Wednesday, October 16, 2024
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नीलिमा शर्मा की कहानी – उत्सव

अक्सर हमारे पाठकों का ऐसा आग्रह रहता है कि पुरवाई के संपादक मंडल सदस्यों की भी रचनाएँ पटल पर प्रकाशित की जाएँ। इस आग्रह को देखते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं हमारी उपसंपादक एवं चर्चित लेखिका नीलिमा शर्मा की कहानी – उत्सव आशा है, हमारे पाठकों को यह कहानी पसंद आएगी।

अलार्म की तेज़ आवाज़ से कुनमुनाई शीना का मन उठने का नहीं हो रहा था। उसने अधखुली आँखों से सामने लगी घड़ी की तरफ़ देखा- ओह! वो एक घंटे तक सोई रह गई फिर तकिए का सहारा लेकर उठकर बैठ गई थी। पारदर्शी पर्दों के पार से आती वर्षा की तेज़ आवाज़ें सम्मोहन उत्पन्न कर रही थीं। उसको वर्षा ऋतु बहुत पसंद है। लगातार होती वर्षा में झूमते पौधे मानो बच्चों की तरह किलकारियाँ भर रहे हों। देहरादून की वर्षा भी कितनी पुरसुकून होती है। इस मौसम में मन का हर कोना हरा-भरा रहता है। दिल एक अनकही-सी ख़ुशी महसूस करता है रूमानियत अंग-अंग पर हावी हो जाती है। हरेक मन ख़ुद को बच्चा-सा महसूस करता है। नन्हीं बूँदों की लड़ी पहाड़ों को छूकर फिर जब सबके घर आँगन मंद-मंद पवन संग बरसती है तो मन के साज़ सात सुरों में बजने लगते हैं। उदास मन को उनकी आरोह में ध्यान का संगीत सुनाई देता है तो प्रसन्न मन के पैर अवरोह में नृत्य करने को आतुर हो उठते हैं। 
शीना के मन का बच्चा भी अपने बचपन की बारिशें याद कर मुस्कुरा उठा। उसने अलेक्सा को बारिश के गाने लगाने का आदेश दिया। फिर अगड़ाई लेकर दोहर को तह लगाया और अपनी बाई कमला को आवाज़ लगाई। कमला उस वक़्त सब गीले कपड़े बरामदे में स्टैंड पर सुखाने को डाल रही थी। दोपहर का खाना खाकर शीना को जाने क्या ख़ुमारी चढ़ी थी कि गहरी नींद सो गई। दोपहर की एक घंटा नींद भी थकान उतारने के लिए काफ़ी होती है। लेकिन आज जागने के बाद कुछ अजीब-सी परछाइयाँ मन मस्तिष्क पर तारी थी। पिछले कई दिन से अजीब-सी उदासी हर तरफ़ महसूस हो रही थी। जैसे कोई अजीब डरावना सपना देखा हो। कुछ परछाइयाँ जैसे उसके इर्द-गिर्द हों। बारिशों के मौसम में ख़ुश रहने वाली शीना आज फिर मौसम को प्रफुल्लित मन से महसूस करना चाहती थी। लेकिन मस्तिष्क में जैसे ओस से भीगा धुंध भरा मौसम जैसा कुछ था जो उसको घेरे था।
शीना बिस्तर पर आँखें बंद करके ध्यान मुद्रा में बैठ गई। आज मौसम भी शांत था तो मन के सभी भावों को एक साथ एकत्र कर दिमाग़ में बिखरी परछाइयों से एक अक्स बनाने की कोशिश करने लगी। बचपन से उसको अधिकतर ऐसे सपने आते रहे है जिनमें एक काला धुआँ नज़र आता है जो फिर एक साया बनकर उसके इर्द-गिर्द लिपट जाता है और फिर उसका दम घुटने लगता है। कभी-कभी शीना अपने आप को किसी गुफा में बंद देखती है जहाँ से बाहर निकलने के लिए नाली की मोरी जितना छेद ही नज़र आता है जहाँ से बाहर निकलना संभव नहीं होता। अचानक गुफा की दीवारे पारदर्शी हो जाती है, उसको सब अपने क़रीबी लोग नज़र आते हैं लेकिन कोई भी तो उसको बाहर निकालने का प्रयास नहीं करते हैं। शीना जब सपने में रोते-रोते सो जाती तो अचानक कहीं से आकर पापा ही प्यार से गले लगाए नज़र आने लगते हैं। 
आज भी आँखें बंदकर उसने आज्ञा चक्र पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। पाँच बार ख़ूब गहरे साँस, फिर धीरे-धीरे पूरे शरीर को ढीला छोड़ते हुए साँसों की लय पर ख़ुद को केंद्रित करना हैं। फिर एक अक्षर के बीज मंत्र का इक्कीस बार जाप करते हुए ख़ुद को किसी नदी के किनारे आराम से बैठा हुआ महसूस करना है और फिर सामने नदी में उसके बहते विचार दिखाई देंगे, किसी भी विचार को पकड़ कर कुछ नहीं सोचना हैं, बस धीरे-धीरे उन विचारों के साथ बैठी रहना हैं। विचार आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की तरह पकड़म-पकड़ाई खेलते रहेंगे लेकिन उनको बहते-उड़ते जाने देना और निर्वात में रहना ही ध्यान होगा।
उसको महसूस हुआ जैसे आज कुछ अलग अजीब-सा मौसम हैं उसके दिल दिमाग़ का। आज ध्यान में रात के सपने की टूटी-सी कड़ियों को सोचते हुए उसने जोड़कर जब देखा तो पाया कि सपने में उसके पास कोई बड़ा-सा जानवर आ रहा था जो उसको झपटा मार खा जाना चाहता। वो ख़ुद को बचाने के लिए किसी पहाड़ से कूद जाती है। लेकिन उसको गहरी चोट नहीं आई। लेकिन वो जानवर भी उसका पीछा करते हुए पहाड़ से नीचे गिर जाता है। उसको पता नहीं चलता वो कहाँ कितनी दूर गिरा, उसका क्या बना। पहाड़ से गिरते ही शीना जैसे अचानक चिड़िया बनकर खुले आकाश में उड़ने लगती है और ख़ूब ज़ोर से शोर मचाती है कि देखो मेरे पंखों को… ऐसा ख़याल सपने में भी क्यों आया? यह क्या था? ध्यान मुद्रा टूट गई। शीना ने घबरा कर आँखें खोल हर तरफ़ देखा। यह आज ध्यान में काला बादल क्यों उड़ता नज़र आ रहा है। अजीब अजीब-सी हिंसक आकृतियाँ अजीब चेहरे उस ध्यान में विघ्न उत्पन्न कर रहे थे। 
आज शीना के विचार कहीं केंद्रित नहीं हो पा रहे थे। उसने झट से पानी का गिलास उठाकर एक घूँट पानी पि‍या। कल ही अख़बार में एक विस्तृत लेख पढ़ रही थी कि स्वप्न शास्त्र के अपने कुछ रहस्य हैं। मेरे इस सपने का क्या रहस्य होगा? क्या अपनी टैरोकार्ड रीडर मित्र ज्योति को फोन करे? फिर उसने दिमाग़ को झटका और दर्पण की तरफ़ देखकर मुस्कुराई… आख़िर ये फ़ि‍ज़ूल की बातें क्यों सोच रही हो शीना, सब मन का वहम है बस।
शीना ने कमला को चाय बनाने के लिए आवाज़ लगाई और अपना फोन हाथ में लेकर बालकनी में लगे झूले पर आ बैठी। देहरादून में उसके ससुरजी ने बरसों पहले बसंत विहार में एक कोठी बनाई थी। पिछले बरस राकेश ने उसको बिल्डर फ्लोर में बदल दिया था। पार्क के सामने का यह नया घर बरसात में बहुत ख़ूबसूरत लगता था। घर के सामने हरी घास का जैसे बुग्याल-सा बिछ जाता था। चारों तरफ़ की रेलिंग पर बोगनवेलिया की लम्बी टहनियाँ ज़रा हवा चलते ही कमसिन लड़कियों के झुंड की तरह हुलसती, खिलखिलाती, झूमती रहती थी। अभी पिछले ही माह माली ने ख़ूब सारी तुलसी की पौध भी लगाई थी। गुलमोहर, पारिजात, कनेर और कटहल लीची के पेड़ भी जो सर्दियों में धूप का मज़ा लेने के लिए स्थानीय लोगों द्वारा थोड़ा थोड़ा कतर दिए जाते थे, आजकल यौवन को पाकर बारिश की मधुर स्वरलहरी में धीमे-धीमे झूमते हुए गुनगुना रहे थे।
अलेक्सा पर गाना बज रहा था- पिया बसंती रे… काहे सताए आजा…
चाय पीते पीते शीना ने व्हॉट्सएप चेक करना शुरू किया। सहेलियाँ, दोस्त, किट्टी, ससुराल ग्रुप देखने के बाद उसने मायका ग्रुप खोला। हे भगवान!!! आज अठारह संदेश। सब ठीक तो हैं। सुबह के गुड मॉर्निंग वाले संदेश के अलावा कोई ख़ास बात हो तो वहाँ बात होती थी अन्यथा कोई बात नहीं होती थी। कोई ख़ास सूचना देनी होती थी तो सुधा भाभी उसमें लिख देती थी। दोनों बहने उसको पढ़ लेती और अक्सर दीदी ही बहुत छोटा-सा कोई जवाब देती थी। 
‘रब करे ठीक हो जाएँ।’ दीदी का यह संदेश पढ़कर मन धड़क उठा। आख़िर कौन बीमार हो गया। उसने संदेश स्क्रॉल करने शुरू कर दिए। भाभी का एक संदेश देख वो वहीं ठहर गई। आँखें जैसे एक मूर्ति की तरह स्थिर हो गई और उन शब्दों को देखती रही।
“खजुरिया अंकल को ब्रेन हैमरेज हो गया है। कल से कोमा में हैं। जीवन की उम्मीद बहुत कम ही है।”
उसने एक मिनट में कम-से-कम पचास बार इस वाक्य को पढ़ लिया। उफ़्फ़ लम्बे गोरे-चिट्टे खजुरिया अंकल का अक्स उसकी आँखों के सामने आ गया। 
