Wednesday, October 16, 2024
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कुसुम पालीवाल की कहानी – आख़िर क्यों ?

आज निशा पांडे का मन बेचैनी की उस कगार पर था जिस जगह पर पहुँच कर इंसान के लिए बस एक ही रास्ता बचता है  ……क्या है वो… कही जीवन का अन्त तो नही ? लेकिन वो अच्छी तरह जानती है कि जीवन का अंत किसी भी समस्या का समाधान नही होता है ।
आज जब दुनिया में लोग 21 वीं सदी में जी  रहे हैं , जिस समय में इसरो “चन्द्रयान -2 “ को चन्द्रमा पर भेज चुका है । लेकिन उसे आश्चर्य हो रहा है ,वो देख रही है अपने चारों ओर कि आज भी लोग अपनी मानसिकता के ग़ुलाम ही बने हुए हैं ….. आज भी धर्म और जाति के भेदभाव में उलझे हुए हैं । उसे लोगों की इस सोच पर बेहद दुख होता है ।  कि , कुछ लोग इन्सान को इन्सान की नज़र से न देख कर उसको जाति – धर्म से पहचानते हैं । ये कौन से लोग हैं ? या धर्म और जाति को लेकर कौन सा डर है ऐसे लोगों के ज़हन में ? वो ऐसी कौन सी चीज है , जिस जगह पर आ कर ये सभी ठहर जाते हैं ? वो कौन सी विवशता है जिसके पीछे ये सब चल पड़ते हैं ? इस तरह के अनगिनत सवालों के बाद सिर्फ़ एक ही सवाल ठहर जाता है उसके मन में आकर .. कि , आख़िर ऐसा क्यों है ??
इस तरह के सवालों ने आज फिर उसके मन में उथल -पुथल मचा रखी थी । और वो कुछ सहमी , कुछ घुटती साँसों के साथ अपने वर्तमान से बहुत पीछे  के उन दरबाज़ों में झाँक उठी थी जब वो बहुत छोटी हुआ करती थी , अचानक से उसके होंठों से कुछ शब्द अनायास ही झरने लगे थे ….
धुंधला सा कुछ
कुछ कराहती सी यादें
सिमटती , सुकड़ती और रेंगती हैं
आज भी उसके ज़हन में
रह -रह कर उसके मन को
आज भी नोचती -कचोटती सी
हरदम रहती हैं …।।

बात उन दिनों की है जब वो बहुत छोटी हुआ करती थी ।सब भाई बहनों में वो ही थी एक  —साँवली रंगत के साथ , पर नैन-नक्श ठीक-ठाक , दिल की भोली और साफ । बचपन की उम्र और हर बातों में बेफिक्री और जिसमें व्याप्त थी एक निश्छल अल्हड़ता । कहने का मतलब है कि सामाजिक बुराईयों यानि कि ,समाज में फैली वर्ण व्यवस्था के भेदभाव रूपी आवरण ने उसके अस्तित्व को अपने चंगुल में तब तक जकड़ा नहीं था या फिर आप ये भी कह सकते हैं कि दबोचा नही था । वो कारण भी उसकी बाल्यावस्था का ही रहा होगा । कुछ भी कहा जा सकता है लेकिन बात सिर्फ एक ही निकलती है कि उस समय  वो ये नहीं जानती थी कि , क्या उसके लिए बुरा है और क्या समाज के लिए भला है  ।

उसे आज भी याद है  मम्मी -पापा और सब भाई -बहन …हर साल स्कूल की छुट्टियों में अपने गाँव अपनी अम्मा के पास जाते थे । उसको तो खेत अच्छे लगते थे और रेल में बैठना बहुत भाता था । वहाँ की ग्रामीण महिलाओं के परिधान को देखना और उन औरतों का घूँघट मार कर कुँए से पानी भरकर लाना , या फिर स्टेशन से बैलगाड़ी में बैठकर घर तक जाना ये सब कुछ बहुत भाता था उसके बाल  मन को । वो गाँव में बाबा की बड़ी सी कोठी , घर के पुरुष बुजुर्गों को बौहरे जी या लम्बरदार जी और महिला बुजुर्ग को बौहरिन या लम्बरदारनी कह कर पुकारा जाना ।
आज फिर गर्मी की छुट्टियों में वो सभी लोग गाँव के लिए रवाना हो गये थे । उसने हमेशा की तरह सबसे पहले ही ट्रेन में खिड़की वाली सीट पर क़ब्ज़ा कर लिया था । शहर से गाँव जाना उसके लिए एक कौतुहल का विषय रहता । गाँव की हर बात शहर की बात से अलग होती ,यहाँ का ग्रामीण जीवन और यहाँ की प्रदूषण रहित शुद्ध हवा । उसको यहाँ की हर चीज़ अलग ही लगती । फिर चाहें कोठी के बाहर
खड़ा नीम का पेड़ हो या वो दादी का बात-बात पर टोकना और चिल्लाना हो या फिर भैंसों को सानी लगाते हुए देखना हो या कुट्टी -चारा काटते हुए किसी को मशीन चलाते हुए देखना , या फिर किसी को भैंस के गोबर से कंडे कहो या उपले को थापना हो ….उसके लिए ये सब काम आश्चर्य से कम नही थे ।
अगर खेल की बात की जाये तो उसे हर खेल में बड़ा आनन्द आता था । वो कंचे हों या गिल्ली -डंडा ,या फिर गिट्टी -फोड़ हो , या गुट्टे खेलना हो ।  एक खेल में इस्तेमाल होता था साइकिल का टायर , इस टायर को एक सरकंडे से ठेलते हुए चलाना और उसके साथ-साथ दौड़ने में उसे बड़ा अच्छा लगता था ।
लेकिन एक बात उसको बहुत परेशान करती , जब- जब घर पर जमादारिन पखाना  साफ करने आती तो उसको देख कर वो हैरत में पड़ जाती , आँखे फाड़ कर देखा करती और उसके जाने के बाद बीसियों सवाल करती और अंत में उन सवालों के कारण  उसको अम्मा से बहुत सारी फटकार खाने को मिलती लेकिन वो अबोध समझ ही न पाती कि इतनी फटकार उसको क्यों पड़ती है …?
