Sunday, September 8, 2024
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नासिरा शर्मा की कहानी – अपराधी

राम मनोहर त्यागी को रिटायर हुए अभी साल ही गुज़रा है, मगर उन्हें लगता है कि सौ साल लंबा कारावास भुगतकर बैठे हैं। सरकारी नौकरी ख़त्म हुई, क्वार्टर छूटा,यार–दोस्त बिछड़े, शान और दबदबा गया, शहर बदला। उस वक्त जब सबकुछ गुज़र रहा था तो उन्हें महसूस हो रहा था कि गुलामी से पिंड छूटा, भटकन से फुरसत मिली। अब वह नए शहर में जाकर नई ज़िंदगी शुरू करेंगे; मगर बेटे के घर आकर उन्हें महसूस हुआ कि वह यहां कुछ भी नया नहीं कर सकते हैं। सुबह से शाम गुज़र जाती है, न किसी से मिलना , न जुलना। इस उम्र में मित्रता केवल काम की जगह तक सीमित नहीं रह जाती है बल्कि एक–दूसरे के घरों की बैठक तक सिमट जाती है । पास–पड़ोस में दो–तीन घर हैं, मगर कौन जाए। धुरेंदर कई बार कह चुका है कि पापा, दीक्षित जी के घर हो आइए, वह कई बार बुला चुके हैं; मगर उनसे नाता क्या जोड़ना! जब वह पोते–पोतियों का नाम शुद्ध हिंदी में नहीं रख पाए तो उनके घर का खान–पान क्या पाक–पवित्र रह गया होगा! उनसे मन बांटने का आधार क्या होगा? हमारे विचार ही नदी के दो पाट की तरह बेगाने होंगे।
राम मनोहर त्यागी पुलिस के महकमे में थे । शराब और रिश्वत से दूर रहे। पूजा–पाठ , सच और ईमानदारी से उनकी दोस्ती गहरी रही है। पत्नी भी उनको अपने स्वभाव की मिली थीं, जो सामाजिक दृष्टि से बड़ी व्यावहारिक थीं। मीठा बोलकर भी वह किसी ऐसे–वैसे के घर खाती–पीती नहीं थीं। पड़ोस में कुरैशी हैं। अब उनसे क्या बात करना । सच पूछो तो उनके घर में सुबह–शाम मांस बनता होगा और मैं ठहरा शुद्ध शाकाहारी … उनके यहां पानी पीना भी सहन नहीं कर पाऊंगा। मेरा बेटा धुरेंदर मेरी मज़बूरी नहीं समझता कि मैं उम्र के इस दौर में अपने को एकाएक नहीं बदल सकता,जिसने कभी पुलिस वालों की तरह न इधर – उधर खाया–पिया , न करें हाथ–पैर मारे हों; जो संस्कार मिले उन्हीं पर अडिग रहा। पराई औरतों को मां–बहन समझा और लहसुन–प्याज़ से परहेज़ किया, वह एकाएक चोला कैसे बदल सकता है?
शाम बड़ी उमस भरी थी। बिजली को गए लगभग दो घंटे हो गए थे। गर्मी से परेशान परिवार के सारे सदस्य बालकनी पर बैठे थे। पंखा झलने के बावजूद मच्छरों के डंक ने शरीर में जहां–तहां जलन भर दी थी।
“मम्मी , कल मेरा टेस्ट है और यह लाइट…”
“आ जायेगी।” मुक्ता ने बेटी का गाल थपथपाया। मगर उसे ख़ुद चिन्ता खाए जा रही थी कि पूरी पचास कॉपियां देखनी हैं। कल हर हालत में उसे नंबरों की लिस्ट ऑफ़िस में जमा करनी है। यही अच्छा किया जो खाना पका लिया, वरना इस गर्मी में किचन में खड़ा होना मुश्किल था।
“डैडी आ गए।”अंधेरे में हेड लाइट देख टिंकू चहका।
“पूरी कॉलोनी अंधेरे में डूबी है।”धुरेंदर शमा की पीली रौशनी से भरे कमरे में दाख़िल होते हुए बोला ।
“कोई मेजर फाल्ट है।” मुक्ता ने पानी से भरा गिलास पति की तरफ़ बढ़ाया।
“पापा कहां है?” टाई की नॉट खोलता हुआ धुरेंदर बोला ।
“दादा जी बाहर बैठे हैं।” टिंकू ने कहा । “और पापा, आपने आज कैसे दिन गुज़ारा? कहीं गए थे?” बालकनी में आकर बेटे ने पिता से पूछा।
“कहां जाऊं,बेटा? मेरे लिए यह घर ही भला।”धुरेंदर को जवाब दे त्यागी हंस पड़े।
“सारे पड़ोसी आपको आदर और सम्मान से बुलाते हैं। उनके यहां भी बुज़ुर्ग हैं जो दिन–भर अकेले रहते हैं। दीक्षित के पिता; उनको गठिया है वरना वह ख़ुद आपसे मिलने आते … आप पहले कितने सोशल थे! एक ओल्डमैन क्लब क्यों नहीं बना डालते?”
