Tuesday, September 17, 2024
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वन्दना यादव की कहानी – कर्फ्यू

लड़कियां रूई के फौहे सी नाजुक होती हैं।’ उन्हें घर के कामकाज सिखाए जाते हैं जिससे वे घरों में रहें और जिस तरह ख़ुद को सजाती हैं वैसे ही घरपरिवार को सजाया करें। यूं बेवजह उछलना ठीक नहीं, चलो घर के अंदर।उसे याद आता है कि बचपन में दौड़भाग मचाते बच्चों की टोली के बीच से हाथ पकड़ कर घर की ओर खींच कर ले जाती हुई दादी हर बार घुमाफिरा कर ऐसा ही कुछ कहा करती थीं।
मुझे भी भाईजान के साथ खेलना है।जबजब उसने मचल कर कहा, घर की औरतों से उसे झिड़कियां ही मिलीं। 
घर की औरतेंहाँ संयुक्त परिवार में सदस्यों की गिनती इसी तरह होती है। उसके घर में अम्मी की उम्र के आसपास की चार औरतें थीं। उस उम्र से ऊपरनीचे भी बहुत सारी महिलाएं थीं ऐसे ही बाक़ी रिश्ते भी थे।
वो मर्द है। बाहर की दुनिया में घूमना, अपनी पहचान बनाना, नाम, पैसा और शोहरत कमाना ही काम है उसका। वो दुनिया तुम्हारे लिए नहीं है मेरी बच्ची। तुम घर सम्हलना सीखो। खाना बनाना और रिश्तों को निभाना सीखो। यही सब सीखा हुआ आगे काम आएगा तुम्हारे।वह मन मसोस कर रह जाती। बाहर खेलने का मन होता पर खिड़की में बैठ कर सबको खेलते देखने के सिवा कुछ कर ना पाती।
नाज़ुक उम्र से यही बातें मेरे दिमाग में भरी जा रही थीं। घर की हर औरत अपनीअपनी तरह से सलीक़ेदार बनाने की ट्रेनिंग देने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी। उन्हें भी उनके बचपन में कड़ाहीकड़छे पकड़ा दिए गए होंगे। तिल्लेदार काढाई और पशमीने की कारीगरी सिखने में लगा दिया गया होगाहुंह।वह अकेली बैठीबैठी बड़बड़ा रही थी।
स्कूल जाया करो। ख़ूब मन लगा कर पढ़ाई करना। ये हमारे ज़माने की बात नहीं है कि बस घर सजा कर, बनसंवर कर शौहर को रिझाने से काम चला लोगी। ज़माना बदल रहा है। सिर्फ बीवी बन कर घरों में दुबके रहने से काम नहीं चलेगा। अच्छी तालीम हासिल करो वही बदलते वक़्त में काम आएगी।ना जाने किस वक़्त अम्मी ने यह कहा था जो बीतते समय के साथ शब्दशब्द सही साबित होता गया।
हमें अपनी बच्ची को तालीम दिलवाने के लिए बाहिर  भेजना चाहिए।स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद अम्मी ने ही हिम्मत करके अब्बू से कहा था।
बाहिर क्यों भेजना जब अपने वतन में एक से एक कालिज हैं।पलट कर आए सवाल के लिए उन्होंने तैयारी कर रखी थी।
यहाँ आधी से जियादा बार तो कर्फ्यू ही लगा रहता है फिर पढ़ाई मुकम्मल कैसे होगी। हमें अपनी बच्ची को किसी सियासी पार्टी का शिकार नहीं होने देना है और साथ पढ़ने वालों की बातों में कर पत्थरबाज़ बनाने से भी रोकना होगा। बेवजह की बातों में पड़ कर ये अपनी ज़िंदगी बर्बाद ना कर ले। बस अपनी तालीम पूरी करे तब तक अशफ़ाक मिया़ भी लौट आएंगे फिर हम इनका निकाह पढ़वा देंगे।अम्मी की बात उन्हें पसंद गई थी।
मर्द ज़ात कितनी अजीब होती हैबीवी की किसी बात को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया फिर सुनने या मानने का तो सवाल ही नहीं होता था पर औलाद की बात आई तो उसी औरत की बात सुन भी ली और मान भी ली!’ वह अपने आप से कह रही थी।
कहां भेजने की सोच रही हैं ज़ीनत को?’ 