बस , वो ये सोचकर ही रह जाती ।
थोड़ा – थोड़ा याद है उसको , जब वो माँ और पिता के साथ पहले भी गाँव आई थी । बड़ी बहन तब गाँव में ही रहती थी शायद उनका लगाव अम्मा से कुछ ज्यादा था ।  वो उसकी तरह मम्मी की चिपकूँ  नहीं थीं ,इसीलिए तो अम्मा के पास बहुत दिनों तक रह लेती थीं ।इसी कारण से ग्रामीण भाषा पर उनकी पकड़ सध गई थी । वो गाँव की भाषा को अच्छी तरह बोलना सीख गई थीं । उसे थोड़ा – थोड़ा याद है कि अन्दर घर में घुसे ही थे वो लोग कि बहन ने स्नेह वश छोटे भाई को मम्मी की गोद से लेना चाहा  ।
“ आ ..आ जा टीटू …….”
 भाई बहुत छोटा था इसलिए वो मुँह मोड़कर मम्मी के सीने में छुप गया और उनकी  गोदी में नही गया तो ,वो तुरन्त ही बोल उठीं…..
“ चाची ! टीटू मो पे आबतु नाय “। वो माँ को चाची कहती क्योंकि इसका कारण पहले सयुक्त परिवार को ही माना जाता रहा है ।बच्चे अपने से बड़ों के द्वारा जो सम्बोधन सुनते हैं वहीं बोलने भी लगते हैं  , यहाँ भी यही हाल था कि बहन भी चाची बोलती थी । उस समय में अक्सर देखा जाता था । बहुत से बच्चे अपने चाचा को भाभी कहते सुनते तो  वही बच्चे अपनी माँ को ही भाभी कहने लगते थे ।खैर ..
जैसे ही उसने बहन को ग्रामीण भाषा में कहते सुना बस आँखे चौड़ी करके वो तुरन्त माँ से पूछ बैठी थी ….
“ मम्मी जीजी कैसे बोल रही हैं “ पूछने के पीछे कारण सिर्फ़ इतना था कि वो  ग्रामीण भाषा का प्रयोग कर रह थीं उसके लिए तो सब कुछ बहुत अजीब था , लेकिन उसके ऐसा बोलते ही किस तरह अम्मा ने उसके ऊपर चिल्ला कर हमला बोल दिया था । ..