खजुरिया अंकल और उसका बचपन कभी आपस में अलग हो ही नहीं सकते। उसके सबसे प्रिय अंकल जो पापा के बॉस भी थे। किसी न किसी बहाने से उनका घर आना-जाना लगा ही रहता था। 
“दीदी चाय ठंडी हो रही आपकी।” कमला की आवाज़ उसको वापस वर्तमान में ले आई…
“ओ हाँ, चाय के साथ सनराइज के केक रस भी ले आओ। आज चाय फीकी-सी लग रही है तो साथ में वो मनचंदा की मेथी वाली मठरी भी ले आना।” कमला हैरान थी। डाइट चार्ट को सख़्ती से फॉलो करने वाली दीदी आज कुछ मीठा और तला हुआ माँग रही थी।
घबराहट में शीना को तेज़ भूख लगती थी। कुछ भी मीठा नमकीन फीका रख दो, जब तक उसके सामने से जबरन उठाया नहीं जाएगा वो लगातार खाती ही चली जाती थी। अब तो सामने लगे बोगनवेलिया के काँटे भी जैसे उसको चुभने लगे थे। खजुरिया अंकल ठीक तो हो जाएँगे न, अब ठीक नहीं हो सकेंगे के तनाव में उसके हृदय की धड़कन कोहराम मचा रही थी। 
पिछले बरस इन्हीं दिनों पेट-दर्द होने पर पापा के सब स्वास्थ्य परिक्षण कराए गए तो उनको अंतिम स्टेज का कैंसर बताया गया। पापा के पास बहुत कम समय बचा है, यह बात पता चलते ही सबके लिए ख़ुद को सम्भालना बहुत मुश्किल लग रहा था। मम्मी-भैया सबको अंकल ने सम्भाला और साथ ही पापा के साथ लगातार इक्कीस दिन तक हॉस्पिटल में भी बने रहे थे। 
भैया तो पापा को उस हाल में देखकर ही नर्वस और रुआँसा हो रहा था। पापा की ‘मुझे आख़िर हुआ क्या है?’ पूछती निगाहों का सामना करने की ताब घर में किसी की भी नहीं थी। अंकल ही पापा को कभी चुटकुले सुनाकर, कभी ऑफिस के क़िस्से या अपने ही ससुराल वालों की बातें सुनाकर दर्द को कम करने की नाकाम कोशिश करते थे। स्वस्थ दिखाई देते पापा की क्षीण होती काया बर्फ़ की तरह तेज़ी से पानी बनती जा रही थी। चार सप्ताह में ही पापा यह जाने बिना कि उनको आख़िर हुआ क्या है, अनंत यात्रा को चले गए थे। अकेलापन तब से सबके भीतर भर गया था। सोलहवें की रस्म के बाद ही शीना अपने घर लौट आई थी। पेहवा जाने तक भी नहीं रुक पाई थी। इतने दिन तक आँसुओं की बरसात में भीगी शीना ने यहाँ कई रातें राकेश के कंधे पर सर रखकर सिसकते हुए गुज़ारी थी। 
मुख्य दरवाज़े पर कार का हॉर्न रुक-रुककर बज रहा था। तेज़ बारिश में सड़कों पर लॉन्ग ड्राइव करना उसको बहुत पसंद था। सेलाकुई या ऋषिकेश की तरफ़ कार रोककर किसी भी पटरी या ठेले वाले से छल्ली (भुट्टे) ख़रीद कर गरमा-गरम खाना या काके सरदार की दुकान में पकोड़े खाने के लिए राजपुर तक चले जाना उसका मनपसंद मनोरंजन था। एकदम तरोताज़ा मन की हो जाती थी। राकेश के हॉर्न बजने के तरीक़े से वो समझ गई थी कि उसको इसलिए बाहर बुलाया जा रहा है। 
उसका सर दर्द से भारी था। वो भी उस संदेश को भूलना चाहती थी। एक बैचेनी उसके भीतर भी भर गई थी। शायद बारिश की बूँदें कुछ सुकून दें, ऐसा सोचकर उसने राकेश को ‘कपड़े बदलकर आती हूँ’ व्हॉट्सएप संदेश लिखा और अलमारी खोलकर अपने कपड़े निकालने लगी। 
उसने नीली चेक स्कर्ट निकाली जो राकेश मुंबई टूर से उसके लिए लेकर आए थे और उसने ‘मैं ऐसी स्कर्ट कैसे पहन सकती?’ कहकर साइड में रख दिया था। उसके साथ आज गुलाबी स्लीवलेस टॉप पहन लिया। उसके साथ का श्रग निकालकर भी उसने वापस अलमारी में ही रहने दिया। फोन पर्स में रखते-रखते उसने साइलेंट पर कर दिया और फिर बेड की साइड टेबल पर ही छोड़ दिया। तैयार होकर जब बाहर आई तो राकेश फोन पर गंभीर होकर किसी से कुछ बात कर रहे थे लेकिन उसको ख़ुशनुमा-सी देख फोन बंद कर एकदम बोले…
“ओये, आज तो गुलाबो बनी हुई हो, मेरी लाई स्कर्ट के भाग खुल गए आज। यह क़ातिल मॉडर्न लुक… मज़ा आ गया आज तो।” 
अपने गुलाबी न्यूड लिपस्टिक लगे होंठों से मुस्कुराते हुए उसने सामान्य होने की कोशिश करते हुए कहा…
“अब गुलाबो ऐसे ही क़त्ल करती रहा करेगी, चलो अब मेरे ड्राइवर बनकर लॉन्ग ड्राइव पर ले चलो।”
इठलाते हुए शीना ने राकेश की आँखों में देखा। 
‘जो हुकुम महारानी पटियाला’ कहकर राकेश ने उसका हाथ पकड़ लिया। नीली हौंडा सिटी ने कब रफ़्तार चालीस से सौ पकड़ ली, उसके मन के भावों ने उसको पता ही नहीं चलने दिया। वो छलावा देना चाहती थी उदासी भरे कुहासे में भटकते मन को…
अगली सुबह नींद फिर देर से खुली। देर रात बाहर से खाना खाकर वापस आए थे। रसोई से कमला के कुछ काम करने की आवाज़ आ रही थी। शीना ने रिमोट उठाकर एसी ऑफ किया। कमरा बहुत ठंडा हो गया था। राकेश उसकी पीठ के पीछे दोहर में दुबके सोए थे। उनके माथे पर झूलती लटों को एक तरफ़ करके शीना ने माथे पर हल्का-सा चुम्बन दिया और खिड़की से पर्दा हटाकर मौसम का जायज़ा लिया। बाहर बरसात का-सा लेकिन उमस भरा मौसम था। कमला को गुनगुना पानी लाने को कहकर उसने आदतन अपना फोन उठाया, साथ ही राकेश का फोन चार्जिंग के लिए लगाया। 
पाँच मिस्ड कॉल भैया की, तीन मिस्ड कॉल दीदी की, एक मिस्ड कॉल भाभी की और एक मिस्ड कॉल खजुरिया अंकल के बेटे की।
कल शाम उसने फोन साइलेंट पर कर दिया था और वापस ऑन करना भी याद नहीं रहा था। भैया ने रात दो बजे संदेश छोड़ रखा था-
 ‘शीना, कहाँ हो बहन? राकेश का फोन भी ऑफ आ रहा है दोनों जल्दी ही अम्बाला आ जाओ, अभी खजुरिया अंकल को चिकित्सकों ने जवाब दे दिया है। कभी भी कुछ हो सकता है। तुमको बिटिया मानते रहे हैं, दीदी भी रात ही दिल्ली से आ चुकी हैं। पापा के बाद वो ही तो हमारे लिए सरपरस्त रहे हैं।’
 सुबह छह बजे एक संदेश था- 
‘खजूर अंकल नहीं रहे!’ 
उसने बच्चों की तरह बार-बार पढ़ा- 
‘ख जू र अं क ल नहीं रहे!’ 
चुपचाप वहीं सोफे पर बैठी रह गई शीना, अचानक बचपन से शादी तक के सभी दृश्य याद हो आए, जिन-जिन में खजूर अंकल कहीं आस-पास थे। 
खजूर अंकल पापा के बॉस थे, साथ ही सिंचाई विभाग के यमुना डिवीजन के मुख्य अभियंता भी। पापा भी सिंचाई विभाग में अभियंता थे। उनकी पोस्टिंग यमुना नगर में थी। यमुना कॉलोनी में उनको सरकारी तीन कमरों वाला बड़ा-सा घर मिला हुआ था। उसी घर के सामने छोटा-सा मैदान था और उसके पार मुख्य अभियंता खजुरिया साहब की बड़ी-सी सरकारी कोठी थी। पंजाब से बाहर दो पंजाबियों का मिलना रौनक़ लगाने को काफ़ी होता, उस पर जब दोनों को पीने-पिलाने का शौक हो तो सोने पर सुहागा होता है। ऑफिस में अधिकारी खजुरिया अंकल शाम होते-होते पापा के लंगोटिया यार बन जाते थे। 
उनकी कोठी के लॉन में अक्सर शराब पार्टी का आयोजन होता। खजुरिया आंटी टिपिकल पंजाबन थीं। मीठी बातें करके सबको ख़ुश रखती थीं। दिल खोलकर खाना बनवातीं और प्रेम से सबको खिलाती थीं। उनके गहने, कपड़े, बर्तन सब अभिजात्यता की पहचान होते थे। सब मातहतों की पत्नियाँ मिलकर उनके घर में खाना सर्वे करतीं। अपनी कामवालियों से लेकर मास्टर रोल पर रखे डेली वर्कर तक की चुगलियाँ करतीं। कभी सास-ननद ससुराल की बुराई और मायके से आए सामान की बेतहाशा बधाई। सबके बच्चे या तो बाहर पार्क में खेलते रहते या फिर साहेब के बेटे के वीडियो गेम पर अपनी बारी का इंतज़ार करते कि कब मारियो खेलने का मौक़ा मिलेगा। 
दीदी तो अक्सर जल्दी घर चली जाती थीं। उनको पार्टियों में आना-जाना ज़रा भी पसंद नहीं था। पढ़ने की होशियार दीदी का सिलैबस ही ख़त्म नहीं होता था। भैया अक्सर वीडियो गेम में चीट कोड डालकर देर तक खेलता और बाक़ी किसी की बारी ही नहीं आती थी। 