अब्बू ने मना करने की बजाय जब यह सवाल किया था, मैं तो ख़ुश हो गई थी मगर अम्मी इसके बाद की बातों का रूख़ भांप गई थीं।
दिल्ली भेजना चाहिए।
दिल्ली ही क्यूं? कोई ख़ास वजह!’ अब्बू ने पलट कर पूछा था।

 

उनकी बातें गंभीर होती जा रही थीं। वो उम्र ऐसी थी जिसमें कुछ नया करने या घर से दूर जा कर अकेले रहने पर ड़र और फिक्र के मुकाबले रोमांच अधिक था। उस दिन मेरे लिए वहाँ बैठ कर उनकी बातों का हिस्सा बनना मुश्किल से ज्यादा बोरियत भरा था।याद करते हुए उसके होंठों पर तिरछी सी मुस्कान गई। वैसे सच तो यह था कि उस बोरियत से बचने के लिए जब अम्मीअब्बू उसके भविष्य की राह निर्धारित करने जा रहे थे तब उनकी बातों से ध्यान हटा कर उसने ख़ुद को नई जगह बिल्कुल अकेले, आज़ादी के साथ रहने की कल्पना से जोड़ लिया था। जहाँ शायद थोड़ाबहुत ड़र था मगर बहुत सारी आज़ादी भी तो मिलने वाली थी। थोड़ी घबराहट और असुरक्षा की भावना थी तो आत्मनिर्भर बनने के अनगिनत मौक़े भी उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
आज ये वहां पढ़ाई करने जाएगी, उस दुनिया को देखसमझ लेगी। कल अशफ़ाक के साथ किसी बड़े शहर ही तो बसना है इसे तो आज से ही तैयारी करना अच्छा रहेगा।अब्बू भी शायद मन ही मन यही चाहते थे। 

देखते ही देखते दाखिले से ले कर रवानगी की सब तैयारियां पूरी हो गई थीं और फिर वो दिन गया जब मैने अकेले, अपने दम पर नई दुनिया की ओर कदम बढ़ाए। अम्मी उदास तो थीं मगर रवानगी के वक़्त उन्होंने जो कहा था, मैं भूला नहीं सकी थी।इस बार उसकी हँसी गायब हो गई।
क्या कोई माँ अपनी बेटी के लिए ऐसी ख़ौफनाक दुवाएं कर सकती है जैसी अम्मी ने मेरे लिए की थीं?’ कितने सालों तक वह यही सोचती रही।
बचपन की सीख और झिड़कियों से भी मैने चुनचुनकर अपने लिए अम्मी की दी हुई सीख में से नफ़रतें ढ़ूंढ़ ली थीं। उनकी कही कुछ बातों पर उनके पूरे वज़ूद को तौलने लगी थी…’
मैं चाहती हूं कि तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। जिस तरह घर में क़ैद रह कर मैने अपनी ज़िंदगी बिता दी, तुम अपने साथ ऐसा मत होने देना। हर हाल में औरत को ही क़ीमत चुकानी होती है, यही होता आया है आज तक। इसीलिए समझ लो कि अपने हिस्से की क़ीमत तुम्हें भी चुकानी ही होगी। अच्छा यही होगा कि तुम अपनी तैयारी अभी से शुरू कर दो।अम्मी उसे समझा रही थीं।
कैसी तैयारी अम्मी?’ 
मैने मासूमियत से पूछा था। मासूम ही तो थी उस वक़्त। आख़िर कॉलेज के पहले साल की बच्ची की उम्र ही कितनी होती है।
हमारी बच्ची को चलतेचलते क्या सिखा रही हैं बेगम?’ 
अब्बू ने मेरे कानों में उड़ेली जा रही उन बेवजह की सीख से बचा लिया था। बेवजह की सीखहाँ, कम से कम उस दिन तो यही लगा था। जब तक समय से आगे दूर तक देखनेसमझने का नज़रिया पैदा ना हो, समझाइश ऐसी ही लगती है। जो भी हो उस दिन मिली ताज़ाताज़ा सीख से उपजी नफरत के बाद अम्मी से बिछुड़ना बुरा नहीं लगा था।कुछ देर के लिए उसने अपनी आंखें बंद कर लीं और होंठ भी कस कर भींच लिए। कुछ ही देर में वह फिर से वैसे ही हो गई जैसी साधारण तौर पर दिखा करती है। कायम वही रहता वही है जो स्थायी हो, ओढ़ा हुआ चरित्र या रिश्तों के बीच पनपी ग़लत फहमियां आख़िरकार ख़त्म हो ही जाती हैं।
क़ीमत औरतों को ही चुकानी होती हैमैं अभी से तैयारी शुरू कर दूं।अम्मी के ये शब्द मेरे वज़ूद पर हावी होने लगे थे। अगर वो जानती हैं कि क़ीमत चुकानी होगी तो उस रास्ते मुझे भेज ही क्यों रही हैं? यही सोचती रही थी कितने वर्षों तक।
कहाँ तो वो ये सोच कर मीठे सपने बुन रही थी कि अशफ़ाक जब भारत लौटेगा, दिल्ली के हवाईअड्डे पर वह उसका स्वागत करने जाएगी मगर अम्मी ने जो कहा, वह चाह कर भी भूला नहीं सकी थी।
