Sunday, September 8, 2024
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नीरज नीर की कहानी – समय बदल गया है

समय के साथ ही बहुत कुछ बदल जाता है। कई स्थापित मान्यताओं के ध्वंसावशेष से नवसृजन के कपोल पुष्पित होते है। कुछ भी सत्य नहीं है। सत्य केवल एक दृष्टि मात्र ही है, जो समय, समाज, भौगोलिक क्षेत्र के सापेक्ष है। लेकिन बदलाव को स्वीकारना सहज नहीं होता। मन यथास्थिति के भंवरजाल से बाहर निकलना नहीं चाहता। परिवर्तन को मन स्वीकारना नहीं चाहता और उसे बार-बार झुठलाना चाहता है। गाँव का रहने वाला भोला-भाला हराधन अपने सामाजिक-पारिवारिक परिवेशजनित संस्कारों से निर्मित दृष्टि से ही समाज को देखना चाहता था। लेकिन समाज उसके सीमित दृष्टि बोध की परिधि से बाहर पैर पसार चुका था। 
बड़े शहर में जाने से पूर्व हराधन के मन में सौ तरह भय थे। निश्चल, सरलहृदय व्यक्ति दुनिया में सदैव अपने ही तरह का आदमी  चाहता है, इसलिए नई जगह में नए लोगों से मिलता हुआ हमेशा सशंकित रहता है। खासकर जहां, भाषा और संस्कृति का अंतर हो, वहाँ तो कम पढ़ा लिखा मजदूर आदमी पहले से ही दबा हुआ रहता है। लेकिन संयोग ऐसा रहा कि इस बड़े शहर में आकर,  बड़े शहर के बारे में हराधन के सारे भय दूर हो गए थे। उसे वहाँ जाते ही नौकरी मिल गई थी। वह अपनी किस्मत पर इतराया। बड़े शहर को उसने बड़ी नजर से देखा। उसके दोस्तों ने भी कहा, तुमको बहुत जल्दी नौकरी मिल गई। वह सर झुकाकर बड़े शहर का अहसानमंद हुआ। 
बड़े लोग यूं ही बड़े नहीं होते, उनके दिल भी बड़े होते हैं। हराधन ने नई सीख हासिल की थी, उसे लगा वह तो व्यर्थ ही डरा हुआ था। यूं ही नहीं गाँव के हजारों लड़के बड़े शहरों में नौकरी करने आ रहे हैं। 
हराधन  को शहर के बाहरी इलाके में स्थित एक बड़े वृद्धाश्रम में नौकरी मिल गई थी। इससे बेहतर और शीघ्र नौकरी की आशा उसने नहीं की थी। वह ईश्वर को इसके लिए अनेक धन्यवाद दे रहा था और अपने पुण्यात्मा पिता को भी जिनके आशीर्वाद से ऐसा फल मिला था। मानवता और अच्छाई में उसका विश्वास दुहरा हो गया था। उसके जैसे मैट्रिक पास को, जिसके पास कोई तकनीकी ज्ञान नहीं था, इससे बेहतर नौकरी भला क्या ही मिलती?  वह आश्रम वालों के प्रति  कृतज्ञता व्यक्त कर रहा था। हालांकि जितनी उम्मीद उसने की थी, उससे बहुत कम वेतन उसे देने का वादा किया गया था, लेकिन वह इससे भी संतुष्ट था। सबसे अच्छी बात यह  थी कि सर छिपाने के लिए उसे एक  कोना भी वहीं आश्रम में मिल गया था, नहीं तो इतने बड़े शहर में  एक कमरा किराये  पर लेने और आने-जाने में ही आधी तनख्वाह निकल जानी थी। उसे  खुशी इस बात की भी थी  कि उसे जो काम मिला था, वह पुण्य का काम था।  पाप और पुण्य की अवधारणा तो वैसे देश, काल, धर्म, समाज आदि के हिसाब से परिवर्तित होती रहती है लेकिन उसके मन में पुण्य की जो अवधारणा थी उसमें बड़े-बुजुर्गों का  आदर, सम्मान और उनकी सेवा पहले नंबर पर थी। उसने तय किया था कि वृद्धाश्रम में वह खूब मन लगाकर सेवा भाव से काम करेगा। भगवान ने उसे अगर यह मौका दिया है तो वह इसका पूरा लाभ उठाएगा। बचपन से उसने वृद्धाश्रम के बारे में सिर्फ सुना ही था। 
