Sunday, September 8, 2024
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प्रियदर्शन की कहानी – भूलना नहीं

रात के तीन बजने को थे। उसे ध्यान नहीं था कि आख़िरी बार वह कब इतनी देर रात तक जागती रही थी। हाल के वर्षों में उसकी तबीयत अच्छी नहीं रहा करती थी। डॉक्टर ने कहा था, वह जल्दी खाकर सो जाया करे। यह सिलसिला सात साल से जारी था। अब वह 48 साल की हो गई है। 
लेकिन आज की रात अलग थी। खाना उसने पहले ही खा लिया था। बस सोना स्थगित कर रखा था। आज की रात वह वह काम करने वाली थी जो उसे तीस बरस पहले करना चाहिए था। 
तीस बरस पहले! एक लंबी सांस की तरह जैसे तीस बरस जीवन से निकल गए। और इन तीस सालों में क्या हुआ?
उसकी शादी हुई, उसके बच्चे हुए, बच्चों की पढ़ाई हुई, बच्चों की शादी भी हुई और उनके बच्चे भी हो गए। वह दादी बन गई!
उसकी इकलौती बची सहेली हंसती है। 48 साल में कौन दादी बनता है रे? वह फीकी हंसी भी हंस नहीं पाती है। बस मासूमियत से बताती है कि 18 साल में शादी हो गई, 22 साल तक दो बच्चे हो गए। बड़ा बेटा 23 साल में इंजीनियर हो गया, पढ़ाई के दौरान ही उसने लड़की भी पसंद कर ली और 25 साल में शादी कर ली। तब वह 47 की थी। अब इसी साल वह दादी बन गई है।
उसकी सहेली उसे देखती है- तूने जीवन क्या जिया रे? वह भोलेपन से मुस्कुराती है- जितना जी लिया, वह कम है क्या? नाती-पोते वाली हो गई। सहेली उसे देखती रहती है। फिर धीरे से पूछती है- ‘और वह ज़िद्दी लड़की कहां गई जो स्कूल में दौड़ती थी तो कोई बराबरी नहीं कर पाता था? और जब किसी की नकल या कोई और ऐक्टिंग करती थी तो सब दंग रह जाते थे?’ 
ऐसी कोई ज़िद्दी लड़की थी क्या? सहेली से उसने नहीं पूछा था। सहेली के जाने के बाद अपने-आप से पूछा था। बस एक गीला तकिया गवाह था।
वह गीले तकिए पर अपनी उंगलियों से खरोंच रही थी। जैसे समय की तहें उधेड़ रही हो। एक साल, दो साल, धागे पर धागे, पीछे लौटते दिन-बरस, गर्मी, सर्दी, बरसातें, ऐसी ही बरसात में किताबों से माथा बचाती दो चोटी वाली एक लड़की।
और एक लड़का भी। उसके पास छाता था। पास आकर उसने सकुचाते हुए कहा था, आ जाओ भीतर। पहले वह भी संकोच में पड़ गई, मना किया। लेकिन बारिश तेज़ हो रही थी। अपने से ज़्यादा अपनी किताबों के भीगने का डर था। ये मालूम था कि किताबें बहुत मेहनत से आई हैं, भीग कर ख़राब हो गईं तो दुबारा नहीं आएंगी। वह तेज़ होती बारिश के साथ तेज़ होते अंतर्द्वंद्व को झटक कर अचानक एक काली परिधि के भीतर आ गई। ऊपर दाएं-बाएं से आसमान देखने लगा था, बादल कुछ और गरज उठे थे, बारिश इस हिम्मत पर टूट-टूट पड़ने पर आमादा थी। गीली सड़क कुछ चौंकती सी भागने लगी थी।
लेकिन लड़की को बस अपने कंधों को छूती किसी कमीज़ के बाजुओं के स्पर्श का ही एहसास था। उसकी नज़रें पूरी तरह झुकी हुई थीं, कॉपी किताबें उसकी छाती से चिपकी हुई थीं और लड़के के साथ लगी-लगी वह धीरे-धीरे स्कूल की ओर बढ़ रही थी। लड़के का चेहरा भी देखने का साहस उसे नहीं हो रहा था। बस पानी में छपाछप उसके जूते दिख रहे थे जो शायद हंस रहे थे। 
