलोमीटर का सफर तय कर गांधी चौक पहुँच गये।
मैंने वही रिक्शा रोकने को कहा, और उसे पच्चीस रूपये देकर उतर गया। गांधी चौक में वापस रौनक आ गई, बाजार खुल गए, ठेलेवाले सामान ले जाने लगे हैं। चाय और पान की दुकानों ने अपने शटर खोल दिये हैं। लोग दूर-दूर खड़े होकर, चाय की चुस्कियों लगाने लगे हैं। जर्दे वाले पान, डबल कथ्था और चूने वाले लगाये जा रहे हैं। सब कुछ पहले जैसा होने लगा है। सांप-सीढ़ी के खेल सरीखा ही तो प्रकृति का नियम भी है। बीत गया वह तो इतिहास बन गया आगे की सुध लेने दौड़-धूप चालू हो गई। फिर भी मैं तो इमदाद फकीर की अपनी तलाश जारी रखते हुए चौक की एक पान की दुकान पर जाकर खड़ा हो गया। पानवाला एक अधेड़ उम्र का आदमी था। जिसे मैंने सादा पान लगाने को कहा, साथ ही पूछा कि क्या वह किसी कबूतर वाले इमदाद फकीर को जानता है, जो मोतीबाजार के पीछे वाली दरगाह पर रहता है, क्योंकि मुझे अब दरगाह का रास्ता याद नहीं रहा। पानवाले ने कहा “मुझे दरगाह तो मालूम है, परन्तु फकीर के बारे में नहीं जानता” उसने वहीं से आवाज लगाई “साबिर भाई” सामने से एक तगड़ा सा करीब पचास वर्ष का आदमी आता दिखाई दिया। पास आने पर पानवाले ने उससे कहा “ये दरगाह वाले बाबा के बारे में पूछ रहे हैं” साबिर भाई ने कहा कि वे दरगाह वाले बाबा का नाम नहीं जानते हाँ! सफेद कबूतर वहाँ जरूर है। फिर उन्होंने कहा “वो देखो रामनिहोरे पहलवान आ रहे हैं, उन्हे बहुत जानकारी है और वे दरगाह पर जाते भी हैं”। उसी ने मुझे रामनिहोरे पहलवान से मिलाकर कहा “इन्हे कबूतरबाज इमदाद फकीर से मिलना है, जो बाजार के पीछे वाली दरगाह पर रहते हैं।” रामनिहोरे पहलवान करीब साठ-पैंसठ वर्ष की उम्र के एक अच्छी कद-काठी के, झबरीली मूंछ और सफेद दाढ़ी वाले इन्सान। दाये हाथ पर अस्पताल का एक ताजा सा सफेद पट्टा बँधा हुआ था। उन्होंने मिलते ही पूछा “क्या आप भी कबूतरबाजी के शौकीन है, शायद कही बाहर से आये हैं।” मेरे उत्तर का इंतजार किये बिना ही उन्होंने स्वतः ही कहा “देखो बाबूजी दरगाह पर तीन तरह के लोग आते है। एक तो वे जो दरगाह पर शाम को लोभान-अगरबत्ती जलाते हैं, दूसरे वे जो, बाबा से सूफिया कलाम सुनते हैं और तीसरे वे जो अमीर कबूतरबाज हैं” फिर सहसा बोले “चलो गली के पास वाले ठेले पर चाय पी जाए वहीं आपसे थोड़ी देर बातें करते हैं।”
चायवाले की गुमटी पर उन्होंने दो चाय का आर्डर दिया और मुझे भी बैंच पर बैठाकर बोले- “बाबू इस इलाके में दो नाम बहुत मशहूर है, एक है चम्पालाल सराफ जो नगीनों का पारखी है, जौहरी है और दूसरा है इमदाद मियाँ जो परों का पारखी है, पारखी फकीर, जिसके पाले कबूतर सोनातोल कहलाते हैं। जहाँ बड़े-बड़े रईस, जमींदार, जागीरदार और नवाबों के खानदान के लोग इस फकीर के पुराने तखत पर बैठकर, दियेबत्ती तक आसमान से लोटने वाले “मोतिया कबूतरों” का