वह एक बड़ा सा वृद्धाश्रम था। जहां अनेक वृद्ध स्त्री पुरुष रहते थे। वृद्धाश्रम दो भागों में बँटा हुआ था।  एक तरफ वृद्ध स्त्रियों के रहने के लिए अनेक कमरे बने थे। दूसरी ओर वृद्ध पुरुषों के रहने के लिए। कुछ कमरे छोटे थे, जिनमें एक ही व्यक्ति के रहने की व्यवस्था थी, कुछ कमरे बड़े थे, जिसमें दो से चार लोग रह सकते थे। दोनों तरफ एक-एक बड़ा हॉल भी था, जिसमें कई बिस्तर लगे थे।  हर बिस्तर के साथ एक छोटी सी आलमारी और एक कुर्सी लगी थी। कुछ कमरों में टीवी और एयरकन्डिशनर की भी व्यवस्था की हुई थी। जो जितना धन खर्च कर सकता था, उसके लिए वहाँ वैसी व्यवस्था थी, कुछ कुछ होटल की तरह। कमरों में रहने वालों की ज्यादा सेवा-सुश्रुषा की व्यवस्था की जाती थी। बीच में एक छोटा सा खुला मैदान था, जिसमें कुछ फूल-पत्ती लगाकर सजाने की कोशिश की गयी थी। दीवारों पर देवी-देवताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीरें टँगी थी और विचारोत्तेजक उक्तियाँ लिखी गयी थी। यह एक साफ सुथरा आश्रम था और इसमें हराधन जैसे कई लोग काम करते थे। उनके ऊपर सुपरवाइज़र और एक मैनेजर था। इस वृद्धाश्रम का एक मालिक भी था, जो कभी-कभी हिसाब-किताब देखने आता था। वह जब भी आता था तो वृद्धाश्रम में चारों तरफ घूमता था और मैनेजर सहित सभी स्टाफ को खूब डांट-डपट करता था। जब वह आता था तो सबकी सिट्टी-पिटी गुम रहती थी। और सब लाइन लगाकर चुपचाप खड़े रहते थे। हराधन ने अनुभव किया था कि जब कर्मचारियों की डाँट-डपट होती है तो वृद्धाश्रम के रहवासी बड़े खुश होते थे। हराधन को लगता था कि मालिक  झूठ मूठ ही जानबूझकर कर्मचारियों को डांटता है, ताकि आश्रम में रहने वाले खुश हो सकें। 
हराधन को नौकरी में आते ही बता दिया गया था कि यहाँ रहने वाले वृद्धजन चूंकि रहने के बदले एक मोटी राशि का भुगतान करते हैं, इसलिए उन्हें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह वृद्धाश्रम लाचार, गरीब, बेसहारा बूढ़े-बुढ़ियों का आश्रय न होकर वैसे समृद्ध वृद्धजन के लिए था, जिनके बच्चे या तो उनके साथ नहीं रहते थे या वे स्वयं ही अपने बच्चों साथ नहीं रहना चाहते थे। हराधन की वृद्धाश्रम को लेकर जो बचपन से बनी बनाई छवि थी, वह टूटी थी। उसे लगता था, जिनके बच्चे नहीं होते, या जिनके बच्चे उन्हें घरों से निकाल देते हैं वे ही  वृद्धाश्रम में रहते हैं। लेकिन समय बदला था। नए किस्म की अवधारणा समाज में आ चुकी थी। उसके जैसे देहाती के लिए यह भले आश्चर्य की बात हो लेकिन मुमताज़ के लिए नहीं। मुमताज़ इसी आश्रम में काम करता था और इससे पहले भी इसी तरह के दूसरे आश्रम में काम कर चुका था।  
हराधन को शुरू में यह सब बड़ा अजीब लगता था कि कोई व्यक्ति अपना घर-परिवार छोड़कर यहाँ वृद्धाश्रम में कैसे रहने आ सकता है? वह हर वृद्ध में अपने पिता को ढूँढता और उसका हृदय एक साथ करुणा और क्रोध से भर जाता। करुणा वृद्धों के प्रति और क्रोध उन वृद्धों के बच्चों पर जो उन्हें अपने साथ नहीं रख रहे और उन्हें यहाँ छोड़ दिया। 
हराधन को चार कमरों की जिम्मेवारी दी गई थी, जिसमें कुल मिलाकर दस लोग रहते थे। उनके नाश्ते से लेकर उनकी दवाई, चाय-पानी, भोजन सब देखने की जिम्मेवारी उसी की थी। साफ-सफाई के लिए एक अलग औरत आती थी। आश्रम में एक कैन्टीन भी था, जहां खाना बनाया जाता था। उसी कैन्टीन में बिस्कुट, दालमोट, तेल, साबुन आदि जरूरत की चीजें  भी बेची जाती थी।  जिस भी आश्रमवासी को आवश्यकता होती थी, वहाँ से अपनी आवश्यकता की चीजें खरीद सकता था।  