आने वाले दिनों में यह छतरी बड़ी होती चली गई थी। जब बारिश नहीं होती तब भी वह उसके ऊपर तनी रहने पर आमादा रहती। कई बार वह झुंझला जाती, छतरी को परे धकेल देती, याद दिला देती कि वह ज़्यादा तनी न रहे, फिर छतरी विनम्र मुद्रा में साथ-साथ चलने लगती। फिर लड़की पूरी इठलाहट के साथ इस छतरी को जैसे-तैसे घुमाया करती। उसे लगता कि दुनिया की यह इकलौती नेमत उसकी अपनी है और उसके पास है। वह जो चाहेगी, छतरी वही करेगी। 
इस दौरान सड़क भी बहुत लंबी हो गई थी। बल्कि बहुत सारी सड़कें हो गई थीं, लेकिन वे सड़कें कहीं नहीं ले जाती थीं। वैसे पहुंचना भी किसे था। तमन्ना बस यही थी कि सड़कें बनी रहें, चलती रहें, नए-नए मोड़ों से गुज़रती रहें।
लेकिन मंज़िलें घात में थीं। अलग-अलग मंज़िलें। उसके अलग-अलग रास्तों पर निकलने की ख़बर सुन कर घर कुछ चौकन्ना हो गया था, कुछ सिकुड़ गया था। अब मां बार-बार पूछती, कहां जा रही है, पिता टोकते, क्यों जा रही है, भाई बताता, मुझे मालूम है कि किधर जा रही है- बस उसे यह पता नहीं था कि धीरे-धीरे उसके लिए एक नया रास्ता तैयार किया जा रहा है।
और एक दिन घर ने कहा, वह तैयार हो जाए। उसे कुछ समझ में नहीं आया। पता चला, कुछ लोग आने वाले हैं। वे लोग आ गए, कुछ दिन बाद उसे ले भी गए। उसे सचमुच कुछ समझ में नहीं आया। 18 साल की ही तो थी वह!  क्यों नहीं कर पाई विरोध? क्यों कहा कि यह शादी की उम्र नहीं है? क्यों नहीं बताया कि एक छतरी उसके जीवन में चली आई है जो देर-सबेर उसका हाथ थाम लेगी। या बताया था? मां के सामने ख़ूब रोई थी, पिता से भी सहमते-सहमते कहा था- लेकिन किसी को सुनना नहीं था- सब बेटी से मुक्ति पाने का जश्न मनाने में लगे थे।
उसने भी ख़ुद से मुक्ति पा ली। 18 साल की बच्ची को दफ़न कर दिया। छतरी छितरा गई। वह घर आ-आकर लौटती रही। एकाध बार उसे बेइज़्ज़त भी होना पड़ा। लेकिन फिर सबकुछ ख़त्म हो गया। स्मृतियों की राख से जो नई औरत निकली, वह दरअसल एक परछाईं थी। ज़िंदगी इस परछाईं पर भी भारी पड़ी थी। तीस सालों ने उसे बिल्कुल बदल दिया। वह किसी की पत्नी थी, बहू थी, मां थी, सास थी- बस वह ख़ुद नहीं थी- वह सबसे तेज़ दौड़ने वाली ज़िद्दी लड़की ज़िंदगी के किस मैदान में दफ़न हो गई थी, यह याद करने या जानने की भी फ़ुरसत नहीं थी। वह ऐक्टिंग करते-करते एक नया जीवन जीने लगी थी जिसमें पुरानी लड़की को मरना था। 
बस उसे यह पता नहीं था कि परछाइयां लौट आती हैं। दुनिया भर की बरसातें झेलती हुई छतरियां आख़िर वह पता खोज लेती हैं जहां किसी दिन उन्हें पहुंचना था। 
तो एक दिन वह परछाईं उसके दरवाज़े पर खड़ी थी- तीस साल पुरानी एक क़ब्र उसके भीतर हिलने-डुलने लगी थी। उस क़ब्र में इतने वर्षों से सोई एक लड़की धीरे-धीरे जाग रही थी। वह बेचैन हो उठी थी। यह कौन सी लड़की उसके भीतर से निकल पड़ने को आमादा है? क्या वह उसे पहचानती है? क्या वह लड़की भी इस औरत को पहचानती है?
और यह छतरी क्यों और कैसे चली आई? कहां-कहां की बरसातें झेलती हुई? किन घाटियों-किन पहाड़ों से पांव संभालते गुज़रती हुई? किन बूंदों को अपने भीतर सहेजे हुए? वे इतने बरसों में सूख क्यों नहीं गईं? लेकिन क्या वे उसके भीतर भी सूखी थीं? वह क्यों नहीं नामालूम-बेख़बर और उचटी हुई सी नज़रों से इसे देखकर आगे बढ़ पाती?