“तब की बात और थी, मिलना–जुलना व्यक्तिगत ज़रूरत नहीं थी बल्कि नौकरी की मजबूरी थी। मगर अब, जब मजबूरी नहीं रही तो मन ज़रूर करता है कि कोई अपनी पसन्द और समझ का आदमी मिले, दो बातों का सुख भी मिले; वरना बेकार में हँसना , गप्पे मारना मुझे कुछ उचित नहीं लगता।”
“फिर भी पापा , समझौता तो करना पड़ेगा, वरना आप बीमार पड़ सकते हैं!” धुरेंदर ने चिन्ता व्यक्त की।
तभी बत्ती आ गई और सब कमरे की तरफ़ भागे। राम मनोहर जवाब नहीं दे पाए, मगर मन ही मन कहने लगे, “चतुर्वेदी जी हैं जो बाज़ार के दूसरी तरफ़ रहते हैं। उनके घर जाना मुझे अच्छा लगता है; मगर रोज़ तो नहीं जा सकता हूं। बहू –बेटे, पोते –पोती नौ बजे घर छोड़ देते हैं। अब उनसे क्या बात करें। श्रीमती जी को भी मरे दस साल गुज़र गए हैं। तन्हाई तो तब से है; मगर ऐसी क़ैद जिसमें दम घुटने लगे, यह मेरा पहला अनुभव है।”
रात के बारह बज रहे थे। मुक्ता मेज़ पर झुकी कॉपियां चेक कर रही थी। धुरेंदर को बार–बार बिस्तर पर करवटें बदलते देख वह परेशान हो उठी।
“पेट में दर्द है क्या?”
“नहीं।”
“फिर सो क्यों नहीं रहे हो? कुछ ऑफ़िस में…”
“अरे नहीं, वहां क्या होना है! मैं हफ्ते –भर से बहुत परेशान हूं कि पापा इस फ़्लैट में सारे दिन अकेले रहते हैं। काम करते–करते एकाएक खयाल आ जाता है तो मन घबराने लगता है।”
“चिन्ता की बात हो है, मगर उन्हें भी अपने को बदलना होगा। पढ़ने का उन्हें शौक़ नहीं, टी. वी. देखते नहीं, बागबानी करना उन्हें पसन्द है तो हमारे पास कुल पंद्रह गमले हैं। फील मुझे भी बहुत होता है उनका अकेलापन।”
“आज पापा ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि मैं जब रिटायर हूंगा तो क्या फील करूंगा! नौकरी के साथ एक पूरी व्यवस्था आपसे जुड़ी रहती है और एकाएक उसके कट जाने से …”
“तभी कहते हैं कि इंसान को एक–आध शौक़ रखने चाहिए। पापा को अपनी जड़ता तोड़नी पड़ेगी।”
“मुश्किल लगता है। जहां जिस शहर में हम रहे , पापा ने मकान की जगह पड़ोसी को अधिक परखा कि वह कौन है, कैसे स्वभाव का है। सच पूछो तो हमारा बचपन ब्राह्मण समाज के अलावा कुछ देख नहीं पाया। रुड़की न गया होता तो मेरी आंख न खुलती कि हमारे अलावा भी कुछ है।”
“पापा तो इतना घूम–फिरकर भी अपने तक सीमित हैं… अच्छा , अब सोना चाहिए।” इतना कहकर मुक्ता ने मेज़ समेटी और बत्ती गुल कर बिस्तर पर लेट गई।
“काश ! पापा रूमानी हो सकते तो …”
“शटअप! वह तुम्हारे पिता हैं।” मुक्ता अंधेरे में हंस पड़ी।
“तभी तो कह रहा हूं कि ज़िंदगी का हर मोड़ एक नया आयाम होना चाहिए। जीवन बढ़ने का नाम है,घटने का नहीं। सच पूछो तो इनसान चालीस के बाद समझदार और पचास के बाद ज़िंदगी के असली रंग पहचानने की क्षमता प्राप्त करता है। उससे पहले तो वह सिर्फ़ जोश और उमंगों से भरा एक पारा रहता है।”