चाय सुबह में सात बजे बँटती थी। वह सुबह में सात बजे के पहले ही नहा धोकर अपने लिए कुछ खाने को बना लेता था और सात बजने के पहले ही ड्यूटी पर तैनात हो जाता था। शुरू-शुरू में उससे अक्सर गलती हो जाती थी, वह यह ध्यान नहीं रख पाता था कि किसे चीनी वाली चाय चाहिए और किसे बिना चीनी वाली। इसके चलते वह अकसर उनकी डांट खा जाता था। पहले तो  उसे बुरा लगा कि वह जिनकी सेवा कर रहा है, वे बुरी तरह उसे डाँट रहे हैं।  लेकिन वह इस बात को यह सोचकर भुला  देता था कि जाने दो,  बूढ़े लोग हैं। 
हालांकि वह शीघ्र ही जान गया कि किस वृद्ध को चीनी की चाय देनी है और किसे बिना चीनी की।  सुबह सात बजे से रात दस बजे की लंबी ड्यूटी में कभी चैन नहीं था। आश्रम वालों ने हर बेड पर घंटी लगा रखी थी और घंटियाँ दिन भर बजती ही रहती थी। कभी-कभी तो देर रात भी घंटी बज जाती थी। घंटी बजने पर पहुँचने में जरा सी  देर होती तो घंटी बजाने वाला उसपर चीख उठता “इसी बात के तुम्हें पैसे मिल रहे हैं? हम इतने पैसे इसलिए नहीं दे रहे हैं कि हमारी कोई सुने ही नहीं”। 
“घंटी बजाए हुए अभी दो मिनट भी तो नहीं हुआ अंकल। मैं उधर वर्मा अंकल का काम कर रहा था”। 
“एक तो जुबान लड़ाता है ऊपर से अंकल कहता है। मैं अंकल नहीं हूँ तुम्हारा।  सर कहने में शर्म आती है? आश्रम वालों ने कुछ तमीज सिखाई नहीं है तुम्हें? पढ़े-लिखे नहीं हो क्या?  ट्रैनिंग नहीं हुई क्या तुम्हारी? रिश्तेदारी जोड़ने आए हो क्या? मैं चीफ इंजीनियर था। कैसे-कैसे लोग को यहाँ भर्ती कर रखा है? आने दो आश्रम के मालिक को मैं उसे तुम्हारे बारे में बताता हूँ।“ चंद्रभूषण प्रसाद गुस्से से चीखने लगे थे।  
उफ्फ़! उफ्फ़! हराधन अवाक रह गया। कुछ देर के लिए वह मतिसुन्न हो गया। ऐसा क्या गलत कह दिया उसने? उसे अनुभव हुआ कि  कोलतार की  गर्म बाल्टी उसपर डाल दी गई है। 
वह भीतर तक अग्निदाह  से भस्म हो गया। 
वह चुप रहा ..  
वह बुजुर्ग को जवाब नहीं देना चाहता था लेकिन उसके भीतर बचपन से स्थापित संस्कार और मान्यताएं धीरे-धीरे दरकने लगे।  
उसे समय के साथ यह समझ में आ गया कि वह सेवा करने नहीं नौकरी करने आया है। ऐसा समझने में मुमताज़ ने उसकी मदद की थी। 
“तू इनका नौकर है, बेवकूफ, तेरी औकात यहाँ नौकरों की है”, उसने खुद से ही खुद को कहा। 
सेवा और नौकरी में अंतर होता है। इसलिए तो नौकरी करने वाले सरकारी बाबुओं में सेवा भाव नहीं आता है।
यह लगभग रोज की ही बात हो गई थी। वह लाख कोशिश करता कि सब कुछ सही ढंग से कर दे, समय पर कर दे। लेकिन वह आश्रमवासियों को खुश नहीं रख पा रहा था। वे बात-बात पर तुनक जाते थे। 
“यार मुमताज़! तुम तो यहाँ काफी समय से हो, तुम कैसे इनको झेलते हो, मैं तो बिल्कुल परेशान हो गया हूँ। कितना भी कुछ करो, ये खुश ही नहीं हो रहते। कभी दो शब्द शाबाशी या धन्यवाद के नहीं देते हमेशा किच-किच करते रहते हैं”? एक दिन दोपहर के बाद खाली समय में  जब हराधन महतो वहीं काम करने वाले मुमताज़ के साथ कैन्टीन के बाहर बैठा था तो उसने मुमताज़ से पूछा। 
कैन्टीन के बाहर घास थी, जिसपर दोनों नीचे ही बैठे थे। कैन्टीन से दोपहर का खाना  बांटा जा चुका था, इसलिए कैन्टीन की साफ सफाई और बर्तनों को धोने का काम चल रहा था। 