इतने सारे सवाल थे, मगर जवाब एक भी नहीं था। बस फोन की स्क्रीन पर एक मैत्री-अनुरोध था और एक बहुत पहचाना हुआ चेहरा जिसके बाल कुछ सफेद हो गए थे, जिसकी मूंछें धूसर सी थीं, लेकिन जिसकी मुस्कुराहट बस वही थी जिसे वह बिल्कुल अपनी संपत्ति समझती थी। 
वह बस एक दिन चाहता था- जब दोनों मिलें और वह अनजिया हुआ जी लें जो उनके भीतर किसी लौ की तरह थरथराता हुआ तीस साल से बचा था और तमाम झंझावातों के बावजूद बुझने को तैयार नहीं थी।
वह बिल्कुल सहमी हुई थी। पहली बार उसने मना कर दिया। तय किया कि दुबारा वह उससे बात तक नहीं करेगी। उसकी ज़िंदगी अलग है, वह लड़की अलग है। अब वह एक खाते-पीते घर की गृहस्थन है। उसे पति को देखना है, बच्चों को देखना है, बच्चों के बच्चों को देखना है। उसे अतीत की ओर नहीं देखना है। 
लेकिन अतीत पलट-पलट कर उसे देख रहा था। वह उसकी त्वचा छील रहा था। उस पर चढ़ी वक़्त की परतें हटा रहा था। उससे मनुहार कर रहा था कि वह लौटे, एक बार उन दिनों में लौटे। 
वह इस मनुहार को झटकती रही। यह अव्यावहारिक है। असंभव है। लेकिन जो कुछ उसके जीवन में घटा, वह क्या किसी असंभव से कम था? उसे तिल-तिल मारा गया था, उसे फिर से गढ़ा गया था- लड़की मर गई थी, पहले पत्नी और फिर मां पैदा हो गई थी- और अब तो दादी भी। क्या यही है उसका जीवन?
यह सवाल उसके भीतर कई दिन से चल रहा था। उसने बार-बार इसे झटकना चाहा- हां, यही है उसका जीवन। यह ऐसा अनूठा जीवन भी नहीं है। इस देश की करोड़ों लड़कियां यही जीवन जीती हैं। ठीक है कि सबकी शादी 18 साल में नहीं हो जाती, लेकिन लौटती तो सब इसी रास्ते हैं। और बहुत सारी लड़कियां तो 18 का होने से पहले ब्याह दी जाती हैं।
और कितनी सुखी है वह? निस्संदेह शादी के बाद बहुत झेलना भी पड़ा था। तेज़ स्वभाव वाली सास और उसकी भावजें- सबने सबसे पहले उसकी पढ़ाई का मज़ाक बनाया था। उसके बाद उसके दौड़ने का। उसके दौड़ने को लेकर चुटकुले बनते थे। वह एकाध बार हंसी, फिर बार-बार रोई- लेकिन अकेले में। धीरे-धीरे उसने उन चुटकुलों को ऐसे सुनना शुरू कर दिया कि वे किसी और की कहानियां हों। धीरे-धीरे वह भूल गई कि वह सबसे तेज़ दौड़ने वाली लड़की वही थी। लोग उसकी नक़ल उतारते थे। और वह यह भी नहीं बता पाती थी कि यह काम वह उनसे अच्छा कर सकती है। वह लड़की कोई और थी जो सपनों में आती थी। मगर फिर सबकुछ ठीक और आसान होता चला गया। सबकुछ एक ढर्रे पर। 
वह गनीमत मनाती थी कि किसी को उस छतरी की ख़बर नहीं है जो कई बरस उसके साथ साये की तरह लगी रही। यह ग़म भी बरसों तक उसे खाता रहा कि इस छतरी के बारे में उसने अपने पति तक को नहीं बताया है। मां ने सख़्त ताक़ीद की थी- वह उल्टा-सीधा न बोल जाए, ज़िंदगी बहुत भारी हो जाएगी- पति छोड़ भी सकता है।  
एक बार घर छूट जाने के बाद छोड़े जाने का डर बहुत बड़ा होता है न? उसने अपने-आप से नहीं पूछा था कभी। 