और गोलू मोलू-सी शीना पापा के पास से मम्मी के पास फिर भैया के पास ठुनकती-घूमती रहती थी। आम पंजाबी बच्चों की अपेक्षा शीना के नाक-नक्श तीखे थे, रंग सफ़ेद गोरा होकर भी गुलाबी रंगत लिए था। सब उसको कश्मीरण कहते थे। आते-जाते उसके सुनहरे से बालों को बिगाड़ देना या उसके गाल खींच देना सबका प्रिय शगल था। खजूर अंकल नाम भी उसने ही खजुरिया अंकल को दिया था। अक्सर उनकी सरकारी जीप में सब बच्चे घूमने जाते थे। सबसे सुंदर और छोटी होने के नाते उसको खजूर अंकल के साथ आगे बैठने का मौक़ा मिलता था। बाक़ी सब जीप में पीछे लटके बैठे रहते थे। उसको पीछे सब बच्चों के साथ लटककर बैठने में जितना मज़ा आता, उतना ही उसको हर बार आगे ही बैठना पड़ता था। 
खजूर अंकल अक्सर पापा को कहते, “ओ खुराने, इस कश्मीरण को तो मैं ही उठाकर ले जाऊँगा, तेरे से तो इसकी सूरत-रंगत-नक्शा भी नहीं मिलता। यह हम जम्मू वालों के साथ ही रहेगी।”
पापा भी हँस कर कहते, “ले जाओ जी, त्वाडी ही कुड़ी है।” 
खजूर अंकल अपने दोनों बेटों और बेटी के लिए कुछ भी ख़रीदकर लाते तो शीना के लिए भी ज़रूर लाते थे। भैया और दीदी कई बार चिढ़ भी जाते थे और अक्सर कहते, “जा ना उनके घर ही रह, हमारे साथ क्यों रहती है? उनकी बेटी बनी हुई है न!” 
शीना के दोनों हाथों में लड्डू था, दोनों तरफ़ से उसको सामान मिलता था, लेकिन मन ख़ुश नहीं होता था उसका। 
उम्र जब एक नन्हें बीज की तरह परवान चढ़ती है तो अचानक किसी सुबह लम्बी अंकुरित-सी नज़र आती है। भैया, दीदी और खजूर अंकल के बेटे अब ब्राइटलैंड स्कूल में आ चुके थे। सिर्फ़ उनकी गुड़िया और शीना ही अभी जूनियर हाई स्कूल विंग में थी। दोनों लड़कियों को कैम्ब्रियन हॉल स्कूल में ड्राइवर लेने आता और छोड़ने भी जाता था। कभी-कभी खजूर अंकल ख़ुद भी लेने आ जाते थे तो दोनों लड़कियों को सीधा अपनी कोठी पर ही ले जाते थे। खाना खिलाकर फिर उसको घर छोड़ने आते तो ख़ूब प्यार करके कहते, “तू रज के सोनी है कुड़िये, बड़ी कब होगी?” 
“खुराना यार, एक बात बता, इस कश्मीरण को क्या खिलाते हो भाई? यह तो हर सुबह दो इंच लम्बी जागती है, कल स्कूल से लाया तो इसकी स्कर्ट घुटनों से नीची थी। आज घुटनों तक थी, कल तक तो और छोटी हो जानी है।” 
और खजूर अंकल ठहाका लगाकर हँस दिए।
उनके गिलास में व्हिस्की डालते हुए पापा बोले, “अरे यह अपने नानकों पर गई है, सब गोरे-चिट्टे लम्बे-तगड़े। मेरी वोटी को नहीं देखा, लाया तो पचास किलो की थी, अब पूरे सौ किलो की हो गई है।”
“यार यह हमारी जनानियाँ व्याह होते ही फैल क्यों जाती हैं?”
“हम इनको सर चढ़ाकर जो रखते हैं।” 
और फिर ज़ोर से ठहाका लगता दोनों तरफ़ से।
शराब पीते हुए (खासकर पंजाबी) शराबियों को पता ही कब चलता है कि वो बीबी की बात कर रहे हैं या किसी और ज़नानी की। उनके लिए तो ज़नानियाँ बस चुटकुले का सामान ही हो जाती हैं। बात-बात पर बहन और माँ की गाली को वाक्यों में प्रयोग करते हुए सब क़िस्से सुनाते हैं और अपने ही बच्चों को उस गाली का संबोधन भी दे बैठते हैं। शब्दों के मर्म को पहचान लेने की शक्ति उनमें बाक़ी ही कहाँ रहती है।
“शीना, ऐसे क्यों चुपचाप बैठी हो?” राकेश ने चाय के मग वाली ट्रे सामने मेज़ पर रखकर उसको बाँहों में भर लिया। 
“अरे आप कब जागे।”
“जब मेरी गुलाबो ने मेरा माथा चूमा था।” 
चाय का पहला घूँट भरते हुए अचानक राकेश बोले 
“शीना बेबी आज अम्बाला चलते हैं, कल शनिवार की छुट्टी भी है, आज की छुट्टी आराम से मिल जाएगी और हम कब से गए भी नहीं हैं।” 
उसने तिरछी नज़र से देखा। राकेश मुझे बहलाकर अम्बाला ले जाना चाहते हैं, वो शायद नहीं जानते कि मैं जानती हूँ खजूर अंकल नहीं रहे।
‘ह्म्म!’ कहकर उसने कमला को नाश्ता बनाने को कहा और भाभी को एक छोटा-सा संदेश कर दिया- “भाभी, बस थोड़ी ही देर में यहाँ से निकलते हैं।” 
नहाने के बाद अलमारी खोलकर खड़ी शीना सोचने लगी- ‘कौन से कपड़े पहनने के लिए निकाले जाएँ?’
पंजाबियों का यह अजीब ही पंगा होता है, सुख हो या कोई दुख की घड़ी, वो सबसे पहले देखते हैं कि उनके घर आने वाली भीड़ क्या पहनकर आई है? रंग कैसा है, कपड़ा कैसा है, ब्रांड क्या है? फिर उसके बाद शोक, राग मना लेंगे। उस पल के बाद फिर सब लोग अलग से भी विश्लेषण करेंगे कि फलाने दी वोटी केहो जहे कपड़े पा के आई सी/ हाय नी डिमकाने दी जनानी किन्ना सोहना सूट पाके आई सी। क्लास है बंदी दी। पंजाबनें सिर्फ़ शादी-ब्याह के मौसम में ही अच्छे कपड़े नहीं बनवाती हैं, किसी के मरने पर जाने के लिए भी झट से सूफ़ि‍याना-सा सूट बनवा लेती हैं। बस नए फैशन और स्टाइल का होना चाहिए। आख़िर चार लोगों के बीच बिरादरी में जाना है।
उसने वेस्टर्न कपड़े या तो हॉस्टल में रहकर पहने थे या फिर शादी के बाद। मायके में वो हमेशा दुपट्टे वाले ही सूट पहने सिकुड़ी-सी रहने वाली लड़की थी। उसकी सब कजिन उसको बहनजी का ख़ि‍ताब देती थी कि पूरी चुन्नी खोलकर कौन सूट पहनता है। 
उसने चिकन के गहरे गुलाबी कुरते को सफ़ेद लेगिंग के साथ पहन लिया और छोटी-सी बिंदी लगाकर बालों को रबड़ से बाँधकर जब वो नाश्ता करने के लिए आई तो राकेश ने हैरानी से देखा, “शीना, क्या तुम जानती हो हम अम्बाला क्यों जा रहे?”
“ह्म्म जानती हूँ, भाभी का व्हॉट्सएप संदेश आ गया है।” 
“तो जब जान गई हो तो कपड़े भी उसी हिसाब से पहनो ना।” 
शीना ख़ामोश बैठी नाश्ता करती रही।
“आज तलक तुम बिना दुपट्टे वाला सूट कभी किसी शादी में भी नहीं पहनकर गई और आज तो… जानती हो न, सारी बिरादरी वहीं होगी।” 
अब शीना ने आग्नेय दृष्टि से राकेश की तरफ़ देखा, “मुझे मालूम है।” 
“मालूम है तो… तो समझ क्यों नहीं रही हो यार? अक्ल क्यों नहीं है तुझे?” अचानक राकेश के भीतर का पंजाबी मर्द बाहर आ गया। 
शीना नाश्ते की प्लेट वहीं छोड़ अपना बैग उठाकर कार में जा बैठी।
“भैया और मम्मी ही इसको अक्ल सिखाएँगे।” झुंझलाते हुए राकेश कार में आ बैठा। रास्ते भर अबोला-सा ही रहा।
 एफएम पर निविया डोगरा की ग़ज़ल बज रही थी- ‘सुना होगा तुमने दर्द की भी एक हद होती है 
मिलो हमसे हम अक्सर उसके पार जाते हैं…’ 
कार से बाहर बारिश को देखती शीना की बार-बार आँखें पनीली-सी हो रही थी। अभी साल भर पहले ही पापा जी चले गए अब खजूर अंकल… शायद इसलिए अपसेट है शीना। यह सोच राकेश में एक अपराधबोध भर रही थी कि बेवजह शीना से ज़ोर से बोला लेकिन इसको भी क्या हुआ, मौक़ा देखकर तो कपड़े पहने जाने चाहिए।
अम्बाला में सब घर ही थे। मम्मी और भैया थोड़ी देर पहले ही उनके घर से लौटे थे। और शीना को देख मम्मी ने उसको गले लगा लिया। पापा के जाने के बाद शीना दूसरी बार उस घर में आई थी। मम्मी के गले लगते ही उसके आँसू निकल पड़े। 
“शीना, दोनों पक्के यार थे न एकदम भाइयों वरगे, तुम्हारे पापा ने उनको भी अपने पास बुला लिया। दुखी मत हो बेटा। लगता है जैसे बैठी थी उन्हीं कपड़ों में आ गई हो, चाय पी लो फिर जाओ कपड़े बदल लो। उसके बाद उनके घर चलते हैं। शाम तीन बजे का समय संस्कार के लिए दिया गया है। तब तक उनकी बिटिया गुड़िया भी मुंबई से आ जाएगी न।” 
मम्मी ने सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“ठीक तो है मेरे कपड़े।” शीना धीरे से कुसकी।
“शीना! जाओ कपड़े बदलकर आओ।” भैया ने उसको ज़िद करते देखकर ज़ोरदार आवाज़ में कहा। 
“यह फैशन के कपड़े अपने ससुराल में पहनो, आज कोई कॉलेज का फंक्शन नहीं है जहाँ सहेलियों के संग जाना है। यहाँ मौक़े और बिरादरी के अनुरूप कपड़े पहनो। दिमाग़ ही ख़राब हो गया इस लड़की का शादी के बाद…”
“हाँ-हाँ-हाँ! मुझे यही कपड़े पहनने हैं क्योंकि मुझे कोई अफ़सोस नहीं है खजूर अंकल के मरने का। अच्छा हुआ जो मर गए! मैं आज सिर्फ़ उनकी मौत का उत्सव देखने जाना चाहती हूँ कि वो इंसान मरा हुआ कैसा लगता होगा। मेरी तो बरसों पुरानी मुराद आज पूरी हुई है।”