“तुम्हें क्या लगता है, यहाँ जो लोग रह रहे हैं, वे क्यों रह रहे हैं? मुमताज़ ने अपनी अंगुलियों से एक घास को उखाड़ते हुए पूछा। 
फिर उसने स्वयं ही जवाब दिया। देखो समय बदल गया है। ये सब दरअसल बड़े पैसे वाले हैं। इन सबके बच्चे भी अच्छी जगहों पर हैं। लेकिन वे इन्हें रखना नहीं चाहते। सच तो यह है कि  ये भी उनके साथ रहना नहीं चाहते हैं। इसीलिए तो यह आश्रम का धंधा चल रहा है। ये आश्रम सेवा के लिए नहीं खोले गए हैं, व्यवसाय के लिए खोले गए हैं। ऐसे जाने कितने ही आश्रम चल रहे हैं। इनको लगता है कि ये आज भी कहीं के कलेक्टर हैं, चीफ इंजीनियर, अधिकारी हैं। ये अपने बच्चों के काम से खुश नहीं होते। इन्हें लगता है, दुनिया हमेशा इन्हीं की मर्जी से चलनी चाहिए। इनके बच्चों को लगता है कि मम्मी-पापा समय के साथ बदल नहीं रहे हैं। उन्हें व्यर्थ की टोका-टोकी करते हैं। और इस तरह से दोनों को लगता है कि एक दूसरे के अनुकूल नहीं हैं और दूर रहकर ही दोनों शांति से रह सकते हैं। अब सोचो कि जो लोग अपने बच्चों के साथ नहीं रह पा रहे या जिनके बच्चे उनको साथ नहीं रखना चाह रहे, वे तुमसे अच्छा व्यवहार करेंगे? ये तुम्हारे गाँव के चाचा, ताऊ, मामा, फूफा नहीं हैं। इसलिए इनकी बातों पर ज्यादा ध्यान मत दो। जितनी अपनी ड्यूटी है, बस उतना ही काम करो। जितनी तनख्वाह मिलती है, उतनी ही तो ‘सेवा’ होगी। मुमताज यह कहकर हँस दिया। सेवा शब्द पर उसने विशेष बल दिया था। 
हराधन ने मुमताज की बात सुन तो ली लेकिन उसकी बात उसके अंदर धँसी नहीं।
हराधन जब आश्रम में आया था तो उसने शुरू में सोचा था कि  अपनी पत्नी को भी यहाँ बुला लेगा।  यहीं आश्रम में नौकरी लगवा देगा। दोनों मिलकर कमाएंगे तो दोनों की कमाई से घर अच्छे से चलेगा। कितना अच्छा भलाई का काम है। बच्चों का भी नामांकन यहीं किसी विद्यालय में करा देंगे। लेकिन शीघ्र ही यह योजना उसने त्याग दी। पत्नी के सामने जब उसकी डाँट-डपट होगी तो उससे ज्यादा दुःख उसकी पत्नी को होगा।  
एक दिन  सुबह-सुबह हराधन की नींद शोर शराबे से टूटी। हराधन भागकर अपने कमरे से बाहर निकला। पता चला कि रात में वर्मा जी को ब्रेन हेमरेज हो गया है। वर्मा जी अकेले कमरे में रहते थे। 
आनन-फानन में वृद्धाश्रम वालों ने अंबुलेन्स बुलवा दिया और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनके बच्चों को भी खबर कर दी गई। वर्मा जी चूंकि हराधन के वार्ड में ही रहते थे, इसलिए वह भी उनके साथ अस्पताल गया था। मुमताज़ ने हालांकि उसे कहा था कि उन्हें वेतन आश्रम में काम करने के मिलते हैं, अस्पताल जाने के नहीं। लेकिन हराधन का मन नहीं माना। इंसानियत का भी धर्म होता है। उसने अपने मन में सोचकर निश्चय किया। उसे यह भी बड़ा अफसोस लग रहा था कि अगर वर्मा जी रात में एक बार घंटी बजा देते तो वह जरूर रात ही में वहाँ पहुँच जाता। 