बस घर के अनुकूल बनती चली गई। घऱ भी उसके अनुकूल बनता चला गया। अब तो सबकुछ ठीक है। वह बुढ़ापे की ओर बढ़ रही एक औरत है जिसके सारे अरमान अब बच्चों और पोते तक केंद्रित हैं। अब उसकी कोई परवाह नहीं करता। अब उसके दौड़ने पर नहीं, ठहरे रहने पर चुटकुले बनते हैं। पति, बेटे-बहू- सब उस पर हंसते हैं- उठने में कितना समय लगाती है अम्मा। धीरे-धीरे उठेगी, धीरे-धीरे चलेगी, ड्राइंग रूम तक पहुंचते-पहुंचते उसकी चाय ठंडी हो जाएगी। किसी को नहीं मालूम है कि वह कभी चाय ठंडी होने का मौक़ा नहीं देती थी। चाय चढ़ी ही रहती थी कि दो चक्कर लगाकर लौट आती थी।
मालूम है तो बस उसके नए स्मार्टफोन को, जिसने उसे नए सिरे से पहचाना है। इस फोन ने उसे बहुत सारी पुरानी सहेलियों से मिलाया है। स्कूल की लड़कियों ने अपना वाट्सऐप ग्रुप बना रखा है। वे सब अब अधेड़ गृहस्थनें हैं- कोई लंदन में, कोई लातेहार में, कोई बेटे की पढ़ाई की ख़बर दे रही है कोई बेटी की नौकरी लगने की। वहीं कुछ पुराने दिनों को खरोंच कर सामने ला देने वाली घटनाओं का चुलबुलाता ज़िक्र आ जाता है तो वह लड़की हिलने-डुलने लगती है। 
लेकिन इस हिलती-डुलती लड़की को भी कहां पता था कि एक तूफ़ान उसकी तरफ़ बढ़ा चला आ रहा है। वह छतरी जैसे अचानक खिड़की से आ टकराई थी।  
क्या वह इस तूफ़ान को रोक दे? बंद कर दे मज़बूती से खिड़कियों के वे पल्ले जिनके सहारे भीतर आती हवा सीधे उसे उड़ाए ले जाने पर आमादा है? उसने बहुत कोशिश की। वाकई कोशिश की। बार-बार मन को समझाया। उस पुरानी लड़की को भूल जा। वह क़ब्र से निकलेगी तो कई प्रेत निकलेंगे। जीवन तहस-नहस हो जाएगा।
लेकिन कैसे? उसका कोई जीवन है कहां जो तहस-नहस होगा?  उसके भीतर एक ज़िद्दी लड़की अब जैसे न दबने पर आमादा थी। वह किसी के छू लेने भर से क़ब्र से निकल आई थी और रोज़ उससे लड़ रही थी। 
यह 48 साल की औरत और 18 साल की बच्ची के बीच की लड़ाई थी। 48 साल की औरत पूछती, वह कब निकल सकती है? सुबह बहू के साथ नाश्ता बनाने में लग जाती है। पति आठ बजे नाश्ता कर दुकान के लिए निकल लेते हैं। फिर बेटा-बहू दोनों बच्चे को उसके हवाले कर दफ़्तर निकल जाते हैं। वह इस खिलौने से दिन भर खेलती रहती है। वह सो जाता है तो टीवी देखती है, शाम के खाने की तैयारी करती है और घर में आने वाली काम वाली से लगभग सहेलियों की तरह रोज़ के दुख-सुख साझा करती है। बीच में दोपहर को पति घर लौटते हैं, खाना खाने के बाद दो घंटे आराम करके फिर तीन बजे निकलते हैं। शाम सात बजे तक बेटा-बहू लौट आते हैं। फिर चाय-नाश्ता और फिर गपशप और फिर टीवी और फिर रात का खाना। और फिर सो जाना। उसके पास समय कहां है? वह कैसे निकल सकती है कभी भी? बिल्कुल नहीं, कहीं नहीं जाना। वह सिर झटक देती है। 
लेकिन 18 साल की लड़की भी सिर झटकती है। समय तेरे पास कब था? तू समय चुराती थी या नहीं? बाक़ी घर पांच बजे उठता था, तू चार बजे उठकर अंधेरे में चुपचाप दौड़ लगाने निकल जाती थी या नहीं? याद है, जब घर में पहली बार सबको पता चला तो पापा ने कितना डांटा था और मां किस तरह घबराई थी? उसके बाद सुबह 4 बजे भी ज़ंजीर लग गई थी। निकलना बंद हो गया था। लेकिन वह समय निकालती रही थी। अब तो कोई उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं कर सकता।
