Sunday, September 8, 2024
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योगिता यादव की कहानी – गंध

कभी-कभी कोई एक व्यक्ति आपके पूरे वजूद का हिस्सा हो जाता है। अपने ही वजूद को फेंटते आधी रात में नींद उचट गई है। बहुत देर तक करवटें बदलते रहने के बाद भी जब नींद नहीं आई तो मैं उठ बैठी हूं। मैंने साथ में लगा टेबल लैंप चालू किया है। उसकी नीली मद्धिम रोशनी में कमरा मदिर गति से जागने लगा है। अब हम दोनों की ही रात इसी रोशनी में कटेगी। वो सामने वाली तस्वीर देख रहे हैं, छोटे बच्चों के छोटे से झुंड वाली? उसमें बाएं से तीसरी लड़की जो नीले फ्रॉक में खड़ी है, वो मैं हूं। ये अभिनव के आठवें जन्मदिन की है। जन्मदिन की नुकीली टोपी लगाए कैसे शर्मा रहा है अभिनव और शर्माते हुए उसके दाएं गाल पर एक गड्ढा बन गया है। हम उस उम्र से दोस्त हैं, जब रस्सी पर सूखने के लिए टांगी गई साड़ी से हम घर बना लिया करते थे। काश कि सचमुच के घर भी इतनी ही आसानी से बन जाते। 
कॉलोनी के बच्चों का हमारा पूरा एक समूह था। दिन भर धमा चौकड़ी मचाने वाला, साथ-साथ स्कूल और ट्यूशन जाने वाला। शाम को पार्क में एक साथ खेलने वाला। जैसे-जैसे बड़े होते गए समूह छंटता गया। पर मुझे अभिनव ने छूटने नहीं दिया। जब हम दोनों सातवीं कक्षा  में थे, तब पापा का तबादला देहरादून हो गया था। पूरे परिवार के साथ मुझे भी वहां जाना पड़ा, पर अभिनव की चिट्ठियां लगातार आती रहीं। और उन दो साल उसने अपना जन्मदिन मनाया ही नहीं। आखिर हम यहां वापस लौट आए। 
अब भी कहीं जाना होता है, तो मैं अभिनव की बाजू पकड़ कर चल पड़ती हूं। उसकी नीली आंखों में मेरे लिए दुनिया की खिड़की खुलती है। नीला रंग उसे इतना पसंद है कि हमारी ज्यादातर तस्वीरों में मेरे कपड़ों का रंग नीला ही है। हम दोनों फिर से न बिछड़ जाएं इसलिए हमने 11वीं में एक ही विषय रखने का निर्णय लिया था। मगर इसकी सबसे बड़ी बाधा थी गणित। मुझसे गणित के सवाल हल ही नहीं होते थे। अगर गणित में अच्छे अंक न आए, तो पूरा रिजल्ट खराब हो सकता था। अलग से ट्यूशन लगवाने के बाद भी मेरे लिए इसमें स्कोर कर पाना मुश्किल हो रहा था। तब अभिनव ने मुझे अपने साथ पढ़ाना शुरु किया। पता नहीं क्या था उसमें ऐसा, कि उसकी हर बात बहुत आराम से समझ आ जाती थी। मैं इसलिए अपनी बीएसएसी, एमएसएसी का श्रेय उसी को देती हूं। उसने न पढ़ाया होता, तो मैं दसवीं मुश्किल से पास कर पाती। 
बचपन और बात है, पर जवानी में अच्छी दोस्ती और अच्छे साथ की भी कीमत चुकानी पड़ती है। कीमत कभी-कभी बहुत मादक होती है। मेरे लिए कोई और था ही नहीं अभिनव के अलावा, ये सब जानते थे। मेरे घर वालों को मुझसे  ज्यादा यकीन था कि मैं अभिनव के अलावा किसी और के बारे में सोच ही नहीं सकती। इसलिए जब हमारे बीच कोई  छोटा मोटा झगड़ा होता है, तो उसे एकदम फालतू की चीज समझ कर सब इग्नोर कर देते। कॉलेज में मेरी सहेलियां मुझे अभिसारिका कहने लगी थीं। दोस्ती, प्यार, शादी और फिर एक बेटे के पेरेंट बने हम दोनों। लंबे अरसे तक मैं भूली ही रही कि मेरा नाम सारिका है, अभिसारिका नहीं। 