“ अरे..! तुमई अंगरेजी की टाँग तोड़ो  ……मम्मी ..मम्मी ..तू ही सहर बाली बन , बो तो गाँम की भासा बोलेगी , बड़ी आई अंग्रेज़ी बाली .. जीजी कैसे बोल रहीं हैं ….हुँउ.. उउ..उ “.. और अम्मा का  इस तरह बड़बड़ा कर दालान  से अन्दर कोठरी में चला जाना । इस तरह से चले जाना उनकी आदत में शुमार था ।
वो जिसको पसन्द करती थीं उसके ख़िलाफ़ सुनना उन्हें नापसंद था जैसे कि कोई कुछ बहन के लिए बोल दे तो वो हमेशा की तरह दो मिनट की देर किये  बिना उस जगह  से उठ कर चली जाती थीं । अम्मा की ये बड़बड़ , टोका टोकी उसके बाल मन में बहुत से विचार और प्रश्न छोड़ जाती मसलन उसके मम्मी कहने से अम्मा को क्या तकलीफ़ होती है ? अम्मा उससे ऐसे कैसे डाँटकर  बोलती हैं ? वो ये जानती ही नहीं थी कि हर इन्सान का अपना एक व्यवहार करने का तरीक़ा होता है किसी में नरमाई तो किसी में अक्खड़पन …
वो आज सोचती है कि …शायद अति संवेदनशीलता इन्सान को हर चीज के वारे में .. हर किसी की बात के वारे में …सोचने पर मजबूर करती ही है । शायद ऐसे ही लोगों में से एक वो भी है ।
इसी लिए गाँव पसंद होते हुए भी उसे वहाँ की बहुत सी बातों  से आज भी एतराज था । जैसे कि गाँव का कोई भी दूसरी निम्न जाति का व्यक्ति  —भंगी , चमार , अहीर , धोबी या जो भी ब्राह्मणों से नीचा है वो व्यक्ति अम्मा और उसके  घर के किसी भी सदस्य के सामने खटिया तक पर नही बैठ सकता था । हाँ ..जो गाँव में ठाकुर , बनिए थे  वो ही संग उठते -बैठते थे , उसमें भी वो लोग जो  खेत – खलिहान वाले थे ,मतलब  जिनके पास खुद की जमीन जायदाद थी । जो उनके  खेतों में काम  करते थे मजाल क्या ..जो उनकी हिम्मत हो जाए बराबर में बैठने की .. जिसमें अम्मा के सामने तो बिल्कुल भी नही ।
इंसान की जगह बदल जाये तो गहरी नींद जल्दी नही आती है । ऐसा ही उसके साथ हुआ था । सुबह – सुबह , अचानक से किसी की आवाज़ सुनकर वो चौंक पड़ी थी । दौड़ कर उसने अपनी माँ की साड़ी का पल्लू हाथ में थाम लिया था । अम्मा से सवाल कर नहीं सकती थी क्योंकि डरती थी , कहीं डाँट न पड़ जाये .. तो मम्मी से ही पूछने लगी थी …
“ मम्मी ये लोग कौन है “ मम्मी ने बतलाया कि ये जमादारिन है  और उसके साथ में उसकी लड़की है ।
“ ये जमादारिन क्या होता है ? वो क्यों आई  है ? उसने अपनी आँखों को मलते हुए माँ की तरफ देखा और पूछा ।
“ अरे ..! तुझे हर बात से मतलब है , स्वीपर है लैट्रीन साफ करेगी , और उसे उठा कर ले जायेगी “ मम्मी ने उससे कहा तो लेकिन झुंझलाकर , लेकिन फिर तुरन्त ही  बोल उठीं थीं कि ..…
“तेरे पास कोई काम नही है क्या ? जा ..अपनी जीजी के पास जा उससे पूछ जो कुछ पूछना है ।
“ नही …..मुझे देखना है “ उसका इतना कहना था कि अम्मा की गरजती सी आवाज उसके कानों में पड़ी ।
“ ए .. छुटकी ..इतकूं आ..” वो समझ ही नहीं पाई कि अम्मा ने उससे क्या कहा है और वो वहीं पर बैठी रही थी ।..
“ जा .. अम्मा बुला रही हैं तुझे .. डाँट खानी है क्या तुझे ? मम्मी बोली तब उसे समझ आया कि अम्मा  उसे ही बुला रही थीं । वो डरती सहमती अम्मा के पास जा पहुँची थी ..क्योंकि अम्मा की कड़कती आवाज़ से वो बहुत डरती थी …वो ही नहीं ..गाँव के बहुत से लोग डरते थे ।
“ हाँ ..अ..म्मा ……”
“ लै .. जे चार रोटी भंगनिया को दै आ ।
“ भंगनिया कौन अम्मा ? उसके सवाल को सुनकर अम्मा ने उसे कैसे  घूर कर देखा था  । उसने पूछा ही था कि उसके सवाल का जवाब मम्मी ने दिया …
“ जमादारिन ….
“ अच्छा ….लेकिन अम्मा तो …भंग..नि…..
अरे देवी .. पढ़ाई बाद में कर लीजो , रोटी दे आ , नाए तो भंगन चली जावेगी  ….
और हाँ …ऊपर से ही डाल दियो  उसकी झोली में ..न ते कहीं छुल जाए बा क़ी साड़ी से ..।
“ ये..लो , अम्मा ने दी है “ और वो उन चार रोटी को उसकी साड़ी से बनी झोली में डालने ही वाली थी कि फिर से अम्मा की गरजती हुई आवाज अन्दर से आई …।
“ अरे ..! नेक ऊपर सै डाल रोटी , मिटे नैकऊ सहूर  न सिखाए हैं लड़की को ..जे हैं शहर बाली “ अम्मा डाँटते हुए अपने मुँह ही मुँह में कुछ बड़बड़ाने लगी थीं ।
“शहर में ..मिटे ..कुछ न सिखावें , .. बिनके लै तो भंगी चमार सब एक से ही हैं । अगर बस चलै तो जे इन सबन ए खोपड़ी पै बैठाय लें “….अम्मा बड़बड़ाए जा रही थीं और उसका अबोध मन फिर एक बार सोचने में लगा था कि क्या हो जाता ..अगर वो छुल जाती उससे ..?