“…” 
शीना की आँखें आग बरसा रही थीं। शब्द अंगारे बन सब पर गिर रहे थे। हर कोई हतप्रभ रह गया था। ऐसे कैसे बोल रही है यह लड़की! शायद पिता के बाद खजूर अंकल का अवसान सह नहीं पा रही है। आख़िर अपनी बेटी बनाकर रखा था उन्होंने!
चीख़कर शीना की रुलाई छूट गई और वो दूसरे कमरे में चली गई। राकेश स्तब्ध रह गया था। शीना का ऐसा रूप उसने कभी नहीं देखा था। 
मौत का उत्सव देखने जाना है इसने, वो भी उस आदमी की जिसने उम्रभर इसको बेटी बनाकर रखा, पागल हो गई यह तो, बड़ी मुश्किल से इसको पापा जी की मृत्यु के बाद सम्भाला था। राकेश हाथ में पकड़ा जूस का गिलास वहीं रखकर शीना के पीछे कमरे में आ गया।
शीना घुटनों में सर छिपाए सिसकियाँ भरकर रो रही थी, उसकी हिचकियाँ देखकर राकेश द्रवित हो उठा। मम्मी भाभी और दीदी भी कमरे में आ गई थी। 
“शीना! बेबी तुम ऐसी नहीं हो, ऐसे क्यों बोल रही हो तुम? पापा को आज भी याद करती हो, ये भी पापा समान हैं। तुम शायद पापा के बाद उनका इस तरह जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रही हो। ईश्वर के आगे किसकी चली है। ऐसे शब्द बोलोगी तो लोग तो बातें बनाएँगे ही और उनकी आत्मा भी दुखी होगी कि क्या मेरे मरने का इसको ज़रा अफ़सोस नहीं, ख़ुशी है?” उसके बालों को सहलाते हुए राकेश ने समझाना चाहा। 
“हाँ-हाँ मुझे ख़ुशी है! सच में ख़ुश हूँ मैं तो!” ज़ोर से शीना बोली। अपने बहते आँसुओं को हाथ से पोंछते हुए उसने माँ को देखते हुए कहा।
“मैं तो पिछले पंद्रह साल से उनकी मौत की अरदास कर रही हूँ, आप सब एक सच्ची बात सुनोगे आज? आप सोच भी नहीं सकते ऐसा क्यों होता है। राकेश प्यार से मुझे जब-जब सामने से छूने की कोशिश करते हैं तो मैं डर जाती हूँ, अनजाने अनकहे दर्द से।”
“सुनो मम्मी, याद करो आप एक बार मामा के घर मोगा गई थी जब नाना जी बहुत बीमार थे। मेरी छठी की अर्धवार्षिक परीक्षा थी। आप भैया को साथ ले गई थी। दीदी खजूर आंटी के घर से खाना लेने जाया करती थी। ऐसे ही एक सर्द शाम को मैं पापा के साथ घर पर ही थी। उस शाम को हमारे ही घर पापा और खजूर अंकल की शराब पार्टी चल रही थी। अजीब चुटकुले एक-दूसरे को सुनाते पापा और अंकल ज़ोर-ज़ोर से हँस रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्यों ये लोग इतना ज़ोर से हँस रहे हैं! क्यों बहन*** महियावी कहकर हँसते जा रहे हैं! आख़िर फोन पर क्या देख रहे हैं!”
उस शाम दीदी को जाने क्यों देर लग रही थी। खाने का इंतज़ार करते-करते मैं दूसरे कमरे में जाकर सो गई।”
सुबकियाँ लेते हुए शीना ने राकेश का हाथ कसकर पकड़ लिया। 
“उस शाम सोए-सोए अचानक मुझे रज़ाई में अपनी दोनों छातियों पर ज़ोरदार दबाव महसूस हुआ। मैं दर्द के मारे ज़ोर से चीख़ उठी और नींद में ज़ोर से पैर चलाया और आँखें खोली तो खजूर अंकल दाँत निपोरते दिखे थे। मुझे देखते ही हँसते हुए बोले, “की होया कश्मीरण? मज़ा नी आया, मीठा-मीठा दर्द होया न?” 
मेरी तेज़ आवाज़ सुनकर रसोई में सलाद काटते पापा भी आ गए थे। 
“खुराने देख तो, कश्मीरण ने शायद कोई सपना देख लिया जो डर गई।”
मेरे बालों को सहलाने की कोशिश करते हुए खजूर अंकल फिर से बिस्तर पर बैठ गए थे। इतने में दीदी खाना लेकर आ गई। पापा और खजूर अंकल खाना खाने चले गए। मैंने दीदी को लिपटकर सब बात बताई थी, याद करो दीदी… तब आपने कहा था- ‘श्श्श! चुप रहना, ऐसी बातें किसी को बताने पर अपनी ही बेइज़्ज़ती होती है। चुप रहना।’ याद है न?”
शीना की दोनों आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे। राकेश की बाँहों में लिपटी शीना सिसक रही थी। उसके बाद जब-जब खजूर अंकल से सामना होता वो अपने हाथों से मुझे दबोचने का इशारा कर देते और जब कोई उनको देखता तो उन्हीं हाथों से मेरे बाल सहला देते और कहते, “कश्मीरण! तू वड्डी हो के रज के सोहणी बनेगी।” 
उसके बाद मैं कभी उनके घर पार्टी में नहीं जाती थी। उनके घर आने पर हमेशा पढ़ने बैठ जाती थी या गणित का सवाल बता दो कहकर भाई के कमरे में चली जाती थी। उस छुवन का दर्द दिल तक पहुँच गया था। अगले बरस दीदी अर्थशास्त्र ऑनर्स पढ़ने दिल्ली चली गई। भैया को आपने मेडिकल की तैयारी करने कोटा भेज दिया था। अकेली घर पर रहने के नाम से मैं डरने लगी थी। याद करो मैंने कितनी चीख़-पुकार मचाई थी कि मुझे भी हॉस्टल भेजो। पापा का भी ट्रांसफर उसी साल होना तय था तो आपने मुझे भी मामा की बिटिया सिमरन के साथ मसूरी के गुरु नानक स्कूल में एडमिशन दिला दिया था। खजूर अंकल मुझे मिलने जब भी मसूरी आए मैंने मिलने से मना कर दिया था।
“राकेश, मुझे सर्दी की लम्बी छुट्टी में घर आना ही होता था लेकिन मैंने कभी मायके में बिना चुन्नी का सूट नहीं पहना, हमेशा दुपट्टा खोलकर या शाल पहन सूट पहने रहती। दीदी की शादी में सबने मुझसे लहँगा पहनने की ज़िद की थी लेकिन मैंने चुन्नी वाला सूट ही पहना था। अंकल आते-जाते मुझे ‘कश्मीरण तू चाहे तिल्ले का सूट पा ले या कुछ वी ना पा, सोहनी ही लगेगी’ कहकर पसीने-पसीने कर जाते थे। मैं डरकर एक तरफ़ बैठी रहती थी।
आप तो कभी हमारी बात सुनती ही नहीं थी मम्मी, हमेशा आंटी से प्रभावित आप अपनी बेटियों को भूल ही जाती थी। आपको सब लोग अपने ही लगते थे और पापा के ग़ुस्से और रुआब के सामने कभी किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं होती थी। यह तो उनके जिगरी यार की बात थी।
जब रिटायरमेंट के बाद पापा अम्बाला आए तो खजूर अंकल ने भी यहाँ घर ले लिया था तो मैंने चंडीगढ़ एमसीएम में दाख़िला ले लिया था। वो तो हॉस्टल में राकेश की बहन मेरी सहेली थी। उसने मुझे अपने भाई के लिए पसंद कर लिया था और राकेश के पापा जी के बीमार होने की वजह से तुरंत शादी हो गई। याद करो खजूर अंकल ने राकेश से विवाह को मना किया था तब आंटी ने ‘छड्डो जी, कुड़ी ने आपे मुंडा पसंद कित्ता होया है, तुस्सी क्यों बुरे बण दे हो’ कहकर उनको चुप कराया था। मैंने तो विदाई के वक़्त भी उनका आशीर्वाद नहीं लिया था।
मैं तो तब से कल्पना करती थी कि खजूर अंकल मर गए है। कभी किसी नई बीमारी का पता चलता तो ईश्वर से कहती थी कि काश वो बीमारी इनको हो जाए। इनको कैंसर हो जाएँ, एड्स हो जाए, कोई एक्सीडेंट हो जाए और वह मर जाएँ।”
इतना सुनते ही हाथ में भाभी का दुपट्टे वाला सूट लिए खड़ी मम्मी धम्म से कुर्सी पर बैठ गई। दीदी और भाभी के भी आँसू बह उठे। 
“मुझे तो कभी नहीं बताया तुम दोनों ने… इतने साल अकेले ख़ुद से लड़ती रही! मैं उनको वीर जी वीर जी कहते नहीं थकती थी। वो कमीना का बंदा उस बच्ची को ही… जिसे अपनी धी (बेटी) कहता था!” 
दीदी उठकर दूसरे कमरे में चली गई और दो ही मिनट बाद बाहर आई तो उन्होंने भी कुर्ती और प्लाजो पहना था।
माँ और भाभी ने हैरानगी से एक-दूसरे को देखा और अनकहा बहुत कुछ समझ गईं। राकेश और भैया ख़ामोश होकर सोफे पर बैठे थे। मौसम बाहर खजूर अंकल के जाने को रो रहा था या शीना के सीने पर बरसों से जमे दर्द को धोने की कोशिश कर रहा था। कौन जाने!
भाभी ने अपने सर से दुपट्टा हटाकर साइड में टाँग लिया और कार की चाबी उठाकर बोली, “चलो दीदी लोग… अंतिम विदाई दे आते हैं बरसों के जमे दर्द को। उसके बाद शाम को जग्गी सिटी सेंटर में पिज्जा पार्टी करने चलेंगे।” 
बादलों से झाँकती सूरज की सुनहरी रश्मियाँ भी उनके साथ-साथ मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी।