और याद भी कब आया जब गैस एजेंसी के लिए कागज तैयार किए जा रहे थे। 
गला रुंधने लगा, आंखों में शायद कोई समस्या हो गई है। बहुत-बहुत देर तक सूखी रहती हैं और फिर जलने लगती हैं। फ्रिज में से आई ड्रॉप निकाल कर उसकी  एक-एक बूंद दोनों आंखों में टपका ली है। कुछ देर आंखें ऊपर, गर्दन पीछे किए बैठी रही हूं। इन दिनों एक अजीब सी गंध उठने लगी है। अभी फिर वही हुआ है। एक जानी-पहचानी गंध नथुनों में भर गई है और सीने में हूक उठने लगी है। इन दिनों ये एक नई समस्या पैदा हो गई है। मैं अब भी उसी अवस्था में बैठी हूं। आई ड्रॉप की बूंदे आंखों के कोरों से बह आई हैं। अब नहीं आएगी नींद, अब बहुत देर हो चुकी।
उठकर बेटे के कमरे का दरवाज़ा खोलकर देखा, बेटा सो रहा है, वैसे ही औंधे मुंह, दाईं टांग को आधा मोड़कर जैसे अभिनव साेया करता था। नाक-नक्शा और कद काठी में ही नहीं, आदतों में भी पूरा अभिनव ही है। बहुत वक्त लगा है इसे बड़ा होने में, एक-एक दिन बरस की तरह बीता है। 
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दिन बीत जाता है, वह इतना मुश्किल नहीं लगता। रातें बोझ लगती हैं। इन्हें किसी तरह गायब किया जा सकता है क्या? 
नाश्ता बनाया, बेटे को स्कूल भेजा, खुद तैयार हुई और गैस एजेंसी की तरफ निकल पड़ी। अभिनव होता तो देखता कि मैं अब उतनी भी नाजुक नहीं रही। जितना वह मुझे समझा करता था। उसे क्या पता कि जब कोई संभालने वाला नहीं होता, तो मजबूत बन जाना ही एक किस्म की मजबूरी होती है। मां-पाप भी अब नहीं रहे।  
दूर से पेंसिल के जैसे दिखने वाले उस फाइटर प्लेन ने मेरी जिंदगी की सब खुशियां मिटा दीं। “इससे पहले कि मिग 21 वायुसेना के बेड़े से बाहर हो जाए, मुझे ये उड़ाना है। अगर मिग 21 ही नहीं उड़ाया, तो एयरफोर्स ज्वॉइन करने का क्या फायदा”, तुम कहते थे न। मैं खुश हूं कि तुमने बरसों से देखा अपना सपना पूरा किया। पर वापस तो आना चाहिए था न। हम साथ-साथ जश्न मनाते उस कामयाबी का। आंखें फिर सूखकर जलने लगी हैं। मैं टेबल की दराज में आई ड्रॉप ढूंढने लगती हूं। मेरे चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आई हैं, ऐसे कि जैसे अभी मुंह पर छींटें मारे हों। उफ्फ कितनी गर्मी है। मुझे परेशान देख राजू ने एसी चालू कर दिया है। आज भूल गया होगा, वरना मेरे आने से पहले ही वह एसी चालू कर कमरा ठंंडा कर देता है। पुराना फ्रिज खराब हो गया, यहां के लिए एक नया फ्रिज खरीदना पड़ेगा। आजकल गर्मी भी बहुत बढ़ गई है। आई ड्रॉप्स डालने के बाद भी आंखों में ठंडक नही पड़ी। ठंडे पानी के छींटे मारकर मैंने खुद को तरोताज़ा करने की कोशिश की है। काम शुरू करना चाहिए, बहुत देर हो गई।