“देखो, मुझे सुबह पांच बजे उठना है। बातों में लग गई तो…” मुक्ता करवट बदलकर लेट गई। थकी थी, सो गई। मगर धुरेंदर को नींद कहां! दिमाग़ है कि सोचना बन्द नहीं करता है। अब सुई इसी मुद्दे पर टिक गई थी कि यदि पापा अमेरिका में होते तो क्या करते? उनकी दूसरी बीवी उन्हें पुराना कुछ भी जीने नहीं देती, ज़िंदगी का गुज़रा हुआ सोचने न देती। तब पापा जीने की ललक के साथ देश–विदेश घूमते, या फिर किसी सामाजिक कार्य में लग बुढ़ापे में शांति की तलाश करते…ख़ैर,जो भी करते,मगर इस तरह जाति–पांत, खान–पान की रेखाएं खींच संसार के अनेक सुखों से अपने को वंचित नहीं कर पाते। साल–भर में उनके अकड़े शाने झुकने लगे हैं। मुक्ता को शायद उतना महसूस नहीं हो सकता जितना मुझे। आख़िर वह मेरे पिता हैं और ऐसे पिता जो सुबह से वरदी में तने दिखते तो रात को सोने से पहले तक वह उसी तरह नज़र आते थे। उनके बहुत चाहने पर भी मैंने पुलिस की नौकरी नहीं की और… “उफ! तुम अभी तक जाग रहे हो!” मुक्ता करवट से मुनमुनाई। धुरेंदर ने सिगरेट बुझाई और चुपचाप आँखें बन्द कर लेट गया।
अब उनका दिमाग़ खयालों से ख़ाली था, जैसे पौ फटने से पहले आसमान पक्षियों से ख़ाली होता है। राम मनोहर त्यागी के लिए एक नया दिन फिर कपड़े के थान जैसा सामने खुला पड़ा था, जिसके घंटों को उन्हें शाम तक लपेटना था। बालकनी पर वह मुंह सवेरे कसरत कर लेते थे। हवाखोरी के बहाने लौटते हुए दूध ले आते, फिर नहा–धोकर पूजा पर बैठ जाते। उनके पाठ से घरवालों की आंख एक के बाद एक खुलती, फिर धमाचौकड़ी – भरी सुबह में वह नाश्ते के बाद पोता –पोती के लाख मना करने के बावजूद उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने जाते और जब लौटते तो बेटा–बहू घर से निकलने वाले होते। उनके पास करने को कुछ नहीं बचता था, सिवाय एक काम के कि वह दोपहर–भर कुर्सी पर चुपचाप बैठ उन स्थानों को याद करते रहते, जहां वह हवलदार से थाना प्रभारी की पोस्ट पर पहुंचे थे।
अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए उन सारे बदमाशों को याद करते जो भागते हुए उनकी गोली का निशाना बने थे, या फिर डंडे की मार से अधमरे होकर उनके कदमों पर गिर उनके मुखबिर बन बैठे थे। उनमें से कुछ बदमाश ईद –बकरीद,होली–दीवाली घर बुलाने लगे थे; मगर वह कभी गए नहीं। यहां तक कि जब नसीम अहमद नामी गुंडे से एम. एल. ए. बन गया तो भी त्यागी की बंदूक का रुख़ बदला नहीं; मगर जब उनकी बेटी के ब्याह का न्योता आया तो वह बिना खाए–पिए शगुन देकर ज़रूर लौट आए थे। धुरेंदर का घर धीरे–धीरे तनाव में डूब रहा था। राम मनोहर त्यागी का चेहरा ‘डिप्रेशन’ का शिकार लगने लगा था । वह पोते–पोती से हंसते–बोलते ज़रूर थे, मगर उनकी आँखें नहीं मुसकराती थीं। पूजा का समय ज़रूर लंबा हो गया था । अब तो राम मनोहर शाम को भी पाठ करने लगे थे। पूरे फ़्लैट में पाठ की भुनभुनाहट सबकी मांसपेशियों पर दबाव डाल एक अजीब उग्रता–भरी बेचैनी पैदा करती थी। खाने के बाद शांति ज़रूर छा जाती थी तो टीवी चल पड़ता और राम मनोहर समय का थान बग़ल में दबा बालकनी में जा बैठते और फिर घंटे–मिनट के हिसाब से उसे खोलते, लपेटते गई रात तक चुपचाप बैठे रहते थे। उनको अपनी गलतियों का