पूरा दिन खेल कूद में बीत गया । शाम को रोटी खा कर  सब अपनी -अपनी चारपाईयों पर लेट गये थे
रात गहरी हो चली थी या उसे ही लग रही थी , शायद लाइट न होने के कारण । वो मम्मी के पास सोने के लिए उनके साथ ही चिपटकर बिस्तर पर लेट गई थी । तभी थोड़ी देर में फिर उसने  मम्मी से धीमे से पूछा था ।
“ मम्मी वो जो जमादारिन थी न..!.. वो लैट्रिन को सिर पर ले कर क्यों गई थी ? .. छी .. और ये छी ..कहते में उसकी आँखें किस तरह बन्द हो गई थीं , जैसे घिनिया गई हों । ये दृश्य आज भी उसे अच्छी तरह से याद है । क्योंकि उसके बाल मन को अन्दर से ये सब स्वीकार्य नही था । मन सवाल करने लगा था उससे कि कोई इतनी गंदी चीज को सिर पर कैसे रख सकता है ? उसने  तो कभी देखा नहीं था ,कोई इतना गंदा काम कैसे कर सकता है ?
उसकी अम्मा तो गोबर में पैर सन जाने पर भी नल के नीचे बैठा कर पूरा नहला देती हैं । उसके मन में खुतर – पुतर चल ही रही थी कि तभी ..
“ अरे …. तू सो जा .. इतना नही सोचा करते हैं , उन लोगों का तो काम ही ये है .. वो हाथ से नहीं किसी चीज़ से उठाते हैं जो लोहे की बनी होती .. उसे खुरपा बोलते हैं …अच्छा देख जीजी सो गई न ! तू भी सो जा .. ये फ़ालतू की बातों में दिमाग मत लगा , हैं पिद्दी सी ..बातें करवा लो बस “ ये कह कर माँ भी करबट लेकर सो गई थी । लेकिन उसके मन की जिज्ञासा अभी भी शान्त नही हुई थी ।
कहते हैं न पेट की भूख भोजन से शांत की जा सकती है लेकिन जब मानसिक जिज्ञासा की भूख लगी हो तो उसको कौन शांत करे ?
अभी भी उसके ज़ेहन में वो जमादारिन ही घूम रही थी ।
वो हर सुबह उठती तो फिर से उसी जमादारिन का इंतज़ार करता उसका मन । इस इंतज़ार का एक और कारण भी था उसकी बेटी । उसके साथ उसकी बेटी भी आती थी जो कि उसी की उम्र की थी । वो उसके साथ खेलना चाहती थी लेकिन वो उससे बात ही नही कर पाती थी  । अम्मा की सख्त चेताबनी थी कि उसे छूना नही है क्योंकि छू जायेगी तो नहाना पड़ेगा ।वो हमेशा वहीं बाहर कोठी के बड़े फाटक की छोटी खिड़की पर ही बैठी रहती थी । वो लड़की रंग में बहुत गोरी – चिट्टी थी इसलिए उसके मन को बहुत भाती थी । उसकी माँ को अम्मा सरोज भी कहकर बुलाया करती। बेटी बिल्कुल अपनी माँ जैसी ही तो थी , उसी सरोज की , जो रोज मैला से भरे डले पर  कोने में पड़ी चूल्हे की  राख डालती और रोजाना की तरह ही अम्मा से चार रोटी लेकर चुपचाप चली जाती थी ।
वो जितने दिन भी गाँव रही रोज ये ही सब देखा करती अपनी मासूम आँखों से …और शायद मन में उठते हुए ज्वलंत सवालों को ठीक उसी तरह राख से ढक देती जिस तरह सरोज को वो रोज देखा करती कि किस तरह वो उस डले में पड़े मानव मल को ढक देती थी .. ।
***
समय किसी का इंतज़ार नहीं करता ,उसकी अपनी ही एक रफ़्तार होती है ठीक इसी तरह उसकी भी उम्र बढ़ती जा रही थी और उसी के साथ – साथ उसके नन्हें मन में दबे सवालों ने आज उसके अंदर बवन्डर का रूप धारण कर लिया था क्योंकि उसके मन में उठते , उफनते सवालों का जवाब उसे कहीं से भी उस तक आता नही दिख रहा था ।
अब वो सोलह साल की हो गई थी । थोड़ा -थोड़ा  समझने लगी थी या ये कह लो कि उसे समाज द्वारा समझाया जा रहा था कि हिन्दू -मुस्लिम , भंगी -चमार , धोबी-जाटव कौन होते हैं ।
लेकिन शायद वो ठीक से समझ नही पा रही थी या फिर वो समझना ही नही चाहती थी । वो हमेशा यही सोचती कि जैसे हम हैं वैसे ही तो वो लोग हैं । ऐसी कौन सी चीज है जो हमारे से अलग है उनके पास । वही सब तो है उनके पास भी – दो हाथ -दो पैर , दो आँख, एक नाक ,और एक मुँह । फिर वो लोग हमारे जैसों से अलग कैसे ? हमारे और उनमें फ़र्क़ क्यों ?