नीली वर्दी में सामने अभिनव मुस्कुरा रहा है। दफ्तर में काम करने वाले राजू ने गेंदा के फूलों की ताज़ी माला मेरी टेबल पर एक थाली में सजाकर रख दी है। घर से हम साथ-साथ ही चलते हैं पर यहां पहुंचकर अभिनव फिर से मिल जाता है। मैंने पुरानी माला उतार कर तस्वीर पर नई माला चढ़ा दी है। अगरबत्ती जलाकर उसकी तस्वीर के सामने रख दी है। पुरानी रसीदें, नई बुकिंग की पर्चियां पलटते हुए मेरा नया दिन शुरु हो गया है। अगरबत्ती की सुगंध से मेरा पूरा दफ्तर भर गया है। मैंने लंबी सांस खींचकर इस गंध को उस गंध से मिलाने की कोशिश की है। न ! ये वो गंध नहीं है। ये तो मोगरे की महक है।
क्या आज दूकान पर जाकर कोशिश करूं? मैंने अपने आप से ही सवाल किया है। डॉ सृष्टि रॉय ने कहा है कि एक बार इसे भी आजमा कर देख लेना चाहिए। सृष्टि मेरी थेरेपिस्ट, काउंसलर और दोस्त। अब वही एक दोस्त बची है जीवन में। कॉलेज के पुराने दोस्तों के वाट्सएप ग्रुप को भी मैंने म्यूट कर दिया है। बातों, मुलाकातों में मेरा सबसे प्यारा दोस्त गायब होता है, तब ऐसे ग्रुप में जुड़ना खुद को और परेशान करना है। सृष्टि से मैं अभिनव के जाने के बाद अपने इलाज के दौरान मिली थी। उसके साथ ऐसी कोई साझा याद नहीं है, जिसमें अभिनव शामिल रहा हो। इसलिए उससे बात करना अब सबसे कम तकलीफदेह होता है। 
मैंने मोबाइल निकाल कर सृष्टि को फोन मिलाया है, “हैलो, सृष्टि, क्या आप उस दुकान का पता वाट्सएप कर देंगी? मैंने कहीं नोट तो किया था पर भूल गई।”, मैंने झूठमूठ बहाना बनाया, जबकि अब तक मैं खुद को इसके लिए तैयार ही नहीं कर पाई थी। 
डॉ सृष्टि ने तुरंत ही वह पता भेज दिया है। आज लंच के बाद निकल जाऊंगी, सोचती हूं। नहीं थोड़ा पहले निकलना चाहिए, ताकि शौर्य के घर पहुंचने से पहले मैं घर पहुंच सकूं। हां, अभी निकल जाती हूं अगले एक घंटे तक। सभी डिलीवरी बाॅयज को बुलाकर आज दिन भर की पर्चियां उनके हवाले करके मैं निकल पड़ी हूं। 
खान मार्केट की उस अनजानी दूकान की तरफ, जो शायद मुझे उसे गंध की बेचैनी से राहत दे सके। 
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कितना मुश्किल होता है उसे ढूंढना, जिसे ढूंढते हुए आप चाहते हैं कि कोई आपको न देखे। मेरा मन हुआ कि मैं कोई बुरका ओढ़ लूं। ताकि कोई यह पहचान न पाए कि असल में मैं कौन हूं। ये जगह मेरे घर और दफ्तर से बीसीयों किलोमीटर दूर है, फिर भी गुजरता हुआ हर व्यक्ति ऐसा लगता है कि मुझे पहचान लेगा। गाड़ी पार्किंग में लगाते वक्त भी मैं मुंह छुपाने की कोशिश करती रही। पर्स से मोबाइल निकाल कर दोबारा सृष्टि को मैसेज किया, “आप प्लीज उसकी लोकेशन भेज दीजिए।’’ 