नीलिमा शर्मा का जन्म 26 सितंबर को मुज़फ़्फ़र नगर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। नीलिमा विवाह पश्चात देहरादून निवासी रही । वर्तमान में दिल्ली निवासी नीलिमा ने एम ए (अर्थशास्त्र ) एवं बी.एड. ,बी.टी.सी तक शिक्षा ग्रहण की है।
– उनका एकल कहानी संग्रह “कोई खुशबू उदास करती है ” प्रकाशक शिवना प्रकाशन से प्रकाशित
– कविता संग्रह”शनिवार के इंतज़ार में” शिवना से प्रकाशित
– लघुकथा संग्रह “सुबह की चाय”शीघ्र प्रकाश्य
– कहानी संग्रह “देह दिल्ली दिल देहरादून”शीघ्र प्रकाश्य
संपादन:-
:- हिंदी साहित्य के प्रथम डिजिटल साझा उपन्यास ‘आईना सच नही बोलता’ की अवधारणा, संयोजन संपादन सहलेखन भी किया है जो कि www.matrubharati.com पर उपलब्ध है। जो शीघ्र ही प्रिंट में भी प्रकाश्य होगा ।
:- ‘मूड्स ऑफ लॉकडाउन’ नाम से एक वेबपुस्तक का सहसंपादन ओर सहलेखन जो matrubharti.com पर उपलब्ध है ।
:- मुट्ठी भर अक्षर (लघुकथा संकलन) (हिन्दयुग्म से प्रकाशित ) लेखन और सम्पादन
:- खुसरो दरिया प्रेम का ( स्त्री मन की प्रेम कहानियाँ) वनिका प्रकाशन,( लेखन और संपादन)
:- मृगतृष्णा( रिश्तों के तिलिस्म की कहानियाँ)।वनिका प्रकाशन(लेखन और संपादन)
:- लुकाछिपी ( कहानियों में छिपा बालमन ) शिल्पायन प्रकाशन(लेखन और सम्पादन)
:- हाशिये का हक़ (साझा उपन्यास) लेखन और संपादन
:- मन पिंजरा तन बांवरा (साझा कहानी सँग्रह)लेखन सहसम्पादन(वनिका प्रकाशन )
:- पुरवाई कथा माला भाग एक औऱ भाग दो (पुरवाई में प्रकाशित कहानियों का संग्रह) इंडिया नेट बुक्स
नीलिमा शर्मा की कविताएं 25 से अधिक संकलनों और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में सम्मिलित की जा चुकी हैं। उनकी लघुकथाएं भी 20 से अधिक संकलनों /पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। कहानीकार के तौर पर भी नीलिमा शर्मा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ/कविताएँ /लघुकथाएँ प्रकाशित हुई है। यू टयूब पर उनकी लघुकथाओं /कहानियों को सुना जा सकता है ।उनकी कहानी बदहवास का उर्दू अनुवाद पाकिस्तान के अखबार में प्रकाशित हुआ था । *उनकी कहानी टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी का अनुवाद पंजाबी उर्दू के साथ जापानी भाषा मे भी किया गया , जापानी अनुवाद टोक्यो विश्वविद्यालय की पत्रिका में शामिल किया गया है । उधार प्रेम की कैंची है कहानी का उर्दू अनुवाद पाकिस्तान की पत्रिका में प्रकाशन हेतु स्वीकृत, आल इंडिया रेडियो दिल्ली में कविता पाठ।
सम्मान :-
:- प्रतिलिपि कथा सम्मान 2015 में उनकी कहानी को बेस्ट 20 कहानियों में स्थान प्राप्त हुआ था ।
:- मातृभारती’साहित्य के उभरते सितारे’सम्मान 2016
:- लघुकथाओं के लिए आचार्य रत्नलाल विद्यानुग स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता सम्मान 2017
:-ओ बी ओ ‘साहित्य रत्न’ 2017
:-मेरठ लिट् फेस्ट 2018 में ‘साहित्यश्री सम्मान “प्राप्त
:- इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित 2019
:- साहित्य समर्थ कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता ( प्रशंसनीय कहानी ( मन का कोना) )पुरस्कार 2019
:-राधा अवधेश स्मृति कथा पुरस्कार (कोई ख़ुशबू उदास करती है )कहानी संग्रह के लिए 2023
:- रामदेवी वागेश्वरी सम्मान (कहानी संग्रह कोई ख़ुशबू उदास करती है) के लिए )2023
:- कुमुद टिक्कू स्मृति साहित्य समर्थ कहानी प्रतियोगिता में दिल देहरादून देह दिल्ली” कहानी को 2023 का द्वितीय पुरस्कार
:- पृथ्वीभान टिक्कू स्मृति सम्मान में उपन्यास “हाशिये का हक़” को 2023 का 11 हजार का सम्मान
:- दो वर्ष तक मातृभारती.कॉम की हिंदी संपादक
:- वर्तमान समय में पुरवाई ई पत्रिका की उपसंपादक
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51 टिप्पणी