ये सवाल उसके मन के एक कोने में हमेशा कौन्धता रहता था । इन सवालों की चुभन उसके संम्वेदनशील ह्रदय को हर दिन प्रति पल विदीर्ण करती जा रही थी ।
आज भी वो पल सामने खड़ा हो कर उसे निहार रहा है लगभग दसवीं या ग्यारहवी क्लास की बात है…वो और उसकी सहेली दोनों ही क्लास के मॉनीटर थे । वो थी पक्की पन्डित और उसकी सहेली पिछड़ी जाति की दलित । क्लास में उससे सब कहते कि इससे दोस्ती छोड़ दो , ये दलित है और तुम ब्राह्मण लेकिन उसने कभी नही बताया उसको ..कि सब दोस्ती तोड़ने की बात करते हैं .। वो दोनों एक साथ टिफिन शेयर  करतीं । एक साथ ही नल पर हाथ धोने जातीं । यहाँ तक कि दोनों के नम्बर भी एक से ही आते  , दोनों की दोस्ती इतनी पक्की थी कि बाकी बच्चों को जलन होने लगी । स्कूल में कुछ बच्चे अजीब-अजीब सी बातें बना कर उन दोनों को बरगलाने लगे , जिससे कि उनकी दोस्ती टूट जाए । कुछ बच्चों ने तो उससे दोस्ती तोड़ भी ली थी । उनका तो बस एक ही कहना था कि तुम पंण्डित हो कर एक छोटी जाति की लड़की को दोस्त कैसे बना सकती हो ? उनका ये सब कहना और पूछना उसको बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था । ये सब बातें उसके  तन बदन में आग लगा देतीं ।
वो दलित वर्ग की समस्या को साथ लिए , इसी कशमकश में उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ती जा रही थी । मन में एक द्वंद हमेशा ही ज्वार -भाटे की तरह उतार और चढ़ाव लिये शोर मचाता रहता । कहते हैं न ..! जब चाँद पृथ्वी के निकट चक्कर काटता है तो पृथ्वी से गुरुत्वाकर्षण इतना बढ़ जाता है की मन की तरंगें भी प्रभावित होने लगती हैं .. वही हाल उसका भी था । कुछ सवाल उसका भी पीछा नहीं छोड़ रहे थे ..।
एक बार उसके  कॉलेज में डिबेट होनी थी । उसमें उसने  भी हिस्सा लिया था । चर्चा का विषय था  “सभ्य समाज में दलित की जगह “ …। ये ही तो उसकी दुखती रग थी ।
उसके कॉलेज के  प्रिंसिपल साहब को उस पर बड़ा गर्व था । प्रिंसिपल साहब दलित वर्ग से ही आते थे और वो ठहरी उच्च ब्राह्मण कुल से । दलित वर्ग को लेकर उसके जो विचार थे वो उन  विचारों से बड़े प्रभावित होते थे , इसी लिए तो उन्होंने डिबेट के लिए उसका नाम सुझाया था ।
सुबह उठकर वो अपने कॉलेज में होने वाली डिबेट  की तैयारी में लग गई थी । पापा को इसकी जानकारी थी । पापा हमेशा से दलितों के प्रति उसके विचारों को सुनते आ रहे  थे लेकिन उसे तकलीफ़ तब होती जब उनकी ओर से उसे कोई भी प्रोत्साहन नही मिलता  , जो उसका मनोबल ऊँचा करता ।….खैर … उसने मन में आये विचारों को झटका और अपने कार्य में लग गई । कॉलेज जाने का समय हो गया था उसने अपने बैग को काँधे पर टाँगा और हाथ में फ़ाइल को उठाकर कॉलेज जाने के लिए बाहर निकल गई । उसके दिल की धड़कन तेज़ थी कि न जाने आज डिबेट में क्या होगा .. कैसे बोलेगी वो ..? सोच ही रही थी कि उसने आवाज़ देकर रिक्शा रोका और उस पर सवार हो कॉलेज के गेट पर पहुँच गई थी ..। रिक्शे से उतरी ही थी कि प्रोफ़ेसर सोलंकी ने आवाज़ दी ..।
“ निशा “
“ हाय सर .. गुड मॉर्निंग …हाँ जी सर ! कुछ कहना था सर आपको “ उसने प्रो.सोलंकी की ओर मुख़ातिब हो कर बोला।
“ अरे .. तुमने तो डिबेट में भाग लिया है , क्या है उसका टॉपिक ?