इंतजार करते हैं, पर एक बात है, फकीर के मोतिया बिकाऊँ नहीं है, वे उसकी जान है।” इतने में चायवाले ने दो चाय के गिलास हमारे हाथों में थमा दिये। पहलवानजी ने जैसे ही गिलास थामा, मेरा ध्यान दुबारा उनके हाथ पर बंधी पट्टी पर गया, आखिर मैंने पूछ ही लिया “क्या हो गया” तो बोले “तीन दिन पहले कुछ लोगों ने प्रसाद बांटा था, हमें भी मिल गया और भी अन्य लोगों को मिला है, बाबा इमदाद को भी मिला।” उनका इशारा दो-तीन दिन पहले हुए जातीय दंगों की ओर था। बाबा इमदाद का नाम लेते ही उन्होंने चायवाले को पैसे दिये और मुझसे कहा “इस गली से बाजार में होते हुए निकल चलते है, ज्यादा दूर नही है, पाँच-छह मिनिट का रास्ता है।”
मैंनें देखा बाजार में दुकान पहले की बनिस्बत ज्यादा खूबसूरत और बड़ी-बड़ी बन गई हैं परन्तु दरगाह तक पहुँचने की गलियाँ अभी भी वैसी की वैसी है, जैसी बरसों पहले थी। आखिरी गली के छोर को पार करते ही मुझे खण्डहर के किनारे बनी दरगाह दिखाई दी। बड़ के पेड़ पर बंधी छत, और वही दीवार के बाहर निकली हुई बल्लियाँ, जहाँ कबूतर बैठते हैं। मन में सोचा आसपास इतना बदल गया है, परन्तु यह खण्डहर और दरगाह के दिन आज भी नहीं फिरे हैं। सब वैसे का वैसा ही।
पत्थर से बनी सीढियों पर चढ़ते ही देखा सामने एक बुजुर्ग पटिये पर बैठ किसी आदमी से बतिया रहे थे। निग़ाहें बार-बार आसमान की ओर करते जैसे जबर के पर्दे के पार देखने की कोशिश कर रहे हो। सर के बाल एकदम सफेद, दाढ़ी करीने से तराशी, चौकड़ी की लुंगी, सफेद कमीज, जिस पर लाल-लाल निशान, चमकती आँखें और सिर पर बंधी एक सफेद पट्टी। मैंने उन्हें सलाम किया, जिसका उन्होंने माकूल जबाब दिया और तखत पर बैठने का इशारा किया। इतने में पहलवान ने कहा “इमदाद मियां ये सज्जन दूर से आए हैं, आप को याद कर रहे थे, मैं इन्हें आप के पास ले आया” और वे भी पास में बैठ गए।
मैं असमंजस में था कि अपना परिचय कैसे दूँ, ये मुझे क्या पहचान लेंगे? फिर भी उन्हें बताया कि पैंतालिस वर्ष पूर्व में आगे वाले मोड़ पर मेहता साहब के मकान में रहता था और इसी रास्ते से स्कूल जाया करता था। रूककर कुछ देर तक आपके मोतिया कबूतरों को देखा करता था। ऐसे परिन्दे मैने आज तक कहीं नहीं देखे। इतना सुनते ही उन्होंने अपने सिर पर हाथ रखा और मेरी तरफ आश्चर्य से देखते हुए बोले- “अरे! आप शाह साहब के सहाबजादे, बाबा भैय्या हो।” इतना कहते ही उठकर मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। फिर वहीं से आवाज दी “अरे रफीक मियाँ पानी की कुण्डी में साफ पानी भर दो और हाँ सभी काबकों को खोल दो।
देखते ही देखते पच्चीस-तीस सफेद झक्क कबूतर पंख फड़फड़ाते हुए मैदान में आ गए। कबूतरों की किल्लौल और गुंटरगू की आवाज मे अपना सुर मिलाते हुए उन्होंने कहा- “आठ परिन्दें सुबह उड़ाए सभी अबर में बंद हैं, शाम तक इंतजार करवाएंगे।” फिर बोले “बाबा भैय्या, इमदाद परिन्दों को आसमान में उड़ने से कभी नही रोकता, चाहे आसमान में कितने ही बाज उन पर वार करें। पिछले तीन दिनों से, आसमान और जमीन पर बाज, लघ्घड़, कुईयाँ ने भारी उत्पात मचा रखा है, वह देखो उन तीन घायल परिन्दों के पेटे परसों ही मैंने सिले हैं, और लेप लगाया है, और एक जो बैठा हुआ है उसका भी बाजू टूट गया है। खुदा का रहम हुआ तो निश्चित ही बच जाएंगे।