  1. दिल को छू लेने वाली कहानी है नीलिमा दी,जाने कितने लोगों को इस तकलीफ से गुजरना पड़ा होगा अक्सर ऐसे लोग दोहरे चेहरे वाले होते हैं सबके सामने कुछ होते हैं और भीतर से एक वहशी दरिंदे होते हैं।
    बेटियां हो या छोटे लड़के इनकी वहशत के शिकार बन जाते है किसी को कुछ बोलते हैं तो या तो कोई विश्वास नहीं करता क्योंकी भलेमानस की छवि बना रखी होती है इन लोगों ने या फिर इज्जत के नाम पर घर वाले ही बच्चों को चुप करा देते है और ऐसे लोग आसानी से एक के बाद दूसरे को अपना शिकार बनाते रहते हैं

  2. अच्छी कहानी है । उतार -चढ़ाव काफी है । नेचर की खूबसूरती भी उकेरी गई है । ड्रेस को लेकर जो बदले का ताना -बाना बुना गया है वह काफी दिलचस्प है । लेखिका को बधाई

  3. नीलिमा शर्मा जी की ‘उत्सव’ आज के विकृत समाज की कहानी है। शुरुआत से ही ये लगता रहा कि कुछ तो है इस कहानी में। यद्यपि कहानी में प्राकृतिक सौंदर्य है, नायिका का बनाव श्रंगार है, दो परिवारों का आपसी तालमेल है। भरा पूरा परिवार भी है। बीच बीच में मैसेज, और फोन काल की चर्चा कहानी को आगे बढ़ाते जाते हैं। नायिका को काले बादलों के बीच भयानक आकृति घेरा जाना दिल में हौल पैदा कर देता है। सपने भी कम जानलेवा नहीं है।
    कहानी पढ़ते समय शीर्षक उत्सव के बारे में सोचता रहा। लेकिन अंत में जब वास्तविकता का पता चला तो मन क्षोभ से भर गया। एक उत्सव ऐसा भी मनाया जा सकता है।कहानी समाज की कड़वी सच्चाई को पाठक के सामने रख देती है। कहानी की बुनावट बहुत अच्छी है। पाठक अंत तक इसे पढ़ता चला जाता है। नीलिमा जी को बधाई

    • शुक्रिया लखनपाल जी
      कहानी ने एक पुरुष मन को प्रभावित किया जानकर अच्छा लगा।
      बात छोटी सी थी लेकिन छोटी नहीं थी।उम्र का एक हिस्सा उस घटना के बाद से सहमा सा था बस शीना को वो पल अब नसीब हुआ कि उसका दर्द जब बहा तो अपने साथ अपनों को भी द्रवित कर गया।

      शुक्रिया

  4. उफ़ एक ही सांस में पढ़ ली कहानी और जाना “उत्सव” शीर्षक रखने का दर्द भरा कारण । सजीव चित्रण आंखों के सामने आ गया । समाज का वीभत्स सच जो आज भी एक रोग की तरह फैला है जिसे जड़ से ख़त्म करने के लिए सबको एक साथ खास कर परिवार को सबकी सुरक्षा का जिम्मा लेना होगा समाज से बिना डरे।

    • मीनाक्षी जी उत्सव जिंदगी के साथ भी तो जिंदगी के बाद भी । शैतान और फरिश्ते दोनो इसी दुनिया में है लेकिन कौन किसका आवरण ओढ़े धोखा दे रहा है पीड़ित मन ही जानता है ।

      शुक्रिया आपका

  5. कितना मुश्किल होता है एक बच्ची के अबोध मन में बैठी हुई नफरत। जो आज महान वीभत्स रूप में रोज सामनेेआ रहा है वह हमेशा से रहा है।
    अबोध मन इसे भूल नहीं पाता है और वह धधकती ज्वालामुखी फूट ही पड़ती है।

    • स्त्री विमर्श की दमदार कहानी, बचपन की एक घटना की टीस जो शीना के व्यक्तित्व पर हावी है।ऐसे दोगले इंसान न जाने कितनी बच्चियों का जीवन बर्बाद करते हैं।चुभती सच्चाई और उस बाहर आने की जद्दोजहद की मार्मिक तस्वीर पेश करती बढ़िया कहानी।
      खूब बधाई

    • शीना ने जब बताना चाहा तो किसी ने नहीं सुना, जब उसके भीतर की आग भड़की तो भाभी के साथ बड़ी बहन ने भी उसका साथ दिया।

      कोई बचपन में ही सुन लेता तो इतने बरस तक मन संतप्त न रहता।

      आपको कहानी पसंद आई इसका शुक्रिया

    • रेखाजी मन कब कुछ भूल पाता है बस किर्चे हौले हौले हरदम उसके कोने छिलती है ।

      शुक्रिया आपका

  6. पुरुष की उदंडताओ से जुड़ी अच्छी कहानी है। जिसके लिए देह बड़ी चीज है। कहानी का अंत भी बढ़िया लगा। खूब बधाई और शुभकामनाएं नीलिमा।

    • शुक्रिया, मुझे लगता है इससे बेहतर अंत कोई नहीं हो सकता था । हर बार बदला कत्ल करके नहीं लिया जाता । शीना के पास कुछ चारा भी नहीं था।

      शुक्रिया आपका

  7. पुरुषों की विकृत मानसिकता का सच उजागर करती बहुत अच्छी कहानी। कथानक की कसावट सस्पेंस को बरकरार रखती है। कहानी का अंत बढ़िया बढ़िया लगा। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं नीलिमा जी।