“ सर ! “ सभ्य समाज में दलित की जगह “ .. ये कह कर वो शंकित नज़रों से प्रोफ़ेसर सोलंकी को देखने लगी थी ।
“ हाँ .. आ.. याद आ गया .. अरे ..निशा ! ये क्या देख सुन रहा हूँ ? तुम एक ब्राह्मण परिवार की लड़की होकर दलित समुदाय के वारे में इतना सोचती हो  क्या ज़रूरत थी तुमको इस डिबेट में भाग लेने की ? जहाँ तक मुझे लग रहा है कि  प्रिंसिपल साहब के कहने पर ही लिया होगा तुमने इस डिबेट में भाग … अरे … वो खुद दलित हैं न , तो एक दिन सबको ही दलित बना कर छोड़ेंगे ..“ और वो ठहाका लगा कर हँस दिए थे ।
प्रोफ़ेसर सोलंकी बोले जा रहे थे .. उसको एक मिनट भी और उनके साथ खड़ा होना मुश्किल हो रहा था  ।
“ सर कोई काम हो तो बताएँ , वर्ना मैं लेट हो रही हूँ , सर मैं चलती हूँ “ ये कह कर उसने किसी तरह से उनसे पिंड छुड़ाया । और वो डिबेट रूम की ओर बढ़ी चली गई थी ।
मंच पर दो प्रोफेसर और तीन स्टूडेंट्स को देख कर वो भी मंच पर पहुँच गई थी ।
“ हैलो सर  ! क्या मैं लेट तो नही हूँ “ उसने सर से पूछा और साथ बैठी लड़कियों को सम्बोधित किया
“ हाय …नीलू , रचना , सीमा …!
“ हाय “ उनकी ओर से जवाब मिला ही था कि वो माइक पर प्रिंसिपल की आवाज सुन कर चौंक उठी थी । उन्होंने डिबेट में भाग लेने वाले चारों स्टूडेंट्स के नामों से परिचय कराया और डिबेट किस विषय पर है ? उसका टॉपिक क्या है ? सब कुछ बताने के बाद वो अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गये थे । डिबेट में सबने दलित वर्ग को लेकर अपनी – अपनी बातें रखी । अब बोलने की मेरी बारी थी , सबकी आँखें उसी की ओर टिकी थीं । वो सीट से उठी और माइक के स्थान पर जा पहुँची … उसने एक लम्बी सी साँस भरी और कहना शुरु किया ….
“ मैं निशा पांडे …….
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि आज का विषय दलित समाज पर है । आप सभी जानते हैं कि मैं एक ब्राह्मण परिवार यानि कि सवर्ण परिवार से आती हूँ .. ये सोचकर आपमें से कुछ लोगों को हैरानी भी होगी कि आखिर मुझे दलितों से इतना लगाव क्यों है ? ..  मैं उस बात की परवाह नहीं करती कि लोग क्या और कैसा सोचते हैं ? मैं बस इस बात की परवाह करती हूँ कि ..मैं कैसा सोचती हूँ उन लोगों के वारे में ? … मैं सिर्फ़ कर्म में विश्वास करती हूँ …..हर व्यक्ति अपनी सामर्थ और ज़रूरत के हिसाब से अपने कार्य को चुनता है ..खैर ..
दलित …… जिनको बहुत पहले अछूत भी कहा जाता था , शायद कुछ आज भी कहते होंगे …लेकिन आज कुछ संशोधन कर दिया गया है शब्दों में .. आज अछूत नहीं अनुसूचित जाति से सम्बोधित किए जाते हैं ये दलित ..। जैसा आप में से कुछ लोग ये तो जानते ही होंगे कि हमारे ब्रिटिश साम्राज्यवाद में इन लोगों को दबे – कुचले लोग कहकर भी सम्बोधित किया जाता रहा है । मेरा पूछना आप सम्भ्रांत लोगों से ही है .. कि ऐसा आखिर क्यों..?
ये कैसी व्यवस्था रही है हमारे समाज में जाति को लेकर ? क्या ये पूँजीपतियों की पूँजीवादी और साम्राज्यवादी सोच का कोई खेल तो नही .. कि इस वर्ग को बचाकर रखो , इनकी हिफाजत करके रखो , जिससे जाति की व्यवस्था नामक तवे पर राजनैतिक रोटियाँ सिक सकें और ये समाज हमेशा एक वोट बैंक पर ही सीमित रहे ..।
ये कैसा संविधान है ? ये कैसी व्यवस्था है ? जो इंसान को इंसान न समझकर एक जाति में बाँट देती है । क्या दोष है इन दलितों का या इस दलित समाज का ? दो हज़ार साल पहले से चली आ रही ये वर्ण व्यवस्था .. क्या आज के समाज को मान्य है ? काम कोई भी हो .. कभी भी कोई काम छोटा या बड़ा नही होता है । आज भारत के न जाने कितने युवा विदेश में शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं उनको विदेश जाना पसंद है लेकिन वहाँ की समानता ( इक्विटी) से कुछ सीख कर नहीं आते , वहाँ न तो कोई काम छोटा या बड़ा है और न ही जाति का कोई मतभेद । तो हम क्यों इस भेदभाव को अब तक पाले हुए हैं और …कब तक पाले रहेंगे ? “