दो मिनट रुकने का कहकर सृष्टि ने अगले ही मैसेज में लोकेशन भेज दी है। अब लोकेशन के सहारे दूकान तक पहुंचना ज्यादा सुविधाजनक हो गया है। कदम दर कदम फासला तय करते हुए मैं कांच की अलमारियों वाली उस छोटी पर भव्य दूकान पर पहुंच गई हूं। बहुत कम उम्र का एक युवा जोड़ा दूकान पर मौजूद है। मैंने सृष्टि का मैसेज वहां खड़ी युवती को दिखाया है। उसे पढ़कर एक छोटी सी मुस्कान के साथ वह मुझे कांच की दरमियानी दीवार के दूसरी तरफ ले गई है। मेरे चेहरे के हावभाव देखकर शायद उसे अंदाजा हो गया है कि मेरी यहां तक कि यात्रा कितनी जटिल और असहज रही है। 
कई छोटे-बड़े डिब्बे खोलते हुए वह बता रही है कि देखिए सभी के साथ एक मैन्युअल है, जिसमें इस्तेमाल का तरीका और सावधानियां लिखी हैं। आप बिल्कुल मत घबराइए, ये पूरी तरह सेफ हैं। आप इन्हें बि्स्तर पर या शॉवर में कहीं भी इस्तेमाल कर सकती हैं। एक-एक कर उसने पैकेट खोलने शुरू किए हैं। कुछ अबूझ छोटे टूल्स के बाद, उसने जो पैकेट खोला उससे मेरे चेहरे पर पसीने के सोते फूट पड़े हैं। मेरी घबराहट लगातार बढ़ गई है। बैटरी से चलने वाला वह शिथिल कृत्रिम पुरुष जननांग मुझे खींचकर वापस बाड़मेर ले गया है। जहां मिग 21 की दुर्घटना में अभिनव के परखच्चे उड़ गए थे। उसके शरीर के अंगों को एक कॉफिन में भरकर हमें दिया गया था। मैं चीख पड़ी हूं, अभिनव के टूटे-बिखरे अंगों को देखकर। मेरा जीवन, मेरे सपने, मेरे रंग, मेरी गंध सब चिथड़े-चिथड़े हो गए हैं। 
वह युवती दौड़ कर पानी ले आई है, पर पानी का रंग वैसा ही काला-लाल है, जैसा हादसे की तस्वीरों का था। वह मेरी पीठ सहला रही है, “मैम, मैम, प्लीज रिलैक्स। क्या हुआ? प्लीज हेल्प मी, मैं कैसे आपकी मदद करूं।”
मेरा सेल फोन बजने लगा है, फोन भी उसी युवती ने उठाया। और सब बता रही है, मेरा पर्स खंगाल कर उसने दवा का एक पत्ता निकाला है। और गोली मेरी जुबान पर रख दी है। मैंने बिना पानी के ही उसे निगल लिया है। 
कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि वह युवा जोड़ा बहुत ज्यादा घबराया हुआ है। मेरे लिए ये एंग्जाइटी अटैक भी जीवन का अवांछनीय हिस्सा हो गए हैं। वे दोनों शायद इस सब के अभ्यस्त नहीं रहे होंगे। कोई भी कहां होता है अप्रत्याशित घटनाओं का अभ्यस्त। खिलौने बेचना और बात है, मन संभालना और बात। ये काम तो बस डॉ सृष्टि जैसे चंद लोग ही कर पाते हैं। एक अदद व्यक्ति के सामने पूरा बाजार अक्षम, अनावश्यक साबित हो सकता है। युवती ने बताया कि मैं जब एंग्जाइटी अटैक की स्थिति में थी तब डॉ सृष्टि का ही फोन आया था, जिन्होंने उन्हें मेरे पर्स से दवा निकाल कर देने को कहा। 
थैंक्स डॉ सृष्टि, मैं कैसे आपका शुक्रियादा करूं , मन ही मन मैं सोच रही हूं और अपने आप पर लज्जित हो रही हूं कि मैंने क्यों यहां आकर ये अजीब स्थिति पैदा की। 
“अब आप ठीक हैं मैम?” उस युवती ने पूछा है।  
“यस”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया। 
“आप कुछ लेंगी? चाय, कॉफी, कोल्ड ड्रिंक?” 
“हां, यहां कहीं पाइनेप्पल जूस मिलेगा?” 