अहसास हो चला था कि उन्होंने गांव में अपना ठिकाना क्यों ख़त्म कर दिया? खेत–मकान भाई को देकर वह अपने हिस्से का पैसा धुरेंदर को फ़्लैट के लिए दे चुके थे, जिस पर उनकी नहीं , धुरेंदर की नामपट्टी लगी है। ईंट उन्होंने जोड़ी, मगर घर की व्यवस्था बहू –बेटे के हाथ में है। ट्रांसफर लगातार होने की वजह से परिवार ने अंत में इसी शहर में बसेरा ले लिया था जहां धुरेंदर को नौकरी मिल गई थी। बेटियां ब्याह दीं। उनके घर जा नहीं सकते, गांव और शहर दोनों घर में वह एक सम्मानित अतिथि बनकर रह गए हैं। उनका अब ज़ोर क्या? इस घर में अन्य धर्म वालों और शराब से परहेज़ नहीं रह गया है। जिन बच्चों को बड़ा करने में सारी जवानी गंवा दी, वे अब पहचाने नहीं जाते कि कभी ये अपने मां–बाप की तरह थे। आख़िर ये किसकी औलाद बन जाते हैं? किसकी भाषा बोलते हुए जाने किसका समर्थन करने लगते हैं? “पापा, आप इतना बड़ा टीका पहले तो कभी नहीं लगाते थे!” एक दिन धुरेंदर ने अटपटे स्वर में कहा । “पता नहीं, बेटे।” वह खिसियाकर हंस पड़े। “आज जो हो रहा है, पापा, उसमें इस तरह का डिस्प्ले कोई और अर्थ दे बैठेगा; जबकि आपका राजनीति से कुछ भी लेना–देना नहीं है।”धुरेंदर के चेहरे पर चिन्ता उसी तरह डैने फैलाए रही। आईने के सामने राम मनोहर ने खड़े होकर चेहरा देखा तो माथे पर पूरे अंगूठे–भर लंबा लाल टीका दगदगा रहा था । अधपकी मरोड़ी मूंछों के साथ लाल टीका … वह पल–भर बाद कहकहा मारकर हंस पड़े। ‘डाकू जैसा चेहरा लगा होगा धुरेंदर को मेरा, तभी…’ कुछ देर बाद उन्हें विचार कौंधा , नहीं, ऐसा नहीं है। वह सोच में डूब गए। उसका इशारा किसी और तरफ़ था। दोपहर को जब अकेले खाना खाने बैठे तो एकाएक उन्हें गुत्थी सुलझती–सी लगी। ‘अगर मैं ठीक समझ रहा हूं तो फिर प्रश्न उठता है कि उसे अपनी पहचान से घबराहट क्यों लग रही थी? हो न हो , यह पड़ोस की दोस्ती का असर है। दीक्षित के घर ईसाई बहू है और कुरैशी का कहना ही क्या ! आखिर आज़ू–बाज़ू तो यही दो पड़ोसी हैं जिनके घर सारी शाम बच्चे, बहू आते–जाते रहते हैं;छुट्टी के दिन धुरेंदर का अड्डा भी वहीं जमता है। मेरे आने से पहले भी वे लोग ख़ूब अड्डा जमाते होंगे। इन्हीं थाली–कटोरी , गिलास में खाते–पीते होंगे।’ बेचैन हो खाने की मेज़ से उठे और उदास–से जाकर खिड़की के पास खड़े हो गए।
दोपहर ढल रही थी। सड़क पर चहल–पहल थी। शाम तक उनका मन भारी–भारी रहा । चाय की मेज़ पर अपना पसंदीदा नाश्ता समोसे और कचौरी देखकर भी उनका मन हलका न हुआ।
धुरेंदर ने माहौल बदलने के लिए कहा, “पापा! कल शाम हमारे घर एक मीटिंग है सोसायटी की , हर महीने किसी न किसी के घर रखी जाती है। आपके लिए यह मौक़ा अच्छा रहेगा। उसमें कुछ रिटायर बुज़ुर्ग भी आएंगे। अगर उसमें कोई पुलिस वाला निकल आया तो आपका टाइम अच्छा कटेगा।”
“देखता हूं…वैसे बेटा, मैं कई दिन से सोच रहा हूं कि एक चक्कर गांव का लगा आऊं। बहुत दिनों से सीताराम की चिट्ठी भी नहीं आई है। उसके परिवार के दुःख–सुख का कुछ पता ही नहीं!”