हॉल तालियों से गड़गड़ा उठा था … वो वापस अपनी चेयर पर आ कर बैठ गई थी .. कुछ लोग गर्व भरी निगाह से उसको देख रहे थे तो कुछ बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से …. उसको इतना तो समझ आ चुका था कि आज भी लोग अपनी मानसिकता के ग़ुलाम है वो उससे ऊपर उठकर सोच ही नही सकते..।
उसको घर आते – आते शाम का चार बज गया था , उसने देखा माँ अपने कमरे में आराम कर रही थीं , पापा अभी ऑफिस से नही आये थे , दोनों छोटे भाई स्कूल का होमवर्क कर रहे थे । वो  अपने रूम में चली गई थी ये सोच कर कि थोड़ा आराम करेगी फिर माँ को कॉलेज के किस्से सुनायेगी कि किस तरह उसके बोलने पर बीच – बीच में तालियाँ बजती थी , वो बहुत खुश थी । थोड़ी ही देर में उसकी आँख लग गई थी ।
“ गुड्डा .. ओ गुड्डा .. दीदी आई क्या ? .. मम्मी की आवाज़ सुनकर उसकी आँख खुल गई , उसने मुँह धोया और वो मम्मी के पास आ बैठी ।
“ कब आई और कैसा रहा ? मम्मी ने पूछा
“ सब फ़र्स्ट क्लास मम्मी .. झंडे गाड़ दिये मम्मी .. झंडे .. “ ये कह कर वो मटके में से पानी लेकर पीने लगी ।
“ हाँ झंडे ही गाड़कर आ रही हो , सुन कर आ रहा हूँ .. बहुत नाम कमाओगी हमारे पांडे समाज में “ घर में घुसते हुए पापा की व्यंग्य भरी आवाज़ को सुनकर वो चौंक उठी थी ।
“ क्या हुआ , ऐसे क्यों बोल रहे हो लड़की से ? मम्मी ने सवाल किया ही था कि पापा कह उठे ..
“खुद पूछ लो अपनी लाड़ली से .. अरे ..मुझको वो प्रोफ़ेसर सोलंकी मिले थे , वही बता रहे थे आपकी लड़की के कारनामे । दलित समाज की इनको बड़ी भारी चिंता है । आज कॉलेज की डिबेट  में तुम्हरी बिटिया दलित समाज की चिंता बखान रहीं थीं , देखे रहना …कहीं ये समाज और संविधान दोनों न बदल दें । कहीं दलित समाज का ही लड़का न किसी दिन पसंद कर लाएँ और हमारी खोपड़ी पर लाद दें । ये जो तुम्हरी लाड़ली हैं न ..आजकल पंख बहुत फैला रही हैं इनके पंख काटने ही होंगे , इनको हम शिक्षित करना चाहते थे लेकिन ये नेता बनने को तैयार हैं । इनको आजकल हमारी इज़्ज़त और औहदे का कोई भान नहीं है “ ….पापा ऊँची और कड़क आवाज़ में मम्मी को न जाने क्या – क्या बोले जा रहे थे …।
“ ये क्या कह रहे हैं निशा ! इधर आओ तो जरा  …बच्चा तुम क्या किये हो कॉलेज में ..हमको बतलाओ तो । कल तुम्हारे लिए लड़का देखना है और तुम ये क्या फ़ज़ीहत कर रही हो कॉलेज में … “ अब मम्मी भी हमको निशाना पर ले ली थीं..।
“ अरे कुछ नहीं किया हमने तो , हम तो टॉपिक पर ही बात कर रहे थे ….” वो कह भी न पाई थी अपनी पूरी बात को कि , फिर पापा बोल उठे थे … ।
“ परसों राजेंद्र बाजपेयी और उनका पूरा परिवार आ रहा है इनको देखने ..” कह दो इनसे ..ये कान खोल कर सुन लें ..।
पापा की बातें और विचार सुन कर वो रसोई की चौखट पर ही खड़ी की खड़ी रह गई थी , और सोचने लगी कि यही वो पापा हैं जिन्होंने एक  लम्बा समय सरकारी नौकरी में काट दिया और अब कुछ ही समय रिटायरमेंट में बचा है । जिन्होंने न जाने कितने ही किस्से हम बच्चों को सुनाये हैं – मसलन कि फला व्यक्ति की सोच कभी नहीं बदलेगी …फला व्यक्ति छोटे लोगों के प्रति कठोर है , वो बहुत छूआछूत मानता है वग़ैरह …..वग़ैरह , उसको तो कुछ भी समझ में नही आ रहा ..ये सब क्या है ?   …मुझसे पापा को समझने में कहाँ भूल हो गई । जो लोगों में कमियाँ ढूँढते थे वो आज अपने लिए ये विचार रखते हैं ।     