  8. समाज की विकृत सच्चाई को मजबूती से बाँधती कहानी, लाजबाव शब्द विन्यास जिसने शुरूआत से खींचें रखा, बहुत सुन्दर, सार्थक कहानी जिसे अधिकांश महिलाएं पढ़ कर अपना सा पायेगीं।
    कोनों में घुटती, डरती, बगैर सिसकियों के रोती, जाने कितनी लड़कियों का दर्द समेटे है कहानी।
    शुरुआत बहुत शानदार रही, बीच में थोड़ी बोझिल लगी लेकिन फिर जैसे झटके से नाविक अपनी पतवार को थपेड़ों से बच निकालता है।
    भावुक पंक्ति-
    ‘सब अपने क़रीबी लोग नज़र आते हैं लेकिन कोई भी तो उसको बाहर निकालने का प्रयास नहीं करते हैं। शीना जब सपने में रोते-रोते सो जाती’ ..रूला दिया।
    अन्त तक आते- आते फिर से कहानी धार पकड़ लेती है। कुल मिला कर बेहतरीन कहानी की लेखिका को बधाई।
    छाया अग्रवाल

  9. नीलिमा शर्मा की कहानी ‘उत्सव’ की शीना के समान कितनी ही लड़कियां इस तरह की स्थितियों से गुजरती हैं और मौन रह जाती हैं। पुरुष के कामी स्पर्श को समझने की छठी इंद्री ईश्वर ने स्त्री को प्रदत्त की है किन्तु कितनी ही शीनाओं की पीड़ा अव्यक्त ही रह जाती है।यह अव्यक्त पीड़ा उसे काली छाया सी हमेशा घेरे रहती है और वह विवश सी प्रकृति -परिवेश में अपनी अंतर की हूक को शब्द देने की कोशिश करती रहती है,जिस दिन यह हूक लावा बनकर फूटती है तो शीनाएं कसक देने वाले की मृत्यु को उत्सव सा देखती हैं। नीलिमा जी ने शीना की अंतर्व्यथा को कहानी के प्रारंभ से ही छटपटाहट के साथ शनै:शनै आगे बढ़ जाने दिया है। पूरी कहानी में एक धुंध व्याप्ति है,यह धुंध खुशनुमा मौसम को भी किसी अक्स की परछाई में बदल देना चाहती है। बचपन से सपनों में पीछा करता काला धुआं उसके वर्तमान को घेर लेता है। कई-कई बार वही सब घटित होते देखना ही तो पीछा करता है,एक स्त्री के जीवन का वह सच जो वह किसी से साझा नहीं कर सकती। ऐसे कितने -कितने सच का कितनी-कितनी शीनाएं सामना कर रही होंगी कौन जानता है? नीलिमा जी कथा की घढ़न में अपने उस सपने के वृत्त का फैलाव करती हैं किन्तु फिर उस वृत्त के केन्द्र में लौट आती हैं। स्त्री विमर्श को यह एक अलग दिशा की ओर ले जाता है।इस तरह की घटनाओं को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। कोई उन पर शोर नहीं मचाता न ही शोर मचाने दिया जाता है। इंसानी फितरत के इस घृणित पक्ष को उठाती यह सुंदर कहानी है। मुझे लगता है स्त्री विमर्श का यह नया प्रस्फुटन है,यह ओर कथ्य मुहैया कराएगी। कहानी सच में धीरे-धीरे अहसास कराती है कि यह किस दिशा की ओर ले जा रही है।जिस वक्त खजूरिया अंकल की मृत्यु का समाचार आता है उस वक्त कुछ गुत्थियां सुलझने लगती हैं और फिर एक स्त्री का अपने को अनजान बने रहने का दुख तो दो अन्य स्त्रियों का शीना के साथ उठ खड़ा होना एक मुखर विद्रोह में बदल जाता है। एक स्त्री होकर दूसरी की पीड़ा का, व्याकुलता का अहसास ना होना,आम स्त्री का यथार्थ है, इसी यथार्थ ने उसकी शक्ति और साहस को क्षीण किया है। एक ओर स्त्री सशक्तिकरण का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वाली स्त्री आज कहां खड़ी है,उसको आइना दिखाती सशक्त कहानी है।

  10. बहुत सजीव और जीवंत कहानी। आपकी कहानी आज के रिश्तों के बीच संवाद हीनता को बहुत ही प्रमुखता के साथ रेखांकित कर गई है। अक्सर घरों में लड़कियाँ अपने साथ हो रहे अन्याय को शब्द नहीं दे पातीं और देती भी हैं तो उन्हें चुप करा दिया जाता है। अपराधी का हौसला और बढ़ जाता है।
    आरंभ से लेकर अंत तक कहानी पाठक को बांधे रखती है। कहानी के सौंदर्य के साथ-साथ जिज्ञासा निरंतर सिर उठाती रहती है। शानदार कहानी। हार्दिक बधाई।

    • शुक्रिया नीलम जी

      आज बच्चों को स्पर्श का महत्व समझाना जितना जरूरी है उतना जरूरी है उनके कहे को समझना।

      शुक्रिया आपको कहानी पसंद आई।

  11. बेहद खूबसूरत कथा शिल्प और सस्पेंस को बनाकर रखते हुए एक मार्मिक चित्रण ,,,वाकई में हमें अपनी बच्चियों को बचा कर रखना चाहिए।

  12. पुरुष वर्ग की कुत्सित मानसिकता की एक सशक्त कहानी। अक्सर लड़कियां अपने साथ हुए शोषण को कह नहीं पातीं और अगर कहती भी है तो घर वाले उनकी बात को समझ नहीं पाते या समाज के डर से सुनना नहीं चाहते। अत्यंत सशक्त और मार्मिक चित्रण। अंत बेहद खूबसूरत है। बहुत-बहुत बधाई नीलिमा जी।

  13. renu mandal
    पुरुष वर्ग की कुत्सित मानसिकता को दर्शाती अत्यंत सशक्त कहानी। हमारे समाज में अक्सर लड़कियां अपने साथ हुए शोषण को कह नहीं पातीं अथवा घर वाले उनकी बात को समझ नहीं पाते। अत्यंत मार्मिक चित्रण। कहानी का अंत मन को छू गया। बहुत-बहुत बधाई नीलिमा जी

  14. बहुत सुन्दर प्रस्तुति निलिमा जी बहुत मार्मिक चित्रण और समाज का छुपा हुआ सच बहुत सुन्दर

  15. कड़वा सच, सरल और सहज शब्दों में लड़कियों की आप-बीती सुना गया। घर के बड़े-बूढ़ों पर भी विश्वास नहीं कर सकते। कभी-कभी ये आस्तीन के साँप होते हैं। कहानी का शीर्षक इसकी जान है। एक बेहतरीन कहानी के लिए बधाई स्वीकारें नीलिमा जी

  16. बहुत गई मार्मिक कहानी है नीलिमा जी। पहले भी पढ़ी थी। आज फिर से पढ़ी। कुछ ज़ख्म कभी नहीं सूखते, नासूर बनकर सीने में दबे रहते हैं। शीना के मन के माध्यम से जाने कितनी मासूम बच्चियों की मूक पीड़ा मुखरित हो गई। आपको हार्दिक बधाई।

  17. बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है मैम । कहानी का अंत बहुत ही शानदार रहा। बहुत सारी स्त्रियों की पीड़ा को व्यक्त कर गई यह कहानी। एक अच्छी कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई मैम

  18. लेखनी की धनी, नीलिमा जी की कहानी “उत्सव” एक कहानी नहीं अपितु भावनाओं का ऐसा संमदर है जिसमें ज्वार भी है और रिश्तों की ऐसी कतरनें है जो अंत में जाकर पैरहन बनाती है। ऐसा पैरहन जो कोई भी लड़की नहीं पहनना चाहेंगी।
    कहानी के प्रवाह मन को बहा कर ले जाने वाला है जो मिलाता है अनदेखे रहस्यों के गहन समंदर में। ऐसे रहस्य शीर्षक से भी उजागर नहीं होता, ये लेखक की कलम की कामयाबी है।
    लेखक की इस कहानी ने देहरादून के वे सारे मंजर याद दिला दिये जिससे कभी मैं भी होकर गुजरी थी। पंजाबी के पुट ने कथा को और पुष्ट, सुदृढ़ बनाया है। शानदार कलम की धनी नीलिमा जी को इस कहानी के लिए असीम बधाई एवं शुभकामनाएं

