Tuesday, September 17, 2024
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विनीता शुक्ला की कहानी – सांसों के तार

अनुपमा जी किसी भांति, खुद को सहेजते हुए, बिस्तर से उठीं. पाँव बेतरह लड़खड़ा रहे थे. मन नैराश्य के भाव से, विदीर्ण हुआ जा रहा था. 
प्रकृति का वैभव, मानों,  उनकी मनोदशा से असंपृक्त, अपनी माया, बिखेर रहा था. नई उषा. दिशाओं को, अपनी आभा से, नहला रही थी. सूरज की गागर, प्राण- ऊर्जा छलकाने लगी; पर उनकी जिजीविषा सुप्त और मन उखड़ा- उखड़ा! अभी कल शाम को ही तो, वह मुँहफट छोकरी आयी थी- फेरीवाली पुष्पा. उनको कुछ बोलने का, मौका कहाँ दिया, बावरी ने! रंगबिरंगे धागे, हाथ में थमा दिए. कहने लगी, दादी, हम कितना आवाज दिए रहे, आपका. जै बार, हियाँ ते गुजरे; ‘दादी दादी’ चिल्लात रहे…आप त सुनबै नाहीं किहिन!
और कोई दिन होता तो वे, पुष्पा की तनी हुई भृकुटी देख, उसे घुड़क देतीं; किन्तु आज मानों जबान पर, ताला पड़ गया था! लड़की अचकचाकर बोली, जौन नीक लागे, ओहिका धर लिहौ. रेजगारी नहिन… त कउनो बात नाहीं…बादै मा लइ लेब उन्होंने बिना मोलभाव किये, तटस्थ भाव से, सारे धागों का, पैसा चुका दिया. पुष्पा उनकी दशा देखकर, हैरान थी किन्तु उसने, बिना कुछ कहे- सुने, वहाँ से, निकल जाना ही बेहतर समझा. उसके जाने के बाद, उनके अंतस का बंध, टूटकर बह निकला. 
सिसकियों और हिचकियों के बीच, निरंतर अश्रुधारा, उनके चेहरे को भिगो रही थी. कैसे बतातीं, पुष्पा को… कि जिस कलाई के लिए, राखी ले रही थीं- वह समय की चिता में, जलकर भस्म हो चुकी थी! पुष्पा कितने चाव से, उनके लिए छांटकर, रक्षा- सूत्र लाई थी…उसे, उनकी पसंद मालूम थी- सीधे- सादे, सौम्य रंगों वाले धागे! हर साल, उससे ही तो खरीदती आई थीं; इसी से, मना करते नहीं बना. 
उन्होंने अपना सेल- फोन, चार्ज से हटाया तो हठात ही उँगलियाँ, फोटो- गैलरी, खंगालने लगीं… पिछले साल की तस्वीरें- एक से बढ़कर एक! रक्षाबन्धन पर, वे जिग्नेश भैया के हाथ को, स्नेह- बंधन में, जकड़ती हुईं…उनके चौड़े माथे को, हल्दी- कुमकुम के तिलक से, सजाती हुईं…उनका मुँह मीठा करवाती हुईं; भैया की गहरी आँखें- जिनमें प्रेम की अजस्र, संजीवनी- धारा बहती थी…! वे कहते थे, पगली, तुझे बात- बात पर, मेरी सलाह चाहिए…देख अनु! कल को मैं न रहूँ तो तेरी ज़िन्दगी रुकनी नहीं चाहिए…खुद पर भरोसा रखना सीख..अपने निर्णय खुद, लिया कर. कुछ भी हो जाए; हर हाल में… आगे तो बढ़ना ही पड़ता है. 