अशफ़ाक को ले कर उनकी बात फांस के जैसे चुभ गई थी कलेजे में। क्यूं कहा उन्होंने ऐसा? ऐसी क्या बात देख ली थी उन्होंने अपने होने वाले दामाद मेंऔरऔरअगर देख ली थी तो अपने तक क्यूं रखी? अब्बू से कहतीं, रोक देतीं उस नामुराद निकाह कोआज वह हालात को दूर बैठ कर देख रही है तब यह कहना आसान लग रहा है मगर उस दिनउस दिन तो क्या, उसके बाद बरसों तक उसके लिए अम्मी वो प्यार और मोहब्बत से भरे दामन का नाम नहीं रहीं। उसे नफ़रत हो गई थी अपनी ही माँ से।
ज़ीनत, कैसी है मेरी बच्ची?’ अब्बू से बात करने के बाद जब वे फोन पर मीठी आवाज़ में बेहिसाब दुवाएं लुटातीं, उनकी मिश्री घुली आवाज़ उसे ज़हर बुझे तीर सी लगती। वह बिना जवाब दिए फोन काट दिया करती थी। ना जाने कितनी बार ऐसा हुआ वो तो अब्बू अपनी बात बीच में रोक कर ज़बरदस्ती अम्मी से बात करवाने लगे थे नहीं तो दुवासलाम भी छूट गया होता।
अब जबकभी इस बारे में सोचती हूँ तब समझना आसान लगता है कि कुसूर अकेले अम्मी का भी नहीं था। वो जितना कर सकती थीं, कर ही रही थीं। ज्यादा कुसूर उसकी उम्र और नासमझी का था।
निकाह की तारीख़ पक्की हो गई थी। दोनों ओर तैयारियां जोरों पर थीं। अशफ़ाक लौटने वाले थे। मैं सुहागरात के बारे में सोच कर ही अजब सी ख़ुमारी में ड़ूब जाया करती थी। वो मोहब्बत भरे दिन थेउसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।
कितनी चाहत थी दोनों ओर से। हर समय एकदूसरे के साथ रहने का मन चाहता था दोनों को। अपना वतन अपना ही होता हैवादी का माहौल रास आने लगा था उन दिनों। अकेले अरब देश लौटने का मन नहीं था अशफ़ाक काकुछ दिन ख़ुमारी में बीत गए थे पर उससे ज्यादा उसी हाल में बीताने की तस्वीर नहीं बन रही थी। पैसा कमाना ज़रुरी था…’ सोचतेसोचते सिर भारी सा होने लगा। उसने अपने सिर के बोझ को कम करने के लिए सिर झटक दिया इस पर भी बोझ जस का तस बना रहा।
पशमीनाहाँ मैं पशमीने का काम शुरू करूंगा। इसी काम में अपना नाम बड़ा बनाऊंगा।अशफ़ाक जितना हो सके ज़ीनत के साथ रहना चाहता था। लगीलगाई नौकरी छोड़ कर उसने नया काम करने का मन बना लिया।
सोच लो, काम ज़माने में वक़्त लगेगा। सारी जवानी निकल जाएगी नाम बनाने में।उसकी बात सुनकर अशफ़ाक हँसा था।
कम से कम पूरी जवानी साथ तो गुजारेंगे। पच्चीस साल थो हम पहिले ही अलगअलग रहे अब काम के लिए अलग हो जाएं तो फिर जीएंगे कब?’ 
उफ़ मेरे मौलाइतनी मोहब्बत! उन्हीं लम्हों में जीना और उन्हीं में मर जाना चाहिए थाकभी मैं किसी के लिए कितनी ख़ास थी।यह सोचते हुए उसके मुर्दाना से चेहरे पर रौनक गई।
ये उपरवाला भी ना, क्याक्या रंग दिखाता है।उसने गहरी सांस ली।
अपने वतन की बात ही कुछ और होती हैवहाँ का तो पानी भी मीठा लगता है। यही कहवा वहाँ के पानी में घुल कर जन्नत जैसा स्वाद देता था और यहाँ! (उसके माथे पर बल पड़ गए) यहाँ तो बस हुड़क मिटाने के लिए पी लेती हूँ। वैसे उस स्वाद को ढ़ूँढ़ने अब जाना भी कहाँ होता है! स्वाद तो सारे जैसे मिट ही गए हैं ज़िन्दगी से। अब तो डायटिंग ही बची हुई है या कुछ बच है तो नॉस्टेलजिया!’ उसने लैपटॉप बंद कर दिया।
लो, अब हो गई छुट्टी। ना कालीन और पशमीना शॉल दिखाई देंगे, और ना ही वो सब याद आएगा!’ उसने ख़ुद को सबसे दूर करने के लिए यादों के तहखाने पर कुंदी लगा कर ताला जड़ दिया।
वह खिड़की से बाहर देखने लगी। बड़े से पेड़ की शाखाएं दिख रही थीं। हवा से पत्ते हिल रहे थे शायद परिंदे भी चहचहा रहे हों मगर शीशे लगी खिड़की के पार से उनकी आवाज़ें पहुंच नहीं रही थीं। कुछ देर यूं ही बेमक़सद पत्तों को हवा की ताल पर थिरकते हुए देखती रही। वह यादों के तहख़ाने पर लगाए ताले की चाबी निकालना भूल गई थी, ना जाने कब फिर वह उसी दुनिया में दाख़िल हो गई जिससे अक्सर छुटकारा पाने की कोशिशें किया करती है।
सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि फिर हालात ने करवट ली। टूरिस्ट रहे थे, सारे हाउसबोट और होटल भरे हुए थे सैलानियों से। घूमने और खरीददारी में सैलानी ख़ूब पैसा खर्च कर रहे थे। वादी में सबका काम अच्छा चल रहा था कि ना जाने किसकी नज़र लग गई धरती की जन्नत को। हालात बदलने लगे। हर एक बंदे को शक़ की नज़र से देखा जाने लगा था और फिर चिनार की ख़ूबसूरती से रौशन रहने वाली और केसर की उम्दा फसल देने के लिए मशहूर धरती अचानक ख़ूनी वादियों में तब्दील हो गईं। कर्फ्यू लगा दिया गया। घरों में बंद ज़िंदगी के बीच उस दिन ज़ीनत को दर्द उठा। अस्पताल जाने की इजाज़त मांगते भी तो किससे? दरवाज़ेखिड़की तक खोलने की मनाही थी। ज़रूरत के लिए बाहर निकलने वाले गोलियों के शिकार हो रहे थे।
अशफ़ाक के अब्बू जब सहन नहीं कर सके बहू का तड़पना, वो दरवाज़ा खोल कर मदद मांगने दौड़े थे। बाहर से फायर की आवाज़ आई थी बस उसके बाद सन्नाटा। अब्बू की लाश घर से थोड़ी सी दूरी पर पड़ी थी, लावारिसों की तरह। एक ओर घर के भीतर खानदान का नया चिराग पैदा होने को था दूसरी ओर घर से कुछ कदम की दूरी पर घर के मुखिया का ठंडा पड़ चुका जिस्म पड़ा था।
ठंड से बचने के लिए मोटे फिरन में हाथ छुपाए जब वे सुरक्षाबलों की ओर दौड़े, उन्हें आतंकवादी समझ लिया गया और एक बार रूकने को आगाह किया था, वे मदद ले आने की उम्मीद में बिना रूके उसी ओर दौड़ते रहेबस गोलियां चलने की आवाज़ आई थी। माहिर हाथों से चले तो गोली एक ही बहुत होती है। बंदूक से निकली गोली किसी का ज़ातधर्म नहीं पूछती और ना कोई भेदभाव करती है फिर चाहे वह किसी दहशतगर्द के लिए चले या किसी मासूम के लिए। गोली सही जगह लगी और पलक झपकते ही उसने अपना काम कर दिखाया।
बच्चा टेढ़ा हो कर फंस गया था। माँ और बच्चे की जान पर बन आई थी। घर की औरतों ने मिल कर किसी तरह डिलीवरी करवाई। उनकी पहली औलाद जिस हाल में दुनिया में आई, नई जन्मी बच्ची और ज़ीनत ने जो भुगता, अशफ़ाक का जन्नत में रहने का सपना काँच के महल सा चूरचूर हो गया। किरचें इतनी महीन थीं कि उन्हें सहेजना, जोड़ना मुमकिन नहीं था।
हम यहां नहीं रहेंगे।अशफ़ाक ने एलान कर दिया।
कहाँ जाएंगे हम?’ वह हैरान थी।
मैं तो पहले भी कहीं ओर ही जाने वाला था!’
कहाँ? कहाँ जाने वाले थे?’ उसने हैरानी से पूछा।
बारबार पूछने पर भी अशफ़ाक ने जवाब नहीं दिया। उन दिनों उसके चेहरे पर अजब ख़ून सा सवार रहता था।
मैं तो कहीं ओर ही जाता मगर अब… (कुछ देर बेटी को देखते रहने के बाद उसने निर्णय बदल दिया।)
वहीं जहां से अपना सामान विदेशों को भेजते हैं। यहाँ का काम वहां बैठेबैठे सम्हाल लूँगा या आनाजाना कर लेंगे पर यहां से निकलेंगे तो बिजनेस फैलाने में आसानी होगी। दिल्ली वो शहर है कि अगर तबियत से काम करो तो मिट्टी भी सोना बन जाती है।उसे  अशफ़ाक की किसी बात से ऐतराज़ नहीं था। वह सही मायनों में जूआ खेलने की उम्र थी। दोनों नन्हीं सी बच्ची को कलेजे से लगाए ज़िंदगी को गठरियों में बाँध कर अपनी क़िस्मत आजमाने उस शहर गए थे जो सदियों से बेहिसाब लोगों को अपने तिलिस्म में बाँधता आया है।
दिल्ली का मिज़ाज ही ऐसा है कि जिसने एक बार यहां क़दम रखा, वो कभी लौट कर अपने घर नहीं गया। अगर कहीं गया तो तरक्की की उड़ान भर कर परदेस चला गया। प्रवासी से परदेसी होना उसे कुबूल हुआ मगर लौटना गवारा ना हुआ। दिल्ली के लिए बस एक ही रास्ता है वो कहते हैं ना, वनवे रूट। यहाँ यूटर्न या घर वापसी जैसा कोई रास्ता नहीं है। वे उम्मीदों की टोकरी लिए उस धरती पर गए थे जहाँ के गर्मीसर्दी जैसी ही तासीर यहाँ के इंसानों की है। या तो बहुत प्यारमोहब्बत से मिलते हैं यहाँ के लोग या जिस्म झुलसाने वाली गर्मी के जैसे, बीच का कोई रास्ता नहीं है। अपनी सोच को पुख़्ता करने के लिए उसके पास बहुत सारे वाक़ए मौजूद थे। 
जो भी हो, महानगरों की क़िस्मत में वफा नहीं आतीं। हर आदमी यहाँ पैसे कमाने आता है और पूरे के पूरे महानगर को ख़रीदार की नज़र से तौलता है। लगातार इसी किस्म की सोच का सामना करतेकरते महानगर भी इसी रास्ते पर दूर तक आगे बढ़ता जाते हैं।उसने गहरी सांस ली। 