वाकई? 48 साल की औरत ने 18 साल की लड़की के इस तर्क पर सोचा। तीस साल में क्या किसी ने उस पर ज़बरदस्ती नहीं की? नहीं की। लेकिन कोई क्यों करता? वह सबके मुताबिक ढलती चली गई थी। पति को उसने कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया। बेशक, कुछ बातों पर वे झुंझलाते रहे, लेकिन हमेशा उसे इज़्ज़त दी। 
हमेशा? 18 साल की लड़की ने उसे कुरेदा। याद है, पहली बार उसने पति से अपने दौड़ने की प्रैक्टिस की बात साझा की तो वे हैरान रह गए थे? उसे इस तरह झिड़क दिया था कि वह हमेशा-हमेशा के लिए सहम गई थी? ऐसे कितने अवसर आए जब उसे बिल्कुल पालतू बनाया जाता रहा और वह इसी में अपनी ख़ुशी देखती रही। अब पालतू मत बन। 
लेकिन कैसे? वह कब निकलेगी? क्या बताएगी? कोई उसे अकेले क्यों जाने देगा? 48 साल की औरत को लग रहा था कि उसकी तबीयत ख़राब हो जाएगी। लेकिन 18 साल की लड़की तो जैसे क़ब्र से जाग उठी थी- वह प्रेत थी और इस प्रेत को अपना हर प्रतिशोध लेना था। किस बात का प्रतिशोध? लोगों ने उसके साथ किया क्या है? यह 48 साल की औरत कातर ढंग से पूछना चाहती। जवाब तत्काल निकल कर आता- उसकी आत्मा को तिल-तिल कर मारा है। वह न जाने कब से प्यासी भटकती रही है। आधी-आधी रातों को उसकी नींद टूटती रही है। रात के आख़िरी पहर, जब सब सोए रहते हैं तो वह जागती रही है। 
हां, यही एक पहर उसका है। जब कोई उससे नहीं पूछता कि वह क्यों जाग रही है, अपनी कल्पनाओं में कहां जा रही है, अपनी उम्र से कैसे निबट रही है। प्रेत आधी रात के बाद निकलते हैं। इसी समय वह भी निकलेगी।
इस तरह उस 18 साल की ज़िद्दी लड़की ने तय किया कि हां, वह छतरी से मिलेगी।  छतरी से कहा- मिलना है तो रात तीन बजे मिलना होगा। छतरी हैरान-परेशान थी। कुछ नाराज़ भी। यह बेतुकी बात है। इतनी रात गए कौन मिलता है? कहां मिलता है? लेकिन छतरी के भीतर भी तीस साल पुरानी एक स्मृति हिल-डुल रही थी- उस दुबले-पतले 18 साल के लड़के की, जो एक चुप्पा लड़की की नासमझ ज़िदों के आगे अक्सर हार जाया करता था। उसके लिए उसने न जाने कितने बेमानी जोखिम उठाए थे। इस बार भी उसे हारना ही था। तो वह तैयार हो गया। छतरी ने कहा, वह अपनी कार के साथ बाहर खड़ी रहेगी। वह बस घर से निकल ले। वे कार में घूमते रहेंगे। रात तीन बजे से पांच बजे तक। दूसरों के उठने से पहले वह घर लौट आएगी। 
उसने हामी भर दी, लेकिन फिर सहम गई। अब 48 साल की औरत 18 साल की लड़की पर भड़क उठी थी। यह क्या मतलब है? कैसी बेवकूफ़ी है? वह आदमी क्या सोच रहा होगा? उसे ऐसी-वैसी औरत समझ बैठेगा जो रात तीन बजे भी किसी के साथ घूमने को तैयार रहती है।
सहमी हुई 18 साल की लड़की भी थी। लेकिन वह फिर भी एक दिलासा ढूढ़ रही थी। वह कुछ नहीं समझेगा। वह उसे तीस बरस से जानता है। कम से कम उस लड़की को तो जानता है जिसके साथ वह घूमता था। लेकिन फिर भी एक घबराहट जैसे जीना मुहाल किए हुए थी। दिल का  धड़कना क्या होता है, यह उसे अब समझ में आ रहा था। 
फिर वह दिन आ गया, जब निकलना था। उसके बाद एक-एक लम्हा काटना भारी हो गया था। इंतज़ार था तो बस रात का। यह भी हैरानी की बात थी। रात उसे बचपन से डराती रही है। रात को निकलने से अब भी वह बचती है। फिर यह कैसी रात है जो उसे पुकार रही है? यह किसकी रात है जो उसे अपनी ओर अवश खींचे जा रही है? यह रात है या जादू?