वर्मा जी लगभग एक सप्ताह अस्पताल में रहे थे। उनके बच्चे आते और देखकर लौट जाते, कोई भी अस्पताल में टिकता नहीं था। धीरे-धीरे उनकी स्थिति में सुधार तो हुआ, लेकिन अभी भी एक तरफ का पैर और हाथ उठाने में दिक्कत होती थी, ठीक से चल नहीं पाते थे। वृद्धाश्रम के नियम के अनुसार गंभीर बीमारी की अवस्था में वहाँ रहने की मनाही थी। लेकिन वर्मा जी का अस्पताल से जब छूटने  का वक्त आया तो उनके बेटे को एक जरूरी मीटिंग के कारण बाहर जाना पड़ गया और उनकी बहू जिनको बेटे की अनुपस्थिति में वर्मा जी को अस्पताल से घर ले जाना था, आई ही नहीं। अंततः वर्मा जी को हराधन वृद्धाश्रम लेकर लौट। अस्पताल का बिल तो वर्मा जी खुद भर ही रहे थे।  
आश्रम में हराधन ने मैनेजर से अनुरोध किया कि वर्मा जी को वहाँ रहने दिया जाए वह उनकी सेवा करेगा।  वृद्धाश्रम प्रशासन वर्मा जी को रखने के लिए राजी तो नहीं था लेकिन जब वर्मा जी ने अधिक पैसे देने की बात कही तो मैनेजमेन्ट मान गया था। 
वर्मा जी के अस्पताल से आने के बाद वृद्धाश्रम के मैनेजमेन्ट को तो  कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन हराधन का काम बहुत बढ़ गया था। वह अन्य लोगों का, जिनकी देखभाल की जिम्मेवारी उसके सर पर थी, उनका ख्याल तो रख ही रहा था साथ ही वर्मा जी की स्पेशल केयर  भी करनी पड़ रही थी। वे खुद से टॉइलेट तक नहीं जा पाते। उनकी साफ-सफाई, खाना-पीना, दवा आदि का ध्यान उसे विशेषकर रखना पड़ रहा है। वह उनकी नियमित मालिश भी करता। 
इन सब कामों में उसे परेशानी तो बहुत हो रही थी। पहले दोपहर में भोजन के बाद जो थोड़ा सा अवकाश मिलता था, अब वह भी खत्म हो गया था। लेकिन उसे इन सबसे आत्मीय खुशी मिल रही थी। वह जरा भी शिकायत नहीं करता। लेकिन उसे सबसे ज्यादा परेशानी इस बात से हो रही थी कि वर्मा जी की साफ सफाई करने के कारण अन्य  आश्रमवासी नाक-भौं सिकोड़ते थे और उसे बार-बार नहाने या हाथ धोने को कहते। 
हराधन को यह सब करके कोई निजी लाभ नहीं हो रहा था। मुमताज़ ने एक दो बार कहा भी कि बुड्ढा मोटा आसामी है कुछ पैसे-वैसे माँग लिया करो। लेकिन हराधन ऐसा करने को पाप समझता था। किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर पैसे ऐंठना भला कहीं से इंसानियत है!  न! न! वह ऐसा कैसे कर सकता है? 
इन सबके बीच शुरू-शुरू में तो आश्रम के अन्य वृद्ध शांत ही रहे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने शिकायतें शुरू कर दी। वे  अकसर इस बात की  शिकायत करने लगे कि हराधन, वर्मा जी का ज्यादा ध्यान रखता है और इस चक्कर में उनकी अनदेखी कर रहा है। उन्होंने मैनेजर से भी इस बारे में शिकायत की और कहा कि जरूर हराधन को वर्मा जी से एक्स्ट्रा मनी मिल रही है। 
मैनेजर को सारी कहानी मालूम थी कि एक्स्ट्रा मनी किसे मिल रही है फिर भी उसने ऐसे जाहिर किया जैसे यह तो बहुत गलत हो रहा है और वह हराधन को डाँट लगाएगा। उसने हराधन को सबके सामने ही कहा कि दुबारा ऐसे शिकायत का मौका नहीं मिलना चाहिए। वर्मा जी की सेवा कैसे करोगे यह तुम जानो, लेकिन अन्य सदस्यों को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। हराधन को बहुत बुरा लगा। लेकिन मैनेजर को वह भला क्या कह सकता था! 
हराधन को यह देखकर बड़ा बुरा लगता कि यहाँ कोई किसी से प्रेम नहीं करता है। सब ऊपर-ऊपर आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन भीतर से कोई किसी को पसंद नहीं करता है।  हालांकि सब बूढ़े है, सब लाचार हैं, सबकी स्थितियाँ लगभग एक जैसी है, फिर भी आपस में प्रेम नहीं है, सहानुभूति नहीं है। यह कैसा समाज है?