आज ना जाने क्या हो गया है उसे, यादों की गलियों से वह जितना बाहर निकलना चाहती है उतने ही उसके कदम उन गलियों में ओर अंदर बढ़ते जा रहे हैं। वह यादों के दलदल में धंसती जा रही थी।
काम ठीकठाक चल निकला था। अशफ़ाक ख़ूब मेहनत कर रहा था। पीछे घर में अब्बू से बातचीत हो जाया करती थी पर उसने अम्मी से बोलचाल बंद कर दी थी। उसने अम्मी को माफ़ नहीं किया था। कर ही नहीं सकती थी। उनके कुसूर बढ़ते जा रहे थे। वह अपनी ज़मीन पर अपने लोगों के बीच रह रही थीं। उन्होंने अकेलापन नहीं जीया था। पराई धरती पर जा कर अजनबियों के बीच पहचान बनाने की जंग में हारने, थक कर चूर हो जाने को कहाँ जानती थीं वो। उपर से जब कभी यहाँ के माहौल से थक कर कुछ दिनों के लिए घर लौटना चाहा, अम्मी को हमारे वहाँ जाने से ना जाने क्या परेशानी थी। इस बार उन्होंने अशफ़ाक को समझा दिया था कि जहाँ आधी से जियादा बार कर्फ्यू लगा रहता है वहाँ रह कर हम क्या कमाएंगे और कैसे अपनी बच्ची को पढ़ाएंगे। उनका मानना था कि हालात जल्दी ठीक होते नहीं लग रहे, हमें कोई इंतजाम करना चाहिएऔर अशफ़ाक ने इंतजाम कर लिया।इंतजाम के बारे में सोचते हुए उसके माथे पर बल पड़ गए।
पहाड़ के लोगों के लिए मैदानी इलाकों की गरमी, सहन करने लायक नहीं होती। शरीर का धूंआँ हो जाया करता था आज भी कमोबेश वही हाल है…’ वह बड़बड़ाई।
ये कारोबार शुरू ना किया होता तो मुश्किल हो जाती। यही रोटी दे रहा है और नाम भी। जितनी पहचान है, सब इसी से है।वह अब अक्सर शुक्रगुजार रहती उस एक लम्हे के लिए जब उसने यहाँ आने की हामी भरी थी।
कितना पसीना बहाया था दोनों ने कारोबार जमाने में! अब्बू की पहचान के लोगों ने थोड़ीबहुत मदद की थी मगर बाक़ी का सफर उन्हें ख़ुद पूरा करना था…’ उसे संघर्ष वाले दिन याद गए। 
सुबह की भागदौड़ के बीच से दो निवाले खा कर घर से निकला अशफ़ाक दिनभर की दौड़भाग के बाद शाम ढ़ले थकान से चूर एकदम बेदम सा लौटता। जबकि दिन भर अकेली वह बिना किसी मदद के अपने दम पर घर और अपनी बच्ची सम्हालने के साथ कश्मीर से आए सामान को अलगअलग करके सब पर क़ीमत के टैग लगाती। अलगअलग जगह भेजने के हिसाब से सामान की गड्डियां बनाती। पढ़ाई के दौरान वह जिस शहर में रही थी वहां के लोगों की पसंद कुछकुछ समझती थी। यह अनुभव उसके काम आया। दिल्ली वालों के मिज़ाज का सामान अलग और बाहर भेजने का सामान अलग करतेकरते थक कर टूट जाया करती थी। उन दिनों की शामें थकान से बेदम और सुबहें, लिस्ट के हिसाब से सामान का सैंपल दिखाने, माल भेजने की जद्दोजहद में बीत रही थीं।उसने आंखें खोली, आसपास नज़र दौड़ाई वह अपने घर में ही थी। ख़ुद से कहना चाहती थी किवो दिन बीत गए हैं पगली अब तो तुम्हारा नाम है, अपनी पहचान है!’ मगर ऐसा कह नहीं सकी।
वो अलग तरह की मशक्कत वाले दिन थे और आज के संघर्षउफ़!’ उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। वह जानती है कि उन दिनों उस वक़्त के हालात  उसे कठिन लगते थे और आज उसे अपना वर्तमान जीवन जटिल लग रहा है। उसे मालूम है कि बीते दिनों जो कठिनाईयां उन्हें आगे बढ़ने से रोक रही थीं, आज बहुत पीछे छूट गई हैं वही हाल आज की पेचीदगियों का होने वाला है। हालात एक जैसे कभी नहीं रहते। बदलते वक़्त के साथ हालात भी बदल जाएंगे मगर तब तक
रटारटाया सामान लेने में लोग मोलभाव बहुत करते हैं। कंपीटिशन इतना है कि क़ीमत निकालना मुश्किल होता जा रहा है।अशफ़ाक हर बार इसी तरह की शिकायत करता।
कुछ नया बनवाना चाहिए।
पशमीना तो पश्मीना है इसमें नया क्या बनाओगी?’  उसकी बात सुनकर अशफ़ाक ने जो सवाल किया उस वक़्त तक वह जायज़ भी था। 
मसलन मैं डिजाइनर शॉल बनवा कर देखूँ, शायद बात बन जाए।सूखी नदी में जैसे कहीं से बरसात का पानी गया था। ऐसा लग रहा था जैसे पहाड़ों में बेहिसाब पानी बरसा है जो मैदानी नदी को पानी से लबालब किए जा रहा है।