“ज़रूर पापा, चाचा से मिलकर आएं, मैं सीट रिज़र्व करवाता हूं।”कुछ हलका हो धुरेंदर बोला। उसके दिल में भी एक खुशी की लहर दौड़ी कि पापा कुछ दिन आराम से लोगों के बीच उठेंगे–बैठेंगे और इस ‘बोर’ ज़िंदगी से उन्हें छुटकारा मिलेगा। गांव में सप्ताह भर रहने के बाद राम मनोहर को लगने लगा था कि यह जगह भी अब रहने लायक़ नहीं रह गई है। सब कुछ बदल रहा है, बल्कि बंट रहा है। खाना–पीना तो कभी साथ न था ,मगर काम–धंधा साथ था। मौत –बीमारी साथ थी । एक के दुःख पर दूसरा काका, चाचा कहता –दौड़ता था; मगर अब कोई किसी को जैसे पहचानता ही नहीं। यह कौन–सी हवा चल पड़ी है, जो सबका मन बदल रही है? शब्बीर –नानबाई के घर शादी हुई, एक भी न्योता ब्राह्मण टोले नहीं आया । पहले रस्म थी कि मुखिया राम अवतार के घर के लोग बारात के आगे चलते थे;मगर आज उनकी बात तो दूर, पास रहने वाले को बुलावा न आया। नौकरी हमने भी की थी,मगर चोर–चोर में भेदभाव कभी नहीं रखा था। क़ानून का न्याय अपनी जगह था और संस्कार का सम्मान अपनी जगह। अच्छी तरह याद है कि ज़मींदार अहमद मियां के सारे हलवाहे और मज़दूर हमारे घर के थे, क्योंकि गांव की आबादी में उनका हिस्सा अस्सी प्रतिशत था; जबकि धुरेंदर की ननिहाल में इसका उलट था। वहां पर कुंवर सूरज प्रकाश की सारी प्रजा मुसलमान थी, क्योंकि देहात ही उनकी आबादी से भरा था। तभी तो धुरेंदर की मां की बोलचाल का तरीका भी कुछ अलग था। लेकिन अब …दो कोस चलकर नदीम शब्बन लोहार के पास जाएगा और शंभू पड़ोस के रहमान को छोड़ नाला पार धरमू धोबी से कपड़े धुलवाएगा। आख़िर यह कैसे अंधेरा मचा है? जहां गांव वालों की मुहब्बत बंट जाए, फिर उस धरती पर बचेगा क्या ? धुरेंदर इसी अलगाव को राजनीति कहता है …अब उसकी बातों का अर्थ खुला।
धुरेंदर की सारी खुशी मिट्टी में मिल गई ,जब महीने–भर के लिए गए पिता को पंद्रह दिन बाद ही घर लौटते देखा। धूप से तपे चेहरे से उदासी ज़रूर छंटी दिखी; मगर उस खुले चेहरे के आकाश पर चिन्ता की गहरी लकीरें अपना निशान ज़रूर छोड़ बैठी थीं। औपचारिक बातों के बाद घर फिर ख़ाली हो गया। राम मनोहर फिर फ़्लैट में अकेले रह गए। उन्हें गांव याद आया । नदी का तट, सिंघाड़ों से भरा तालाब , कुएं की जगत और खेत के किनारे। जहां चाहते थे, निकल जाते थे, बोल–बतिया लेते थे। बहुत कुछ बदलने के बावजूद वहां अब भी संवाद बाक़ी था, मगर यहां? कुछ पल राम मनोहर की सोच ठहर गई। हलके से मुसकराए।