वे बुदबुदाईं, कैसे ‘मूव ऑन’ करूँ भैया…जब तक आप थे…सर पर किसी बड़े का साया था; अब मैं बिलकुल अकेली पड़ गयी…अनाथ हो गयी हूँ! कहकर वे फिर से, फफक पडीं! उनकी आयु, खुद ७० से ऊपर हो गयी, किन्तु भैया के लिए तो छोटी बच्ची ही थीं. जब उनके बच्चे, सात समुन्दर पार, जा बसे; पति बीमार होकर, काल- कवलित हुए; ससुराल में संपत्ति का विवाद हुआ…उन तमाम उतार-चढ़ावों के बीच, भैया का साथ, हमेशा से था. वे भी उनके सुख- दुःख में, भागीदार रहीं. हालाँकि उन दोनों की, छोटी बहन सुवर्णा, फोन और वीडियो- कॉल के माध्यम से, सम्पर्क में रहती थी; परन्तु वह विदेश में थी; इसलिए उन्हें, उसका आसरा नहीं था. सुवर्णा की भेजी हुई राखी भी, अनु ही, बड़े भाई को, बांधती थीं. एक ही शहर में रहने के कारण, यह सिलसिला, बना रहा.
उनको भैया की बात याद आई- ‘हर हाल में आगे बढ़ना है’ …और फिर…आज का दिन तो भाई के ही नाम था! यह दिन, उन्हें, अपने भैया की याद में, यादगार बनाना था. इस सोच ने उन्हें, शक्ति प्रदान की. उन्होंने अपने आँसू पोंछे. दैनिक कार्य निपटाए. ‘आज भैया की, मनपसन्द मिठाई बनाकर, भगवान को, उसका भोग लगाऊँगी’ – ऐसा संकल्प किया. मीठा बनाते हुए, उनके हाथ, तेजी से चलने लगे. रसोईं का काम निपटाकर, अनु जी ने, बगीचे से, ताजे फूल तोड़े; पास वाली सुपरमार्केट का, नम्बर मिलाया और मंदिर के चढ़ावे हेतु, नारियल व फल मंगवाए. ऑटो बुलाकर, जब वे, मन्दिर के लिए, निकलने लगीं तो सहसा उनकी दृष्टि, पुष्पा की लाई हुई, राखियों पर पड़ी. कुछ सोचकर, उनको भी अपने बैग में, रख लिया. 
ऑटो के पहियों के साथ, मन भाग रहा था और स्मृतियाँ भी! जिग्नेश भाई के जाने के बाद, उनका बेटा भी, शहर छोड़कर, चला गया. पुश्तैनी मकान में रहने के, उसके लिए, कोई मायने, नहीं रह गये थे. जब तक भैया थे- उस मकान का वजूद था…उनका लिहाज कर, वह भी, वहीं टिका हुआ था; अपनी मेडिकल- प्रैक्टिस तो, कहीं से भी चला सकता था. भतीजा और उसका परिवार, आज यहाँ होता तो अनुपमा भी, कुछ सार्थक पल, उनके साथ गुजार लेतीं…उनके धागों को बाँधने के लिए, कुछ कलाइयाँ मिल जातीं और मिठाई खाने वाले, कुछ आत्मीय! उन्होंने ठंडी साँस ली. भैया, पर्यावरण- प्रेमी थे. जब कोविड महामारी का प्रकोप, चहुँ ओर छाया हुआ था; भाई अक्सर, फोन पर, बातचीत किया करते थे. वे कहते, इस महामारी के लिए, इंसान ही जिम्मेदार है; हर तरफ बढ़ती जनसंख्या… बदलती जीवनशैली से हुआ जलवायु- परिवर्तन. अब ग्लोबल- वार्मिंग को ही लो. इसी वजह से, रोगाणुओं और रोग फ़ैलाने वाली, प्रजातियों में, बढ़ोत्तरी हुई है. कितने ही कारण हैं अनु…! कहाँ, कहाँ तक गिनाऊँ! लोग मांसाहार नहीं छोड़ते…इसके कारण, संक्रमण की संभावना, बनी रहती है.