  19. आदरणीय नीलिमा शर्मा जी। आप की कहानी *उत्सव* पढ़ी। आपकी कहानी का यह विषय आज का सबसे अधिक ज्वलंत, विचारणीय और तकलीफदेह विषय है । एक लड़की के लिए उसकी देह, उसका सौंदर्य भी कभी-कभी शाप जैसा हो जाता है। सच पूछा जाए तो सबसे पहले उसके सबसे अधिक विश्वस्त ही उसकी अस्मिता पर नजर डालते हैं। हमारा अब तक का अनुभव और जितना दुनिया में दिखाई दे रहा है, पढ़ रहे हैं और सुन रहे हैं, उससे तो यही समझ में आया है। अगर किसी लड़की के लिए उसकी चर्चा किसी और से करना, भले ही वह अपनी माँ ही क्यों ना हो, किसी सजा से कम नहीं होती; बेहद दुश्कर होता है। और जब सबकी नजर में वही दुष्कर्मी बहुत अपना व सबकी नजर में सम्माननीय और अपने परिवार का बहुत खास, पारिवारिक जैसा हो तो सारी तकलीफें और बढ़ जाती हैं।अपनी व्यथा किसी से कह भी नहीं पाते।वह व्यक्ति जब स्वयं मृत्युशैया पर हो तो शोषित स्त्री के लिए वह पल खुशी का अवसर होता है,सबसे बड़ा उत्सव का अवसर होता है। यहाँ पर बात *उत्सव* शीर्षक की करना अत्यंत आवश्यक है।उत्सव शब्द सुनते ही मन आनंदित हो उठता है ।मानव जीवन की दैनन्दिनी से जीवन की ऊब को खत्म करने के लिए ही पग-पग पर हमारी संस्कृति में उत्सव स्वयं ही सम्मिलित हैं। किंतु उत्सव का अर्थ सिर्फ त्योहार से ही नहीं होता। हमारे आनंद के हर क्षण भी हमारे लिए किसी उत्सव से कम नहीं होते और फिर यह तो शीना के जीवन का सबसे बड़ा उत्सव था उसके अंतर में छिपी हुई हुई सारी पीड़ाएँ, कसक और वह सब कुछ जो एक समय पर वह चाहती थी वह अब जाकर पूरा हुआ
    कई या शायद सभी स्त्रियों को जीवन में इस तरह की समस्याओं से संभवतः जूझना पड़ा होगा।वह पिता का मित्र,कोई दोस्त ,रिश्ते में भाई इत्यादि कोई भी हो सकता है। *उत्सव* कहानी पिता के मित्र की है जो पिता तुल्य तो थे पर पिता नहीं हो सके।उनके मन में सब कुछ था पर अपने अजीज मित्र की सबसे छोटी व प्यारी बेटी के प्रति पितृत्व का भाव ही न उपज सका।” फैशनेबल कपड़ों में गमी में नहीं जाते” कहकर जब बार-बार शीना को कपड़े बदलने के लिये कहा जाता है तो उसकी आँखें आग उगलने लगती हैं और बरसों से अंदर दबा लावा ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ता है।
    “हाँ! हाँ! हाँ! मुझे यही कपड़े पहनने हैं !क्योंकि मुझे कोई अफसोस नहीं है खजूर अंकल के मरने का ।अच्छा हुआ जो आज मर गए। मैं आज सिर्फ उनकी मौत का उत्सव देखने जाना चाहती हूँ।”
    एक जगह फिर वह कहती है-“मुझे खुशी है! सच में खुश हूँ मैं तो!”
    और फिर शीना से सारी सच्चाई जानकर घर के सभी लोग स्तब्ध रह जाते हैं।
    स्त्री दूसरों से तो अपनी रक्षा कर लेती है पर आस्तीन के साँपों से अपने को बचाना मुश्किल होता है।
    सम्बन्धों की मजबूत जड़ों को उखाड़ कर फेंकना इतना सहज नहीं होता। कैसी बेबसी में घिरे पल होते हैं और वो यादें अपने आप को एक ऐसे युद्ध में निरत पाती हैं जहाँ स्त्री अपनों के विरुद्ध युद्ध के मैदान में अर्जुन की तरह स्वयं को शोकाकुल पाती है पर कोई कृष्ण नजर नहीं आता। वह चाह कर भी अभिमन्यु नहीं बन पाती।
    यहाँ पर ऐसा प्रतीत होता है मानो कहानीकार ने परकाया प्रवेश की जादुई शक्ति से शीना के शरीर में प्रवेश कर लिया हो। इतनी तड़प! इतनी आग!! शायद ज्वालामुखी में भी न हो!
    यहाँ कहानीकार की लेखन शैली इतनी अधिक प्रभावशाली हो उठी है कि पाठक की संवेदनाएँ व सह्रदयता शीना के साथ जुड़ उठती हैं। प्रसंग जीवन्त सा महसूस होता है।
    जिस समाज में कुछ स्त्रियाँ स्वार्थवश दूसरों पर इस तरह के झूठे इल्जाम लगाने में जरा भी संकोच नहीं करतीं वहीं इज्जतदार महिलाएँ खामोश रहकर अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं।
    उत्सव वर्तमान का सबसे घिनौना,किंतु दयनीय और सत्य का पारदर्शी कथानक है।

  20. बहुत ही अच्छी कहानी है नीलिमा जी, मुझे बार बार पढ़ने का दिल कर रहा है शुभकामनायें

  21. आधुनिक परिवेश को जीवंत करती कहानी। साथ ही इस बात का दंश कि समय कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, मानसिकता में समाई विकृति आज भी लाइलाज बनी हुई है‌। ‌एक बच्ची को अबोधपन से विवाह के बाद तक किसी की विकृति को ढोना पड़ता है। मृत्यु का उत्सव दरअसल इस दंश से मुक्ति का उत्सव है। निलिमा जी को इस मर्मस्पर्शी रचना के लिए साधुवाद!

  22. किसी की मृत्यु हमारे लिए तब उत्सव बन जाती है जब उसने हमें अपनी कू-दृष्टि, वासना और अहंकार के लंबे नाखूनों से हमारी देह और आत्मा को नोचा हो, लहूलुहान किया हो। ऐसे में वह हमारा नज़दीकी मित्र, पड़ोसी या रिश्तेदार ही क्यों न हो, हम उसकी मृत्यु पर उत्सव ही मानते हैं। नीलिमा शर्मा की कहानी का आरंभ नायिका शीना को देहरादून की मनोरम वर्ष में भिगोती है। मन को रूमानियत से भर देती है। बूँदों संग वह झूम झूम उठती है। वह अलेक्सा को बारिश के गाने लगाने को कहती है। परंतु न जाने क्यों वह आज बारिश का पूरा आनंद नहीं ले पाती। उसके मन मस्तिष्क को कुछ काली परछाइयों ने घेर रखा है। उसे ध्यान आता है कि बचपन में भी ये काली परछाइयाँ उसे घेर लेती थीं और वह इनसे छुटकारा पाने के लिए ध्यान में बैठ जाया करती थी। आज भी वह ध्यान में बैठ जाती है; पर तुरंत ही घबरा कर आँखें खोल लेती है। ये काली परछाइयाँ उसे एकाग्रचित्त नहीं होने देतीं।
    कहानी अपने गंतव्य की ओर बढ़ती है और तब सामने आता है एक घिनौना सत्य ! जिसे अक्सर बताने के बाद भी परिवार वाले छुपा ले जाते हैं। और पीड़ित जीवन भर उसकी भयावता से जूझता रहता है।
    अक्सर लड़कियों (लड़कों का भी) का यौन उत्पीड़न सबसे ज्यादा उसके अपने रिश्तेदार, पारिवारिक मित्र और संबंधियों द्वारा ही किया जाता है। हम आज आकाश-पाताल नाप चुके हैं, पर मानसिकता आदिम युग वाली ही रखते हैं। आज भी अखबार और तमाम न्यूज़ चैनल्स बलात्कार और यौन उत्पीड़न की खबरों से भरे पड़े हैं।
    कहानियों में ऐसे विषय को लेने पर सुनने को मिल जाता है कि आपने पुराना विषय उठा लिया है। बहुत लिखा जा चुका है इस विषय पर। कुछ नया लिखिए परंतु जब तक समाज से ये समस्याएँ पूरी तरह समाप्त नहीं हो जातीं, कहानी लिखी जाती रहेगी।
    नीलिमा शर्मा की कहानी की नायिका शीना भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से जूझ रही है। पिता की उम्र के अंकल का जब देहंत होता है तब वह अपने मनपसन्द कपड़े पहन कर चलने को तैयार होती हैं तो माँ द्वारा टोकी जाती है और तब सारी सच्चाई सामने आती है कि वे अंकल, जो उसके पिता के बहुत करीबी मित्र थे; उनका असली चेहरा क्या था ?
    ‘उत्सव’ के सुन्दर प्रवाह, भाषा-शिल्प और भावप्रद कथानक हेतु बहुत बहुत बधाई नीलिमा सखी।

  23. पुरुष की विकृत मानसिकता को उजागर करती अच्छी कहानी है।इस तरह के चरित्र समाज में होते हैं जो अकेले में गंदा व्यवहार करते हैं और सबके सामने लाड़-प्यार करने का दिखावा करते हैं। मित्र की बेटी के साथ ऐसा बुरा व्यवहार ऐसे व्यक्ति के मृत्यु का शोक नहीं, उत्सव ही मनाया जाना चाहिए।शीर्षक बहुत सार्थक है। नीलिमा जी को हार्दिक बधाई।

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