लेकिन रात आई तो वह क़यामत की रात थी। वह बिल्कुल भीतर थर-थर कांप रही थी। उससे ठीक से खाना भी न खाया गया। सबने पूछा, तबीयत ठीक है न? उसने मुस्कुराने की कोशिश की, बताया कि ठीक है। एक-एक लम्हा रात बीतनी शुरू हुई। 12 बज गए। जागे हुए बेटे-बहू कमरे में चले गए। एक बज गया। पति के कमरे का दरवाज़ा खुला, वह बाथरूम आए और चले गए। बीते के साल से वह अलग कमरे में सो रही है- जब से पोता हुआ है, तब से। कई बार पोते को लेकर भी। दो बज गए। ओह। लगता है, बहू उठी है। बेटे का दूध गर्म कर रही है। उसे हर तीन घंटे पर दूध पीने की आदत लगी हुई है। 
ढाई बज गए। पूरा घर सन्नाटे में था। अलग-अलग कमरों से सबकी सांस की ऊपर-नीचे होती लय गूंज रही थी। लेकिन उसका दिल बिल्कुल नगाड़ा बना हुआ था- धम-धम-धम-धम। कहीं उसे दिल का दौरा न पड़ जाए। उसे पसीना भी आने लगा था। कहीं उसकी तबीयत खराब न हो जाए।
दो पचास। दो इक्यावन। दो बावन। उफ़! वह क्या करे? 18 साल में जो नहीं किया, वह 48 साल की करने की नादानी क्यों कर रही है?
लेकिन अठारह साल की लड़की बिस्तर से ख़ड़ी हो चुकी थी। वह 48 साल की औरत की चप्पलें पहन चुकी थी। वह बहुत सधे क़दमों से दरवाज़े की तरफ़ बढ़ रही थी। 48 साल की औरत लगातार मनुहार कर रही थी कि रुक जाओ, रुक जाओ, यह सही नहीं है। 18 साल की लड़की कुछ सुनने को तैयार नहीं थी।
उसने दरवाज़े का लॉक बहुत सावधानी और धीरे से खोला। यह बाहर-भीतर दोनों तरफ़ से बंद हो जाने वाला लॉक था। हल्की सी आवाज़ हुई थी, लेकिन कोई जागा नहीं। वह लॉन से निकल कर घर के बाहर थी।
बाहर रात थी- वही रात जो उसे उम्र भर डराती रही। लेकिन 48 साल की औरत अब जैसे बेहोश हो गई थी। और 18 साल की लड़की किसी से डरने को तैयार नहीं थी। पांच मिनट बाद उसे एक गाड़ी दिखी, गाड़ी के बाहर धूसर केश दिखे, वही मुस्कुराती आंखें दिखीं जो 30 बरस बाद भी पुरानी नहीं पड़ी थीं। गाड़ी का दरवाज़ा खुला, वह अब सीट पर बैठी हुई थी। गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी। वह सड़क के बीच फिसल रही थी।
और 48 साल की औरत जैसे गश खा रही थी। उसने क्या किया है यह? रात के तीन बजे घर से भाग आई है? एक ऐसे अजनबी के साथ कुछ घंटे गुज़ारने के लिए, जिसे वह बिल्कुल नहीं जानती। 30 साल पहले जिस लड़के को वह जानती थी, वह तो कोई और है? यह तो वह है ही नहीं! 
लेकिन नहीं, ड्राइविंग सीट पर भी जो था, वह 48 साल का दिख ज़रूर रहा था, मगर 18 साल का ही लड़का था। उसने आगे जाकर पार्क के पास गाड़ी रोकी। वह उसे बस देखता-देखता-देखता रहा। वह भी उसे बस देखती-देखती-देखती रही। फिर धीरे-धीरे आंखों से पानी निकले, फिर कोई बांध टूटा, फिर जैसे बातों का एक सोता बह चला। न जाने कितनी बातें, कहां-कहां की बातें, किन-किन लोगों की बातें, किन-किन ज़मानों की बातें- पता नहीं, भीतर जमी कौन सी बर्फ़ थी जो पिघल रही थी। 
दो घंटे बीतने को थे। सुबह की बहुत हल्की लाली क्षितिज पर दिखने लगी थी। अखबार वाले, दूधवाले साइकिल टुनटुनाते गुज़र रहे थे। यह एक नई सुबह थी। सूरज जैसे छुप कर इन्हें देख रहा था। आसमान हैरान था कि तीस बरस बाद ये साझा आवाज़ें कहां से आ रही हैं।
18 साल की लड़की अपने साथ केक लाई थी जो 48 साल की औरत ने बनाया था। उसने अपने हाथों से 18 साल के लड़के को केक खिलाया जो 48 साल वाली धूसर मूंछों के पार हंस रहा था।
लेकिन वापस लौटना था। 48 साल के लोगों को यक़ीन नहीं था कि दुबारा वे मिल पाएंगे या नहीं, लेकिन उनके भीतर बैठे 18 साल के लड़के-लड़की वादा कर रहे थे कि अब एक-दूसरे का हाथ नहीं छोड़ेंगे।
सवा पांच बज चुके थे। कार फिर वहीं रुकी, जहां 18 साल की लड़की उस पर बैठी थी। कार से 48 साल की औरत निकली और धीरे-धीरे घर की ओर चल दी। उसे पता था कि सात बजे के पहले घर में कोई नहीं उठेगा। तब तक वह अपने कमरे में होगी। सो लेगी कुछ घंटे। बता देगी तबीयत ठीक नहीं है। इतनी रात गए जागने का अभ्यास नहीं रह गया है न!