वह कभी कभी उनकी, बातों से उकता जाती तो बोलते, इसे हलके में मत लो बहन…तुमने भी, गैरजिम्मेदार तरीके से, काम किया है. मुझे पता चला कि तुमने, घर के सामने वाले, फुटपाथ का; पेड़ कटवाकर, उसे पक्का करवा दिया है. तुम्हें पता है, पेड़ हमारे रक्षक हैं और हमारे पर्यावरण के संरक्षक.
 पर भैया…उस पेड़ के पत्तों का, बाउंड्री के अंदर, ढेर लग जाता था…रोज साफ- सफाई करनी पडती थी. और फिर, आप तो जानते हैं; वह अमरुद का पेड़ था. शरारती लड़के, गुलेल से पत्थर चलाते थे; कभी डालियों पर चढ़कर बैठ जाते तो कभी अधखाये अमरुद, बिखेरकर चले जाते…वानर- सेना भी जब- तब, डेरा जमा लेती थी.
तो क्या? तुम पेड़ के आसपास, काँटों की झाड़, लगवा सकती थीं! और तुम्हारा वह चौकीदार…! उसे क्या, ऊंघने के लिए, रखा है?!
सॉरी भैया…गलती हो गयी! आगे से ध्यान रखूँगी. वे जानती थीं कि भाई, सॉरी कहने पर ही रुकेंगे! ऐसे पर्यावरण- प्रेमी को, पर्यावरण- असंतुलन ही ले डूबा! वे कोरोना महामारी का, ग्रास बन गये थे. ऑटो ने ब्रेक मारा तो अनुपमा जी की तन्द्रा टूटी. जैसे ही वे, सारा साजो- सामान, लादे हुए, उतरने लगीं; ऑटो वाले ने हाथ पकड़कर, सहारा दिया. वे मन में मुस्कराईं. अभी दुनिया में, इतनी नैतिकता है कि कोई बुजुर्ग लड़खड़ाए तो लोग संभाल लेते हैं. 
मंदिर वाले पुजारी जी, उनको पहचानते थे और भैया को भी. जिग्नेश जी के, देहावसान के पश्चात, दिवंगत आत्मा की शांति हेतु; हवन, उन्होंने ही किया था. गूगल- मीट के जरिये, रिश्तेदारों को, उस शांति- यज्ञ से, जोड़ा गया था. अनुपमा को देखकर, करुणा और सहानुभूति की छाया, उनके नेत्रों में, झलक उठी. अनु जी की, पूजा- सामग्री, उन्होंने ही, भगवान को अर्पित की. अनुपमा ने वहाँ, हर छोटी- बड़ी मूर्ति के चरणों में, एक- एक राखी रखकर, हाथ जोड़ लिए. यह देख, पुजारी जी की आँखें, नम हो गयीं. अभी भी एक धागा, अनु जी के पास, बचा हुआ था. उसका क्या करें; सोच नहीं पा रही थीं. 
एकाएक उनकी दृष्टि, मंदिर के कोने वाले, पीपल के वृक्ष पर पड़ी. उसे देख, भाई की बात, मन में कौंध गयी, अनु…पीपल का पेड़, हमें २४ घंटे, प्राणवायु देता है. ईश्वर की तरह, यह हमारा, पालन- पोषण करता है. पर्यावरण- संरक्षण के लिए, इस वृक्ष का संरक्षण, बहुत जरूरी है. भैया पर्यावरण- दिवस पर, स्वयं, इसी पीपल को, राखी बांधते थे. अनु जी ने, आगे बढ़कर, पीपल की डाली में, वह धागा बाँध दिया और आँखें मूंदकर प्रार्थना की कि उनके भैया जहाँ भी हों; सकुशल रहें. पुजारीजी को उन्होंने, कुछ नहीं बताया था किन्तु वे उन्हें, उस दैवीय वृक्ष को, राखी बांधते देखकर; बिन कहे, बहुत कुछ समझ रहे थे. वे अनु जी के समक्ष, नतमस्तक हो गये.