पहलेपहल उसने पशमीना स्टॉल पर महंगी पारदर्शी लेस लगवाने से शुरूआत की थी। दिल्ली के अमीर तबक़े में अलगअलग तरह की लेस से सजे स्टॉल हाथोंहाथ बिक गए। उसका हौसला बढ़ा इससे आगे बढ़ कर उसने शॉल पर भी ऐसा ही कुछ शुरू किया था। एक्सपोर्ट करने की नौबत ही नहीं आई जितना माल तैयार करवाती, सब अगले ही एग्जीबिशन में ख़त्म। अब उसे कुछ नया करना था और उसने किया भी। दोनों ने मिलकर जो सपने देखे थे, अब साकार होते हुए लग रहे थे। उसने उम्दा क़िस्म की मखमल पर पंजाब से तिल्ले के काम के बार्डर बनवाए और उन्हें पशमीना शॉल पर लगवाया। दो ख़ूबसूरत चीज़ें एकदूसरे के साथ मिलकर जैसे मुंह से बोल पड़ी थीं। बेजान कपड़े बातें करने लगे। उसने मार्केटिंग पर भी ख़ास ध्यान दिया था। पंजाब की कशीदाकारी को कश्मीर के कारीगरों की मेहनत से मिला कर नया नाम दे दिया था। उसने धागों और मखमल को अलगअलग राज्यों से मंगवाने का बारीक विवरण भी हर शॉल पर क़ीमत के टैग पर लिखवा दिया था। एग्जीबिशन में भी वह अपने ग्राहकों को शॉल से जुड़ी  महीन से महीन जानकारी देती। इस तरह भारत के बड़े हिस्से के कारीगरों को आपस में जोड़ देने से उनका एकएक शॉल देस और परदेस में मुहँ माँगी क़ीमत पर बिकने लगा था। साऊथ दिल्ली के अमीरों में उठनाबैठना हो गया था सब कुछ कमाल का चल रहा था।उसके चेहरे पर एक ख़ूबसूरत सी मुस्कुराहट कर बैठ गई। इस पल में उसके चेहरे से संघर्ष के निशान गायब हो गए थे। 
अम्मी और अब्बू जीभर कर दुवाएं देते थे। बच्चों की कामयाबी से जो ख़ुशी उन्हें मिल रही थी उसके साथ हमवतन लोगों को अपनी धरती पर रहकर आतंकवाद से दूर रखने में बेटी और दामाद जो काम कर रहे थे, उससे दोनों का कलेजा ख़ुशी से लबालब भर गया था।
मेरी बच्ची, तुमने अपने लोगों को रोजगार दिया है। तुम्हारी वजह से बीसियों घरों में चूल्हा जलता है। कितनी दुवाएं रोज़ तुम्हें मिलती हैं।अब्बू अक्सर कहते। अम्मी से बातचीत इस तरह हो जाया करती थी कि उन्होंने उसके भेजे डिजाइन देख कर अलगअलग रंग की मखमल और लेस लगवाने का सारा जिम्मा अपने उपर ले लिया था। माँबेटी के बीच एक पुल तो बन गया था मगर उस पुल के नीचे की गहरी खाई अब भी मौजूद थी।उसके मुंह का स्वाद कसैला सा हो गया।
मेरी बच्ची, जो मैने किया वो सोचसमझकर किया था।जबजब वह इस तरह की बात शुरू करतीं, ज़ीनत फोन काट देती। मन तो उसका आज भी अपनी धरती पर लौटने को करता था मगर हर बार अम्मी की एक ओरनाउसका मन तोड़ देती।
इस बार की गर्मियों में हम कुछ दिनों के लिए अपने घर जाएंगे।हर बार की तरह इस बार भी उसने अशफ़ाक से घर की याद में तड़पते हुए कहा।
मैं तो आज चल पडूँ पर तुम्हारी अम्मी हमें वहाँ देखना ही नहीं चाहतीं।अशफ़ाक ने चिढ़ कर कहा था। वह भी यहाँ की जिस्म जलाती गर्मियों से दूर कुछ दिन छुट्टियाँ बिताने के लिए वादी में जाना चाहता था मगर अब उसका वहाँ कोई नहीं था। जाना था तो ज़ीनत के परिवार की रजामंदी ज़रूरी थी यही बात उसे अक्सर गुस्सा दिलवा देती थी।
कई बार ऐसा भी हुआ कि अकेले अशफ़ाक ने बिजनेस के सिलसिले में जाने का फैसला किया मगर अम्मी के सामने उसे हथियार टेकने पड़े। असल में यहीं से उसके मन में अम्मी के लिए चिड़चिड़ाहट शुरू हुई थी।
एकदो बार ऐसा भी हुआ था कि दोनों ने साथ जाने का कार्यक्रम बनाया और ऐन रवानगी वाले दिन समाचारों ने वादी में कर्फ्यू की ख़बर दी। दोचार बार तो अम्मी नेहालात बेकाबू हैं‘, कह कर उनका जाना रूकवा दिया था।‘ 
दस साल हो गए हैं ना हमें आए, ना आपका मिलने को मन हुआ। आपका हमसे मिलने का मन नहीं होता तो ना सही, पर हम रहे हैं।उसने पहले ही कह दिया था।
इस बार जो मर्ज़ी हो जाए कोई ताक़त मुझे रोक नहीं सकती, मैं रहा हूँ।अशफ़ाक को किसी से बात करता सुन ज़ीनत को अच्छा लगा था। कहने को परिवार में अपना तो कोई नहीं था उसका पर दूरपास के कई लोग थे।