उधर वर्मा जी बीमार तो थे ही, एक्स्ट्रा पैसे भी दे रहे थे, इसलिए उन्हें लगता था कि उन्हें ज्यादा सेवा मिलनी ही चाहिए, यह उनका अधिकार है। वह भी जबतब हराधन पर चढ़ बैठते थे। इन सब घटनाक्रमों में हराधन अत्यंत दुःखी हो रहा था। वह जब ज्यादा परेशान हो जाता तो मुमताज़ के पास जाकर बैठ जाता। मुमताज़ उसकी हैरानी-परेशानी देख कर मुसकुरा देता और समझाता। 
नौकरी को नौकरी की तरह करो। व्यक्तिगत जुड़ाव मत महसूस करो। इनके अपने सगे जब इनके पास नहीं आते तो तुम क्या इनके सगे बन जाओगे?  डॉक्टर अगर मरीज से मुहब्बत करने लग जाएगा तो वह इलाज करने के बदले खुद ही बीमार हो जाएगा। मरीज की परेशानी को कभी डॉक्टर अपनी परेशानी नहीं समझता है। तुम भी एक तरह के डॉक्टर हो। इन बुड्ढों के डॉक्टर। तुम्हारा बस इलाज का तरीका अलग है।  मुमताज़ समस्या की मूल को  समझाता था। उतना ही करो जितना कर सकते हो। दस  हजार रुपये में कोई भला कितना काम कर सकता है? 
बात तो मुमताज़ सही कहता था। सचमुच महीने के  दस  हजार रुपये बहुत ही कम  थे। हराधन अपने पर कुछ भी खर्च नहीं करता था। लेकिन खाने-पीने और छोटी मोटी जरूरत की चीजों में ही वेतन का ज्यादा हिस्सा खर्च हो जाता था। वह बमुश्किल कुछ बचाकर अपने घर भेज पाता था। हराधन देखता था कि उसी की तरह का काम करते हुए मुमताज़ बहुत ही शांत और खुश रहता, जबकि उससे अधिक मेहनत करके, वह परेशान था। लेकिन वह कोशिश करके भी उसकी तरह नहीं बन पाता। कोई आदमी परेशान है, दर्द से कराह रहा है, जरूरतमन्द है तो उसे देखकर भी अनदेखा कैसे कर दे, यह उसे समझ नहीं आता। 
कई बार उसके मन में आया कि यह सब छोड़के वापस गाँव चला जाए। वह भाग जाना चाहता था। लेकिन अब गाँव का चुंबक असरहीन हो गया था। अब शहर जंजीर बनकर पैरों में बंधने लगा था। उसके भेजे पैसे से घर में छोटी-छोटी आवश्यकताएं पूरी होने लगी थी। पिता की दवाई और बच्चों की पढ़ाई का प्रबंध हो रहा था। वह उनका अपराधी नहीं बनना चाहता था।
लेकिन वहाँ काम करते हुए कई बार विचलित हो जाता था। वह प्रेम, करुणा, सहानुभूति में बराबरी चाहता था, लेकिन आश्रमवासी सबकुछ को रुपये से तौलते थे। उनके लिए उसकी मानवता, दयालुता खरीदी जाने वाली वस्तुएं थी। उनके लिए उसका ऐसा व्यवहार स्वाभाविक था, उन्हें लगता था कि उसे ऐसा ही करना चाहिए। 
समय के साथ वर्मा जी के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। वे सहारा लेकर चलने-फिरने लगे थे। वर्मा जी के थोड़ा स्वस्थ होने से हराधन को राहत महसूस हुई। इस दौरान वर्मा जी उससे खूब बातें किया करते थे। अपने जीवन की, घर-परिवार की ढेर सारी बातें। अपने नौकरी के दिनों के ढेर सारे किस्से सुनाते। हराधन ने महसूस किया था कि वर्मा जी एक ही बात बार-बार दुहराते थे। उनके पास नया कहने के लिए कुछ नहीं है। वे अपने किए कारनामे और अपने बच्चों की प्रशंसा की बातें करते नहीं अघाते। वे भूल जाते थे कि यही कहानी थोड़ी देर पहले वे बता चुके हैं। हराधन समझता था कि इस उम्र में उनके  पास बताने के लिए कुछ नया नहीं है। अब जो कुछ भी है, महत्वहीन है। जीवन निःसार है। उसे उनपर दया आती, वह करुणा से भर जाता। 
इसी बीच चंद्रभूषण प्रसाद बीमार हो गए। वृद्धजन के साथ यह समस्या हमेशा बनी ही रहती है। उन्होंने आशा भरी नज़रों से हराधन की ओर देखा। हालांकि चंद्रभूषण प्रसाद को हराधन फूटी आँख नहीं सुहाता था। वह कुत्ते की तरह उसपर झुँझलाते रहते थे। लेकिन हराधन ने उन्हें भी निराश नहीं किया। कई रोज की अथक सेवा के पश्चात वे स्वस्थ हुए।  उनकी सेवा करते हुए हराधन भूल गया कि ये वही चंद्रभूषण प्रसाद हैं, जिन्होंने उसे कई बार व्यर्थ ही भला-बुरा कहा था। उसके ख्याल में बस यही बात आई कि उसके पिता भी तो उसे कई बार डाँट देते थे। इन्होंने भी कुछ कह दिया तो क्या? 