लेकिन घर पहुंचते उसका कलेजा बैठ गया। घर की जैसे सारी बत्तियां जली हुई थीं। बेटा-बहू, पति, एकाध पड़ोसी- सब हैरान से खड़े थे। उसे आता देख एक शोर से उठा। उसने बेटे की आवाज़ पहचानी- मां, मां, कहां थी तुम? कहां चली गई थी आधी रात? हम लोग पुलिस के पास जाने वाले थे। वह अकेला नहीं था, जैसे सबलोग यही कह रहे थे। 48 साल की औरत अब बिल्कुल ख़ामोश थी। जैसे उसका कलेजा धाड़-धाड़ कर रहा था। तीस साल बाद उसने ये गलती कैसे कर ली? सोचा भी नहीं कि घर वाले क्या सोचेंगे? उनकी इज़्ज़त का क्या होगा?
बेटा बता रहा था कि चार बजे उसकी नींद टूटी तो वह यों ही झांकने चला आया। उसने देखा कि मां नहीं है। पहले सोचा कि बाथरूम में होगी। लेकिन कुछ देर बाद उसने घबरा कर सबको उठाया। सब उसे खोजने के लिए निकलने ही वाले थे। लेकिन अब बहू बोल रही थी, ‘मां तबीयत ठीक है न आपकी? आप भूल गई थीं क्या? किधर चली गई थीं।’ 
48 साल की औरत को तत्काल ध्यान आ गया। पड़ोस के सक्सेना जी भी एक रात ऐसे ही निकल पड़े थे। पता चला, डाइमेंशिया के शिकार हैं, सबकुछ भूल जाते हैं। सुबह बेटे तालाब किनारे से पकड़ कर लाए। वे किसी को पहचान नहीं पाते।
यानी किसी ने यह कल्पना ही नहीं की है कि वह रात को एक लड़के- नहीं, 48 साल के आदमी- के साथ गप करके लौटी है! उसे जैसे सहारा मिला। 48 साल की औरत के भीतर 18 साल की लड़की फिर चौकन्नी हो उठी। वह अभिनय करना जानती थी। उसने कमज़ोर सी आवाज़ में कहा- ‘कुछ समझ नहीं आ रहा है। मैं कहां निकली, कैसे यहां पहुंची? तुम लोग लेकर आ रहे हो मुझे?’
सबने पहली राहत की सांस यही ली- मां सबको पहचान रही हैं- यानी स्मृतिलोप नहीं हुआ है। शायद कोई अटैक रहा हो जिसमें वह भूल-भाल कर घर से निकल पड़ी हों। अच्छा हुआ, पुलिस के पास हम नहीं पहुंच गए। बड़ा बखेड़ा होता। चलो-चलो, सब भीतर चलो।‘
पति ने फिर तस्दीक की- ‘अब ठीक हो न पूरी तरह? क्या हुआ था, कुछ भी याद नहीं है?’ लड़की ने बेचारगी में सिर हिलाया, कुछ भी याद नहीं। ‘बस, बहुत थकान लग रही है’, औरत बोली, जो बिल्कुल सच था। बेटा आगे आया, ‘मां तुम सो जाओ, कुछ देर सो लोगी तो आराम रहेगा। फिर डॉक्टर के पास चलेंगे।‘
मां ने सिर हिलाया। कमरे में सोने चली गई। थकान थी, लेकिन नींद गायब थी। कमरे के अपने एकांत में वह सनसनाहट लौट आई थी जो अचानक घर लौटकर सबसे घिर जाने के बाद गुम सी हो गई थी। वह देर तक याद करती रही- उन उंगलियों और हाथों का स्पर्श। उसने उसकी आंखें छू ली थीं। इससे ज़्यादा आगे जाने की कोशिश दोनों में किसी ने नहीं की। लेकिन एक-एक बात वह याद करती रही। और फिर नींद ने जैसे उसे थपकी देकर सुला दिया। 
आंख खुली तो बहू सामने खड़ी थी। कुछ चिंतित सी। ‘मां, आप आठ घंटे सोती रही हैं- दो बज गए हैं। उठ कर कुछ खा लीजिए।‘ 
औरत हैरान थी। उसकी सारी थकान दूर हो चुकी थी। बीती रात उसे एक सपने की तरह लग रही थी। रात को निकलना, कार में घूमना, लौट के आना और फिर कुछ याद न आने का बहाना।
बेटा भी कमरे में चला आया। उसने कहा कि वह जल्दी से कुछ खा ले, तीन बजे डॉक्टर का समय लिया हुआ है। 