अनुपमा जी का दिल, अब हल्का हो गया था. सुबह की भाँति, मन पर, कोई बोझ नहीं था. उनके लिए, एक सुखद आश्चर्य, अभी बाकी था. सुवर्णा का वीडियो- कॉल आया था. लैपटॉप की स्क्रीन पर, उसे देख, राहत महसूस हुई. वह गंभीर होकर पूछ बैठी, क्यों दी? भाई के बारे में सोचकर, आँसू बहा रही थीं?! जवाब में उनके, बोल नहीं फूटे. छोटी बहन ने उनकी दुखती रग, छेड़ दी थी. वे फिर से, भावुक होने लगीं!
सुवर्णा, जबरन मुस्कराते हुए, बोली, कम ऑन दी…अपने दुःख से, बाहर निकलने की, कोशिश करो. आज के दिन, दुखी रहोगी तो भैया की आत्मा को भी, कष्ट पहुँचेगा 
सच कहती हो छोटी…किन्तु तुम भी तो दुखी हो…यह तो, जीवन भर का दुःख है
दी मैंने इसे कम करने का, एक उपाय सोचा है 
वह क्या??
अगली बार से हम दोनों, एक- दूसरे को, राखी बाँधा करेंगी…एक- दूसरे का सहारा बनेंगी
यह तो तूने, बहुत अच्छा सोचा, कहते हुए ख़ुशी से, उनकी आँखें, छलकने ही वाली थीं
दी, यह कभी मत सोचना कि तुम अकेली हो. मैं तो बच्चों को भी, तुम्हारा उदाहरण देती हूँ; यह कि तुम, कितनी बहादुर… कितनी होशियार हो!
बस, बस…अब मक्खन मत लगा. तू तो भाई की तरह, सयानी हो गयी है. वे अब, मुस्कराने लगी थीं. 
एक और बात दी…हमारे बच्चे हमको, मनचाहा समय, नहीं दे पाते; लेकिन हम तो, एक- दूजे को, समय दे सकती हैं. साथ रह सकती हैं…
बिलकुल सही कहा छोटी…जब चाहे, यहाँ आकर, रह जा…बल्कि यहीं रह जा, मेरे संग, हमेशा के लिए!
आऊँगी दीदी, साथ मिलकर, खूब मस्ती करेंगे…बचपन वाली मस्ती सुवर्णा मानों, बचपन में ही, पहुँच गयी थी! वह आगे बोली, दी तुम भी आना…बच्चे बहुत याद करते हैं, तुम्हें!
जरूर आऊँगी…जल्दी ही आऊँगी वे अभिभूत होकर, कह उठीं. दोनों बहनों ने, ‘शुभरात्रि’ के साथ, वार्तालाप बंद किया. 
अनु सोचने लगीं कि छोटी तो उनसे पहले ही, विधवा हो गयी थी…तभी इतनी, परिपक्व हो गयी है. जो भी हो, आज रक्षाबन्धन का दिन, सार्थक हो गया था. उन्हें लगने लगा था, भैया का, स्नेह भरा, अदृश्य हाथ; अभी भी, उनके सर पर था कि अभी भी सांसों के तार, कहीं न कहीं, उनकी रूह से, जुड़े थे!