लेकिन इन घटनाक्रमों का यह नतीजा हुआ कि हराधन के प्रति वे लोग थोड़े सहृदय हो गए। अन्य आश्रमवासी शायद इस बात से डर गए कि न जाने कब किसके साथ क्या हो जाए और किसे विशेष देखभाल की आवश्यकता पड़ जाए।  
स्थितियाँ अभी थोड़ी ही अनुकूल  हुई थी कि एक दिन उसके घर से सूचना आई कि उसके बड़े बेटे को डेंगी हो गया है और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा है। उसका प्लेटलेट्स स्तर चिंताजनक स्तर तक नीचे गिर गया है। वह परेशान हो उठा। घर से पैसे की माँग की गई थी। लेकिन पैसे तो उसके पास थे ही नहीं, बचे-खुचे पैसे तो वह पहले ही गाँव भेज चुका था। उसने मुमताज़ की ओर देखा, लेकिन मुमताज़ की स्थिति भी उससे बेहतर कहाँ थी? वह लज्जित होने के सिवा क्या कर सकता था? हराधन भागता हुआ मैनेजर के पास पहुँचा। 
“सर मुझे दस हजार रुपये अड्वान्स चाहिए। मैं एक-एक पैसा कटवा दूंगा। मेरे बेटे की ज़िंदगी का प्रश्न है”। हराधन ने हाथ जोड़ दिए थे। 
लेकिन मैनेजर ने उसे आश्रम का  नियम समझाते हुए बताया कि अड्वान्स देने का कोई भी नियम वहाँ नहीं है। 
हराधन परेशान हो गया। मुमताज़ ने उसे समझाया कि उसने जिन लोगों की बहुत सेवा की है, उनसे कुछ पैसे माँग ले। हराधन चाहता तो नहीं था लेकिन मजबूरी जो न कराए।  आत्मसम्मान से भरा हुआ आदमी इच्छा के विरुद्ध जब किसी से कुछ माँगता है तो वह आधा मर जाता है और जब मांगने के बाद अभीष्ट उसे प्राप्त नहीं होता है तो वह पूरा मर जाता है। वह अत्यंत लज्जित होता हुआ वर्मा जी के पास गया। उसके चेहरे पर विवशता की रेखाएं पढ़ी जा सकती थी। 
“सर मेरा बेटा बीमार है, वह हस्पताल में भर्ती है, कुछ पैसे की जरूरत है। आप दीजिए, मैं बाद में लौटा दूंगा।“ 
वर्मा जी थोड़ी देर चुप रहे फिर उन्होंने बड़े प्यार से समझाया कि बेटे कभी भी इलाज प्राइवेट अस्पताल में नहीं करवाना चाहिए। सरकारी अस्पताल में बच्चे को लेकर जाओ, वहाँ डॉक्टर अच्छे होते है और दवाइयाँ भी मुफ़्त मिलती हैं। क्यों व्यर्थ में पैसे बर्बाद करना चाहते हो। इंसान को इशारा काफी होता है और हराधन तो कुछ ज्यादा ही इंसान था। उसका आत्मसम्मान टूटकर बिखर गया था लेकिन बेटे की ममता ऐसी कि उसने फिर भी हार न मानी। वह चंद्रशेखर प्रसाद के पास गया। 
चंद्रशेखर प्रसाद ने उसे निराश नहीं किया। भले ही दस हजार की जगह उन्होंने पाँच हजार ही दिया लेकिन दिया। लेकिन साथ ही बहुत अधिकार पूर्वक यह भी चेताया कि भविष्य में उसे उनका विशेष ध्यान रखना पड़ेगा और पैसे समय से लौटाने होंगे।  
हराधन के पास हामी भरने के सिवा कोई चारा नहीं था। 
हराधन को थोड़ी राहत मिली। उसने जल्दी से अपना समान उठाया और घर जाने को तैयार हुआ। लेकिन न जाने कैसे मैनेजर को पता चल गया  कि उसने प्रसाद जी से पैसे लिए हैं। आश्रम में किसी आश्रमवासी से कर्मचारी को पैसे लेने की सख्त मनाही थी। मैनेजर  बहुत नाराज हुआ। उसने उसे आश्रम का नियम बताया और कहा कि उसने आश्रम के नियम तोड़े हैं। इसलिए उसे मालिक को इसकी सूचना देनी होगी। उसने उसी समय  मालिक को फोन करके सबकुछ बता दिया।  मालिक का व्यवहार आश्रमवासियों के प्रति बहुत विनयपूर्ण था लेकिन कर्मचारियों के साथ वह सख्त था। उसने निर्णय लेने में जरा भी देर नहीं की और उसे आश्रम से परमानेंट छुट्टी दे दी गई। 