“जी, मैं अभी मंगवा देती हूं।” 
युवक ने किसी को फोन करके पाइनेप्पल जूस लाने को कहा है और वह युवती अब भी मुझे और खुद को सहज करने की काेशिश कर रही है। 
मुझे यह सब नहीं करना चाहिए था। मैं फिर ग्लानि से भर गई हूं। 
जूस पीने के बाद मैंने खुद को बेहतर महसूस किया है, अब चलना चाहिए। 
“आर यू ओके? क्या आप अकेले चली जाएंगी? हम कैब मंगवा दें आपके लिए?”, युवती ने मुझे निकलते हुए देखकर लगातार कई प्रश्न किए हैं। 
“यस, डोंट वरी। मैं चली जाऊंगी।” 
“ये हमारा कार्ड है, आप घर पहुंचकर प्लीज एक बार इन्फोर्म कर दीजिएगा। हमें फिक्र रहेगी आपकी।”
“ओके”,  मैंने छोटे से जवाब के साथ वह कार्ड लेकर पर्स में रख लिया है। 
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शुक्र है कि मैं शौर्य के आने से पहले घर पहुंच गई हूं। मेरा चेहरा और आंखें देखकर वह समझ जाता है कि आज मुझे फिर से एंग्जाइटी अटैक पड़ा है। मैं इस तरह उसे परेशान नहीं करना चाहती।
मेरे चेहरे पर तनाव की वे पुरानी रेखाएं न पहचानी जाएं इसके लिए मैंने होम फेशियल बुक किया है। भूख यूं भी नहीं है, कह दूंगी बेटे से कि वह अकेले खा ले, मुझे फेशियल लेना है। मुझे याद आया कि मुझे उस युवती को फोन करके अपने पहुंचने की सूचना देनी थी। मेरी वजह से आज वे दोनों बहुत परेशान हुए हैं, मुझे उन्हें तनावमुक्त करना चाहिए। 
कार्ड निकालकर मैंने मोबाइल पर उनका नंबर मिलाया है। “मैं ठीक हूं और घर पहुंच गई हूं।’ बस इतना कहकर फोन काट दिया। 
अधिक बात करने की हिम्मत नहीं थी। मैं धीमे कदमों से अभिनव की अलमारी की तरफ बढ़ रही हूं। उसकी चीजों को छूना मुझे रिलैक्स करता है। 
“जिसे तुम रिलैक्सिंग समझ रही हो, असल में वही अब तुम्हारा स्ट्रेस भी है। तुम्हें इसकी आदत पड़ गई है। इससे बाहर निकलो।” डॉ सृष्टि कहती हैं। 
“हूं, जरूरी तो नहीं कि कोई व्यक्ति हर बात सही ही कहे”, मैं बरबस चले आए उसके ख्याल को झटक देती हूं। इस समय डॉ सृष्टि से बात करने का भी मन नहीं है। 
जल्दी ही वह लड़की भी आ गई है, फेशियल के लिए। मैं उसे चाय देकर थोड़ी देर बैठने के लिए कहती हूं। फेशियल के लिए बैठने से पहले मैंने टेबल पर शौर्य के लिए खाना लगाकर ढक दिया है। उसे कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए। उसके पास वक्त ही कितना होता है। स्कूल से लौटकर, ट्यूशन और फिर शाम को बेडमिंटन के लिए जाना। 
इससे पहले कि शौर्य आए, मुझे अपने चेहरे के सब फीके रंग ढक लेने हैं, रंग-बिरंगी चिकनी क्रीमों और उबटन के साथ। चलिए अब हम चलते हैं, मैं ब्यूटीशियन को अपने साथ अपने कमरे में लिए चलती हूं। यही एक रिलैक्सिंग चेयर पर मुझे बैठाकर उसने अपना सारा पिटारा खोल लिया है और अपनी अभ्यस्त उंगलियों के साथ चेहरे पर एक रिद्म में थिरकने लगी है। 
एक-एक कर कई तरह की खुशबुओं वाली क्रीम उसने मेरे चेहरे पर थोपी हैं उन्हें सौम्य हाथों से मला है। पर एक भी क्रीम में वह गंध नहीं है, जाे इन दिनों मुझे बार-बार परेशान करने लगी है। 
आप एसी का टेंपरेचर थोड़ा बढ़ा देंगी? मुझे ठंड लगने लगी है, रिमोट वहां साइड टेबल पर रखा है। 
यस मैम, अपने हाथों को साफ करते हुए उसने एसी का तापमान थोड़ा बढ़ाते हुए पूछा है, 20 ठीक है? 