‘यहां…हां,यहां , मैं निकलता कहां हूँ? चलता हूँ , आज चतुर्वेदी के घर होकर आता हूँ। शायद धुरेंदर ठीक कहता है, मुझे लोगों से मिलना–जुलना चाहिए। इस तरह सबसे कटकर रहना भी तो ठीक नहीं है।’ कपड़े बदल, दरवाज़े पर ताला डाल बाज़ार के नुक्कड़ पर पहुंच गए। सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुंचे और दरवाज़े पर दस्तक दी। श्रीमती चतुर्वेदी ने दरवाज़ा खोला। नमस्ते में हाथ जोड़ मुंह कुछ कहने के लिए खोलना ही चाहती थीं कि पीछे देख मुसकरा दीं।
“कहो बंधु, कैसे हो?” चतुर्वेदी की आवाज़ सुन राम मनोहर पीछे मुड़े। साग–सब्ज़ी का थैला और दूसरी चीज़ें उठाए चतुर्वेदी बाज़ार से लौटे थे। दोनों सोफे पर जा बैठे।
“बहुत दिनों बाद दर्शन दिए हैं। कुशल तो हैं?” इतना कहते हुए चतुर्वेदी जी ने सामान का थैला आगे बढ़ाकर वहीं खाने की मेज़ पर रखा, जहां उनकी पत्नी शरबत के गिलास में बर्फ़ डाल रही थीं। श्रीमती चतुर्वेदी ने लाल शरबत का गिलास आगे बढ़ाया। “गांव गया था…भाभी जी, आपने कष्ट क्यों उठाया?” कहते हुए राम मनोहर को नजरें खाने की मेज़ पर अटक गईं, जहां काले थैले से लाल–लाल कुछ निकालकर उनकी बेटी फ्रिजर में रख रही थी।
“आप मांस–मच्छी कहाँ से लाते हैं?” चतुर्वेदी ने उनकी आंखों का पीछा करते हुए पूछा।
“जी!” राम मनोहर का बढ़ा हाथ लाल शरबत का गिलास उठाते –उठाते ठिठक गया।
“मैं तो कल्लू मीट शॉप से लाता हूं। साफ़–सुथरा और ताज़ा। एक बार लेकर देखें।” चतुर्वेदी ने अपना गिलास उठाया और शरबत का घूंट भरा।
“लीजिए न, भाई साहब।” नमकीन की प्लेट रखते हुए श्रीमती चतुर्वेदी बोलीं और सोफे पर बैठ गईं। “नहीं… बस चलता हूँ। एक काम याद आया, बहुत ज़रूरी। धन्यवाद, नमस्ते!”
कहते हुए राम मनोहर त्यागी ने शरबत का गिलास मेज़ पर रखा और तेज़ी से उठकर सीढियां उतरते लगे। आज उनका भ्रम ही नहीं टूटा बल्कि दिल भी टूटा। एक सहारा भी जाता रहा। थके क़दमों से पसीने से डूबे वह घर में दाख़िल हुए और बैठक के कोने में रखी अपनी कुर्सी पर चुपचाप बैठ गए। एकाएक उनके बदन में क्रोध की लहर दौड़ी और बहुत दिनों बाद गालियों की बौछार… “अपने को ब्राह्मण कहते हैं! बड़ी–बड़ी बातें बनाते थे, मगर लच्छन देखो जैसे… म्लेच्छ कहीं के!” रात को खाने की मेज़ पर धुरेंदर को बड़ा आश्चर्य हुआ जब राम मनोहर त्यागी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं मिटी –सी लगीं। चेहरा पहले की तरह लगा, जब वह कोतावली से लौटते थे– दगदगाता हुआ, चमकती आंखें और रोबदार आवाज़। आज खाना भी मन से खा रहे हैं। ऐसा क्या घट गया आज? यह चमत्कार हुआ कैसे?