अब वह क्या करता? बेटा अस्पताल में भर्ती जीवन और मृत्यु से लड़ रहा था। पत्नी अकेली परेशान थी। उसका दिल बुरी तरह से रो रहा था। वह अब किसी भी तरह भागकर बेटे के पास पहुँच जाना चाहता था। रुपये संभाल कर रखे और  अपना बचा-खुचा सामान बटोर कर जाने लगा। 
प्रसाद जी को जब यह मालूम हुआ कि हराधन को नौकरी से हटा दिया गया है तो वे भागते हुए हराधन के पास आए। 
हराधन अब तो तुम वापस यहाँ नहीं आओगे। इसीलिए मेरे पैसे लौटा दो। 
नीरज नीर
आशीर्वाद
बुद्ध विहार,
opp – अशोक नगर गेट नंबर 4
पो ऑ –डोरन्डा
राँची – 834002
झारखण्ड
8789263238 


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12 टिप्पणी

  1. नीरज जी! बड़ी ही नकारात्मक कहानी है पर यही आज की सच्चाई है! दुनिया में प्रेम का कोई मोल ही नहीं रहा ।कोई आपके लिए कितना ही कर ले लेकिन आपके मन में अगर सहृदयता नहीं है तो दया का भाव पनप ही नहीं पाता।
    जिनके पास पैसा होता है और अपने परिवार से निभ नहीं पाते।ऐसे लोग किसी से भी नहीं निभ पाते।
    पैसे की यह सबसे बड़ी बुराई है।
    अपने वृद्ध आश्रम की सच्चाई को आइना दिखा दिया। हालांकि सब ऐसे नहीं होते और न ही सबके उद्देश्य ऐसे होते ।

  2. वृद्धों की मानसिकता ही वह है, जिसमें वे सब कुछ खरीदना चाहते हैं क्योंकि वे पैसे वाले है , लेकिन इंसानियत नहीं है। वे अपनी इन्हीं आदतों से बच्चों के साथ नहीं रह पाते।
    वृद्धाश्रम भी व्यापार केन्द्र बन चुके हैं। समाज के यथार्थ को दिखाने वाली कहानी है।

  3. आप ने वृद्धाश्रम की सत्यता दिखा दी, बच्चों और बड़ों से दूरी के वजह से और अपने बच्चों पर अपना।रौब जमाने नहीं सकते इसलिए यहीं उनके सेवक पर दिखाते हैं, वृद्धप्य का चिड़चिड़ापन औरबच्चों से दूर रहने की भावना इन पर inferiority काम्प्लेक्स बड़ा देताहै जिससे वे इन सेवार्थीयों पर चिल्ला कर अपना गुस्सा जाहिर करते हैं। हमारे टीम के साथ समय समय पर वृद्धाश्रम जाना और वृद्धों के मनोरंजन के लिए कुछ सामान जुटा कर ले जाना उनकी जन्मदिन या किसी अपने की जन्मदिन उनके साथ मनाना होता रहता है, जिससे इन्हें समझने में काफी समय मिलता है, कोई अपने बच्चों की शिकायतें करते रहते तो कोई वृद्धश्रम ठीक से देखभाल न करने की, कोई खुश होता तो कोई रोते बिलखता रहता। कई प्रकार के लोग पैसे देकर अपने जरूरत के मुताबिक रहते हैं।

    आपकी कहानी पूरी सार्थकता के साथ सच कह गई, मार्मिक, संवेदनशील कहानी के लिए हार्दिक बधाई।

  4. वर्तमान की स्थितियों को परिभाषित करती मर्मस्पर्शी कथा।पैसे से सब कुछ खरीदने वाले परिवार का प्रेम न खरीद पाते हैं ।साहिष्णुता,दया,प्रेम किताब के पृष्ठों में सिमट कर रह गए हैं।
    दातव्य आश्रमों में कुछ कुछ ऐसी ही स्थिति है।एक अच्छी कथा हेतु साधुवाद।

  5. कहानी में गांव के इस युवक के सीधे और सरल स्वभाव का शहरी लोगों के तेज और चालू चरित्र के आगे शिकस्त और लाचारगी का उत्तम चित्रण हुआ है जो कि मार्मिक है।
    एक स्तरीय रचना!

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