नहीं 21 कर दो। और हो सके तो वो छोटा कंबल भी दे दो।” 
“आप ठीक हैं न? आपको फीवर तो नहीं?”
“नो, आई एम ओके। बस यूं ही कभी-कभी, आपका फेशियल बहुत रिलैक्सिंग है। तो कूल हो गई।”
शौर्य आपने खाना खा लिया? दूसरे कमरे से सुनाई  देते टीवी के शोर के बाद मैंने पूछा है  
जी मम्मा, खा रहा हूं। 
ओके 
आप प्लीज कैरी ऑन कीजिए। 
बस लास्ट स्टेप है। इसके बाद मैं पैक लगा दूंगी। आप चाहें तो सो सकती हैं उसके बाद। 
ठीक है, आप चाहें तो जा सकती हैं, चेहरा मैं बाद में धो लूंगी। पेमेंट आप कैश लेंगी या डिजिटल पेमेंट कर दूं? 
जैसा आपको ठीक लगे, वैसे डिजिटल ज्यादा सेफ रहता है। बार-बार नोटों को टच नहीं करना पड़ता। 
मैं मुस्कुरा दी हूं। “हां हमें अपने टच को बहुत संभाल कर रखना चाहिए। स्पर्श की भी अपनी स्मृतियां होती हैं और ये संवेदित होती हैं।” 
पेमेंट के बाद उसने फेशियल के आखिरी स्टेप के रूप में फेस पैक लगाया है। फेस मिस्ट की एक छोटी सी बोतल वह मुझे कॉम्प्लीमेंटरी दे गई है कि चेहरा धोने के बाद मैं चाहूं तो इसे लगा लूं। यह मुझे और ज्यादा रिलैक्स करेगा। आंखों पर कूलिंग आई पैड रखे मैं रिलैक्सिंग चेयर पर ही सो गई हूं। 
  
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दिन सहज होते हैं, दिन बीत जाते  हैं। रात में फिर मेरी नींद उचट गई है। नाइट लैंप की उसी नीली रोशनी के साथ कमरा फिर उनींदा हो गया है। 
मैं अभिनव की अलमारी की तरफ चल पड़ी हूं। अभिनव की तस्वीरें, उसकी स्कूल-कॉलेज की ट्रॉफियां, उसकी कैप, उसकी वर्दी, सब वैसे के वैसे हैं, मोहक और ताज़ा। मैं उन सब को जैसे-जैसे छू रही फिर वही हूक उठने लगी है, वही गंध मेरे भीतर उतरती जा रही है। 
उफ्फ! ये गंध, कितना बेचैन कर देती है! इन दिनों तो और भी ज्यादा !
योगिता यादव

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3 टिप्पणी

  1. हमने पढ़ा इस कहानी को योगिता जी! कहानी दुखान्त है।
    दर्द महसूस हुआ।
    ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी सहज में सहेजना बहुत मुश्किल होता है।
    पर अगर जीने का कोई सहारा हो,तो अपने को संभालने का प्रयास करना चाहिए।
    हालांकि मुश्किल होता है पर नामुमकिन नहीं।
    यह बचपन का प्यार था इसलिए यह कहना भी उपयुक्त नहीं लग रहा कि जब इतनी जल्दी साथ छूट गया था तो दूसरी शादी की जा सकती थी। जब कभी ख्याल ही नहीं है या किसी दूसरे का तो फिर अब क्या कहा जाए।
    बड़ी मार मार्मिक कहानी लगी।
    बहुत-बहुत बधाई आपको इस कहानी के लिए।

  2. पढ़ते हुए आँख भर भर आ रही थी ..अपनी बुनावट में बहुत भावप्रवण कहानी ..

  3. एंजाइटी अटैक तक पहुँचना ही जीवन की कठिनता अभिव्यक्त कर देता है।हर कहानी किसी न किसी के जीवन का सच होता है सोच कर मन भर आया।
    बहुत मुश्किल है अपने प्यार के बगैर रहना।एक मर्मस्पर्शी कहानी हेतु साधुवाद ।

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