ज़ीनत आप ख़ुद जा रही हैं तो कुछ बहुत ख़ास ही बनवाया होगा जिसे देखपरख कर लाएंगी।हर बार की तरह इस बार भी उसके नए डिजाइन का इंतजार हो रहा था। वह भी तो कुछ ख़ास ही करने वाली थी।  हवाई जहाज़ से बाहर निकलते हुए ही उसे अपनी मिट्टी की ख़ुशबू हवाओं में लिपटी हुई मिली। उसका रोमरोम थिरकने लगा था। अपनी मिट्टी, अपने लोगअम्मी ने इतने बरसों बाद बेटी के घर आने की तैयारी कुछ ख़ास डिजाइन के साथ कर रखी थी।कहवा का कप उसने टेबल पर रखी ट्रे में रख दिया। दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था मगर जिस तेज़ रफ़्तार घूमते पहिए में वह चकरघिन्नी सी घूम रही है, तीन वर्षों से उस पहेली से बाहर नहीं सकी इसीलिए हर बार यहाँ तक पहुंच कर वह और उसकी सोच बेबस हो जाती है।
वह वापस लौट आई थी उस ज़मीन पर जिसने उसे रोटी के साथ नाम और शोहरत भी दी थी और इस बार साथ में लाई थी अपना नया स्टॉक। कश्मीरी कढ़ाई वाली सुंदर साड़ियाँ जिन पर उसने अलग से भी काम करवाया था। ख़ूबसूरत रंग और कढ़ाई वाली साड़ियों ने एक बार फिर लोगों को उसका मुरीद बना दिया। सब अच्छा चल रहा था। इस परदेसी शहर में हाड़ तोड़ मेहनत और ईमानदारी के काम ने उन्हें अपनी पहचान दी और इस बार से घर वापसी के रास्ते भी खुल गए थे। बेटी स्कूल जाने लगी थी इसीलिए उसका आनाजाना कम ही होता था मगर अशफ़ाक के चक्कर लगने लगे थे। उसकी पहचान का दायरा वहां भी फलफूल रहा था। नएनए नंबरों से उसे फोन आने लगे थे। नंबर सभी तरह के थे जिनमें देसी भी थे और परदेसी भी। कभीकभी उसकी बात ख़ूब लंबी चलती और कभी शुरू होते ही ख़त्म हो जाया करती थी।
उसने अपना सिर, कुर्सी के सिरहाने पर टिका दिया जैसे सारी परेशानियां उस बेजान लकड़ी पर उंड़ेल देना चाहती थी। कुछ देर यूं ही पड़ी रहने के बाद साइलेंट मोड़ पर पड़े मोबाइल फोन को उठा कर देखा, अम्मी की मिस्ड कॉल थी। कश्मीरी कारीगर की और एक पंजाब वाले कारीगर का फोन भी आया हुआ था। एक्सपोर्ट का काम सम्हालने वाले वाले बंदे के कई फोन थे। इतने सारे फोन के जवाब में उसने सिर्फ एक फोन किया, ‘आदाब अम्मी!’
अम्मी ने अशफ़ाक की दिल्ली से रवानगी से पहले कहा था, ‘कर्फ्यू जैसे हालात हो रहे हैं। इस वक़्त उसे कश्मीर जाने का फैसला टाल देना चाहिए।अशफ़ाक ने अम्मी का फोन रखते ही अपने किसी पहचान वाले नंबर पर फोन किया। बात ख़त्म करके उसने ज़ीनत को गले लगा कर और बेटी के माथे को चूम कर विदा लेते हुए कहा था, ‘सब ठीक है तुम्हारी अम्मी को या तो बेवजह फिक्रमंद रहने की आदत हो गई है या वो, मुझे वहाँ देखना नहीं चाहतीं।उसकी आवाज़ में खीझ थी।
जी अम्मी।ख़ामोशी को तोड़ने के लिए ज़ीनत ने दोबारा कहा।
मुझे माफ़ कर देना मेरी बच्चीआज तीन साल बाद ख़बर आई है…’ इतना कह कर अम्मी ख़ामोश हो गईं।
अब क्या ख़बर है अम्मी?’
कुछ लोग ज़िन्दगी भर अपने उसूल नहीं बना पाते। उन्हें अच्छेबुरे का फर्क़ समझ नहीं आता। सुख और चैन की ज़िंदगी उन्हें रास नहीं आती।
आप कहना क्या चाह रही हैं?’
मुझे हमेशा उसकी सोहबत पर शक़ रहता था। जब तुम्हारे निकाह का फैसला किया गया, मैने समझाने की कोशिश की थी मगर जोइंट फेमिली में घर की बहू की कौन सुनता? वैसे भी तुम्हारे अब्बू के सामने कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं होतीकिसी तरह तुम्हें दिल्ली पढ़ाई के लिए भिजवा सकी थी। यहाँ उसकी दोस्ती जिस तरह के लोगों से थी, उनसे दूर करने के लिए उसे अरब भेजा गया था। सुना था कि वहाँ भी उसकी सोहबत ठीक नहीं थी मगर जब निकाह के बाद तुम दिल्ली चले गए, कुछ सुकून मिला था। लगता था कि अपने यारों को भूल जाएगा। जबजब उसने यहाँ आना चाहा, मैने बताया कि कर्फ्यू लगा है। कभी सच तो कभी झूठ बोलाउस दिन झूठ ही तो बोला था।अम्मी इतना कह कर ख़ामोश हो गईं।
अब नई बात क्या हुई है इसमें?’