औरत बिल्कुल आज्ञाकारी मां की तरह समय पर तैयार होकर डॉक्टर के पास चली गई। डॉक्टर ने देर तक मुआयना किया। कई तरह के सवाल पूछे। पहले भी क्या वे नाम और जगहें भूलती रही हैं? जवाब बेटे ने दिया, मां कई लोग रामनारायण को रामकिशोर और श्यामनारायण को श्यामबहादुर बोल दिया करती हैं। जगहें भी बार-बार भूल जाती हैं। डॉक्टर ने हां-हूं में सिर हिलाया। सारी जांच के बाद कहा कि उसे कोई समस्या अभी नहीं दिख रही है, लेकिन वह दवाएं दे रहा है। महीने भर खा ले। फिर दिखाना होगा। इस बीच घरवाले इन पर नज़र रखें। इन्हें अकेला न छोड़ें। कहीं आने-जाने न दें।
तो मां-बेटे बहुत सारी दवाएं और नसीहतें लेकर घर लौटे। यह एक नई मुसीबत थी। अब मां के साथ 24 घंटे कोई न कोई बना रहता। उसके लिए स्मार्टफोन से सोशल मीडिया पर जुड़ना भी मुश्किल होने लगा था। फिर भी वह समय निकाल ले रही थी। उसने हंसते-हंसते छतरी को बताया था कि उसके जाने के बाद उसे क्या-क्या भुगतना पड़ा था।
लेकिन दवाएं उसने खाईं नहीं। 18 साल की लड़की नियमपूर्वक दवाएं फेंकती रही थी। सुबह दो गोलियां, शाम दो गोलियां। हालांकि 48 साल की औरत को कुछ अफ़सोस हो रहा था। इतनी महंगी दवाएं कोई ऐसे फेंकता है? लेकिन उपाय क्या है अम्मा?  बता दोगी सबको कि कुछ भूली नहीं हो, सब याद आ गया है? अपने आशिक से मिलने गई थी? 18 साल की लड़की ने उसे छेड़ते हुए कहा। 48 साल की औरत का चेहरा इस ख़याल से ही लाल हो गया था। 
पूरा महीना पार हो गया। घर में सबने राहत की सांस ली कि मां अब ठीक हैं। उनकी याददाश्त बनी हुई है। ढील देने का क्रम भी टूट गया। वह वापस अपने कमरे में लौट आई। धीरे-धीरे बेटे ने भी रात की पहरेदारी छोड़ दी।
18 साल की लड़की ने भी राहत की सांस ली और 48 साल की औरत ने भी। लड़की ने हंस कर औरत से पूछा- क्या एक दिन फिर वह अपनी याददाश्त गुम कर एक और रात छतरी के साथ न गुजारे? औरत ने हंसते हुए डपटा- चुप रहो। दोनों ने माना कि उस एक मुलाकात की स्मृति भी बहुत सघन है- बहुत जीवन और ऊर्जा देने वाली। दोनों ने तय किया कि फिर किसी दिन मन हुआ तो स्मृति से खिलवाड़ का यह प्रयोग दुहराया जाएगा।
फिर औरत ने ठंडी सांस ली। जब स्मृति लौटी और वह जी उठी तो दुनिया ने सोचा कि स्मृति चली गई है। अपनी यह प्रेम कहानी वह दुनिया से छुपाए रखेगी। 

प्रियदर्शन
वरिष्ठ साहित्यकार
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3 टिप्पणी

  1. बहुत ही ख़ूबसूरती से बुनी गई कहानी। एक लड़की को कितने दंश सहने पड़ते हैं। और प्रेम जो पूर्णता नहीं पाता वो किस तरह ता उम्र तड़पता और तरसता है। कथा का शिल्प और कथ्य दोनो ही उत्तम बन पड़े हैं। इस सुन्दर कहानी के लिये आपको बहुत साधुवाद प्रियदर्शन जी। आशा है और भी कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी।
    —-ज्योत्स्ना सिंंह

  2. क्या ही खूबसूरत कहानी है, सर। एक सांस में पढ़वा लिया इस कहानी ने। प्रेम का शेष रहा अंश कैसी अनोखी जिजीविषा लिए होता है..! प्रवाह, शिल्प, रोमांच, सबकुछ अद्भुत। सम्मोहित करने वाली कहानी के लिए आपको बहुत साधुवाद, आभार।
    सादर

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