विनीता शुक्ला
प्रकाशित कृतियाँ –
१- अपने- अपने मरुस्थल (कहानी संग्रह)
२- नागफनी (कहानी संग्रह)
३- एक्वेरियम की मछलियाँ(कविता संग्रह)
४- विविध पत्र- पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों (नामान्तर, निकट, व्यंग्य- यात्रा, राष्ट्रधर्म, उत्पल, विभोम- स्वर, उपनिधि, वनिता, जागरण सखी, मेरी सहेली, दि अंडरलाइन, शब्दांकन, विश्व हिंदी साहित्य, सोच- विचार, किस्सा- कोताह,कथारंग वार्षिकी)
 आदि में रचनाएं प्रकाशित
विशेष –
१- आकाशवाणी कोची के लिए अनुवाद कार्य
२- उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार प्रदत्त (सन् २००६)
३- विभिन्न पत्रिकाओं( मेरी सहेली, वनिता) द्वारा पुरस्कृत

४- ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा सितम्बर माह (२०१२) की सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
५- गद्य- कोश में रचनाएं संकलित
६ – २०१८ का साहित्यगन्धा कथा लेखिका सम्मान
७- आकाशवाणी लखनऊ से कवितायें प्रसारित (२३-८-१९)
८- प्रेरणा परिवार पुवायां द्वारा मैथिलीशरण गुप्त स्मृति सम्मान (२०२१) एवं मैत्रेयी सम्मान (२०२१) प्रदत्त
९- प्रखरगूँज प्रकाशन द्वारा लघुकथा प्रखर साहित्य सम्मान (२०२०) प्रदत्त
१०- विश्व हिंदी अकादमी मुम्बई एवं अबीर एंटरटेनमेंट द्वारा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता २०२०
में सम्मानित
११- चंडीगढ़ लिटरेरी सोसाइटी द्वारा आयोजित, वार्षिक लघुकथा प्रतियोगिता (२०२१) (हिंदी) की विजेता
१२- ‘विश्व पुस्तक मेला- २०२४’ में लोकार्पित कथा संग्रह ‘गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स में, कहानी ‘टीस ‘ संकलित
मोबाइल- (०) ९४४७८७०९२०
१३- आकाशवाणी कोचीन से, साक्षात्कार का प्रसारण
१४-‘द हिन्दू’(कोचीन)समाचार – पत्र द्वारा,  साक्षात्कार प्रकाशित
ई मेल – [email protected]
पत्राचार का पता- टाइप ५ /९ एन. पी. ओ. एल. क्वाटर्स, ‘सागर’ रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, पोस्ट – त्रिक्काकारा, कोची- ६८२०२१(केरल)
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6 टिप्पणी

  1. रक्षाबंधन के अवसर पर एक बहुत ही सुंदर और सार्थक संदेश देती कहानी।
    सब को सबक लेना चाहिए और नैराश्य को दूर कर जीवन को अपने और दूसरों के लिये सुखमय बनाएँ।

  2. बहुत मार्मिक कहानी है विनीता जी! सांसों के तार सांसो से ही जुड़े रहते हैं।अभी-अभी रक्षाबंधन गया है! हर रिश्ते की अपनी अहमियत है! भाई बहन भी एक दूसरे के पूरक होते हैं। सच कहा जाए तो सारे रिश्ते मानने से हैं।मानो तो सब कुछ ना मानो तो कुछ भी नहीं। एक उम्र के बाद यह चीजें ज्यादा तकलीफ देती हैं।
    छोटी बहन का अच्छा सुझाव था। छात्रावास में रहते हुए हम सब लोग भी फ्रेंड्स आपस में एक दूसरे को राखी बांध लेते थे। इस तरह त्यौहार मना लेते थे।
    अच्छी कहानी है बधाई आपको।
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया पुरवाई का आभार।

  3. किसी के जाने से दुनिया रूकती नहीं। इंसान को अपनी खुशियाँ स्वयं ढूंढ़नी पड़ती हैं। रक्षाबंधन पर पीपल के वृक्ष को राखी बांध कर जहाँ पर्यावरण का सन्देश दिया है वहीं बहनों का एक दूसरे को राखी बाँधने का निर्णय उस रूह से भी जुड़ाव दिखा रहा है जो इस दुनिया में नहीं है। अच्छी कहानी है सांसों के तार। बधाई विनीता।

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