आज तक हम यही अंदाज़ लगा रहे थे कि वो मासूम ज़रूर किसी फौजी इनकाउंटर का शिकार हो गया होगा…’
अम्मी, पहेलियाँ बुझाना बंद करें और ये बताएं कि हुआ क्या है।‘?’ पिछले तीन सालों से ज़ीनत भी इंतजार करकरके थक चुकी थी।
उसने मेरी बात नहीं मानीपहली बार मुझसे बद्ज़ुबानी कीउसने नज़रों का, सलीक़े का और अदब का कर्फ्यू तोड़ाख़बर पक्की है कि वो गुमशुदा नहीं हुआ था और ना ही उसका कोई इनकाउंटर हुआ बल्कि वो ख़ुद ही सरहद पारदोनों ओर खामोशी छा गई। मौत जैसी ख़तरनाक और कर्फ्यूमई ख़ामोशीइस बार सच्चाई के रोड़ीबजरी से माँबेटी के बीच की खाई भर गई।
ज़ीनत तुम अकेली वहाँ क्यूँ रहोगी अब? लौट मेरी बच्चीअपनी मिट्टी में आजा।आँसुओं की भाप के बीच आख़िर माँ ने बेटी को उसकी मुरादों की ज़मीन पर वापस आने की इजाज़त दे ही दी।
नहीं अम्मी, अब वापसी मुमकिन नहीं।
सोच लो ज़ीनत। हो सकता है कि कल वो तुम को मोहरा बनाने की कोशिश करे। दहशतगर्दों की पहली पसंद दिल्ली ही होती है।माँ ने बेटी को आगाह किया।
हूँ…’ वह अपने और अपनी बच्ची के भविष्य के बारे में सोच रही थी।
और फिर उसके बाहिर जाने की ख़बर हमसे पहले सरकार को लग गई होगी। तुम पर भी नज़र रखी जाएगी। उस परदेस में अकेली कैसे रहोगी तुम?’ माँ का कलेजा बुराई की तस्वीर बनाबनाकर ड़र रहा था।
अम्मी, अब यही मेरा वतन है और जिनसे तुम ड़रने की बात कह रही हो, उनसे ड़रने की ज़रूरत मुझे नहीं है। असल में जब हमें ये ख़बर मिली है, जब तक मैं पहले ही सुरक्षा एजेंसियों की नज़रों में चुकी हूँ। ये लोग मेरी हिफाज़त करेंगे। ड़रना तो उसे है जो अब मुझसे जुड़ने की कोशिश करेगा।ज़ीनत ने फोन रख दिया। कुछ देर चुपचाप कुर्सी पर बेमक़सद सी बैठी रहने के बाद उसने मोबाईल उठा कर फिर से वही नंबर डायल किया।
अम्मी, इतने सालों तक आप मुझसे माफ़ी माँगती रहीं, असल में माफ़ी तो मुझे मांगनी चाहिए। आपको समझने में जो ग़लती मैने की, उसके लिए और तमाम बेअदबी के लिए आप मुझे माफ़ कर दीजिए। इतने लंबे समय तक आपको ना समझने के लिए मैं माफ़ी चाहती हूँ।दूसरी ओर से जो कहा गया होगा उसे सुनकर ज़ीनत के माथे पर उभर आई लकीरों की गहराई कुछ कम सी लगी। उसने फोन रख दिया। इस बार दोनों ओर से कर्फ्यू हट गया था।
वन्दना यादव
वन्दना यादव
चर्चित लेखिका. संपर्क - [email protected]
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5 टिप्पणी

  1. वन्दना यादव जी की कहानी कर्फ्यू पढ़ी भाषा और शैली के हिसाब से अच्छी भी लगी। पर दो बातें समझ नहीं आईं कि माँ साफ़-साफ़ बेटी को क्यूँ नहीं बता पाई उसके होने वाले शौहर के बारे में?दूसरी बात अशफ़ाक अपनी सास के मना करने पर 10 साल तक काश्मीर नहीं जाता पर ऐसे लोग कभी रोकने से रुके हैं?
    —-ज्योत्स्ना सिंह

  2. काफी अच्छी कहानी है वंदना जी! वैसे भी आपको पढ़ना अच्छा लगता है. आपकी श्रृंखला का तो इंतजार है। शायद आपका उपन्यास पूरा हो गया हो।
    मां के प्रति बेटी का व्यवहार अनजाने में ही दुराभावों से भरा था।
    अंत में यह बात समझ में आई कि उम्र कच्ची होने के कारण माँ बच्ची को यह बात बता नहीं सकती थी और अशफाक से विवाह को रोकने की क्षमता भी उसमें नहीं थी सामूहिक परिवार और पति की वजह से। इसीलिए वह चाहती थी कि बेटी को बाहर पढ़ने भेजा जाए। और वह सक्षम बने ताकि अपने हिस्से के दुख को भोगने की ताकत उसमें रहे।
    “क़ीमत औरतों को ही चुकानी होती है… मैं अभी से तैयारी शुरू कर दूं।‘ अम्मी के ये शब्द मेरे वज़ूद पर हावी होने लगे थे। अगर वो जानती हैं कि क़ीमत चुकानी होगी तो उस रास्ते मुझे भेज ही क्यों रही हैं? यही सोचती रही थी कितने वर्षों तक।”
    इस कथ्य का राज बाद में खुला। और उसके बाद पछतावा ही हाथ में रहा।
    अपने बच्चों के प्रति माँ का समर्पण सिर्फ माँ ही समझ सकती है।
    अशफाक का10 साल तक ससुराल नहीं जाने का कारण हमें संदेहास्पद नहीं लगा। इस क्षेत्र में बहुत सारी संभावनाएं रहती हैं। शायद वह यही चाहती थी कि अशफाक भी ना आए क्योंकि वहां जाने से उसकी जान को भी खतरा रहता।
    इस तरीके की घटनाएं बड़ी संवेदनशील होती है और बहुत तकलीफ दे जाती हैं। मां की मजबूरी थी कि बेटी को कह नहीं पाई और बेटी ताउम्र उनसे नफरत करती रही।
    इस तरह की घटनाओं की सच्चाई जब अंत में सामने आती हैं तो पछतावे की सिवा कुछ नहीं रह जाता।
    कहानी में एक माँ की पीड़ा महसूस हुई ।

  3. वंदना जी सशक्त कहानी लिखी है आपने। बहुत से प्रश्न भी उठाती है आपकी कहानी। साथ ही साथ माल की मजबूरी और उसकी ममता के कवच की विशालता भी दर्शाती है। शुभकामनाएं।

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