“बाबा भैय्या, अमन को चाहने वाले आसमान में ही नहीं उड़ते वे जमीन पर भी रहते हैं और इसी तरह अमन के दुश्मनों, जुनुनियों और मतलबपरस्तों का शिकार होते हैं। इबलिस का अमन से क्या वास्ता! यह इलाका भी इन्हीं का शिकार हुआ। पत्थर बरसे, हथियार चले, आगजनी हुई, कर्फ्यू लगा, लोग परेशान हुए, समझाइश देने में इमदाद ही नहीं, सात-आठ अमन चाहने वालों के हाथ-पैर और सिर फूटे। इकबाल पिंजारा, रामूदादा, मोचियों के दो छोटे बच्चे अभी भी अस्पताल में भर्ती हैं, खुदा खैर करे ! एक फकीर केवल दुआ कर सकता है। अपने सिर पर बंधी पट्टी को सहलाते हुए कहा- “इस फकीर का खून तो यहीं की बस्ती वालों के दिये अन्न से बना है। जिस पर उनका पूरा अधिकार है।” फिर अपनी याददास्त पर जोर देते हुए बोले “सन अड़तालीस के भारत विभाजन और इससे हुए पलायन एवं दंगों के दिनों में मेरे उस्ताद बाबा रहमतुल्ला ने कहा था “देख इमदाद ये देश, ये जमीन हमारी भी है। हम यहाँ पैदा हुए हैं और मरेंगे भी यहीं। किसी के बहकावे में मत आना, इसी खण्डहर में रहना और इन मोतिया परिन्दों को आसमान मे खूब उड़ाना जितनी ऊँचाई ये चाहे।” कहते-कहते फकीर की आँखें नम हो गई। वे थोड़े से सुस्ताने लगे। हम सभी चुप ।
मैंने आसमान की ओर देखा, सर्दी का सूरज मध्य में था। शायद एक बज गया था। मैंने अपनी आँखें फकीर के चेहरे पर गड़ा दी। बूढ़ी मगर, आसमान को चीरकर देखने की, कबूतर परखने वाली आँखों में आँखें डाल प्रश्न किया आगे क्या ? फकीर ने आसमान की ओर दोनों हाथ उठाए और बोला- “बाबा भईया !
कितने भी बाज, लघ्घड़, कुईयाँ मोतियों पर झपटें पर, इस इमदाद फकीर के अमन पसन्द परिन्दे आसमान में इसी तरह उड़ते रहेंगे।” मैने अब उठते हुए कहा – आसमान सभी का है। सभी को हक है उड़ने का। खुदा करे इमदाद के मोतिया कबूतर आसमान में हमेशा ऐसे ही उड़ते रहें। तखत से चार आवाजें आई “आमीन” ।
मैंने फिर मिलने का वादा कर उनसे इजाजत ली – “खुदाहाफिज”
कला जोशी
320 इन्द्रपुरी कालोनी इंदौर मध्यप्रदेश
9827593358
[email protected]

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1 टिप्पणी

  1. अच्छी कहानी है कला जोशी जी आपकी! जब भी किसी तरह के सांप्रदायिक दंगे फसाद होते हैं हमेशा आम आदमी ही मुश्किलों में आता है। पता नहीं यह आम आदमी स्वयं के लिये स्वयं कब ‌‌जागेगा।
    पर एक बात तो है कि हम जहां अपना बचपन बिताते हैं वह समय यादों में ठहर जाता है। और हमेशा इस तलाश में रहता है कि वहां एक बार तो होकर आ जाएं।

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