इनका मन दलितों के प्रति आज के समय में  भी अस्पृश्यता की भावना से ग्रस्त है । वो शायद बगावत भी नहीं कर सकती थी क्योंकि उनकी बेटी जो थी … शायद ये भी एक कठोर सत्य ही है कि वो भी कहीं न कहीं इसी समाज का हिस्सा थी । उसे आज पूरी खबर हो चली थी कि उसकी एक नहीं चल सकती .. या फिर ये कह लो कि वो एक बेटी थी जिस बेटी पर दो कुलों की रक्षा के साथ- साथ  उनके सम्मान का भी दायित्व उसी के  कंधों पर ही होता है ..। ये सब  सुनने और सोचने के बाद उसका मन बड़ा खिन्न हो चला था । वो ये सोचने पर बाध्य हो गई थी कि हमारा समाज आज भी दोगली नीति पर चलता है । वो फिर कोई भी क्यों न हो ….बाहर बोलने के लिए कुछ और जब अपने ऊपर बात आये तो कुछ । ये दोगली नीति उसे न पहले पसंद थी और न ही आज … लेकिन वो करे भी तो क्या करे ? वो अपनों से बग़ावत कर नही सकती थी , जिस माता – पिता की गोदी में खेली थी उनका सिर उसकी वजह से नीचा हो ये भी तो उसको गवारा नही । वो अपना दर्द किसको  बताए , जो गरीब दलितों के हित में उसके ह्रदय में  है । आज वो दोगली मानसिकता के दर्द को लेकर छटपटा उठी थी वो अपनी ही नज़र से नज़र मिलाने में संकोच कर रही थी । उसको अपनी ही नज़रों में मर मरकर भी जीना पड़ रहा है ये बात उसको कचोट रही थी ।
वो कुछ न बोली और सीधे अपने कमरे में घुस गई । उसने कमरा अंदर से बंद कर लिया था । वो किसी से भी अभी कुछ बात नहीं करना चाहती थी । अपनी आँखों पर दोनों हाथों को रख कर वो चुपचाप लेट गई थी । उसको आज अपनी शिक्षा भी बेमानी नज़र आ रही थी ।
वो सोच रही थी हम आज भी कौन सी सदी में जी रहे हैं ? हम आज उस सदी में पहुँच चुके हैं जिस सदी में इन बातों के लिए कोई जगह होनी ही नही चाहिए । हम सब इंसान हैं । हमारा धर्म सिर्फ़ इंसानियत होना चाहिए , हमारा धर्म सिर्फ़ कर्म होना चाहिए न कि जातिवाद -छूआछूत और ये भेदभाव । इन सब भावनाओं से ऊपर भी बहुत कुछ है जो हम सभी प्राणियों को एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देता है —“ वो है मानव धर्म ….”
लेकिन  वो सोच रही है कि इसका दोष किसको दिया जाये ? समाज , परिवार … या राजनीतिज्ञ लोगों को ….?
आज भी उसके प्रश्नों का उत्तर उसको नही मिला है । आज भी उसको बचपन की वो जमादारिन अच्छी तरह से याद है जो मानव मल के मैला को राख से ढक देती थी और उस डले को अपने सिर पर ढोकर लेकर जाती थी । आज भी उसको अपने वो ही सवाल उसी राख के नीचे दबे हुए दिखाई दे रहे थे । आज भी वो उन्हीं प्रश्नों के ज्वलंत तीरों से घायल होती रहती है । आज शायद मशीनी विकास , सड़कों और सुलभ शौचालयों का विकास सबको नज़र आ रहा है लेकिन उसके  सवालों की चीत्कार किसी के कानों तक नहीं पहुँच रही थी … उसके खुद के कानों से भी रक्त बह रहा है लेकिन वो इससे अनभिज्ञ है । आज विकास अपनी कितनी भी चरम सीमा पर हो लेकिन उसकी नज़र में विकास की एक परिभाषा अलग ही चल रही है .। वो है “ मानसिक उत्थान “…..जब तक व्यक्ति धर्म और जाति विशेष के भेदभाव से ऊपर उठकर नहीं सोचना शुरू करेगा ..उसे विकास कहीं पर नज़र नही आयेगा , वो उसकी तरह ही तड़पेगा , चीखेगा और उसको उसकी तरह ही अपनी आख़िरी साँस तक अपने इस प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी …वो आपसे प्रश्न करती है और करती रहेगी ——आख़िर क्यों..?
कुसुम पालीवाल
कुसुम पालीवाल
शिक्षा - एम. ए. प्रकाशित पुस्तकें— चार काव्य संग्रह, दो कहानी संग्रह. संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. अतिसुन्दर

    कथा-कहानी गढ़ना और उसे जस का तस परोस देने का उपक्रम क्या और कैसे होता है उस शिल्प को यह प्रस्तुति सहज रूप से सम्प्रेषित कर गयी है.
    बधाई
    सामयिक, व्यावहारिक एवं सुरुचिपूर्ण तथा घटना प्रवाह में गति ने इस कहानी को जीवन्त बना दिया है.
    सुश्री कुसुम पालिवाल कुशल लेखिका और कवियत्री हैं जिस कारण उन्हें पढ़ते हुए पाठक स्वयं भी समृद्ध होता है.
    मंगलकामनाएँ
    .
    डॉ॰ राजीव श्रीवास्तव

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