“चतुर्वेदी पूरा रंगा सियार है। तुम ठीक कहते थे। आज मैं उसके घर गया था। जो मैंने सुना, उससे मन उचट गया।” एकाएक राम मनोहर बोल उठे। उनकी आवाज़ सुन सब चौंक उठे। “क्या देखा?” “मेरा धर्म भ्रष्ट होते–होते बच गया! लेकिन बचा कहाँ? पहले तो चाय एक–दो बार पी ही चुका हूं; मगर …मांसवाली बात…”
“आपको देखकर, पापा, कोई जल्द विश्वास नहीं करेगा कि आप पुलिस जैसे महकमे में रहकर इतने संस्कारी हैं।”
“मेरे जैसे बहुत हैं… एस०पी० मिश्रा को भूल गए क्या?”
“आपको एक बात बताऊं, क्या आप उस पर विश्वास करेंगे?” धुरेंदर ने पिता की आंखों में झांका । “करूंगा। इस कलयुग की हर बात पर विश्वास करना होगा।”
“अपने पड़ोसी कुरैशी हैं न, चमचा भी अगर मांस के व्यंजन से छू जाए तो वह खाना नहीं खा सकते। पूरा घर शुद्ध शाकाहारी है।”
“आश्चर्य।”
“और दीक्षित जी के बारे में जानेंगे? दोनों पति–पत्नी दस वर्ष विदेश में रहकर लौटे हैं। वे भी शाकाहारी हैं। एलिजाबेथ ने पति के सम्मान में कभी पोर्क बीफ को हाथ नहीं लगाया। वही हाल बच्चों का है। आपकी तरह शुद्ध शाकाहारी।” इतना कह धुरेंदर ज़ोर से हंस पड़ा।
“अच्छा!” जैसा भाव राम मनोहर के चेहरे पर उभरा और मुंह लटक गया। जैसे उन्हें कलियुग की इस सच्चाई का इंतज़ार न था।
“ये सब बड़ी छोटी बातें हैं,पापा। यहाँ आप जितना देखेंगे उतना ही लगेगा कि आप कुछ नहीं जानते हैं। हर आदमी आपके पैमाने से अलग है। हर सच झूठ लगता है और हर झूठ सच!” यह रात राम मनोहर त्यागी के लिए मानसिक रूप से केंचुल बदलने की रात थी । उन्हें अपना व्यवहार याद आया, जब कुरैशी की पत्नी कढ़ी बनाकर बड़े चाव से लाई थी कि उन्हें पसन्द है, मगर उन्होंने उसे चखा भी न था। दीक्षित के पिता को दमे का शदीद दौरा पड़ा था, मगर वह देखने नहीं गए थे। मन में गहरा आक्रोश था कि ब्राह्मण होकर ईसाई से विवाह क्यों किया। मगर चतुर्वेदी, जो तिलक लगाकर हर मंगलवार को पत्नी के संग शक्तिपीठ जाता था , वह?… उनको अपनी सोच का फ्रेम बदलना होगा, आंखों का शीशा साफ करना होगा। जड़ विचारों को छोड़ जो जैसा है उसको वैसा ही स्वीकार करना होगा। जो काम वह नौकरी करते हुए पूरा भारतवर्ष घूमकर भी नहीं कर पाए थे, क्योंकि एक सीमा के बाद वह किसी को नहीं जानना चाहते थे। उन्होंने जो जाना था, वह सिर्फ़ इतना कि अपराधी पकड़ना है। उसकी जमकर पिटाई करनी है। चार्जशीट तैयार करनी है और रिश्वत लेकर कोई काम करना है , न पराई औरत और शराब की बोतल को हाथ लगाना है।इतना संयम का जीवन जीकर भी उनसे अपराध हो गया ! मन की खोई शान्ति पाने के लिए उन्होंने भोर से पहले ही बिस्तर छोड़ा। भगवान की मूर्ति को नहलाया; चंदन,फूल ,जल चढ़ा उन्होंने शीश नवाया और अपने मन–मस्तिष्क को ज्योति से भरने की प्रार्थना की । फिर टहलने की तैयारी की और दरवाज़ा खोल बाहर निकले। कुरैशी का बंद दरवाज़ा ताका, फिर दीक्षित का और मुंह ही मुंह में बोले,‘यह संसार विचित्र है। तेरी महिमा अपार है।’ टहलने की जगह राम मनोहर पार्क के घने पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए। पसीने से टकराकर सुबह की हवा तक को अजीब–सा सुख देने लगी। उन्होंने आँखें बंद कर लीं। पूरे शरीर में शांतिमय लहरें दौड़ जैसे ख़ून की उत्तेजना को कम करने लगीं। उंधाई–सी आने लगी तो वह पेड़ की उभरी जड़ को तकिया बना हरी घास पर पसर गए। भरपूर झपकी के बाद जो आंख खुली तो देखा, पत्तियों के बीच से सूरज की नरम किरणें झाँक रही थीं। उन्होंने हरे छत्तुर के जाल को ताका। ‘कितनी शाखाएं, कितनी पत्तियां, कितनी कोंपलें – सिर्फ़ एक वृक्ष में!’ मन में मृगछोना जैसे दौड़ गया। चेहरे पर मुस्कराहट उभरी। आँखों में चमक, मोटे तने के खुरदुरेपन पर हथेली जमा उठी, फिर ऊपर घने पेड़ को निहारा और घर की तरफ़ चल पड़े। राम मनोहर त्यागी का मन–मस्तिष्क बहुत हलका था, जैसे पत्ते पर ठहरी ओस की बूंद। ऐसा तरोताज़ा उन्हें कभी विद्यार्थी जीवन में महसूस हुआ था जब वह कुछ नया सोचते थे, नया कुछ पढ़ते थे, नया कुछ कहते थे, नया कुछ लिखते थे – एफ०आई ०आर० के अलावा! हां, उन्होंने कभी कविताएं भी लिखी थीं। पुलिस की नौकरी ने उन्हें कितना जड़ बना दिया! और अब कुछ याद नहीं आ रहा है, वह पंक्तियाँ क्या थीं? कुछ याद नहीं … ज़ेहन में लय फिसल रही है, मगर शब्द वह नहीं पा रहे हैं… भाव अलबत्ता पकड़ में आ रहे हैं… हाँ–हाँ , याद आया , कविता कुछ यूं थी: ‘इनसान बुनियादी रूप से एक वृक्ष ही तो है/जो पहले–पहल अंकुर के रूप में फोड़ता है दो कोंपलें/कोंपलें बन जाती हैं जब कोमल शाख/तक शांखों से फूटती हैं अनेक पत्तियां/शाख, टहनी, पत्तियों के संग सबको बांधें रखता है तना/जैसे धरती बांधती है अनेक इंसानों को/जो रंग, भाषा,धर्म में होते हैं अलग–अलग।’ राम मनोहर त्यागी जब मस्त–मस्त–से घर के पास पहुंचे तो बेटे को दरवाज़े के बाहर खड़ा देख चौंके। आज उन्हें समय का ध्यान नहीं रहा। धूप फैल चुकी थी।
“कहाँ रह गए थे,पापा?” बेटे की आवाज़ में चिन्ता का पुट था। ‘रह नहीं गया था बल्कि वापस लौटा हूं अपने में एक नई ज़िंदगी जीने के लिए।’ राम मनोहर त्यागी को ऐसा कुछ जवाब बेटे को देना चाहिए था, मगर वह तो भूली–बिसरी कविता की पंक्तियां मन ही मन दोहराते अन्दर चले गए। अवाक् खड़ा धुरेंदर पिता के खिले चेहरे और तेज़ चाल को देख समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर पापा को हुआ क्या है। किसी अपराधी से अब मुलाक़ात होना तो नामुमकिन है; फिर…फिर यह परिवर्तन किस मौसम की पूर्व सूचना है?
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2 टिप्पणी

  1. आपकी कहानी अच्छी लगी नासिरा जी!
    रिटायरमेंट के बाद जिंदगी एकदम से परिवर्तित हो जाती है।यह परिवर्तन कभी-कभी गहरे विषाद में ले जाता है। समझदारी इसी में है कि हम समय के अनुसार अपने को परिवर्तित करने का प्रयास करें। स्वयं को व्यस्त और खुश रखने का प्रयास करें।
    खान पान के संबंध में जो आदतें बन जाते हैं उनके साथ समझौता करना यह थोड़ा मुश्किल होता है। लेकिन फिर भी समय के साथ चलने में ही समझदारी है। बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

  2. बहुत सच्ची कहानी नासिरा दीदी। जीवन की संध्या में ऐसी तस्वीरें बनती – मिटती रहती हैं और उम्र का यह हिस्सा ऊबड़ खाबड़ होने लगता है।
    हर चित्र सामने आ खड़ा होता है।
    धन्यवाद

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